Book Title: Jinabhashita 2002 07
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनभाषित वीर निर्वाण सं. 2528 आचार्य श्री विद्यासागर जी का 35 वाँ मुनिदीक्षा दिवस आषाढ़ शुक्ल पञ्चमी आषाढ़,वि.स. 2059 जुलाई 2002 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवदर्शन आचार्यश्री विद्यासागर जी देव की आराधना मानव को देव बना देती है। लोक में कहावत प्रसिद्ध है कि दीप से दीप जलता है। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि आप लोग देव बनना चाहते हैं, अरहंत परमेष्ठी बनना चाहते हैं, तो उसके लिए आत्मारूपी उपादान की सँभाल करो। हृदय की शूद्धि करो तब अन्य निमित्त बनेंगे। कुन्द-कुन्द स्वामी ने प्रवचनसार में लिखा है जो जाणदि अरहंतं दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं । सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं ॥ जो द्रव्य गुण और पर्याय के माध्यम से अरहंत को जानता है, वह आत्मा को जानता है और जो आत्मा को जानता है उसका मोह नियम से विनाश को प्राप्त होता है। संसार का प्रत्येक पदार्थ त्रिरूप है अर्थात् द्रव्य, गुण और पर्याय रूप है। अन्य पदार्थों के समान अरहन्त परमेष्ठी भी त्रिकात्मक हैं। उनके ज्ञाता द्रष्टा स्वभाव वाले जीवद्रव्य. चराचर को जानने वाले केवलज्ञानादि गुण और अन्तिम विभाव व्यंजन पर्याय को जो जानता है और साथ में अपने द्रव्य, गुण, पर्याय की तुलना करता है वह अवश्य ही आत्मा को जानता है और जिसने शुद्ध-बुद्ध अर्थात वीतराग सर्वज्ञ स्वभाव वाले आत्मा को जान लिया, वह रागादि विकारों को भी स्वीकृत नहीं कर सकता।। साक्षात् अरहंत तो आजकल उपलब्ध नहीं है, पर स्थापना निक्षेप के द्वारा जिनकी स्थापना की जाती है, वे अरहंत विद्यमान है। अरहंत की प्रतिमा एक दर्पण है। उसमें अपने आपको देखकर अपनी कालिमा को दूर करने का प्रयत्न करो। कोई भी व्यक्ति दर्पण नहीं देखता, परन्तु दर्पण के द्वारा अपने मुख को देखता है, उसमें लगी हुई कलिमा को छुटाता है। णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं' यहाँ अरहंत परमेष्ठी को पहले नमस्कार किया है और सिद्ध परमेष्ठी को पश्चात्, जबकि अरहंत परमेष्ठी चार घातिया कर्मों से सहित होने के कारण संसारी हैं और सिद्ध परमेष्ठी अष्टकर्म से रहित होने के कारण मुक्त हैं। इतना स्पष्ट अन्तर होते हुए भी अरहन्त को पहले नमस्कार करने का प्रयोजन यह है कि उनसे हमें मंगल की प्राप्ति होती है, सिद्ध परमेष्ठी के अस्तित्व का पता भी हमें अरहन्त से मिलता है, इसलिये 'अरहंता मंगलं' के पश्चात् 'सिद्धा मंगलं' कहा जाता है। अरहन्त उस काँच के समान हैं जिसके पीछे लाल-लाल मसाला लगा हुआ है। उस मसाले के कारण ही दर्पण में हमें हमारा मुख दिखता है। सिद्धपरमेष्ठी उस काँच के समान हैं जिस पर कोई मसाला नहीं लगा है, सब कुछ आरपार हो जाता है। दूसरा दृष्टान्त-सुवर्ण यदि शुद्ध है तो कोमलता के कारण उससे आभूषण नहीं बनते ,परन्तु जिस सुवर्ण में थोड़ी अशुद्धता है, किंचिन्मात्र तामा आदि जिसमें मिला है, उससे आभूषण बनते हैं और ये टिकाऊ रहते हैं । सिद्ध परमेष्ठी शुद्ध सुवर्ण के समान हैं अत: उनसे किसी को उपदेशादि नहीं मिलता। अरहन्त अशुद्ध सुवर्ण के समान हैं, उनसे सबको उपदेशादि मिलता है। यहाँ अशद्धता का सम्बन्ध अपूज्यता के साथ नहीं लगाना। इतनी अशुद्धता के रहने पर भी अरहन्त शत इन्द्रों के द्वारा पूज्य होते हैं। अरहंत भगवान् की विशेषता वीतरागता और सर्वज्ञता से है। सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति वीतराग और सर्वज्ञ की उपासना से ही हो सकती है, रागी और अल्पज्ञानी जीवों की उपासना से नहीं। अरहंत की प्रतिमा को प्रतिष्ठा शास्त्र के अनुसार अरहंत माना जाता है और उसके दर्शन करने से सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। शास्त्र के द्वारा उसी जीव को आत्मा का ज्ञान हो सकता है जो बहरा नहीं है तथा पढ़-लिख सकता है, परन्तु अरहन्त की प्रतिमा का दर्शन तो प्रत्येक मनुष्य के लिये सम्यक्त्व की प्राप्ति में सहायक हो सकता है। अरहंत का दर्शन दृश्य काव्य के समान तत्काल आनंद देने वाला होता है। यह तो रही उपशम और क्षयोपशम सम्यक्त्व की बात, परन्तु क्षायिक सम्यग्दर्शन तो साक्षात् जिनेन्द्र के पादमूल का आश्रय लिये बिना हो नहीं सकता। पूज्यपाद स्वामी ने सवार्थसिद्धि के प्रारंभ में निर्ग्रन्थाचार्य का वर्णन करते हुए लिखा है 'अवाग्विसर्ग वपुषा मोक्षमार्ग निरूपयन्तं' अर्थात् वचन बोले बिना ही जो शरीर मात्र से मोक्षमार्ग का निरूपण कर रहे थे। वंदना अर्थात् देवस्तुति मुनि के षडावश्यकों में सम्मिलित है। उसे मुनि अवश्य ही करते हैं । समन्तभद्र स्वामी ने कहा है स्तुतिः स्तोतुः साधो: कुशलपरिणामाय स तदा, भवेन्मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सतः॥ अर्थात् जिसकी स्तुति करना है वह सामने हो भी और नहीं भी हो, परन्तु स्तुति करने वाले साधु को उसके फल की प्राप्ति अवश्य ही होती है। वंदना या दर्शन करते समय इतना ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि वंदना का प्रयोजन भोग की प्राप्ति न हो, किन्तु कर्म क्षय हो। अभव्य जीव भोग के निमित्त धर्म करता है, परन्तु भव्य प्राणी कर्म क्षय के लिए धर्म करता है। कितना अन्तर है दोनों में, एक का लक्ष्य संसार है और एक का लक्ष्य मुक्ति। ज्ञानी जीव भगवान् के दर्शन करते समय कहता हैगुणवंत प्रभो, तुम हम सम, परन्तु तुमसे हम भिन्नतम अर्थात् हे प्रभो! द्रव्य दृष्टि से हम और आप समान हैं परन्तु पर्याय दृष्टि से हम आपसे सर्वदा भिन्न हैं। आपका आलंबन लेकर हम आपके समान बनना चाहते हैं। अरहंत तो निमित्त भाव हैं, कार्य के उपादान आप स्वयं हैं। अपनी शक्ति की ओर दृष्टिपात करो।। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि. नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC डाक पंजीयन क्र.-म.प्र./भोपाल/588/2002 जुलाई 2002 जिनभाषित मासिक वर्ष 1, अङ्क सम्पादक डॉ. रतनचन्द्र जैन अन्तस्तत्त्व पृष्ठ कार्यालय . 137, आराधना नगर, भोपाल-462003 (म.प्र.) फोन नं. 0755-776666 प्रवचन . देवदर्शन : आचार्य श्री विद्यासागर जी आवरण पृष्ठ 2 आपके पत्र : धन्यवाद . सम्पादकीय : मूकमाटी : एक उत्कृष्ट महाकाव्य No सहयोगी सम्पादक पं. मूलचन्द्र लुहाड़िया पं. रतनलाल बैनाड़ा डॉ.शीतलचन्द्र जैन डॉ. श्रेयांस कुमार जैन प्रो. वृषभ प्रसाद जैन डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती' लेख 5 शिरोमणि संरक्षक श्री रतनलाल कँवरीलाल पाटनी (मे. आर.के.मार्बल्स लि.) किशनगढ़ (राज.) श्री गणेश राणा, जयपुर द्रव्य-औदार्य श्री गणेशप्रसाद राणा जयपुर .हिन्दुत्व और जैन समाज : अजितप्रसाद जैन • अहिंसा पर हमला : जे.के. संघवी • आत्मान्वेषी : आचार्य श्री विद्यासागर : मुनि श्री क्षमासागर 11 • रत्नत्रय के प्रकाशपुञ्ज : डॉ. श्रेयांसकुमार जैन 13 •साहित्य जगत् के ज्योतिर्मय नक्षत्र आचार्य श्री विद्यासागर : डॉ. के.एल. जैन 15 • आचार्य श्री विद्यासागर जी के साहित्य पर हुए एवं हो रहे शोधकार्य : डॉ. शीतलचन्द्र जैन 17 • पंचास्तिकाय की 111वीं गाथा प्रक्षिप्त है : स्व. पं. मिलाप चन्द्र जी कटारिया 21 .कविवर सन्तलाल और उनका सिद्धचक्र विधान : डॉ. कपूरचन्द्र जैन 23 • सप्त व्यसन त्याग की वैज्ञानिक अवधारणा : प्राचार्य निहालचन्द्र जैन 25 • पूजा : आचार्य श्री विद्यासागर की पूजा : मुनि श्री योगसागर 20 जिज्ञासा-समाधान : पं. रतनलाल बैनाड़ा 27 .व्यंग्य : खेल न खेलने का दुःख : शिखरचन्द्र जैन 29 .समाचार 3, 28, 30-32 प्रकाशक सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) फोन : 0562-351428,352278 सदस्यता शुल्क शिरोमणि संरक्षक 5,00,000 रु. परम संरक्षक 51,000 रु. संरक्षक 5,000 रु. आजीवन 500 रु. वार्षिक 100 रु. एक प्रति 10 रु. सदस्यता शुल्क प्रकाशक को भेजें। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपके पत्र, धन्यवाद : सुझाव शिरोधार्य आपके संपादकीय पर हार्दिक बधाई । मैं अपने विचार आपको | समझकर किया जाता है, उसमें उतनी ही कुशलता एवं यथार्थता प्रेषित कर रहा हूँ, उचित लगे तो प्रकाशित करने की कृपा करें। | निहित होती है। जब किसी क्रिया को मस्तिष्क स्वीकार कर लेता पूजा, भक्ति का एक रूप है। प्रभु के गुणस्तवन का एक | है, तो मन का उससे साम्य हो जाता है, तभी उस कार्य के प्रति माध्यम है। जैनदर्शन पूर्णत: कर्म सिद्धान्त पर आश्रित है। आचार्यों | उसकी आस्था सन्देह से परे निर्विवाद सत्य के रूप में स्थापित हो ने आस्रव के संवर हेतु सामान्यजन को बड़े ही सुगम मार्ग सुझाये जाती है। सामाजिक संगठन की सुदृढ़ता के लिये विचारात्मक हैं। जप एवं पूजा में प्रत्यक्षत: मन की गति का अपेक्षतः निरोध समन्वय एवं परस्पर सामंजस्य परम आवश्यक है। एतदर्थ तथा परोक्ष रूप में जीवन के परम लक्ष्य मोक्ष के मार्ग में अग्रसर जहाँ जिस पद्धति या आम्नाय को मान्यता प्राप्त है, वहाँ तदनुरूप होने में सहायक जो गुण आवश्यक हैं, उनका स्मरण निहित है।। ही व्यवहार करें तथा उनके विचारों को आदर व सम्मान पूजा की पद्धति क्या हो, यह विद्वानों के विवाद एवं प्रदान करें। आलोचना या विवेचना करने से विवाद उत्पन्न पांडित्य का विषय तो हो सकता है, किन्तु सामान्य पूजक के लिये | होंगे तथा मन में मलिनता फैलेगी। मेरी राय में तो अपनी परम्परा एवं आस्था ही उसकी प्रेरक होती है, जहाँ उसकी भावनायें मान्यता एवं श्रद्धानुसार हम स्वयं आचरण करें तथा उतनी ही एवं मान्यताएँ प्रगाढ़ता से जुड़ी होती हैं। हर व्यक्ति का अपनी | स्वतंत्रतापूर्वक अन्यों को भी उनकी परम्परानुसार व्यवहार शैली एवं कार्यपद्धति के प्रति आग्रह होता है, जो धार्मिक क्रियाओं करने दें। हाँ! क्षण-प्रतिक्षण सत्यान्वेषी बनकर अपने लक्ष्य में भी स्पष्ट परिलक्षित होता है। जब भी किसी आम्नाय, पद्धति | की प्राप्ति में प्रयासरत रहें। अथवा कर्मकाण्ड का विरोध या हठीला आग्रह प्रबल होता है, पद्मश्री बाबूलाल पाटोदी तब प्रतिक्रिया स्वरूप किसी विशेष वर्ग की भावनाओं को ठेस पूर्व विधायक म.प्र. 64/3, मल्हारगंज, इन्दौर-2, पहुँचती है। मन में आक्रोश उत्पन्न होता है। कहीं-कहीं तो यह Thave received every issue of 'जिनभाषित' the संघर्ष का रूप भी ले लेता है। संघर्ष एवं किसी को भी शारीरिक content of which reflects the true sense of its title. I या मानसिक आघात पहुँचाना स्पष्ट ही हिंसा का रूप है। ऐसी | had written earlier a letter expressing my स्थिति अहिंसा धर्म के परिपालकों के लिये कदापि भी उचित नहीं | appreciation of the same and also my gratitute and कही जा सकती। सहज मानवीय गुणों के भी विपरीत है ऐसा thankfulness for your kindness in sending the same, and I do not know wheather the same has reached आचरण। सामान्य सिद्धांत है कि जैसे व्यवहार की अपेक्षा आप you or not. दूसरों से करते हैं, वैसा ही व्यवहार स्वयं भी अन्यों से करें। Every article that has appeared in this क्रिया एवं पद्धति प्रत्येक का निजी विषय है। इसमें न तो admirable magazine gives insight into the subject हस्तक्षेप उचित है और न ही उपहास । सभी लोग विभिन्न उद्देश्यों related to our religion and society. Presently I have एवं संकल्पों की पूर्ति के लिये व्रत, आराधना एवं साधना करते great appreciation for the article'दोनों पूजापद्धतियाँ आगम सम्मत' as the same is effective in bringing हैं। कुछ ही लोग हैं जो बिना समझे-जाने, देखा-देखी ही क्रिया harmony between बीसपन्थी and तेरहपन्थी. However करने लग जाते हैं। अज्ञानता, मूढ़ता या अविवेक के कारण भी in south, since ancient times the puja performed is पद्धतिभिन्नता संभव है। झूठे अहंकार तथा लोकभय के कारण भी akin to the puja of बीसपन्थी and there is no तेरहपन्थी लोग मन में इच्छा होने के उपरान्त भी किसी विद्वान से अपनी puja system. But now a days the pooja system current क्रिया का कारण या सम्यक पद्धति पुछने, समझने से कतराते हैं। There is opposed, or rather I should say, denigrated by the followers of Kanaji Panth and no such पूजापद्धति तो दूर, अनेक लोग तो यह भी नहीं जानते कि मंदिर harmony can be expected, because the latter do not क्यों जाते हैं? मंदिर जाकर दर्शन कैसे करें, क्या पाठ बोलें, कहाँ accept any such scriptural statement which goes खड़े हों अथवा बैठें, जाप कैसे दें आदि अनेक प्रश्न हैं, जिनके बारे | against their own views, and based on this issue में सभी लोग भली-भाँति नहीं जानते हैं और न ही संकोचवश वे cleavage and group-formation has been developed किसी से समझना या सीखना चाहते हैं? शनैः-शनैः, वे जैसा कर in every town where there is Jain Population, which रहे हैं, उसके प्रति उनकी आस्था एवं मान्यता दृढ़तर होती जाती है। in fact is a pathetic development. Thanking you M.D. Vasanth Raj उन्हें उनकी श्रद्धा से डिगा पाना असंभव जितना ही कठिन होता है। No. 86, 9th Cross, Naviluraste यह भी सत्य है कि जो कार्य बुद्धि और विवेकपूर्वक Kuvempunagara, Mysore-570023 2 जुलाई 2002 जिनभाषित - Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं जिनभाषित का नियमित पाठक हूँ। जिनभाषित जैन | व्यावहारिक उदाहरण प्रस्तुत नहीं कर सका तो हम विश्व के संस्कृति की सम्पूर्ण एवं उच्च कोटि की पत्रिका है। जैन संस्कृति | समक्ष इन सिद्धान्तों को प्रभावी ढंग से कैसे प्रस्तुत कर सकेंगे? के विविध व्यावहारिक एवं लोकोपयोगी पक्षों को समाहित कर | अब यह आवश्यक है कि हमारा आध्यात्मिक एवं सामाजिक आप प्रत्येक अंक को पूर्णता एवं भव्यता प्रदान करते है। नेतृत्व अपने विचार और चिंतन को नये आयाम दे, जैन धर्म के जिनभाषित मई, 2002 में प्रकाशित संपादकीय 'दोनों पूजा | शाश्वत एवं वैज्ञानिक सिद्धान्तों एवं मूल्यों को स्वयं आत्मसात् पद्धितियाँ आगम सम्मत' पढ़कर हार्दिक प्रसन्नता हुई। इस करने के जीवंत उदाहरण प्रस्तुत करे और पंथ का रूप लेते मतभेदों संपादकीय ने आगम के आधार पर समन्वयात्मक चिंतन के लिए को समाप्त करने के लिए अपनी साहसिक, सामयिक, प्रभावी एवं नए वस्तुनिष्ठ आयाम दिए हैं। हमारे आध्यात्मिक संतों और वरिष्ठ | समाज-उपयोगी सलाह दे। विद्वानों द्वारा जैन धर्म में अन्तर्निहित इसी प्रकार के समन्वयात्मक । मुझे विश्वास है कि आपके संपादकत्व में इसी प्रकार की बिन्दुओं का प्रचार-प्रसार किया जाना चाहिए। नीर-क्षीर के विवेक | विवेकपूर्ण एवं स्वस्थ परम्पराएँ स्थापित, पुष्पित एवं फलित होती से ओतप्रोत आपका यह संपादकीय अत्यधिक दूरदृष्टिपरक है।। रहेंगी। प्रत्येक गृहस्थ को अपनी भक्ति की अभिव्यक्ति के लिए सामाजिक सुरेश जैन, आई.