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________________ श्रमण संस्कृति की ध्वजा सोनगढ़ में फहर उठी सोनगढ़, २६ जनवरी। मुनिपुंगव श्री सुधासागर जी कोटा से विहार करते हुए गुजरात के सिद्धतीर्थ पावागढ़ पहुँचे । वहाँ लव-कुश की निर्वाण भूमि पर मुनिश्री ने रात्रि प्रतिमायोग धारण किया। शाम को ७ बजे ध्यान में बैठे और प्रातः ७ बजे तक ध्यान किया । तदउपरान्त धोधा में समुद्र के किनारे ध्यान लगाया। यह वही समुद्र का किनारा था जहाँ कोटीभठ राजा श्रीपाल समुद्र तैरकर आये थे और इसी धोधा जैनमन्दिर में शरण ली थी । मुनिसंघ ने विहार करते हुए २६ जनवरी गणतंत्र दिवस के दिन सोनगढ़ में मंगलप्रवेश किया। मुनिश्री की जय जयकारों से सोनगढ़ का आकाश गूंज उठा। सैंकड़ों श्रावक-श्राविकाओं के साथ जुलूस ने प्रवेश किया। सोनगढ़ के प्रकट इतिहास में यह पहले दिगम्बर जैन साधु का इतने उत्साह एवं श्रद्धापूर्वक प्रवेश कराया गया और श्रमण संस्कृति की ध्वजा गगन को छू उठी। ऐलक सिद्धान्तसागर जी महाराज, क्षुल्लक गम्भीरसागर जी एवं क्षुल्लक धैर्यसागर जी एवं ब्र. संजय भैया के पीछे सैकड़ों की संख्या में श्रावक समूह चल रहा था व नारे लगाये जा रहे थे : जिसका कोई गुरु नहीं, उसका जीवन शुरु नहीं । माँ का लाल कैसा हो, विद्यासागर जी जैसा हो ॥ गुरु का चेला कैसा हो, सुधासागर जी जैसा हो । प्रवेश के उपरान्त मुनिसंघ जब आहार चर्या पर निकले तो वहाँ के श्रावक गणों ने भी श्रद्धापूर्वक आहार चर्या को देखा और समझा तथा सोनगढ़, कोटा, जयपुर, सुदर्शनोदय, आंवा, बिजौलिया, बागीदौरा, अलोद, कलिंजर, किशनगढ़-मदनगंज, अजमेर, रेनवाल, सीकर व भावनगर, ईडर, अहमदाबाद, सूरत के श्रावकों ने आहार दान का पुण्य अर्जित किया । मुनिश्री ने सोनगढ़ के प्रांगण में सामायिक की। उन्होंने सोनगढ़ के प्रमुख स्थानों का निरीक्षण किया । विहार पूर्व मुनि श्री ने तत्वचर्चा करते हुए कहा कि अनादि निधन प्रवाहमान जैन धर्म श्रमण संस्कृति प्रधान धर्म की श्रमण परम्परा जैन संस्कृति का मूल प्रवाह है, जो आज भी अबाधित रूप से प्रवाहित है और पंचम काल के अन्तिम समय तक प्रवाहमान रहेगा। दिगम्बर मुनिचर्या आज भी चतुर्थकालीन आदर्शता को लिए हुए है। लोगों को यह भ्रम है कि पंचम काल में मुनिचर्या की आदर्शिता नहीं है। सोनगढ़ के मूल प्रेरक कान जी भाई भी इस भ्रम से भ्रमित थे । यदि उन्होंने आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के दर्शन किये होते तो उनका यह भ्रम दूर हो जाता । अपनी चर्चा को आगे बढ़ाते हुए मुनिश्री ने कहा कि मुझे समझ में नहीं आता कि आचार्य कुन्दकुन्द साहित्य का निरन्तर स्वाध्याय करने वाले लोग उनकी ही वाणी पर सन्देह क्यों करते हैं। जबकि आचार्य श्री कुन्द - कुन्द देव अष्टपाहुड़ ग्रन्थ में लिखा है 'अज्ज वितिरपण सुद्धा अप्पा झांफदि लहदि इदतं । लोयंतिक देवत्व तन्थ चुआ जिन्मदि जायते ॥ ( मोक्षपाहुड) ' गाथा के माध्यम से स्पष्ट किया कि पंचम काल में रत्नत्रय पर्व धारी मुनि होते हैं, तब उनकी वाणी पर विश्वास क्यों नहीं किया जाता है। मुनिश्री ने आगे कहा कि आत्मा अनुभव एवं शुद्धोपयोग प्राप्त करने के लिए दिगम्बर मुनि व्रत अंगीकार करना अनिवार्य है। मुनिश्री ने कहा कि कोई भी जीव अपने को अथवा किसी भावी तीर्थंकर होने की घोषणा करता है, वह सब निराधार मानना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only श्रावक पदयात्रा संघ हुकम चन्द्र जैन 'काका' कोटा (राजस्थान ) www.jainelibrary.org
SR No.524282
Book TitleJinabhashita 2004 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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