ए.एस. रूप से स्वीकृत निम्नांकित दो पूजन पद्धतियाँ उपलब्ध हैं 30, निशात कॉलोनी, भोपाल, म.प्र. 1. सचित्त द्रव्यात्मक पूजापद्धति जिसमें पापबंध अल्प 'जिनभाषित' बराबर मिल रहा है। आपके द्वारा सम्पादित और पुण्य बन्ध अधिकतम होता है। 'जिनभाषित' में अच्छे विचार एवं समाचार आते हैं। पिछले अंक 2. अचित्त द्रव्यात्मक तेरहपन्थी पूजा विधि जिसमें पाप में आपने बीसपन्थ और तेरहपन्थ के सामंजस्य के बारे में बड़ा ही बन्ध अल्पतम और पुण्य बन्ध अधिकतम होता है। सुन्दर लेख लिखा है। सभी लोग इसको पढ़कर भ्रम दूर करेंगे अर्थात् दोनों पद्धतियों के द्वारा पूजन करने से पुण्य बंध तो | तथा आपस म भाईचार से रहगे। हारा पजन करने से पण्य तो | तथा आपस में भाईचारे से रहेंगे। वास्तव में पूजा पद्धति का भेद समान ही होता है केवल हिंसा एक में अल्प और दूसरी में कोई भेद नहीं है। जिसकी जैसी परम्परा है उसको उसी के द्वारा अल्पतम होती है। हम अपनी रुचि और अपने परिवार की धर्मवृद्धि करनी चाहिए। परम्परा के आधार पर किसी भी पद्धति से पूजन करने के महावीर प्रसाद जैन लालासवाला 3, देवीपुरा कोठी सीकर (राज.) लिए स्वतंत्र हैं। हम अपने विवेक के आधार पर अपनी पूजन अचानक आठ दिन पूर्व मन्दिर जी में पिछले वर्ष की माह पद्धति का चुनाव करें और किसी अन्य व्यक्ति द्वारा अपनाई मई की 'जिनभाषित' पत्रिका मेरी पुत्रवधू को मिली। वह मेरे जा रही पूजन पद्धति का किसी प्रकार से विरोध न करें। इस पढ़ने के लिए ले आयी। जिनभाषित' तो जिनभाषित ही है। बहुत ढंग से हम देश के समक्ष जैन धर्म के महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त अच्छी और उपयोगी लगी। आपका सृजन गुणवत्तात्मक एवं अहिंसा एवं अनेकांत का प्रभावी उदाहरण प्रस्तुत कर सकेंगे। अत्युत्तम है। यदि जैन समाज अपने विभिन्न घटकों के बीच ही अपने ज्ञानमाला जैन आधारभूत सिद्धान्तों-अहिंसा, अनेकांत एवं स्याद्वाद के A-332, ऐशबाग, भोपाल मैनपुरी में अतीव धर्म प्रभावना परमपूज्य संत शिरोमणि आ. श्री विद्यासागर जी महाराज के सुयोग्य शिष्य पूज्य मुनि श्री समतासागर जी, पूज्य मुनि श्री प्रमाणसागर जी एवं ऐलक श्री निश्चयसागर जी का कन्नौज पंच कल्याणक के पश्चात् मैनपुरी आगमन 31 मई को हुआ। समाज ने उत्साहपूर्वक गाजे बाजे के साथ स्वागत किया। संघ का प्रवास बड़े जैन मंदिर जी में हो रहा है। दि. 5 जनू से 15 दिवसीय ज्ञान विद्या शिक्षण शिविर का आयोजन किया गया। शिक्षण शिविर में प्रातः जैन सिद्धान्त शिक्षण की कक्षा श्री प्रमाण सागर जी द्वारा, दोपहर को वृहद् द्रव्य संग्रह की कक्षा मुनि श्री समता सागर जी द्वारा तथा समयसार की कक्षा मुनि श्री प्रमाण सागर जी द्वारा ली जाती थी। शाम को आचार्यभक्ति व आरती के पश्चात् शंका समाधान तथा मेरी भावना की कक्षायें होती थीं। ऐलकश्री बच्चों की कक्षा लेते थे। 9 जून को संघ के सान्निध्य में भगवान. शांतिनाथ का निर्वाण कल्याणक मनाया गया। -जुलाई 2002 जिनभाषित 3 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दुत्व और जैन समाज दिनांक 4 अप्रैल के दैनिक जागरण के सम्पादकीय लेख 'हिन्दुत्व और जैन समाज में समाज की धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग की मान्यता का विरोध करते हुए उसे राजनीतिक, आर्थिक कारणों से प्रेरित तथा हिन्दुत्व विरोधी ही नहीं भारतीयता व मानवता विरोधी भी बताया गया है। इस संभावना का भी भय दिखाया गया है कि इस माँग से भारतीयता तो क्षतिग्रस्त होगी ही, जैन समाज भी दुर्बल होगा, उसके लिए ऐसी भी समस्याएँ पैदा हो सकती हैं जो उसके हित में नहीं होंगी। परोक्षरूप से जैन समाज को यह नेक सलाह दी गई है कि वह सर्वोच्च न्यायालय में दायर अपनी याचिका को, जिस पर आजकल सुनवाई चल रही है, वापस ले ले । इस प्रसंग में यह उल्लेखनीय है कि जैन समाज कोई जाति विशेष नहीं है, न ही वह आर्थिक, शैक्षिक व बौद्धिक दृष्टि से कोई पिछड़ा वर्ग है, जिसे अपने उत्थान के लिए आरक्षण जैसी सरकारी वैशाखियों की जरूरत पड़े। जैन समाज की प्रतिभाएँ अपने बलबूते पर ही प्रायः प्रत्येक क्षेत्र में अपना उल्लेखनीय योगदान कर रही हैं। जैनधर्म, वैदिक धर्म तथा उसके आधुनिक रूप हिन्दू धर्म रूपी वट वृक्ष की कोई शाखा नहीं है। यह एक सर्वथा पृथक् एवं स्वतंत्र आत्मवादी धर्म है, जिसके उपास्य देव, उपासना पद्धति, धार्मिक क्रियायें, धार्मिक पर्व, दर्शन, सिद्धान्त, स्याद्वाद, हिन्दू धर्म से सर्वथा भिन्न और विशिष्ट हैं तथा जिसकी श्रमण संस्कृति की जड़ें प्राग्वैदिक हैं और सभ्यता के आदि युग में हुए प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव तक जाती हैं। जैन धर्मावलम्बियों की संख्या देश की कुल जनसंख्या का 1 प्रतिशत से भी कम है, जो पारसियों के बाद सबसे अधिक अल्पसंख्यक धार्मिक वर्ग है। मंडल कमीशन ने भी जैनों को अहिन्दू धार्मिक समुदाय में वर्गीकृत किया है। पूर्ण अहिंसक एवं शांतिप्रिय जैन समाज सदा ही सामाजिक समरसता का प्रबल पोषक रहा है। धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग की मान्यता की उसकी माँग के पीछे बृहद् हिन्दू समाज से अलगाव की कोई भावना कतई नहीं है। उस पर ये लांछन लगाना उपहासास्पद है। महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ की राज्य सरकारों ने जैन समाज की माँग के औचित्य को स्वीकार कर उसे धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग की मान्यता प्रदान कर दी है। उन प्रदेशों में जैन समाज का बृहद् हिन्दू समाज से अलगाव रंचमात्र नहीं हुआ है और न ही अलगाव होने की कोई संभावना है। समाज और धर्म दोनों के धरातल अलग-अलग हैं। भारत के संविधान के अनुच्छेद 29-30 में, जिनके अन्तर्गत जैन समाज को धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग की मान्यता दिये जाने की याचिका सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन है, अल्पसंख्यकों को केवल उनकी विशिष्ट संस्कृति को अक्षुण्ण रखने तथा अपनी शिक्षा संस्थाओं के प्रबंधन में कुछ स्वतंत्रता की ही व्यवस्था है, जुलाई 2002 जिनभाषित 4 अजितप्रसाद जैन, लखनऊ किसी भी प्रकार के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक संरक्षण का कोई उल्लेख नहीं है। 'जागरण' जनमत में 47 प्रतिशत पाठकों का जैन समाज की माँग का समर्थन करना भी माँग के औचित्य को सिद्ध करता है। हम नीचे कुछ दृष्टान्त अति संक्षेप में दे रहे हैं जिनसे यह भलीभाँति स्पष्ट हो जायेगा कि जैन समाज धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग की मान्यता की आवश्यकता क्यों महसूस करता है। अभी गत 13 मार्च को जालोर दुर्ग (राजस्थान) के स्वर्णगिरि जैन तीर्थक्षेत्र में घुसकर धर्मद्वेषियों ने अकारण ही अनेक तीर्थंकर प्रतिमाओं को तोड़फोड़ डाला। राजस्थान के मारवाड़ अंचल में अनोप मंडल नाम का एक हिन्दू अतिवादियों का संगठन सक्रिय है, जो अपने को जैनधर्म का कट्टर विरोधी घोषित करने में गौरवान्वित महसूस करता है। दिनांक 14 सितम्बर 1997 को अनोप मंडल के नेतृत्व में 5000 की आतंकवादी भीड़ ने जालोर में अकारण ही जैनियों के एक उपाश्रय व तीन दुकानों को लूट लिया, एक कार को आग लगा दी, एक अन्य उपाश्रय व जैन छात्रावास में तोड़फोड़ की, जैन परिवारों के घरों में पत्थर फेंके तथा तीर्थक्षेत्र की मान्यता प्राप्त एक विशाल भव्य जैन मंदिर में घुसकर मूर्तियों को तोड़-फोड़ डाला । तीर्थक्षेत्र गलियाकोट (सागरवाड़ा राज.) में गुंडई तत्त्वों ने 700-800 वर्ष पुरानी बहुमूल्य कलाकृतियों को नष्ट किया तथा कुछ को लूट ले गए। राजस्थान में ही विहार कर रही एक साध्वी का अपहरण कर लिया गया तथा जैन मुनियों के विहार में बाधा डाली गई। जैनों के कुछ तीर्थक्षेत्रों पर पंडे-पुजारियों ने दबंगई से जबरन कब्जा करके उन्हें अपने धंधे का साधन बना लिया । अभी दो वर्ष पूर्व बदरीनाथ धाम में जिसके एक शिखर से प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव ने मोक्षगमन किया माना जाता है, जैन समुदाय की विधिवत खरीदी हुई अपनी जमीन में निर्माण कराई गई जैन धर्मशाला में जैन यात्रियों की उपासना हेतु भगवान् ऋषभदेव की भव्य पद्मासनस्थ प्रतिमा प्रतिष्ठित करने की योजना स्थानीय पंडों, पुजारियों, महंतों के प्रबल विरोध के कारण त्यागना पड़ी। एक संतजी ने आत्मदाह की तथा देशव्यापी आन्दोलन छेड़ने की धमकी दी तथा बदरीनाथ में जैन मंदिर के निर्वाण को अनैतिक करार दिया गया। ज्योतिपीठ के शंकराचार्य जैसे हिन्दू धर्म के शीर्ष गुरु ने इसे बदरीनाथ धाम की गरिमा व पवित्रता को क्षति करने वाला उपक्रम बताया, उत्तरांचल के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री नित्यानंद स्वामी ने भी जोशीमठ में घोषणा कर डाली कि बदरीनाथ धाम में भगवान् बदरीनाथ के अलावा किसी भी वर्ग के मंदिर का निर्माण नहीं होने दिया जायेगा। हम नहीं समझ पा रहे Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं कि क्या बदरीनाथ भारतवर्ष के बाहर कोई ऐसा सुरक्षित भूखंड । विरोधी राजनीतिक पार्टियों ने संबंधित प्रदेश सरकार की बर्खास्तगी है, जहाँ देश के सामान्य नियम-कानून नहीं लागू होते। बदरीनाथ | की माँग लेकर देशव्यापनी आन्दोलन खड़ा कर दिया होता। प्रकरण की विस्तृत रिपोर्टिंग तो 'दैनिक जागरण' के जुलाई, अगस्त, | अब से 5 वर्ष पहिले भी जब राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग सितम्बर व अक्टूबर 2000 के कई अंकों में भी प्रकाशित हुई, पर | ने जैन समुदाय को अल्पसंख्यक धार्मिक वर्ग की सूची में शामिल उनके किसी सम्पादकीय लेख में या अन्य किसी हिन्दू मनीषी | किए जाने के लिए अपनी संस्तुति भेजी थी, तो हिन्दू समाज के द्वारा किसी लेख में इस अतिवादी हिन्दू धर्मान्ध मानसिकता की | एक वर्ग में इसीप्रकार खलबली मच गई थी तथा बालकवि वैरागी निन्दा या विरोध में दो पंक्ति भी लिखी हमारे देखने में नहीं आईं। सरीखे जैन समाज के तथाकथित शुभचिन्तक हिन्दू नेताओं ने जैन न ही उपरिलिखित किसी भी घटना का किसी विख्यात हिन्दू नेता | समाज से आयोग की इस पहल का विरोध करने की अपील तक या धर्म गुरु ने विरोध किया हो हमारे देखने पढ़ने में नहीं आया। कर डाली थी तथा केन्द्र सरकार को भी आयोग की संस्तुति को न विस्मय होता है कि क्या यही हिन्दुत्व की उदात्त भूसांस्कृतिक | मानने की या ठंडे बस्ते में डाल देने की सलाह दी थी। अवधारणा का व्यावहारिक रूप है? समन्वयवाणी यदि किसी मान्यता प्राप्त वर्गीकृत अल्पसंख्यक धार्मिक जून 2002 (द्वितीय पक्ष) से साभार समुदाय की धार्मिक भावनाओं को आहत किया गया होता, तो । अहिंसा पर हमला जे.के.संघवी एक तरफ भगवान् महावीर के 2601वें जन्मोत्सव मनाने | पुण्योदय से 4-5 महीने हॉस्पिटल में इलाज के बाद उनका हेतु अन्तिम तैयारियाँ चल रही थीं। दूसरी तरफ जन्मकल्याणक जीवन बच पाया। राजपुर-डोसा में जीवदया का कार्य करने दिवस के ठीक एक दिन पहले 24 अप्रैल, 2002 को अहिंसा के वाले श्री प्रकाश भाई शाह पर 2 अप्रैल, 2000 को हमला किया पुजारी, जीवदया-प्रेमी, सुश्रावक श्री ललित जैन (उम्र 31 वर्ष, गया था। जीवन-मृत्यु का संघर्ष करते हुए 20 अप्रैल, 2000 एडवोकेट) की भिवंडी (जिला-ठाणे) में दिन के 11.30 बजे | को जीवदया के लिए वे शहीद हो गये। बाड़मेर, फलौदी, भरे बाजार में कसाइयों ने गोली मार कर न:शंस हत्या कर दी।। अहमदाबाद आदि में जीवदया के लिए समर्पित कार्यकर्ताओं सरकार द्वारा घोषित 'अहिंसा-वर्ष' के समापन पर अहिंसा पर | की हत्याओं के मामले भी प्रकाश में आये हैं। क्रूर/बर्बर हमला हुआ। क्या केन्द्र अथवा राज्य सरकार इस | एडवोकेट श्री ललित जैन एवं अन्य कार्यकर्ताओं की काले कलंक को अपने सिर से मिटा पायेगी? शहादत ने यह साबित कर दिया है कि हिंसा-का-दौर पराकाष्ठा जीवदया, करुणा श्री ललितभाई के रग-रग में बसी हुई पर है और सरकार विदेशी मुद्रा के लोभ-लालच में उसे लगातार थी। सामायिक, प्रतिक्रमण, रात्रि-भोजन-त्याग आदि नियमों बढ़ावा दे रही है। हमलावरों को सजा न मिलने के कारण का जीवन में पालन करते हुए वे वकालत करते थे। एनिमल | उनके हौंसले बढ़ रहे हैं। अवैध पशु-व्यापार में घोर मुनाफे के प्रिवेन्शन एक्ट 1976 के अनुसार गैर-कायदे कत्लखाने ले जाते कारण रिश्वत आदि का दौर चलने से सरकारी मशीनरी द्वारा भी हुए पशुओं को बचाने का वे सतत् प्रयत्न करते थे। इस अभियान | कानूनों को ताक पर रखा जाता है। में पिछले आठ वर्षों में कानून को ताक में रखने वाले लोगों पर तय है कि समय रहते सरकार ने कोई कदम नहीं 200 से ज्यादा केस दर्ज कर उन्होंने 5000 से ज्यादा पशुओं की उठाया और इन्सानियत के विरुद्ध वह निरन्तर हिंसा को कृषि जान बचायी। के छद्म नाम के अन्तर्गत शाबासी देती गयी, तो एक दिन इस यह विडम्बना है कि राजनेताओं, पुलिस और कसाइयों | भारत की वसुन्धरा पर हिंसा का जो नग्न तांडव होगा, उस पर के गठबन्धन के कारण कानून को घोल कर पिया जा रहा है और अंकुश पाना असंभव होगा। आज भी जो रक्तपात हो रहा है, गैर काननी कत्ल का धंधा पनप रहा है। पहले भी जीवदया के | उसकी पृष्ठभूमि पर पशुओं का व्यापक वध और हिंसामूलक कार्यकर्ताओं पर हमले हुए हैं। 27 अगस्त, 1993 को अहमदाबाद उद्योगों को बढ़ावा देना है। में गीताबेन बी.रांभीया (उम्र 33 वर्ष) को दो कसाइयों ने रिक्शे यदि जनता और सरकार दोनों ने इस भयावह घटना से से बाहर खींच कर छुरे द्वारा 19 वार कर निर्मम हत्या की थी।। कोई सबक नहीं लिया, तो वह दिन दूर नहीं जब देश में अल्पायु में उन्होंने 70,000 मूक प्राणियों के प्राण-बचाये थे।। हिंसक/बर्बर ताकतों का बोलबाला होगा। करुणा, संवदेना, ऐसी क्रूर हत्या के बाद भी सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया। प्रेम, भाईचारा, इन्सानियत-ये शब्द मात्र शब्दकोश में रह जाएँगे। हायवे रोड डोसा पर 7 अक्टूबर, 1997 को जीवदया के कार्यकर्ता | अनैतिकता, अराजकता का काला साया इस पृथ्वी पर नजर श्री भरतभाई कोठारी पर प्राणघातक हमला किया गया था।| आयेगा। कसाई तो वहीं मरा हुआ समझ कर उन्हें छोड़ गये थे, लेकिन । 'तीर्थंकर', जून 2002 से साभार -जुलाई 2002 जिनभाषित 5 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय मूकमाटी : एक उत्कृष्ट महाकाव्य 'वाक्यं रसात्मकं काव्यम्' अर्थात् जो उक्ति सहृदय को | कल्पित की गई है। बिना तप के जीवन में परिशुद्धता एवं परिपक्वता भावमग्न कर दे, मन को छू ले, हृदय को आन्दोलित कर दे, उसे नहीं आती, इस तथ्य के प्रकाशन हेतु कुम्भ को आवा में तपाये काव्य कहते हैं। काव्य की यह परिभाषा साहित्यदर्पणकार आचार्य | जाने का दृश्य समाविष्ट किया गया है। योग्य बनकर मनुष्य दूसरों विश्वनाथ ने की है, जो अत्यन्त सरल और सटीक है।' के उपकार में अपना जीवन लगाता है, इस आदर्श के दर्शन कराने ऐसी उक्ति की रचना तब होती है जब मानवचरित, मानव | हेतु घट के द्वारा मुनि के लिए आहारदान के समय जलभरण तथा आदर्श एवं जगत् के वैचित्र्य को कलात्मक रीति से प्रस्तुत किया | संकट की स्थिति में अपने स्वामी को नदी पार कराये जाने की जाता है। कलात्मक रीति का प्राण है भाषा की लाक्षणिकता एवं | घटनाएँ बुनी गई हैं। व्यंजकता। भाषा को लाक्षणिक एवं व्यंजक बनाने के उपाय हैं: विभिन्न उपदेशों और सिद्धान्तों के प्रतिपादन का प्रसंग अन्योक्ति, प्रतीकविधान, उपचारवक्रता, अलंकार-योजना, | उपस्थित करने के लिए अनेक तिर्यंचों और जड़ पदार्थों को पात्रों बिम्बयोजना, शब्दों का सन्दर्भविशेष में व्यंजनामय गुम्फन आदि। के रूप में कथा से सम्बद्ध किया गया है। शब्दसौष्ठव एवं लयात्मकता भी कलात्मक रीति के अंग हैं। इन | इस कथा की धारा में उत्तम काव्य के अनेक उदाहरण सबको आचार्य कुन्तक ने वक्रोक्ति नाम दिया है। कलात्मक | दृष्टिगोचर होते हैं और काव्यकला के अनेक उपादानों का सटीक अभिव्यंजना में ही सौन्दर्य होता है। सुन्दर कथन प्रकार का नाम | प्रयोग भी मन को मोहित करता है। उन सब पर एक दृष्टि डालना ही काव्यकला है। रमणीय कथनप्रकार में ढला कथ्य काव्य कहलाता | सुखकर होगा। है। 'रमणीयार्थप्रतिपादकः शब्दः काव्यम् (पंडितराज जगन्नाथ), भावों की कलात्मक अभिव्यंजना सारभूतोह्यर्थ: स्वशब्दानमिधेयत्वेन प्रकाशितः सुतरामेव शोभा- कृति के आरम्भ में ही मानवीकरण द्वारा प्रभात का मनोहारी मावहति' (ध्वन्यालोक/उल्लास, 4), ये उक्तियाँ इसी तथ्य की | वर्णन हआ है। सूर्य और प्राची, प्रभाकर और कुमुदिनी, चन्द्रमा पुष्टि करती हैं। विषय हो मानवचरित, मानव-आदर्श या जगत्स्वभाव और कमलिनी, इन्दु और तारिकाओं पर नायकनायिका के व्यापार तथा अभिव्यंजना हो कलात्मक तभी काव्य जन्म लेता है। इनमें से | का आरोप कर श्रृंगाररस की व्यंजना की गई हैएक का भी अभाव हुआ तो काव्य अवतरित न होगा। विषय लज्जा के घूघट में / डूबती सी कुमुदिनी मानवचरित मानव-आदर्श या जगत्स्वभाव हुआ, किन्तु अभिव्यंजना प्रभाकर के कर-छुवन से / बचना चाहती है। कलात्मक न हुई तो वह शास्त्र, इतिहास या आचारसंहिता, बन अपने पराग को / सराग मुद्रा को/ जायेगा, काव्य न होगा। इसके विपरीत अभिव्यंजना कलात्मक पाँखुरियों की ओट देती है। (पृ. 62) हुई और विषय मानवचरित, मानव-आदर्श या जगत्स्वभाव न सहदयों के सम्पर्क में रहने पर भी हृदयहीनों में सहृदयता हुआ तो प्रहेलिका बन जायेगी, उसमें काव्यत्व न आ पायेगा। | का आविर्भाव असम्भव है, इस स्वजाति१रतिक्रमा का घोष करने महाकवि आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित 'मूकमाटी' | वाले मनौवैज्ञानिक तथ्य की व्यंजना कंकरों की प्रकृति के द्वारा के काव्यत्व को इसी कसौटी पर कसकर परखना होगा। इस | कितने मार्मिक ढंग से हुई है। अन्योक्ति या प्रतीकात्मक काव्य का कसौटी पर कसने से उसमें काव्य के अनेक सुन्दर उदाहरण यह सुन्दर नमूना है। लाक्षणिक प्रयोगों से इस काव्य की हृदयस्पर्शिता मिलते हैं। द्विगुणित हो गई हैकथावस्तु अरे कंकरो/माटी से मिलन तो हुआ/पर माटी से मिले अर्थहीन तुच्छ माटी का कुम्भकार के निमित्त से कुंभ का नहीं तुम/माटी से छुवन तो हुआ/पर माटी में घुले सुन्दर रूप धारण करना और जलधारण तथा जलतारण (नदी नहीं तुम/इतना ही नहीं, चक्की में डालकर पीसने पर भी/ आदि को पार करना) द्वारा परोपकारी बनना, यह इस काव्य की अपने गुण-धर्म भूलते नहीं तुम/भले ही चूरण बनते रेतिल/ कथावस्तु है, जो देवशास्त्रगुरु के निमित्त से बहिरात्मत्व से परमात्मत्व माटी नहीं बनते तुम/जल के सिंचन से भीगते भी हो, परन्तु अवस्था की प्राप्ति का प्रतीक है। ' श्रेयांसि बहुविध्नानि' नियम की भूलकर भी फूलते नहीं तुम/माटी सम तुम में आती नमी ओर ध्यान आकृष्ट करने के लिए कुंभदशा की प्राप्ति में सागर द्वारा नहीं/क्या यह तुम्हारी है कमी नहीं? तुम में कहाँ है जलवर्षा और उपलवृष्टि के विघ्न उपस्थित कराये गये हैं। सज्जन वह जलधारण की क्षमता? जलाशय में रहकर भी सदा दूसरों के विघ्ननिवारण में तत्पर रहते हैं, यह दर्शने के लिए युगों-युगों तक नहीं बन सकते जलाशय तुम/मैं तुम्हें हृदयशून्य तो सूर्य और पवन के द्वारा मेघों के छिन्न-भिन्न किये जाने की घटना न कहूँगा/परन्तु पाषाणहृदय है तुम्हारा/ 6 जुलाई 2002 जिनभाषित Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरों का दुःखदर्द देखकर भी/नहीं आ सकता जिसे । मिटने, लोभ-क्षोभ, सगा-दगा, इन प्रयोगों में अन्त्यानुप्रास ने पसीना/है ऐसा तुम्हारा सीना/(पृ. 49-50) संगीतात्मक श्रुतिमाधुर्य की सृष्टि की है। दुष्ट प्रकृति के लोग धर्म का उपयोग अपने को सुधारने में भगवान् आदिनाथ द्वारा उपदिष्ट मोक्षमार्ग की आजकल न कर साम्प्रदायिक विद्वेष फैलाकर निहित स्वार्थों की सिद्धि में चर्चा बहुत होती है। उसका हृदयद्रावक प्रवचन करने वाले करते है। इस मानवस्वभाव की हदय को मथ देनेवाली कलात्मक प्रवचनकर्ता बरसाती मेंढकों के समान प्रकट हो गये हैं। किन्तु वे अभिव्यक्ति निम्न पंक्तियों में हुई है मोक्षमार्ग की केवल बात ही करते हैं, उस पर चलते नहीं है। इस कहाँ तक कहें अब/धर्म का झण्डा भी डण्डा बन जाता है/ | तथ्य की अभिव्यक्ति निम्न शब्दों में बड़ी पैनी हो गई हैशास्त्र शस्त्र बन जाता है अवसर पाकर/ आदिनाथ से प्रदर्शित पथ का और प्रभु-स्तुति में तत्पर सुरीली बाँसुरी भी। आज अभाव नहीं है माँ ! बाँस बन पीट सकती है। प्रभुपथ पर चलने वालों को/ परन्तु उस पावन पथ पर समय की बलिहारी है। (पृ.-73) दूब उग आई है। धर्म के झंडे के साथ 'झण्डा' तथा शास्त्र के साथ 'शस्त्र' वर्षा के कारण नहीं, शब्द असीम अर्थ के व्यंजक बन गये हैं। धर्म के नाम पर घटे और केवल कथनी में करुणरस घोल, घट रहे दुनिया के सारे रक्तरंजित इतिहास को वे प्रत्यक्ष कर देते धर्मामृत-वर्षा करनेवालों की भीड़ के कारण (पृ. 151-152) सांसारिक विषयों के प्रति जब आकर्षण समाप्त हो जाता जिस मार्ग पर लोग चलना छोड़ देते हैं उस पर दूब उग है, लाभ-हानि, निन्दा-प्रशंसा, जय-पराजय दोनों ही जब अर्थहीन | आती है। अत: 'दूब उग आई है' मुहावरा 'लोगों ने मोक्षमार्ग पर प्रतीत होने लगते हैं तब आत्मा में शान्ति का संगीत पैदा होता है, | चलना छोड दिया है' इस अर्थ की अभिव्यक्ति में कितना प्रभावशाली क्षोभ विलीन हो जाता है, समभाव का उदय होता है। इस प्रकार हो गया है ! संग अर्थात् सांसारिक पदार्थों के प्रति आसाक्ति से अतीत होने पर | होश को खोकर भी चिन्तामुक्त हुआ जा सकता है और ही वास्तविक संगीत उत्पन्न होता है। यह महान् मनौवैज्ञानिक | होश में आकर भी। इन दोनों उपायों में क्या फर्क है? इस रहस्य तथ्य हृदय को आन्दोलित कर देने वाले निम्न शब्दों में अत्यन्त | को इस प्रकार खोला गया है कि एक उपाय के प्रति जुगुप्सा और कलात्मक रीति से अभिव्यक्त हुआ है दूसरे के प्रति श्रद्धा की धाराएँ मन में प्रवाहित होने लगती हैं। यह संगीत उसे मानता हूँ/ जो संगातीत होता है। 'शव' और 'शिव' शब्दों का कमाल है। और प्रीति उसे मानता हूँ/ जो अंगातीत होती है। इस युग के दो मानव/अपने आप को खोना चाहते हैं। एक भोग-राग को/मद्यपान को चुनता है। सुख के बिन्दु से ऊब गया था यह और एक योग-त्याग को/आत्मध्यान को धुनता है। दुःख के सिन्धु में डूब गया था यह। कुछ ही क्षणों में/दोनों होते हैं विकल्पों से मुक्त/ कभी हार से सम्मान हुआ इसका फिर क्या कहना! एक शव के समान निरा पड़ा है। कभी हार से अपमान हुआ इसका। और एक शिव के समान खरा उतरा है। (पृ. 286) कहीं कुछ मिलने का लोभ मिला इसे शरीर नहीं, आत्मा मूल्यवान् है अतः आत्मा ही उपास्य कहीं कुछ मिटने को क्षोभ मिला इसे। है। इस आध्यात्मिक सत्य की अभिव्यंजना सीप और मोती तथा कहीं सगा मिला, कहीं दगा दीप और ज्योति के प्रतीकों द्वारा करने वाली ये पंक्तियाँ उत्तम भटकता रहा अभागा यह। काव्य का निदर्शन हैंपरन्तु आज सब वैषम्य मिट से गये हैं सीप का नहीं, मोती का जब से मिला यह मेरा संगी संगीत। (पृ. 145-146) दीप का नहीं, ज्योति का इस काव्य से अनेक अर्थकिरणें प्रस्फुटित होती हैं। जिस सम्मान करना है अब। (पृ. 307) प्रेम का केन्द्र शरीर होता है, वह प्रेम नहीं, वासना है। गुणाश्रित तत्त्वज्ञानी पुरुष आत्मा के बारे में केवल विचार करता है ध्यानी प्रेम ही प्रेम है। संसार में सुख बिन्दु बराबर है और दुःख सिन्धु आत्मा का आस्वादान करता है। ज्ञान और ध्यान के अन्तर को प्रकाशित बराबर । 'हार' शब्द दोनों जगह भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ | करनेवाले ये काव्यात्मक शब्द प्रतीकात्मक सौन्दर्य से मंडित हैंहै। प्रथम बार उसका अर्थ है 'फूलों का हार', द्वितीय बार तैरनेवाला तैरता है सरवर में 'पराजय'। यहाँ यमक अलंकार ने अपनी स्वाभाविकता के कारण भीतरी नहीं, बाहरी दृश्य ही दिखते हैं उसे। चार चाँद लगा दिये हैं। बिन्दु-सिन्धु, सम्मान-अपमान, मिलने- | वहीं पर दूसरा डुबकी लगाता है, -जुलाई 2002 जिनभाषित Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरवर का भीतरी भाग भासित होता है उस, पर को परख रहे हो? अपने को परखो जरा/ बहिर्जगत् का सम्बन्ध टूट जाता है। (पृ. 289) परीक्षा लो अपनी/ बजा-बजा कर देख लो स्वयं को/ मनुष्य की साधना यदि निर्दोष हो तो संसारसागर को पार कौन सा स्वर उभरता है वहाँ/सुनो उसे अपने कानों से/ करना असंभव नहीं है । सागर और नाव के प्रतीकों ने इस भाव को काक का प्रलाप है/या गर्दभ का आलाप?(पृ. 303) कितनी मार्मिक व्यंजना दी है पाप कर्म का फल प्रत्येक को भोगना पड़ता है, चाहे वह अपार सागर का पार कोई भी हो। यह तथ्य व्यंजित किया गया है लक्ष्मण रेखा''राम' पा जाती है नाव 'सीता' और 'रावण' के पौराणिक प्रतीकों से, जिससे अभिव्यक्ति हो उसमें छेद का अभाव भर। (पृ.51) कलात्मक बन गई हैविषयों की चाह इन्द्रियों को नहीं होती। वे तो जड़ हैं। लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन इन्द्रियों के माध्यम से वासना ग्रस्त आत्मा ही विषयों की चाह रावण हो या सीता, करता है। रूपकालंकार में पिरोया गया यह भाव शोभा से निखर राम ही क्यों न हों उठा है दण्डित करेगा ही। (पृ. 217) इन्द्रियाँ खिड़कियाँ हैं, सन्त कवि की कवितामयी लेखनी से आहारदान के तन भवन है। उत्तमपात्रभूत साधु का स्वरूप उपमाओं के मनोहर दर्पण से झाँकता भवन में बैठा पुरुष हुआ मनहरण करता हैखिड़कियों से झाँकता है पात्र हो पूत-पवित्र/पदयात्री हो, पाणिपात्री हो/ वासना की आँखों से। पीयूषपायी हंस-परमहंस हो/ अपने प्रति वज्रसम कठोर/ जो कठिनतम संकट को पार कर लेता है उसके लिए पर के प्रति नवनीत/पवनसम नि:संग/ छोटे-मोटे संकट खिलौनों के समान हो जाते हैं । उपचारवक्रता के दर्पणसम दर्प से परीत/पादपसम विनीत/ द्वारा अभिव्यक्त यह भाव कितना नुकीला हो गया है। बाढ़ से प्रवाहसम लक्ष्य की ओर गतिमान्/ उफनती हुई नदी के बीच में चलता हुआ साधक कहता है सिंहसम निर्भीक। (पृ. 300) जब आग की नदी को पार कर आये हम पथ प्रकाशक सूक्तियाँ और साधना की सीमा-श्री से मूकमाटी में जीवनपथ को आलोकित करनेवाले सूक्तिरत्न हार कर नहीं, प्यार कर आये हम बिखरे पड़े हैं, जो मन को जगमगा देते हैं। कुछ उदाहरण दर्शनीय फिर भी हमें डुबोने की क्षमता रखती हो तुम? (पृ.452) आस्था के बिना रास्ता नहीं, आग की नदी का यह उपचारवक्र प्रयोग संकट की विकटता मूल के बिना चूल नहीं। (पृ. 10) का अहसास कराने में अद्भुत क्षमता रखता है। एक तो नदी अपने आप में संकट का प्रतीक है, फिर वह भी आग की? आग ने संघर्षमयजीवन का उपसंहार संकट को सहस्रगुना भयावह कर दिया है। इसी प्रकार साधना की नियम से हर्षमय होता है। (पृ. 14) चरमसीमा से, जहाँ हारना संभव हो, प्यार कर लेना साधना के अत्यन्त आनन्दपूर्वक सम्पन्न होने का द्योतक है। यहाँ भी दुःख की वेदना में जब न्यूनता आती है उपचारवक्ता ने अपार सौन्दर्य का निवेश कर दिया है। दुःख भी सुख सा लगता है। (पृ. 18) संसार-सन्ताप से मुक्ति की आकांक्षा बड़ी व्यग्रता से झाँक रही है शब्दों के इन सुन्दर झरोखों से पीड़ा की अति ही कितनी तपन है बाहर और भीतर/ पीड़ा की इति है। (पृ. 33) ज्वालामुखी हवाएँ / झुलसी काया/ चाहती है। स्पर्श में बदलाहट । सब रसों का अन्त होना ही शान्तरस है। (पृ. 160) मानव-स्वभाव की यही विडम्बना है कि मनुष्य की दृष्टि तीर मिलता नहीं बिना तैरे। (पृ. 267) सदा दूसरों को परखने में लगी रहती है। अपने को वह दूसरों से | सटीक मुहावरे सदा ऊपर समझता है। यही उसके जहाँ का तहाँ रह जाने का मुहावरे उपचारवक्रता (लाक्षणिक प्रयोग) के सुन्दर नमूने कारण है। कवि की मुहावरामय काव्यकला इस तथ्य की ओर | हैं। उनसे अभिव्यक्ति लाक्षणिक और व्यंजक बन जाती है जो बड़े आह्लादक ढंग से ध्यान आकृष्ट करती है | काव्यकला का प्राण है। इस कारण उनमें हृदयस्पर्शिता एवं रमणीयता 8 जुलाई 2002 जिनभाषित - Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहती है। आचार्यकवि ने मुहावरों का सटीक प्रयोग करके कथन रसना कब रस चाहती है? को काव्यात्मक चारुत्व से मंडित किया है तथा अभिव्यक्ति को नासा गन्ध को याद नहीं करती। तीक्ष्ण बनाया है। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं स्पर्श की प्रतीक्षा स्पर्शा कब करती है? अरे मौन! सुन ले जरा स्वर के अभाव में ज्वर कब चढ़ता है श्रवणा को? कोरी आस्था की बात मत कर तू (पृ. 328) आस्था से बात कर ले जरा। (पृ. 121) अभिव्यंजक अलंकार यहाँ 'की बात मत कर' और 'से बात कर लें' इन दो कवि ने भावों की कलात्मक अभिव्यंजना के लिए जिन मुहावरों ने 'कथनी' की निरर्थकता और 'करनी' की सार्थकता | अलंकारों का प्रयोग किया है, उनमें अत्यन्त स्वाभाविकता है, वे की अभिव्यंजना को सौन्दर्य के उत्कर्ष पर पहुँचा दिया है। बलपूर्वक आरोपित किये गये प्रतीत नहीं होते। वस्तु के शिल्पी का दाहिना चरण स्वरूपवैशिष्ट्य को सम्यग्रूपेण व्यंजित करते हैं। यथामंगलाचरण करता है। (पृ. 126) सिन्धु में बिन्दु सा कार्य आरम्भ करने के भाव की अभिव्यक्ति मंगलाचरण राहु के गाल में समाहित हुआ भास्कर।(पृ. 238) करने के मुहावरे से कितनी रमणीय बन गई है! सिन्धु में बिन्दु की उपमा से राहु की विशालकायता और मानव खून उबलने लगता है उसके समक्ष सूर्य की लघुता का द्योतन औचित्यपूर्ण है। शान्त माहौल खौलने लगता है। (पृ. 131) निम्नलिखित उक्ति में प्रयुक्त उत्प्रेक्षा द्वारा कुम्भ की बाह्य ये मुहावरे जन-आक्रोश तथा सामाजिक अशान्ति की | कालिमा का वर्णन बड़े रोचक ढंग से किया गया हैपराकाष्ठा को अभिव्यक्ति देते हुए उक्ति को चारुत्व से मण्डित आज अबा से बाहर आया है कुम्भ करते हैं। कृष्ण की काया सी नीलिमा फूट रही है उससे प्रभाकर का प्रवचन हृदय को छू गया ऐसा प्रतीत हो रहा है कि छूमन्तर हो गया भाव का वैपरीत्य । (पृ. 207) भीतरी दोषसमूह सब 'हृदय को छू गया' मुहावरा प्रवचन की प्रभावशालिता जल-जलकर बाहर आ गये हों। (पृ. 298-299) तथा 'छूमन्तर हो गया' मुहावरा विपरीत बुद्धि के एकदम दूर हो शब्दालंकारों में यमक के एक-दो सुन्दर उदाहरण हैं, जाने के भाव को कितने मनोहर ढंग से सम्प्रेषित करता है! जिनमें स्वाभाविकता के कारण अर्थवैभिन्न्यगत वैचित्र्य रोचक बन जब आँखें आती हैं तब दुःख देती हैं पड़ा हैजब आँखें जाती हैं तब दुःख देती हैं कभी हार से सम्मान हुआ इसका जब आँखें लगती हैं तब दुःख देती है। (पृ. 359-360) कभी हार से अपमान हुआ इसका। (पृ. 145-146) यहाँ भी मुहावरों के द्वारा अभिव्यक्ति की हृदयाह्लादकता प्रथम 'हार' का अर्थ है 'फूलों का हार', द्वितीय का उत्कर्ष पर पहुँच गई है। 'पराजय'। औचित्यपूर्ण उपचारवक्रता ललित वर्ण विन्यास अचेतन पर चेतन के, चेतन पर अचेतन के, मूर्त पर अमूर्त संगीतात्मकता भी काव्य का एक गुण है। ललित के, अमूर्त पर मूर्त के, मानव पर तिर्यंचादि के, तिर्यंचादि पर मानव वर्णविन्यास के द्वारा इसका आविर्भाव होता है। सन्तकवि इसके के धर्म का आरोपण उपचारवक्रता कहलाता है। यह वस्तु के अत्यधिक प्रेमी हैं । वर्णों की आवृत्ति के द्वारा उन्होंने संगीतात्मक गुणोत्कर्ष, भावों के अतिशय, उत्कटता, तीक्ष्णता, घटनाओं और सौन्दर्य उत्पन्न करने का बहुश: प्रयत्न किया है। कहीं-कहीं इसके परिस्थितियों की गंभीरता, चरित्र की उत्कृष्टता या निकृष्टता आदि सुन्दर उदाहरण मिलते हैं। यथा की व्यंजना के लिए किया जाता है। इससे कथन मर्मस्पर्शी एवं अहित में हित और हित में अहित रमणीय बन जाता है। मूकमाटी के कवि ने उपचारवक्रता का निहित सा लगा इसे। औचित्यपूर्ण प्रयोग किया है, जिससे काव्यात्मक चारुत्व की सृष्टि हुई है। कुछ नमूने प्रस्तुत हैंभय को भयभीत के रूप में पाया। तन में तन का चिरन्तन नर्तन है। विस्मय को बहुत विस्मय हो आया। (पृ. 138) जो अपरस का परस करता है काया तो काया है,जड़ की छाया-माया है। क्या वह परस का परस चाहेगा? (पृ. 139) (अपरस-स्पर्श से परे, चिन्मय, परस-अनुभव) खरा भी अखरा है सदा। (परस-स्पर्शमय, पुद्गल) -जुलाई 2002 जिनभाषित १ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वास का विश्वास नहीं अब। कब से चल रहा है संगीत-गीत यह? कितना काल अतीत में व्यतीत हुआ, पता तो, बता दो। नग्न अपने में मग्न बन गये। भीतरी भाग भीगे नहीं अभी तक रसात्मकता दोनों बहरे अंग रहे महाकवि ने विभिन्न रसों के पुट से काव्य में कहीं-कहीं कहाँ हुए हरे-भरे? (पृ. 144) रस भरने का भी प्रयत्न किया है। आरंभ में ही सूर्य और प्राची, इष्ट और अनिष्ट में समभाव की अनुभूति का यह वर्णन प्रभाकर और कुमुदिनी, चन्द्रमा और ताराओं पर नायक-नायिका शान्तरस का अप्रतिम उदाहरण हैके व्यापार का आरोप कर श्रृंगार रस की व्यंजना की है। अन्तिम सुख के बिन्दु से ऊब गया था यह खण्ड में भी निम्न पंक्तियाँ शृंगाररस की सामग्री प्रस्तुत करती हैं दुःख के सिन्धु में डूब गया था यह। बाल भानु की भास्वर आभा कभी हार से सम्मान हुआ इसका निरन्तर उठती चंचल लहरों में कभी हार से अपमान हुआ इसका। उलझती हुई सी लगती है कहीं कुछ मिलने का लोभ मिला इसे कि गुलाबी साड़ी पहने कहीं कुछ मिटने का क्षोभ मिला इसे। मदवती अबला सी स्नान करती-करती कहीं सगा मिला, कहीं दगा लज्जावश सकुचा रही है। (पृ. 479) भटकता रहा अभागा यह। प्रस्तुत अंश वात्सल्यरस के विभावों और अनुभावों से परन्तु आज सब वैषम्य मिट गये हैं परिपूर्ण है जब से मिला यह मेरा संगी संगीत। (पृ.146) और देखों ने माँ की उदारता, परोपकारिता आहार-ग्रहण के समय मुनिराज के वीतरागस्वरूप का अपने वक्षस्थल पर युगों-युगों से, चिर से जो निरूपण किया गया है (पृष्ठ 326) वह भी शान्तरस का दुग्ध से भरे दो कलश ले खड़ी है। आस्वादन कराता है। आतंकवादियों के प्रकरण में रौद्र रस का क्षुधा-तृषा-पीड़ित शिशुओं का पालन करती रहती है | प्रसंग भी है। कहीं बीभत्स और वीर की भी झलक मिलती है। और भयभीतों को, सुख से रीतों को | मनौवैज्ञानिक तथ्यों का उद्घाटन गुपचुप हृदय से चिपका लेती है, पुचकारती हुई | महाकाव्य में कई जगह मनौवैज्ञानिक तथ्यों का उद्घाटन (पृ. 472) | किया गया है। कंकरों के प्रसंग में 'स्वजाति१रतिक्रमा' तथ्य भक्तिरस का अतिरेक निम्न पंक्तियों से छलकता है- | उन्मीलित हुआ है। वडवानल का प्रकरण इस तथ्य को उद्घाटित एक बार और गुरुचरणों में सेठ ने प्रणिपात किया। करता है कि आवश्यकता पड़ने पर सज्जन को भी उग्रता का लौटने का उपक्रम हुआ, पर तन टूटने लगा। आश्रय लेना पड़ता है। निम्न पंक्तियाँ भी एक महान् मनोवैज्ञानिक लोचन सजल हो गये,रोका, पर रुक न सका रुदन। । सत्य पर प्रकाश डालती हैंफूट-फूट कर रोने लगा, सीमा में रहना असंयमी का काम नहीं, पुण्यप्रद पूज्यपदों में लोट-पोट होने लगा।(पृ. 346) जितना मना किया जाता है आहारदान के प्रकरण में अपार श्रद्धा के पात्र मुनि को उतना मनमाना होता है, पाल्य दशा में। आहार देने के लिए श्रावकों की आतुरता का जो वर्णन किया गया त्याज्य का तजना, भाज्य का भजना संभव नहीं बाल्य दशा में। है वह भक्तिरस से ओत-प्रोत है। तथापि जो पलता है, बस, बलात् भीति के कारण। संसार की निस्सारता, जीवन की क्षणभंगुरता और परमात्म (पृ. 341) तत्त्व की सारभूतता का वर्णन या इनकी अनुभूति का वर्णन शान्तरस पूर्ववर्णित सभी सूक्तियाँ मनोवैज्ञानिक तथ्यों का साक्षात्कार के विभाव हैं। इनके वर्णन से पाठक के मन में सांसारिक विषयों कराती हैं। के प्रति अनाकर्षण और अरुचि का भाव उद्बुद्ध होता है, जिससे इस प्रकार भावों की कलात्मक अभिव्यंजना, सटीक मुहावरे, औचित्यपूर्ण उपचारवक्रता, अभिव्यंजक अलंकार इच्छानिरोधजन्य शमभाव की अनुभूति होती है। यही शान्तरस का ललितवर्णविन्यास, रसात्मकता, पथप्रदर्शक सूक्तिरत्न तथा आस्वादन है। प्रस्तुत काव्य में इसके कई जगह दर्शन होते हैं। मनौवैज्ञानिक तथ्यों का उद्घाटन, इन गुणों से 'मूकमाटी' महाकाव्य श्रोत्रेन्द्रिय के विषय की निस्सारता के बोध की यह अभिव्यक्ति ने अपने को उत्कृष्ट काव्यों की पंक्ति में आसीन किया है। यह एक शान्तरस की व्यंजना करती है महामुनि के भीतर विराजमान महाकवि की देदीप्यमान प्रतिभा का ओ श्रवण! कितनी बार श्रवण किया स्वर का? अनूठा निदर्शन है। ओ मनोरमा! कितनी बार स्मरण किया स्वर का? रतनचन्द्र जैन 10 जुलाई 2002 जिनभाषित Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मान्वेषी : आचार्य श्री विद्यासागर जीवन-परिचय एवं वचनामृत कर्नाटक प्रान्त के बेलगाम जिले में सदलगा नाम का एक गाँव है। आपका जन्म इसी सदलगा गाँव के निवासी श्री मल्लप्पाजी अष्टगे और श्रीमतीजी अष्टगे के परिवार में 10 अक्टूबर 1946 को शरद पूर्णिमा के दिन हुआ। आपका बचपन का नाम विद्याधर था । आपका परिवार धन-धान्य से सम्पन्न था। आपके पिता श्री मल्लप्पा जी अष्टगे अत्यन्त कर्मठ और ईमानदार कृषक थे, जो अपनी निजी भूमि में गन्ना, मूंगफली आदि की खेती किया करते थे। आपको धार्मिक संस्कार अपने माता-पिता से मिले जिनमन्दिर जाना, जिनवाणी का अध्ययन करना, मुनिजनों की सेवा करना, दानपुण्य आदि धर्म कार्यों में सदा तत्पर रहना यह आपके मातपिता की सहज दिनचर्या थी। आपकी माता बड़ी सरल स्वभावी और श्रद्धालु महिला थीं। उनका अधिकांश समय व्रत, नियम और पूजा-पाठ में व्यतीत होता था। आपके जन्म के पूर्व आपकी माँ ने स्वप्न में दो ऋद्धिधारी मुनियों को आकाश मार्ग से आते देखा और अपने हाथों से उन्हें आहार भी दिया। मराठी में एक कहावत है'मनी बसे स्वप्ने दिसे' मन में जैसे भाव होते हैं वैसा ही स्वप्न दिखाई देता है। आपको पाकर आपकी माँ की भावनाएँ साकार हो गईं । विद्याध्ययन के प्रति आपकी रुचि बचपन से ही थी । घर से स्कूल तक तीन मील दूर आप कंधे पर बस्ता डाले पैदल ही चले जाया करते थे। आपने प्राथमिक और उच्च स्कूली शिक्षा अच्छे अंकों से उत्तीर्ण की। स्कूल से अवकाश मिलने पर आप घर में रहकर चौबीस तीर्थंकरों के नाम और 'भक्तामर' के श्लोक कण्ठस्थ किया करते थे। प्रतिदिन रात को भगवान् के दर्शन करके घर लौटने पर आप अपने छोटे भाई-बहनों को धर्म की अच्छीअच्छी बातें सुनाया करते थे। अपने मधुर कंठ से स्तुति गाया करते थे। अपने दोनों छोटे भाइयों को गोद में लेकर आपने उन्हें सदा यही समझाया कि जीवन में सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र्य रूपी तीन रत्नों को प्राप्त करना ही श्रेष्ठ है । आपको चित्रांकन का शौक था। रंगों का डिब्बा और तूलिका लेकर आप घर के किसी कोने में बैठकर बड़े जतन से अपनी कल्पना को अंकित करते थे। आपकी एकाग्रता, संवेदनशीलता कला-प्रवणता देखते ही बनती थी। यौवन की देहरी पर पैर रखते ही आपका मन विषयवासना से दूर रहकर समुद्र की अथाह जलराशि का आलिंगन करने और इस पार से उस पार जाने का हुआ करता था। यह शायद आपके कोमल हृदय में लहराते करुणा के अपार सागर की पुकार थी जो जीवन में साकार होती चली गई। आज आप भवसागर मुनि श्री क्षमासागर से पार उतारने वाले महानाविक हैं। लगभग नौ-दस बरस की उम्र में जब आप माता-पिता के साथ शेडवाल ग्राम में विराजे चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज के दर्शन करने गए थे, तब आपके निश्छल निर्मल मन में वीतरागता के प्रति सहज लगाव उमड़ पड़ा था। जो दिनोंदिन निरन्तर साधुसंगति पाकर बढ़ता ही चला गया। आपने बीस बरस की युवा अवस्था में संसार से विरक्त होकर गृह त्याग कर दिया और गुरु ज्ञानसागर जी मुनिराज के चरणों में रहकर जैनदर्शन, न्याय, व्याकरण, साहित्य और अध्यात्म का ज्ञान अर्जित किया। अल्प वय में ही आपकी उच्च साधना और ज्ञान को देखकर गुरु ज्ञानसागरजी ने राजस्थान के अजमेर नगर में 30 जून 1968 को आपको दिगम्बर- मुनि दीक्षा प्रदान की। आप मुनिश्री विद्यासागर जी के नाम से प्रसिद्ध हो गए। आप संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, अँग्रेजी, मराठी, कन्नड़ आदि अनेक भाषाओं के जानकार हैं। आपने गुरुकृपा, आत्मनिष्ठा और सतत साधना के बल पर परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार करने वाली आत्मविद्या को भी प्राप्त कर लिया है। वर्तमान में आप अपने विशाल मुनिसंघ के संघ-नायक / आचार्य हैं। आपकी कल्याणवाणी में आत्मानुभूति की झलक स्पष्ट दिखाई देती है आपके चिन्तन में चेतना की ऊँचाई और साधना की गहराई है। आपकी मधुर मुस्कान में आत्मा की सुगंध और सौंदर्य दोनों हैं। आपकी वीतराग - छबि से करुणा निरन्तर झरती रहती है। आपका समूचा व्यक्तित्व सूरज की रोशनी की तरह उज्ज्वल और तेजस्वी है। 1 आप अपने इन्द्रिय और मन पर विजय प्राप्त करने वाले निष्काम - साधक हैं। आप अहिंसा, सत्य, अचौर्य, बह्मचर्य और अपिरग्रह की जीवन्त मूर्ति हैं। एक गहरी आत्मतृप्ति आपके चेहरे पर सदा बनी रहती है। भोजन में लवण का त्याग कर देने पर भी आपका भीतरी लावण्य अद्भुत है। मधुर रस से विरक्त होते हुए भी आपमें असीम माधुर्य है। स्निग्ध पदार्थों का त्याग होते हुए भी आपकी आंतरिक स्निग्धता देखते ही बनती है। समस्त फलों का त्याग करके मानो आपका जीवन स्वयं फलवान् हो गया है। आप समुद्र की तरह अपार और अथाह हैं। जैसे सागर की विस्तृत असीम जलराशि हमें बरबस अपनी ओर आकृष्ट करती है और मानो स्वयं सागर होने का निमंत्रण देती है, ऐसे ही आपका सामीप्य आत्मानुभूति के महासागर में प्रवेश करने का आमंत्रण देता है। जैसे सागर में कितनी ही नदियाँ आकर विलीन हो जाती हैं और सागर कभी अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता ऐसे ही आपके चरणों में कितनी ही आत्माएँ समर्पित होती जाती हैं, पर -जुलाई 2002 जिनभाषित 11 . Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप सबके बीच निर्लिप्त और शान्त रहे आते हैं। सम्यग्दर्शन, ज्ञान | के समान हैं, जो स्वयं नदी के उस पार जाती है और अपने साथ और चारित्र्य जैसे श्रेष्ठ रत्नों को अपनी अनंत आत्म-गहराई में | अन्यों को भी पार लगाती है। छिपाए हुए आप सचमुच रत्नाकर हैं। दिन में एक बार सद्गृहस्थ बालक अपनी माँ के पास बैठकर अपने हृदय की हर बात के द्वारा हाथ की अंजली में दिया गया शुद्ध सात्त्विक आहार ग्रहण बड़ी सरलता से कह देता है और प्रसन्न होता है। इसी प्रकार, करना, लकड़ी के आसन पर अल्प निद्रा लेना, केशलुंचन करना, सरल हृदय वाला साधक जब यथावत होकर सभी ग्रंथियाँ खोल बालकवत् निर्विकार भाव से विचरण करना और शरीर के देता है और सीधा-सादा अपने मार्ग पर चलना प्रारम्भ कर देता है, श्रृंगार,स्नान आदि से विरक्त रहना-यह आपके साधु जीवन की तब उसके जीवन में सहज आनन्द की प्राप्ति होने लगती है। जिसका मन संसार के प्रति वैराग्य और प्राणी मात्र के प्रति कठोर तपश्चर्या है। इतनी कठोर तपश्चर्या के बावजूद आप अत्यन्त मृदुता से भरा है, वह इस संसार से सहज ही पार हो जाता है। सरल, सहज और संवदेनशील हैं। आपके आत्मानुशासित जीवन | निराकुलता जितनी-जितनी जीवन में आये, आकुलता में अद्भुत लयात्मकता सहज ही दिखाई देती है। जितनी-जितनी घटती जाये, उतना-उतना मोक्ष आज भी संभव आपकी नग्नता भीतर-बाहर एक-सा उज्ज्वल, निर्मल | और पारदर्शी होने का संदेश देती है। साथ ही अपरिग्रह और संयम वह है जिसके द्वारा जीवन स्वतंत्र और स्वावलंबी अनासक्ति का या अल्पतम लेकर अधिकतम लौटाने का पाठ हो जाता है। प्रारम्भ में तो संयम बंधन जैसा लगता है, लेकिन बाद सिखाती है। में वही जब हमें निबंध बना देता है, हमारे विकास में सहायक आप भक्ति, ज्ञान और आचरण की पावन त्रिवेणी हैं।। बनता है तब ज्ञात होता है कि यह बंधन तो निर्बंध होने का बंधन आपका चरण-सानिध्य पाकर हम सहज ही अपने पापों का | | था। प्रक्षालन करके निर्मल आत्मा की अनुभूति कर सकते हैं। आपकी | दुनिया के सारे संबंधों के बीच भी मैं अकेला हूँ - यही भाव मधुर, मुस्कान और मृदुता मन को मुग्ध ही नहीं करती, बल्कि | बनाये रखना सुखी रहने का एकमात्र उपाय है। वास्तव में, सुख संसार से मुक्त भी करती है। आत्म-साधना में लीन रहकर भी | अन्यत्र कहीं नहीं है, सुख तो अपने ही भीतर एकाकी होने में है। आप अपनी हित-मित और प्रिय वाणी से लोक-कल्याण में तत्पर |.सभी के प्रति राग-द्वेषरूप विकारी भावों से मुक्त अपने वीतराग रहते हैं। स्वरूप का चिन्तन करना धर्म की वास्तविक उपलब्धि है। अनेक प्राचीन तीर्थस्थल आपका स्पर्श पाकर जीवन्त हो आज का युग भाषा-विज्ञान में उलझ रहा है और भीतर के उठे हैं और आगामी पीढ़ी के लिए कुछ नए श्रद्धास्थल भी आपके तत्त्व को पकड़ ही नहीं पा रहा है। जो ज्ञान, साधना के माध्यम से शुभाशीष से आकार ले रहे हैं। समाज आपसे सही दिशा पाता है | जीवन में आता है, वह भाषा के माध्यम से कैसे आ सकता है? और युवा-शक्ति आपके श्रीचरणों में नतशीर्ष होकर सदाचार का पाँच इन्द्रियों के विषयों से मन को हटाकर अपने आत्म-ध्यान में पाठ सीखती है। संस्कारवान युवा देश की प्रशासनिक सेवाओं में लगाना ही ज्ञानीपने का लक्षण है। ज्ञान का प्रवाह तो नदी के प्रवाह की तरह है,उसे किसी भी योगदान दे सकें, इसलिए उनके योग्य प्रशिक्षण केन्द्र का संचालन दिशा में बहाया जा सकता है। हमारा कर्त्तव्य है कि उसे स्व-परआपके आशीर्वाद से सफलतापूर्वक किया जा रहा है। पशु-पक्षियों हित के लिए उपयोग में लायें, उसे सही दिशा दें। ज्ञान का दुरुपयोग को जीवनदान देने वाली अनेक गोशालाएँआपकी चरण-रज पाकर पवित्र हो गई हैं। सर्वमैत्री और करुणा का संदेश देने वाला भाग्योदय होना विनाश है और ज्ञान का सदुपयोग करना ही विकास है। प्रत्येक व्यक्ति आकश की ऊँचाइयाँ छूना चाहता है, लेकिन तीर्थ आपकी असीम कृपा का सुफल है। कबीर ने ठीक ही लिखा अपने ऊपर लादे हुए अपवित्र / अनावश्यक बोझ को नहीं हटाता, है कि - जो उसे ऊपर उठने में बाधक साबित हो रहा है। पवित्रता तो लोभ तन का जोगी सब करै, के परित्याग से ही संभव है। मन का बिरला कोय। आज देश के सामने सबसे बड़ा संकट, सबसे बड़ी समस्या सब सिधि सहजै पाइए, मात्र भूख-प्यास की नहीं है, बल्कि समस्या तो विचारों के परिमार्जन जो मन जोगी होय । की है। सभी के प्रति सद्भाव ही इस समस्या का अंतिम समाधान वचनामृत है। लोकतंत्र की नींव देश के प्रति गौरव, बहुमान एवं परस्पर जैसे माँ अपने बच्चे को बड़े प्रेम से दूध पिलाती है, वैसी | अपनत्व की भावना के द्वारा ही सुरक्षित रहेगी। ही मनोदशा होती है बहुश्रुतवान गुरु महाराज की। अपने पास 'पर' कल्याण में भी 'स्व' कल्याण निहित है। किसान आने वालों को वे बताते हैं संसार की प्रक्रिया से दूर रहने का ढंग | की यही भावना रहती है कि वृष्टि समय पर हुआ करे और जब भी और उनका प्रभाव भी पड़ता है, क्योंकि वे स्वयं उस प्रक्रिया की | होती है सभी के खेतों पर होती है किन्तु जब किसान फसल साक्षात् प्रतिमूर्ति होते हैं। काटता है तो अपनी ही काटता है किसी दूसरे की नहीं। गुरु स्वयं भी तरते हैं और दूसरों को भी तारते हैं। वे नौका | 12 जुलाई 2002 जिनभाषित - Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नत्रय के प्रकाशपुञ्ज डॉ. श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत अध्यात्म भावना के भावयिता आत्मचिन्तक, संयम साधना । महात्म्य है। सतत संलीन आचार्य श्री विद्यासागर महाराज सौम्य गुण ग्राहक, आचार्य श्री अमृतचन्द्रसूरि ने तो मोक्ष के हेतुओं में ज्ञान शुचिता, सत्यता; संयत, सुललित व्यक्तित्व सम्पन्न श्रमणसंस्कृति | को बहुत अधिक महत्त्व दिया है। वे समयसार की गाथा 153की उन्नायक श्रेष्ठ साहित्यकार हैं। भव्य और दिव्य व्यक्तित्व के धारक टीका में लिखते है-"ज्ञान के अभाव में अज्ञानियों में अन्तरंग व्रत, रत्नत्रय के मूर्तिमान स्वरूप हैं। रत्नत्रय में प्रथम स्थान सम्यग्दर्शन | नियम, सदाचरण, तप आदि होते हुए भी मोक्ष नहीं है, क्योंकि का है। आचार्य श्री में सम्यक्त्व के बाह्य लक्षण स्फुट रूप से | अज्ञान ही बन्ध का हेतु है" इस कथन से स्पष्ट है कि ज्ञानी की परिलक्षित होते हैं। व्यवहार सम्यक्त्व के साथ निश्चय सम्यक्त्व के | क्रियाएँ ही सार्थक हैं, ज्ञानपूर्वक चारित्र का पालन साध्य की अधिकारी इसलिए प्रतीत होते हैं, क्योंकि उनका ज्ञान और चारित्र | सिद्धि कराने वाला है। सम्यक् है। सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की उत्पत्ति, वृद्धि बिना आचार्यश्री का अध्ययन का व्यापक है, उनका अध्ययन सम्यग्दर्शन के नहीं होती है जैसा कि जिन शासन की महती | जैनधर्म-दर्शन, आगम-सिद्धान्त और साहित्य के घेरे में ही आबद्ध प्रभावना करने वाले आचार्य श्री समन्तभद्रस्वामी ने कहा है- नहीं है उन्होंने समग्र भारतीय दर्शनों और भारतीय धर्मों के ग्रन्थों विद्या वृत्तस्य संभूति स्थितिवृद्धि फलोदयाः। को अपने अध्ययन का विषय बनाया है, उनका गम्भीर चिन्तन है। न सन्त्यसति सम्यक्त्वे बीजाभावे तरोरिव ॥32॥ गहराई से सोचा-समझा है, जिसका परिणाम उनके संस्कृत और रत्नकरण्ड श्रावकाचार | हिन्दी काव्य साहित्य में स्पष्ट दिखलायी पड़ता है। उनके द्वारा जिस प्रकार बीज के बिना वृक्ष की उत्पत्ति नहीं हो सकती | लिखित संस्कृत शतकसाहित्य और मूकमाटी सहित अन्य काव्यग्रन्थों उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के बिना सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र की | का अनुशीलन-परिशील करने तथा उनके प्रवचनों को सुनने पर उत्पत्ति, वृद्धि, स्थिति नहीं होती है। उनकी विशाल दृष्टि, उनके विराट व्यक्तित्व, गम्भीर चिन्तन' और आचार्य श्री आगम और सिद्धान्त के गहन अभ्यासी हैं। धर्मात्माओं के प्रति समभाव के स्पष्ट दर्शन होते हैं। इतना ज्ञान उन्हें पूर्ण अवबोध है कि मोक्षमार्ग में ज्ञान और चारित्र का महत्त्व | होने पर भी उन्हें अहंकार और अहंभाव छू तक नहीं गया है। हाँ कम नहीं है, इसीलिए उन्होंने पूर्ण श्रद्धापूर्वक ज्ञान और चारित्र को | | रूढ़िवादिता से हटकर उनके चिन्तन को कुछ लोग स्वीकार नहीं विकसित किया है। यही अमृतचन्द्र सूरि का कहना है कर पाते हैं या शास्त्रों के मर्म को न समझने के कारण भी उन्हें वह ___ तत्रादौ सम्यक्त्वं समुपाश्रयणीयमखिलयत्नेन। अस्वीकार्य होता है, इसलिए कोई कभी दबी जुबान से आचार्य श्री तस्मिन्सत्येव यतो भवति ज्ञानं चारित्रञ्च ॥ पुरुषार्थल के विरोध में भी स्वर निकालता है, किन्तु जब वास्तविकता का रत्नत्रयरूपी मोक्षमार्ग में सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन का अखिल | बोध हो जाता है, तो वही आचार्यश्री के द्वारा प्रस्तुत चिन्तन का प्रयत्नपूर्वक आश्रय लेना चाहिए क्योंकि सम्यग्दर्शन के होने पर | जोरदारी से स्वागत करता है। ही ज्ञान और चारित्र सम्यक् बनते हैं। तीनों के सम्यक् होने पर | आचार्य श्री वर्तमान साधकों में सर्वाधिक ज्ञानवान हैं। मोक्षमार्ग प्रशस्त होता है। | जहाँ उनके ज्ञान का परिणाम विविध विधाओं के विविध ग्रन्थ हैं समयक्त्वनिधि से विभूषित आचार्य श्री विद्यासागर जी | जिन पर अनेक छात्र-छात्राएँ शोध कर पी-एच.डी. उपाधि ग्रहण का विपुल साहित्य और सहस्रों मनीषियों की ज्ञान-पिपासा को | कर चुके हैं, वहीं "णाणस्स फलं पच्चक्खाणं" अर्थात् ज्ञान का शान्त करने वाले उनके प्रवचन ज्ञान गुण की विशिष्टता के परिचायक | फल त्याग (चारित्र) है। आचार्यश्री इसके सच्चे अधिकारी हैं। हैं। लेखन, प्रवचन शब्दाडम्बर नहीं है अपितु अर्थवहन की क्षमता | उनका जीवन ज़ान और चारित्र की समन्वित साधना का स्वरूप वाला है, मोक्षमार्ग को प्रशस्त करने वाला है और यही कारण है है। श्रमण संस्कृति में उसी ज्ञान को महत्त्व दिया जाता है जो कि लाखों धर्मश्रद्धालु आपके बताये मार्ग पर चलकर अपने आपको | आचरण में मूर्त रूप लेता है। जो ज्ञान आचार में नहीं उतरता धन्य समझ रहे हैं। जिसके धर्मोपदेश से सहस्रों प्राणी मोक्षमार्ग | केवल तत्त्वचर्चा एवं वाद-विवाद या उपदेश तक ही सीमित पर बढ़ जाएँ उसका ज्ञान सम्यग्ज्ञान ही होता है। चतुर्थकाल में | रहता है, वह केवल बोझ रूप है। उससे साध्य की सिद्धि नहीं तीर्थंकरों के उपदेशों से कोटि-कोटि मानव मोक्षमार्गी बनकर | होती है। साध्य की सिद्धि या साधुत्व की सफलता के लिए ज्ञान आत्मकल्याण कर सके। वर्तमान में आचार्य श्री विद्यासागर महाराज | के साथ चारित्र का होना अनिवार्य है। यह कहना अत्युक्ति नहीं है के उपदेश और संस्कार से सहस्रों, श्रद्धालु मोक्षमार्ग पर आरूढ़ | कि आचार्यश्री के जीवन में ज्ञान की दिव्य ज्योति के साथ होकर आत्म कल्याण कर रहे हैं, यह सब सम्यग्ज्ञान का ही | सम्यक्चारित्र के उज्ज्वल-समुज्ज्वल स्वरूप का दर्शन होता है। -जुलाई 2002 जिनभाषित 13 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी द्वारा कथित निम्न गाथा को | वे सद्गुणों के भण्डार हैं। प्रशान्त, गम्भार, उदारचेता, हृदयङ्गम कर तदनुरूप जीवन पथ को बढ़ा रहे हैं सिद्धसारस्वत, हितमित प्रियभाषी, पर हित निरत, स्याद्वादविद्या चारित्रं खलु धम्मो धम्मो जो सो समोत्ति णिदिट्ठो। के अधिपति आचार्य समन्तभद्र, मट्टाकलंक देव, जिनसेन, विद्यानन्दि मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो॥7॥ | आदि आचार्यों सदृश जैन शासन के अनुपम द्योतक, प्रभावक और प्रवचनसार | प्रसारक आचार्य श्री विद्यासागज महाराज सम्प्रति अर्द्ध शत मुनि चारित्र वास्तव में धर्म है और जो धर्म है, वह साम्य है, | दीक्षाएँ और सार्धशत अर्यिका दीक्षाएँ प्रदान कर लोक में दिगम्बरत्व ऐसा जिनेन्द्रदेव द्वारा कहा गया है। साम्य ही यथार्थतः मोह और | का जो जयघोष किया है, उसका वर्णन करने के लिए शब्द क्षोभरहित आत्मा का परिणाम है। सामर्थ्य हीन हैं। चारित्र की प्राप्ति ही मानव-जीवन की सार्थकता है। इसके आचार्यश्री में ऐसी विलक्षणता एवं अद्भुद्ता है जो दर्शकों द्वारा ही कषायों का उपशमन किया जा सकता है। इस चिन्तन ने | को सहज ही आकर्षित कर लेती है। वे इनके श्रीचरणों में रहकर ही आचार्य श्री को पञ्चाचार के सम्यक् परिपालन की प्रशस्त | अपने जीवन को व्यतीत करना चाहते हैं। इसी आकर्षणशक्ति के प्रेरणा प्रदान की है। चारित्र की महिमा प्रायः सभी आरातीय | फलस्वरूप सैकड़ों युवा-युवतियाँ आपके चरणों में बैठकर ज्ञान आचार्यों ने गायी है। आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी ने भी महत्ता । की आराधना कर रहे हैं और स्व-पर कल्याणकारी दैगम्बरी दीक्षा बतलायी है अंगीकार कर जिनधर्म की महिमा बढ़ा रहे हैं। चारित्रं भवति यतः समस्त सावधयोगपरिहरणात्। विचारों में दृढ़ता, अन्त:करण में भव्य करुणा, चिन्तनपूर्ण सकलकषायविमुक्तं विशदमुदासीनमात्मरूपं तत्॥ | धार्मिक जीवन, आत्मसाधना, शास्त्रानुकूल चर्या आचार्यश्री का कारण यह है कि समस्त पाप युक्त योगों के दूर करने से | समग्र व्यक्तित्व है और युगों-युगों तक तत्त्वों का बोध कराने वाला चारित्र होता है, वह चारित्र समस्त कषायों से रहित होता है, | संयम-साधनों का सत्शिक्षण देने वाला, आगम अध्यात्म व्याकरणनिर्मल होता है, राग-द्वेष रहित वीतराग होता है, वह चारित्र आत्मा | साहित्य, धर्म-दर्शन का निरूपक समग्र कृतित्व है। का परिणाम है। अनुपमेय व्यक्तित्व और कृतित्व वाले आचार्यश्री विद्यासागर आत्म परिणाम रूप चारित्र के अधिकारी आप जैसे विरले | जी पुरातन श्रमण परम्परा के उन्नायक, पञ्चाचारपरिपालक, सन्त ही हैं क्योंकि षट्त्रिंशद्गुणमण्डित परम वीतरागी सन्त हैं। वाल्मीकि के शब्दों शैले-शैले न माणिक्यं, मौक्तिकं न गजे गजे। साधवो नहिं सर्वत्र, चन्दनं न वने वने ॥ "न परः पापमादत्ते परेषां पापकर्मणाम्। प्रत्येक पर्वत में माणिक्य नहीं होता। प्रत्येक हाथी के समयो रक्षितव्यस्तु सन्तश्चारित्र भूषणाः॥" मस्तक में मुक्ता नहीं है। प्रत्येक वन में चन्दन नहीं है, उसी प्रकार आचार्यश्री सच्चे सन्त हैं। सर्वत्र साधु नहीं मिलते। सन्त स्वयं सन्मार्ग पर चलते हुए दूसरों को सन्मार्ग पर साधु से तात्पर्य साधुता से है। आज साधुओं की अधिकता | लेकर चलते हैं। आचार्यश्री ने वर्तमान में पनप रही विकृतियों को है, किन्तु आचार्यश्री-जैसी साधुता विरले पुरुषों में ही पायी जाती रोककर जिनेन्द्र महाप्रभु के मार्ग को स्वयं अपनाया है और संसार है। आप सच्चे साधक हैं। निरन्तर ज्ञान,ध्यान, तप में लवलीन सागर में निमग्नजनों को उससे निकालकर प्रशस्त मोक्षमार्ग पर रहने वाले परम तपस्वी हैं। रत्नत्रय के मूर्तिमान स्वरूप आपके | बढ़ाया है, बढ़ा रहे हैं। यह जगत् आचार्यश्री के उपकार से सतत जितने भी गुण वर्णित किए जाएँ वे सब थोड़े होंगे। इनके किञ्चित् उपकृत रहेगा, वे इसी प्रकार युग-युग तक जिनधर्म के निमित्त गुणों का कथन आत्मतोष के लिए हो सकता है, क्योंकि गुणनिधि बने रहें। 24/32, गाँधी रोड, के गुणों को प्रकट करना असंभव ही है। बड़ौत-250611 उ.प्र. में विद्याधर से विद्यासागर बन गए राजचन्द्र जैन 'राजेश' वे उपमेय की उपमाओं से उपमातीत बन गए। वे जैनधर्म की आन, बान और शान बन गए। वे स्वयं दया और करुणा की मिसाल बन गए। वे विद्याधर थे, विद्याधर से विद्यासागर बन गए। दि. जैन मन्दिर टी.टी. नगर, भोपाल 14 जुलाई 2002 जिनभाषित - Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य जगत के ज्योतिर्मय नक्षत्र : आचार्य विद्यासागर डॉ. के.एल. जैन 'साहित्य' शब्द की हिन्दी, संस्कृत और अंग्रेजी के विद्वानों | शब्दों के माध्यम से व्यक्त होकर जन-जन के हृदय को अनुरंजित ने अपने-अपने ढंग से व्याख्या की है। विद्वानों का तत्सम्बन्ध में | करती हुईं अतीन्द्रिय आनन्द की अनुभूति कराती हैं तो कविता यही मत रहा है कि 'साहित्य' वह है जो सभी का 'हित-साधन' | धन्य हो जाती है। और ऐसा ही कार्य किया है कवि की 'मूकमाटी' करे, जिसमें जन कल्याण की भावना हो तथा जिसके द्वारा जीवन ने। फिर 'मूकमाटी' केवल एक काव्यकृति नहीं, वरन् एक ऐसी की व्याख्या इस तरह से की जाय जिसमें मानवीय भावनाओं, | रचना है जिसमें भक्ति, ज्ञान और काव्य की त्रिवेणी का संगम संवेदनाओं और आत्माभिव्यक्ति को पूरा-पूरा स्थान मिल सके। सबको पावन बना देता है। 'मूकमाटी' महाकाव्य 'जैनदर्शन' के आचार्य विद्यासागर जी साहित्य का सम्बन्ध 'सामाजिक-सुख' धरातल पर समकालीन परिप्रेक्ष्य में काव्य-शास्त्र की एक नवीन और उसके हित-चिन्तन' से मानते हैं । अर्थात् साहित्य में सम्पूर्ण भावभूमि प्रस्तुत करने के साथ-साथ सांस्कृतिक विकास के स्वरूप समाज के हित-चिन्तन' का भाव समाहित होना चाहिए तभी वह को दर्पण की भाँति रेखांकित करता है। महत्त्वूपर्ण बात यह है कि सच्चा साहित्य कहलाने का हकदार होता है। इस कृति ने जीवन में हताशा, पराजय और कुण्ठा के स्थान पर आचार्यश्री ने विपुल साहित्य का सृजन किया है। इस जिस आशा, पुरुषार्थ और स्थाई मूल्यों का संचार किया है वह साहित्य में सृष्टि का सार समाया हुआ है। उनकी कृतियाँ 'ज्ञान | अपने आप में अन्यतम है। कुल मिलाकर देखा जाय तो यही राशि के संचित कोश' हैं जिनमें जनकल्याण और लोक कल्याण | कहना पर्याप्त होगा कि 'मूकमाटी' एक ऐसी काव्यकृति है जिसमें की भावना समाहित है। इस दृष्टि से उनके प्रवचन' काफी महत्त्वपूर्ण | सम्पूर्ण सृष्टि का सार तत्त्व समाया हुआ है जिसे कोई भी साहित्यकार एवं सारग्राही हैं। वैसे 'प्रवचन' एक कला है, परन्तु उस कला में | किसी एक रचना में संयोजित करने का दुर्लभ प्रयास न तो आज पारंगत हो पाना अत्यन्त कठिन कार्य है। इसके लिए पुस्तकीय तक कर सका है और भविष्य में भी कर सकेगा, यह कहना भी ज्ञान के साथ-साथ शास्त्रीय बोध और लौकिक ज्ञान की भी कठिन है। आवश्यकता होती है, तभी एक श्रेष्ठ 'प्रवचनकार' अपनी वाणी के । ऐसा माना गया है कि जब एक 'सन्त' कविता के रूप में माध्यम से इस संसार में भटक रहे मानवों को ज्ञानामृत पिलाकर | अपनी आत्मानुभूति को प्रकट करता है तब उसकी वाणी के उनका पथ प्रशस्त सकता है। चूंकि आचार्य विद्यासागर को संस्कृत, सारतत्त्व को हृदयंगम करने में अधिक सरलता होती है। आचार्य प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, मराठी, कन्नड़, अंग्रेजी और बंगला भाषा विद्यासागर ने आगम की भूल-भुलइयों तथा काव्य की दुरूहता से का पर्याप्त ज्ञान है, इसलिये उनके प्रवचन' ज्ञानराशि के खजाने हैं आज के श्रावक और पाठक को बाहर निकालने का जो मंगल जिनमें सृष्टि का सारतत्त्व समाया हुआ है। कार्य किया है वह निश्चित रूप से समकालीन कविता की दृष्टि से आचार्य विद्यासागर इस धरित्री पर एक प्रकार के जंगमतीर्थ | एक अनूठा प्रयोग माना जाएगा और साहित्य जगत में इसके लिए हैं, जो इस भौतिक जगत् को सन्तापों से मुक्त कराने में लगे हुए | आपके प्रति चिर ऋणी रहेगा। हैं। फिर एक सच्चा 'सन्त' तो अपने ज्ञान और साधना के द्वारा काव्य का सीधा सम्बन्ध आत्मा से है। जिस प्रकार धर्म ऐसा 'अलख' जगाता है कि संसार में भटक रहे लोगों को दिशा | का उद्देश्य जन-जन का हित करना है, ठीक वैसे ही उत्तम साहित्य मिल जाती है। आचार्य विद्यासागर ने अपने प्रवचनों के द्वारा | भी हितेन साहितम्' होता है। अर्थात् उत्तम साहित्य वह है जो 'जिनवाणी' के प्रसाद को सम्पूर्ण उत्तर भारत में जिस उदारता से | मानव को हित की ओर उन्मुख करे। उसके जीवन का परिमार्जन बाँटा है उसके लिए सदियाँ भी उनके इस उपकार को विस्मृत नहीं | करे। अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाय। मृत्यु से मुक्त कर दे। कर पाएँगीं। क्योंकि इन प्रवचनों में सृष्टि का सार, जीवन का यदि सही मायने में देखा जाए तो साहित्य का यही स्वरूप 'धर्मसौन्दर्य, मानवता का मर्मं, मनुष्यत्व की गरिमा, संस्कृति का स्वरूप | साधना' से भी निखरता है। 'धर्म' हमें बाह्य प्रदूषण से मुक्त कर मर्यादाओं की थाती, मुक्ति की प्रेरणा, तप और संयम का उत्कर्ष आत्मा के पवित्र पर्यावरण में ले जाता है। इस व्याख्या से यह बात तथा जागरण का सन्देश/शंखनाद सुनाई देता है। स्वयमेव ही स्पष्ट हो जाती है कि 'धर्म' और 'साहित्य' का परस्पर विद्वानों का ऐसा मानना है कि कविता मन की असल / एक दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध है। तत्सम्बन्ध में इतना कहना ही गहराइयों से उठती हुई अनुभूतियों की तरंग है। ये ही तरंगें जब | पर्याप्त होगा कि आचार्य विद्यासागर का धर्म-चिन्तन ही उनकी -जुलाई 2002 जिनभाषित 15 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्य-चेतना बन गई है, जिसके द्वारा उन्होंने सांसारिक प्राणियों | होगी। मुझे लगता है कि इस पुस्तक के प्रकाशन से आचार्य को आत्मकाव्यरस की संजीवनी पिलाकर जीवन दान दिया है। | विद्यासागर की उदात्त जीवन-प्रणाली, धार्मिक औदार्य और आचार्यश्री ने भावों की अभिव्यक्ति के लिए सुन्दर भाषा | रचनात्मक उत्कर्ष का जो सन्देश साहित्य जगत् तक पहुँचेगा, वह और श्रेष्ठ शब्दावली का चयन किया है। लेकिन छन्दों के बन्धन | निश्चित रूप से अन्यतम होगा। को स्वीकारना इसलिए उचित नहीं माना कि मुक्ति की चाह रखने मेरो विनम्र अनुरोध है कि सुधी और विज्ञजन इस महनीय वाला निर्बन्ध 'सन्त' किसी बन्धन को (जीवन और काव्य में) | ग्रन्थ को अवश्य पढ़ें, उन्हें अनूठा लाभ होगा। क्योंकि समकालीन कैसे स्वीकार सकता है। इसलिए उन्होंने मुक्त-छन्द को भी अपनी | समय के आचार्य विद्यासागर एक ऐसे 'सन्त हैं: अभिव्यक्ति का आधार बनाया, पर उसमें भी जो एक गति और "श्रद्धानत हो अक्षय कीर्ति करती जिन्हें प्रणाम। लय का भाव है वह पाठक को आन्दोलित करने के साथ-साथ अधर-अधर पर कौन लिख गया विद्यासागर नाम॥" रससिक्त भी कर देता है। प्रोफेसर एवं अध्यक्ष-हिन्दी विभाग डॉ. बारेलाल जैन द्वारा लिखित हिन्दी साहित्य की सन्त शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, टीकमगढ़ (म.प्र.) काव्य परम्परा के परिप्रेक्ष्य में आचार्य विद्यासागर के कृतित्व | 1.हिन्दी-साहित्य की सन्त काव्य-परम्परा के परिप्रेक्ष्य में आचार्य का अनुशीलन' पुस्तक की रचनात्मक क्षमता पठनीय और ग्रहणीय विद्यासागर के कृतित्व का अनुशीलन है। यह कृति 'सन्त-साहित्य' के अध्येताओं को एक नूतन दृष्टि लेखक - डॉ. बारेलाल जैन, शोध सहायक-महाकवि प्रदान करने के साथ-साथ समय के महत्त्व को समझने के लिए केशव अध्यापन-अध्यापन विभाग, अवधेश प्रताप सिंह विश्वभी चेतना प्रदान करेगी। विद्यालय, रीवा, मध्यप्रदेश। सामाजिक परिष्कार के लिए इस प्रकार की पुस्तकों का | प्रकाशक- निर्ग्रन्थ साहित्य प्रकाशन समिति, 4, कलाकार औचित्य असन्दिग्ध है। पुस्तक की भाषा सहज और सरल होने | स्ट्रीट, कोलकाता-700007 (पं.बंगाल) प्रथमावृत्ति, पृ. 20+254, के कारण पाठक को पहेलियों में भटकने की अड़चन प्रतीत नहीं | मूल्य 45 रुपए। आदिपुराण के सुभाषित विद्यावान् पुरुषो लोके सम्मतिं याति कोविदैः। । विद्या बन्धुश्च मित्रं च विद्या कल्याणकारकम्। नारी च तद्वती धत्ते स्त्रीसष्टेरग्रिमं पदं॥ सहयायि धनं विद्या विद्या सर्वार्थसाधनी।। भावार्थ- इस लोक में विद्यावान पुरुष पण्डितों के भावार्थ - विद्या ही मनुष्यों का बन्धु है, विद्या ही द्वारा भी सम्मान को प्राप्त होता है और विद्यावती स्त्री भी मित्र है, विद्या ही कल्याण करने वाली है, विद्या ही साथ सर्वश्रेष्ठ पद को प्राप्त होती है। जाने वाला धन है और विद्या ही सर्व प्रयोजनों को सिद्ध करने विद्या यशस्करी पुसां विद्या श्रेयस्करी मता। वाली है। सम्यगाराधिता विद्या देवता कामदायिनी॥ पुष्यात् सुखं न सुखमस्ति विनेह पुण्याद्। भावार्थ - विद्या ही मनुष्य का यश करने वाली है, बीजाद्विना न हि भवेयुरिह प्ररोहाः॥ विद्या ही मनुष्यों का कल्याण करने वाली है। अच्छी तरह से भावार्थ- इस संसार में पुण्य से ही सुख प्राप्त होता आराधना की गई विद्या देवता ही सब मनोरथों को पूर्ण | है। जिस प्रकार बीज के बिना अंकुर उत्पन्न नहीं होता, उसी करती है। प्रकार पुण्य के बिना सुख नहीं होता। विद्या कामदुहा धेनुर्विद्या चिन्तामणिर्नृणाम्। प्रस्तुति त्रिवर्गफलितां सूते विद्या संपत् परम्पराम्॥ पं. सनतकुमार विनोद कुमार जैन भावार्थ - विद्या मनुष्यों के मनोरथों को पूर्ण करने रजवाँस (सागर) म.प्र. -470422 वाली कामधेनु है, विद्या ही चिन्तामणि है, विद्या ही धर्म, अर्थ तथा काम रूप फल से सहित सम्पदाओं की परम्परा उत्पन्न करती है। 16 जुलाई 2002 जिनभाषित -- Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री विद्यासागर जी के साहित्य पर हुए एवं हो रहे शोध कार्य डॉ. शीतलचन्द्र जैन दिगम्बर जैन समाज के ज्योतिर्मय नक्षत्र एवं जैन श्रमण- 4. डॉ. चन्द्रकुमार जैन (सहा. प्राध्यापक-हिन्दी विभाग, संस्कृति के उन्नायक, बाल ब्रह्मचारी 214 साधकों के दीक्षा- | शासकीय दिग्विजय महाविद्यालय, राजनांदगाँव-491441 प्रदाता सन्तशिरोमणि आचार्यप्रवर श्री विद्यासागर जी महाराज ने छत्तीसगढ़), आवास-22/227, किला पारा, राजनांदगाँव, 07744सन् 1968 में जो कलम थामी, उससे अद्यतन 'मूकमाटी' महाकाव्य, 25647 के द्वारा डॉ. गणेश खरे (प्राचार्य-शासकीय महाविद्यालय, 6 संस्कृत शतकम्, 1 चम्पूकाव्य,राष्ट्रभाषा में 10 शतक, 3 काव्य धुमका (राजनांदगाँव) छत्तीसगढ़) के कुशल निर्देशन में "आचार्य संग्रह, प्राकृत-अप्रभंश-संस्कृत में लिखित पूर्वाचार्यों के 24 ग्रन्थों श्री विद्यासागर कृत 'मूकमाटी' का सांस्कृतिक अनुशीलन" विषय का श्रुतिमधुर काव्यानुवाद एवं लगभग 40 प्रवचन संग्रह सर्जित पर पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़) के होकर जिनवाणी के अक्षय भण्डार के निधि बन चुके हैं। आपके | अन्तर्गत शोध प्रबन्ध आलेखित कर पी-एच.डी. उपाधि प्राप्त की। द्वारा लिखित इस विपुल वाङ्मय पर देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों 5. रमेश चन्द्र मिश्र (प्राध्यापक-हिन्दी विभाग, वासवानी पर अभी तक जो शोध कार्य हुए या हो रहे हैं, उनका विवरण डिग्री कॉलेज, बैरागढ़, भोपाल, म.प्र.) ने बरकतउल्ला विश्वविद्यालय निम्नानुसार है: भोपाल के अन्तर्गत डॉ. वृषभ प्रसाद जैन (रीडर-प्राकृत, तुलनात्मक 1. डॉ. ( श्रीमती) आशालता मलैया (प्राध्यापिका-संस्कृत | भाषा एवं संस्कृति विभाग, बरकतउल्ला विश्वविद्यालय, सम्प्रतिविभाग, महिला महाविद्यालय, सागर, आवास-32 एल.आई.जी. | हिन्दी व्याकरण इकाई-महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय पद्माकर नगर, मकरोनिया, सागर-470004, मध्यप्रदेश, 07582- I (महा.) आवास ए-1/12, सेक्टर-एच, अलीगंज, लखनऊ-226 30093) के द्वारा डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर के अन्तर्गत | 024, उ.प्र. 0522-322263 (नि.), 323671 (कार्या.)) के "संस्कृत शतक परम्परा एवं आचार्य विद्यासागर के शतक" विषय | निर्देशन में "मूकमाटी महाकाव्य के प्रतीकों का वैज्ञानिक पर शोध प्रबन्ध लिखकर सन् 1984 में पी-एच.डी. उपाधि प्राप्त | विश्लेषण' विषय पर सन् 1990 में एम.फिल. हेतु लघु शोध की गई। यह शोध प्रबन्ध स्व. श्री बाबूलाल जैन, जयश्री आइल | प्रबन्ध लिखा। यह प्रबंध शक्ति प्रकाशन, 58 सुल्तानिया रोड, मिल्स, गवलीपारा, दुर्ग (छत्तीसगढ़) द्वारा 1989 में प्रकाशित भोपाल म.प्र. से प्रकाशित है। हुआ है। 6. श्रीमती किरण जैन (द्वारा-डॉ. जे.के.जैन, वरिष्ठ प्रवक्ता2. श्रीमती कल्पना जैन (द्वारा-अरविन्द कुमार जैन, | वाणिज्य विभाग, 13-टीचर्स हॉस्पिटल, विश्वविद्यालय, सागर) एन.सी.पी.एच. कॉलरी,पो. हल्दीवाड़ी, चिरमिरी छत्तीसगढ़ के | के द्वारा लिखित डॉ. सुरेश आचार्य (रीडर एवं अध्यक्ष-हिन्दी द्वारा डॉ. के.एल.जैन (हिन्दी विभागाध्यक्ष-शासकीय स्नातकोत्तर | विभाग-डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय,सागर, म.प्र.) के निर्देशन विद्यालय, टीकमगढ़, मध्यप्रदेश) के निर्देशन में अवधेश प्रताप | में "जैन-दर्शन के सन्दर्भ में मुनि विद्यासागर जी के साहित्य का सिंह विश्वविद्यालय,रीवा, म.प्र. के अन्तर्गत "मूकमाटी महाकाव्यः | अनुशीलन" नाम से सन् 1992 में पी-एच.डी. का शोध प्रबन्ध एक अनुशीलन" नामक लघु शोध प्रबन्ध लिखा गया। स्वीकृत हुआ। 3. डॉ. बारेलाल जैन (रिसर्च एसोसिएट-महाकवि केशव 7. मेहेर प्रसाद यादव, एल.डी.आर्ट्स कॉलेज, अहमदाबाद अध्यापन एवं अनुसन्धान केन्द्र, अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यलाय, गुजरात के द्वारा डॉ. शेखरचन्द्र जैन (पूर्व प्राचार्य एवं हिन्दी रीवा, आवास- दिगम्बर जैन मन्दिर परिसर, कटरा,रीवा) ने डॉ. विभागाध्यक्ष-श्रीमती सद्गुणा सी.यू.आर्ट गर्ल्स कॉलेज, के.एल. जैन (आवास-नूतन विहार कॉलोनी, ढोंगा, टीकमगढ़- अहमदाबाद, आवास-25, शिरोमणी बंगलोज, बड़ोदरा एक्सप्रेस 472001, मध्यप्रदेश-07683-42290, 40907) के निर्देशन में हाइवे के सामने, सी.टी.एम. चार रास्ता के पास, हाइवे, पी-एच.डी. उपाधि "हिन्दी साहित्य की सन्त काव्य परम्परा के अहमदाबाद-380026, गुजरात, 079-5892744,589177) के परिप्रेक्ष्य में आचार्य विद्यासागर के कृतित्व का अनुशीलन' नामक निर्देशन में गुजरात विश्वविद्यालय, अहमदाबाद के अन्तर्गत शोध प्रबन्ध लिखकर प्राप्त की। यह शोधप्रबन्ध निर्ग्रन्थ साहित्य "आचार्य कवि विद्यासागर जी के प्रबन्ध 'मूकमाटी' का प्रकाशन समिति,पी-4, कलाकार स्ट्रीट, कोलकाता-700007, समीक्षात्मक अध्ययन" विषय पर लघु शोध प्रबन्ध सन् 1992 में पश्चिम बंगाल से प्रकाशित हुआ है। ग्रन्थ प्राप्ति हेतु (033)239- | लिखा गया। 887, 2389-3182, 239-8794 (239-8241, फैक्स 238- | | 8. नरेश चन्द्र गोयल के द्वारा (स्व.) डॉ. नरेन्द्र भानावत 3833 पर सम्पर्क किया जा सकता है। । (प्रोफेसर एवं अध्यक्ष-राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर, राज.) -जुलाई 2002 जिलभाषित 17 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के मार्गदर्शन में सन् 1991 में "आचार्य विद्यासागर जी कृत । पर पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। इस प्रबंध में आचार्य 'मूकमाटी: एक अध्ययन' " नामक लघु शोध प्रबन्ध आलेखित | विद्यासागर के मूकमाटी' महाकाव्य पर विस्तृत शोधात्मक विचारकिया गया। विमर्श किया गया है। . 9. सुश्री सीमा जैन (सुपुत्री हरप्रसाद जैन, जैन मुहल्ला, 14. श्रीमती सारिका जैन ने (द्वारा राकेश सिंघई 'पत्रकार' बगलबाडा रोड, बरेली (रायसेन) के द्वारा डॉ.जे.पी. नेमा (हिन्दी 66-67 पंचशील नगर, सेकेण्ड बस स्टॉप, भोपाल, म.प्र. के द्वारा विभागाध्यक्ष, शासकीय महाविद्यालय, बरेली (रायसेन) म.प्र.) डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर के अन्तर्गत सन. 1993 में के निर्देशन में सन् 1992 में बरकतउल्ला विश्वविद्यालय, भोपाल के डॉ. एच.एम.बैस (प्राचार्य विश्वविद्यालयीन शिक्षा महाविद्यालय, अन्तर्गत "आचार्य श्री विद्यासागर जी कृत 'मूकमाटी' महाकाव्यः | सागर) के निर्देशन में लघु शोध प्रबन्ध एम.एड. हेतु “आचार्य श्री एक साहित्यिक मूल्यांकन" पर लघु शोध प्रबंध लिखा गया है। विद्यासागर जी के व्यक्तित्व एवं शैक्षिक विचारों का अध्ययन" 10. नरेन्द्र सिंह राजपूत (अध्यापक-शासकीय उच्चतर | लिखा है। माध्यमिक विद्यालय, पटेरा (दमोह, म.प्र.) के द्वारा लिखित डॉ. 15. श्रीमती प्रतिभा जैन (शिक्षिका-लिटिल स्टार पब्लिक हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर के अन्तर्गत डॉ. भागचन्द्र जैन | स्कूल, मकरोनिया, सागर, म.प्र.) के द्वारा आचार्य श्री विद्यासागर 'भागेन्दु' (पूर्व प्राध्यापक-संस्कृत विभाग, शासकीय महाविद्यालय, | जी की कृति 'मूकमाटी' का शैक्षिक अनुशीलन" डॉ. हरीसिंह दमोह आवास-28, सरोज सदन, सरस्वती कालोनी, दमोह, गौर विश्वविद्यालय, सागर के अन्तर्गत विश्वविद्यालयीन शिक्षा 470661, म.प्र. कुशल मार्गदर्शन में "संस्कृत काव्य क विकास महाविद्यालय के डॉ. बी.पी. श्रीवास्तव के निर्देशन में वर्ष 1993 में" बीसवीं शताब्दी के जैन मनीषियों का योगदान" विषय पर में लधु शोध प्रबन्ध एम.एड. हेतु लिखा गया। सन् 1992 में पी-एच.डी. का शोध प्रबन्ध स्वीकृत किया गया। 16. डॉ. (श्रीमती) माया जैन (द्वारा-डॉ. उदयचन्द्र जैन, इसमें आचार्य विद्यासागर जी द्वारा लिखित 5 संस्कृत शतकों पर अध्यक्ष-प्राकृत विभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर, शोधात्मक परिशीलन देखने को मिलता है। यह शोध प्रबन्ध आचार्य आवास-'पिउकुंज' 3-अरविन्द नगर, जैन स्थानक के पासज्ञानसागर वागर्थ विमर्श केन्द्र सेठजी की नसिया, ब्याबर-305901 393 001 उदयपुर, राजस्थान) के द्वारा सुखाड़िया विश्वविद्यालय, अजमेर राज.) एवं भगवान् ऋषभदेव ग्रन्थमाला, श्री दिगम्बर जैन उदयपुर के अन्तर्गत विश्वविद्यालय हिन्दी विभाग के एसोशिएट अतिशय क्षेत्र मंदिर संघीजी,सांगानेर-303 902 (जयपुर) राजस्थान प्रोफेसर डॉ. पी.आर. मालीवाल के निर्देशन में पी-एच.डी. हेतु से संयुक्त रूप में प्रकाशित है। शोध प्रबन्ध लिखा गया। यह प्रबंध भगवान् ऋषभदेव ग्रन्थमाला, 11. डॉ. विमलकुमार जैन (पूर्व हिन्दी विभागध्यक्ष-डॉ. श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र मन्दिर, संघी जी, सांगानेर-303 जाकिर हुसैन कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, आवास-29/23 902 (जयपुर) राज. से प्रकाशित हुआ है। शक्तिनगर, दिल्ली 110007) के द्वारा सन् 1993 में डी.लिट. उपाधि 17. श्रीमती मंजुलता जैन (द्वारा-रविकुमार जैन, दूरदर्शन रिले केन्द्र, नरसिंहपुर, म.प्र. के द्वारा बरकतउल्लाह विश्वहेतु शोध प्रबन्ध 676 पृष्ठों में लिखा गया। ज्ञानोदय संस्थान जैन विद्यालय,भोपाल, म.प्र. के संस्कृत विभाग के अन्तर्गत डॉ. भागचन्द्र बाग, वीर नगर, सहारनपुर-247001, उ.प्र. से यह शोध प्रबन्ध जैन 'भागेन्द्रु' (पूर्व सचिव-म.प्र. संस्कृत अकादमी, भोपाल) के प्रकाशित हुआ है। जो "महामनीषी आचार्य श्री विद्यासागर: जीवन | निर्देशन में "आचार्य विद्यासागर: व्यक्तित्व एवं कृतित्व" विषय एवं साहित्यिक अवदान" शीर्षक से मुद्रित है। पर पी-एच.डी. हेतु शोधरत हैं। 12. डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती' (प्राध्यापक-हिन्दी 18. सुश्री अनीता जैन (द्वारा-शीतलचन्द्र जैन, जैन स्टील विभाग, सेवा सदन महाविद्यालय, बुरहानपुर आवास-एल. 65, | एवं फर्नीचर मार्ट, सिलवानी (रायसेन) म.प्र.) के द्वारा बरकतउल्लाह न्यू इंदिरा नगर-ए, अहिंसा मार्ग, बुरहानपुर-450 331 (खण्डवा) विश्वविद्यालय, भोपाल के अन्तर्गत शासकीय हमीदिया कला एवं मध्यप्रदेश 07325-57662) के द्वारा डॉ. हरीसिंह गौर विश्व- वाणिज्य महाविद्यालय,भोपाल, म.प्र.के डॉ. प्रदीप खरे, सहायक विद्यालय, सागर के तत्कालीन हिन्दी विभागध्यक्ष डॉ. बलभद्र प्राध्यापक, दर्शन विभाग के मार्गदर्शन में वर्ष 1997 में लघु शोध तिवारी के निर्देशन में 'स्वातन्त्रयोत्तर हिन्दी जैन साहित्य और प्रबन्ध आलेखित किया गया। आचार्य विद्यासागर के समग्र साहित्य का अनुशीलन' विषय पर 19. श्रीमती सुनीता दुबे (ओ. सहा. प्राध्यापक-एस.एल. डी.लिट्. उपाधि हेतु शोध प्रबन्ध लिखा जा रहा था। जैन महाविद्यालय, विदिशा द्वारा-श्री रमेश दुबे, गाँधी नगर कॉलोनी, 13. डॉ. श्रीमती सुशीला सालगिया (प्राचार्य-क्लाथ मार्केट टीलाखेड़ी रोड, विदिशा म.प्र.) के द्वारा बरकतउल्लाह विश्वविद्यालय, कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, गणेश गंज, इंदौर, आवास- भोपाल म.प्र. के अन्तर्गत डॉ. शीलचन्द्र जैन पालीवाले/ हिन्दी 10-साउथ राज मोहल्ला, इन्दौर) के द्वारा अहिल्या विश्वविद्यालय, विभागाध्यक्ष, एस.एस.एल. जैन कॉलेज, विदिशा- 464001, इंदौर, म.प्र. के अन्तर्गत डॉ. परमेश्वर दत्त शर्मा एवं डॉ. दिलीप आवास-19, वाचनालय मार्ग, विदिशा, म.प्र. के कुशल निर्देशन । चौहान (प्राध्यापक-हिन्दी विभाग, बी.एस.शासकीय महाविद्यालय, में सन् 2002 में "आचार्य विद्यासागर की लोकदृष्टि और उनके देपालपुर (इन्दौर) म.प्र. के मार्गदर्शन में "जैन विषयवस्तु से काव्य का अनुशीलन" विषय पर पी-एच.डी. हेतु शोध प्रबन्ध सम्बद्ध आधुनिक हिन्दी महाकाव्यों में सामाजिक चेतना" विषय | प्रस्तुत किया गया। 18 जुलाई 2002 जिनभाषित Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20. डॉ. भागचन्द्र जैन 'भास्कर' (पूर्व अध्यक्ष-प्राकृतिक | मिश्र (हिन्दी विभागाध्यक्ष, महाकवि केशव एवं अनुसंधान केन्द्र विभाग, नागपुर विश्वविद्यालय, नागपुर, आवास-113, तुकाराम अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय,रीवा म.प्र.)के निर्देशन में की चाल, न्यू एक्सटेंशन एरिया, सदर, नागपुर-440001, महाराष्ट्र) एम.फिल. हेतु सन् 2001 में "आचार्य विद्यासागर और उनके के द्वारा नागपुर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अन्तर्गत काव्य : एक अनुशीलन" विषय पर लघु शोध प्रबन्ध प्रस्तुत किया "मूकमाटी: चेतना के स्वर" नाम से डी.लिट. की उपाधि (दूसरी गया। बार) प्राप्त की गई। यह प्रबन्ध ऋषभ कुमार जेजानी द्वारा जेजानी 27. संजय कुमार मिश्रा (द्वारा-कृष्ण चन्द्र मिश्र 'बल्ले चेरीटेबल ट्रस्ट, इतवारी, नागपुर, महाराष्ट्र से वर्ष 1995 में प्रकाशित बसगड़ी', मु.पो. अतरैला नं. 12, पिन-486226 व्हाया-चाकघाट, हुआ है। रीवा, म.प्र.) के द्वारा प्रोफेसर डॉ. कौशल प्रसाद मिश्र (हिन्दी 21. श्रीमती प्रभा सिंघई (द्वारा-श्री प्रकाश 'डूडावाल' विभागाध्यक्ष-महाकवि केशव अध्यापन एवं अनुसंधान केन्द्र, सिंघई मशीनरी स्टोर्स, बड़ागाँव धसान (टीकमगढ़) ने डॉ. के.एल. अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय,रीवा, म.प्र. के कुशल मार्गदर्शन जैन ने (हिन्दी विभागध्यक्ष-शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, में "कामायनी और मूकमाटी महाकाव्य का शास्त्रीय अध्ययन टीकमगढ़ म.प्र.) के मार्गदर्शन में डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, | विषय पर पी-एच.डी. शोधोपाधि हेतु प्रबन्ध आलेखित किया जा सागर, म.प्र. के अन्तर्गत "आचार्य विद्यासागर की हिन्दी साहित्य | रहा है। को देन' विषय पर पंजीयन कराया है। 28. आदित्य कुमार वर्मा (101, बालाजी अपार्टमेण्ट्स, 22. श्रीमती मीना जैन (द्वारा-श्री सुनील जैन, सुनील | 24, टेलीफोन नगर, कनाडिया मार्ग, इन्दौर, म.प्र.) के द्वारा डॉ. किराना स्टोर्स, मेन रोड, ओबेदुल्लागंज-464993 (रायसेन) म.प्र. | संगीता मेहता (सहायक प्राध्यापिका-संस्कृत विभाग, शासकीय के द्वारा बरकतउल्लाह विश्वविद्यालय, भोपाल म.प्र. के अन्तर्गत विभाग, शासकीय कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय, इन्दौर म.प्र.) डॉ. मधुबाला गुप्ता (प्राध्यापिका-हिन्दी विभाग, सरोजिनी नायडू के निर्देशन में वर्ष 2001 में देवी अहिल्या विश्वविद्यालय इन्दौर, स्नातकोत्तर कन्या महाविद्यालय, शिवाजी नगर, भोपाल, म.प्र. के | म.प्र.) के अन्तर्गत “आचार्य श्री विद्यासागर जी के शतकों का निर्देशन में एवं डॉ. रतनचन्द्र जैन (पूर्व प्राध्यापक-प्राकृत एवं साहित्यिक अनुशीलन" नाम से लघु शोध प्रबन्ध प्रस्तुत किया तुलनात्मक भाषा विभाग, भोपाल) के मार्गदर्शन में "मूकमाटी गया। का शैलीपरक अनुशीलन" विषय पर पी-एच.डी. का शोध 29. सुश्री निधि जैन 'देवा' (सुमति सिल्क मिल्स,95, प्रबन्ध आलेखित किया जा रहा है। केवल लाइन,दूसरा माला, रूम नं. 10, गायवाटी, कालका देवी, 23. संजय मिश्रा (द्वारा-एस.एस. तिवारी, सुभाष मार्ग, मुम्बई- 400002, महाराष्ट्र) के द्वारा डॉ. के.एल.जैन (हिन्दी उर्रहट,रीवा- 486 001, म.प्र.) के द्वारा अवधेश प्रताप सिंह विभागाध्यक्ष, शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, टीकमगढ़, म.प्र. विश्वविद्यालय, रीवा, म.प्र. के अन्तर्गत डॉ. दिनेश कुशवाह के द्रव्य मार्गदर्शन में डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, हिन्दी विभाग प्राध्यापक-महाकवि केशव अध्यापन एवं अनुसंधान विभाग, अ.प्र. सागर, म.प्र. के अन्तर्गत “आचार्य श्री विद्यासागर जी के 'मूकमाटी' सहं वि. विद्यालय,रीवा के मार्गदर्शन में सन् 2000 में एम.फिल. | महाकाव्य का अनुशीलन' विषय पर पी-एच.डी. उपाधि हेतु का लघु शोध प्रबन्ध “मूकमाटी महाकाव्य में रसों एवं बिम्बों का | शोध प्रबन्ध लिखा जा रहा है। अनुशीलन' विषय पर लिखा गया। ____30. श्रीमती निधि गुप्ता, टीकमगढ़ के द्वारा अवधेश प्रताप 24. सुश्री अमिता जैन (द्वारा-श्री बी.एल.जैन, जनता विश्वविद्यालय, रीवा, म.प्र. हिन्दी विभाग के डॉ. के.एल. जैन इलेक्ट्रिक स्टोर्स, बड़ा बाजार, सागर-470002 म.प्र.) के द्वारा | (हिन्दी विभागध्यक्ष-शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, डॉ.(श्रीमती) सरोज गुप्ता (सहा. प्राध्यापिका-हिन्दी विभाग गर्ल्स टीकमगढ़, म.प्र. के कुशल निर्देशन में "आचार्य श्री विद्यासागर डग्री कॉलेज,सागर म.प्र.) के निर्देशन में डॉ. हरीसिंह गौर | के साहित्य में जीवन-मूल्य" विषय पर वर्ष 2001 से पी-एच.डी. वश्वविद्यालय, सागर, म.प्र. से "हिन्दी महाकव्य परम्परा में | उपाधि हेतु शोध प्रबन्ध लेखन किया जा रहा है। मूकमाटी' का अनुशीलन' विषय पर पी-एच.डी. उपाधि हेतु आचार्य श्री विद्यासागर जी की साहित्यिक प्रतिभा का निदर्शन शोध प्रबन्ध लिखा जा रहा है। 'मूकमाटी' महाकाव्य में देखा जा सकता है। इस ग्रन्थ पर देश25.सुश्री रश्मि जैन (सहायक प्राध्यापिका-हिन्दी विभाग, | विदेश के लगभग 300 साहित्य मनीषियों ने अपने आलोचनात्मक शासकीय कन्या महाविद्यालय, बीना, आवास-दिनेश क्लाथ | आलेख लिखे हैं। आपका बहुतर साहित्य "आचार्य विद्यासगारः प्टोर्स,सर्वोदय चौक, बीना-470113 (सागर)म.प्र.) के द्वारा डॉ. समग्र" एवं "आचार्य विद्यासागर ग्रन्थावली" के नाम से भी 4 हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर, म.प्र. के हिन्दी विभाग के भागों में प्रकाशित है। सीकर (राज.) वर्ष 1998 में आयोजित अन्तर्गत डॉ. (श्रीमती)सन्ध्या टिकेकर (सहायक प्राध्यापिका- अखिल भारतीय विद्वत्संगोष्ठी (षष्ठ) में लगभग 75 विद्वानों के द्वारा हेन्दी विभाग, शासकीय कन्या महाविद्यालय, बीना (सागर) म.प्र. आचार्य श्री के समस्त वाङ्मय पर आलेखित आलोचनात्मक शोध के निर्देशन में "आचार्य श्री विद्यासागर जी के साहित्य में उदात्त निबन्ध महाकवि आचार्य विद्यासागर ग्रन्थवली परिशीलन शीर्षक से मूल्यों का अनुशीलन' विषय पर पी-एच.डी. उपाधि हेतु शोध 'भगवान् ऋषभदेव' ग्रन्थामाला, श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र मंदिर बन्ध आलेखित किया जा रहा है। संघी जी,सांगानेर -जयपुर (राजस्थान) से प्रकाशित है। 26. सुश्री कृष्णा पटेल के द्वारा प्रोफेसर डॉ. कौशल प्रसाद -जुलाई 2002 जिनभाषित 19 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री विद्यासागरजी की पूजा मुनि श्री योगसागर (वसन्ततिलका छन्द) यों निर्जरा सतत संवर को लिये हैं। अध्यात्म के निलय में जिनका निवास, ॐ ह्रीं आचार्य श्री विद्यासागरेभ्यः अष्ट कर्म विध्वंसनाय धूपं । शद्धोपयोगमय उज्ज्वल है प्रकाश। सम्यक्त्व पुष्प यह संयम डाल पे है, वैराग्य का पवन ही बहता जहाँ है, आस्था सुगन्ध मृदु आर्जव धर्म से है। विद्या-सागर सदा रमते वहाँ हैं। पीयूष मोक्ष-फल तो इससे फलेगा, ॐ ह्रीं आचार्य श्री विद्यासागर मुनीन्द्र अत्र अवतर अवतर संवौषट् ये फूल ही फल स्वरूप अहो ढलेगा। ॐ ह्रीं आचार्य श्री विद्यासागर मुनीन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् ___ॐ ह्रीं आचार्य श्री विद्यासागरेभ्यः मोक्ष फलप्राप्तये फलं। ॐ ह्री आचार्य श्री विद्यासागर मुनीन्द्र अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् | मैं भाव भक्ति स्तव वन्दन अर्चता हूँ, पीयूष सागर जहाँ लहरा रहा है, आराध्य मंगलमयी गुरु गीत गाऊँ। ऐसा सुयोग अति दुर्लभ से मिला है। ये अष्ट द्रव्य मम कर्म विनाशकारी ॥ श्रद्धा समेत इसमें डुबकी लगायें, अल्हादरूप अपवर्ग सुलाभकारी॥ ये जन्म-मृत्यु भवरोग विलीन होयें। ॐ ह्रीं आचार्य श्री विद्यासागरेभ्यः अनर्थ्यपदप्राप्तये अर्घम्। ॐ ह्रीं आचार्य श्री विद्यासागरेभ्यः जन्मजरामृत्यु विनाशानाय जलं। दोहा श्रद्धामयी सुखद चन्दन लेप द्वारा, ज्ञान सरोवर में खिला विद्या पुष्प सरोज। आत्मीय दाह अति तीव्र उसे निवारा। धर्म-ग्रन्थ की महक में, भक्त भ्रमर को मौज ॥ है दीप्तिमान तव गात्र सुशोभता है, जयमाला मानो सुधाकर सुधा बरसा रहा है। निर्ग्रन्थ सन्त भगवन्त स्वरूपता है, ॐ ह्रीं आचार्य श्री विद्यासागरेभ्यः भवआतापविनाशानाय चन्दनं ।। निर्भीक नि:स्पृह विशाल उदारता है। त्रैयोग योगमय चिन्मयकी प्रतीति, ये कर्ण-धार भवसिन्धु उबारते हैं, आत्मा निजानुभव में रममान होती। निर्लिप्त पंकज सरोवर ज्ञान में हैं। ये पाद-पद्म द्वय की शरणा सु-लेता, है पूज्य नाम तव ही प्रथमानुयोग, भाई अनन्त सुख अक्षय रूप होता। जो क्षेत्र में विचरते करणानुयोग ॐ ह्रीं आचार्य श्री विद्यासागरेभ्यः अक्षय पद प्राप्तये अक्षतं ।। चरित्र ही परम है चरणानुयोग, है कामदेव सम सुन्दर कान्ति काया, सत्यार्थ चिन्तन यथार्थ द्रव्यानुयोग। औ शक्ति है मदन के मद को हराया। आश्चर्य है समय-सार सजीव पाया, है वीतराग बल ही सब में बलाढ्य, श्री ज्ञानसागर मुनीन्द्र इसे रचाया। मैं क्या कहूँ सकल सन्त कहें गुणाढ्य ॥ चारित्र-पत्र पर ही रचना हुई है, ॐ ह्रीं आचार्य श्री विद्यासागरेभ्यः कामबाण विनाशनाय पुष्पं ।। बेजोड़ है अतुलनीय अपूर्वता है। हो कर्म की निरजरा इसमें सुलग्न, हैं निर्विकल्प समता-रस में निमग्न । मिश्री घुली मधुर दुग्ध क्षुधा मिटाये, तो भूख प्यास फिर क्यों किसको सताये, जो शान्ति-वर्धक निरामयता बढ़ाये। त्यों भारती तव अलौकिक पुण्यशाली, सच्चा मुमुक्षु विजयी अघ को नशाये॥ ॐ ह्रीं आचार्य श्री विद्यासागरेभ्यः क्षुधारोग विनाशनाय नेवेद्यं। आबाल-वृद्ध मनमोहक शान्तिवाली॥ निर्द्वद्व निर्मद विराग अकंप ज्योति, यो दत्तचित्त गणपोषण कार्यता में, धारे सुजीवन अहो बन जाये मोती। संपूर्ण संघ अनुशासनशीलता में। आलोक पुंज रवि की शरणा मिली है, है बालब्रह्म सब शिष्य सुशोभते हैं, अज्ञान का तम विनाश अवश्य ही है। जो ज्ञान-ध्यान-तप में लवनीनता है। ॐ ह्रीं आचार्य श्री विद्यासागरेभ्यः मोहांधकार विनाशनाय दीपं ॐ ह्रीं आचार्य श्री विद्यासागरेभ्यः अनर्घ्यपदप्राप्तये महाय॑म्। कोई प्रयोजन किसी की नहीं उपेक्षा, दोहा ना हैं किसी जगत से करते अपेक्षा। विशाल विद्या सिन्धु में, भरा क्षीर सा नीर। निर्मोह ज्ञान तप संयम ध्यान में है, स्नान करो इस तीर्थ में, बनो सभी अतिवीर ॥ 20 जुलाई 2002 जिनभाषित - Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचास्तिकाय की 111वीं गाथा प्रक्षिप्त है स्व. पं. मिलापचन्द्र जी कटारिया रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला बम्बई से प्रकाशित भगवद् | जीवों को ही बताया है। देखो मूलाचार अ.5 गाथा 8 और 21। कुन्दकुन्दाचार्य कृत पंचास्तिकाय के द्वितीय संस्करण में गाथा नं. (5) 'पंचास्तिकाय' की गाथा 39 में स्थावर और त्रस 111 इस प्रकार है: जीवों का लक्षण इस प्रकार दिया है-स्थावरों के कर्मफल चेतना तित्थावर तणु जोगा, अणिलाणल काइया य तेसु तसा। होती है अर्थात् स्थावर कर्मोदय के द्वारा आत्मशक्ति से हीन मण परिणाम विरहिदा, जीवा एइंदिया णेया 1110 | निरुद्यमी-विकल्प रूप कार्य करने में असमर्थ होकर अप्रकट रूप अर्थ- पृथ्वी, जल, वनस्पति, ये तीन स्थावर हैं और वायु, | से कर्मों के फल को भोगते हैं। त्रस : रागद्वेष मोह की विशेषता अग्नि त्रस हैं। (ये) मनोभाव से रहित एकेन्द्रिय जीव जानने लिए उद्यमी होकर इष्टानिष्ट कार्य करने में समर्थ होते हैं, इनके चाहिए। कर्म चेतना होती है। इस गाथा में अमृतचन्द्र के टीका रूप वाक्य इस प्रकार इस कथन से गाथा 111 का कथन विरुद्ध पड़ता है अर्थात् दिये हुए हैं तेजोवायु त्रस नहीं हो सकते हैं। अत: 111वीं गाथा क्षेपक प्रमाणित "पृथ्वीकायिकादीनां पंचानामेकेन्द्रियत्वनियमोऽयं"। होती है। अगर उसे क्षेपक नहीं माना जायगा, तो ग्रन्थ में परस्पर परन्तु ये वाक्य टीका रूप नहीं है, ये तो 112वीं गाथा के | विरुद्धता का दोष उत्पन्न होगा। उत्थानिका वाक्य हैं, क्योंकि 112वीं गाथा पर अमृतचन्द्र के और | (6) गाथा 112 के 'एदे' आदि वाक्यों का सम्बन्ध गाथा कोई दूसरे उत्थानिका वाक्य नहीं पाये जाते। इसके सिवा | 110 से ही ज्यादा उपयुक्त बैठता है, 111 से नहीं, इससे भी यह जयसेनाचार्य ने भी अपनी टीका में ये वाक्य 112वीं गाथा पर ही | 111वीं गाथा बीच में प्रक्षिप्त हो गई सिद्ध होती है। दिये हैं जो इस रूप में हैं (7) गाथा 111की दूसरी लाइन शब्दश: वही है जो 112वीं “अथ पृथ्वीकायिकादीनां पंचानामेकेन्द्रियत्वं नियमयति"। | गाथा की दूसरी लाइन है। इस प्रकार ग्रन्थ में पुनरुक्ति दोष भी इस प्रकार इस 111वीं गाथा पर अमृतचन्द्र की कोई टीका आता है, जो मूल ग्रन्थकार कुन्द-कुन्द के इस ग्रन्थ में कहीं नहीं नहीं पाई जाती और न कोई उत्थानिका वाक्य पाये जाते हैं अत: पाया जाता। इससे भी 111वीं गाथा प्रक्षिप्त होनी चाहिए। यह गाथा साफ प्रक्षिप्त मालूम होती है। अगर मूल ग्रन्थकारकृत (8) अगर 111वीं गाथा को हटा दिया जाय, तो ग्रन्थ के होती तो अमृतचन्द्राचार्य जरूर इस पर वाक्य और टीका लिखते; प्रतिपाद्य विषय में कोई खामी नहीं आती, प्रत्युत पुनरुक्ति और कम-से-कम तेजोवायु के त्रसत्व का तो समाधान अवश्य ही | परस्पर विरुद्धतादि के दोष भी मिट जाते हैं। करते। शंका-इस गाथा को हटाने पर त्रस और स्थावर के कथन (2) धवलाकार वीरसेनाचार्य ने भी पंचास्तिकाय की का ग्रन्थ में अभाव होगा। गाथाओं को अनेक जगह प्रमाणरूप में उद्धृत किया है। इससे समाधान- त्रस और स्थावर का कथन तो गाथा 39 में यह ग्रन्थ धवलाकार को भी मान्य रहा है। अगर पंचास्तिकाय में पहिले ही कर दिया गया है। इसके सिवा त्रस और स्थावर का 111वीं गाथा होती तो धवलाकर कभी तेजोवायु के त्रसत्व का कथन करना इस ग्रन्थ के लिए कोई आवश्यक अंग नहीं है। दूसरे खंडन नहीं करते, जैसा कि धवला पुस्तक 1 पृष्ठ 266 और 276 अधिकार में जीवों का इन्द्रिय भेद से कथन किया है, त्रस-स्थावर तथा पुस्तक 13 पृष्ठ 365 पर पाया जाता है। रूप से नहीं, जैसा कि गाथा 121 से लक्षित होता है, यही बात (3) दिगम्बर सम्प्रदाय में कुन्दकुन्द बहुत ही प्राचीन | अमृतचन्द्र ने गाथा 118 के उत्थानिका वाक्य में कही है। और सर्वाधिक मान्य आचार्य रहे हैं, अगर तेजोवायु को त्रस मानने शंका- बालावबोध हिन्दी टीका में -"आगे पृथ्वीकायादि का उनका मत होता तो बाद के अनेक दि. ग्रन्थकार इसका जरूर पाँच थावरों को एकेन्द्रिय जाति का नियम करते हैं" ऐसा उत्थानिका अनुसरण करते, किन्तु किसी ने भी इसका अनुसरण नहीं किया वाक्य देकर गाथा, 111-112 को युग्म रूप दिया है अतः ये है, प्रत्युत अनेक दि. ग्रन्थकारों ने इस मान्यता का खण्डन ही | गाथाएँ युग्म होनी चाहिए। अन्य हस्तलिखित प्रतियों में भी इन्हें किया है। उदाहरण के लिए मोक्षशास्त्र अ. 2 सूत्र 12 का | युग्म ही प्रकट किया है और पूर्वोक्त "पृथ्वीकायिकादानां अकलंकदेव कृत राजवार्तिक भाष्य देखो। पंचानामेकेन्द्रियत्वनियमोऽयं" अमृतचन्द्र के इन वाक्यों को (4) भगवद् कुन्द-कुन्द ने अपने किसी अन्य ग्रन्थ में भी | उत्थानिका रूप में गाथा नं. 111 पर दिया है। तेजोवायु को त्रस नहीं लिखा है। प्रत्युत त्रस' द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय । समाधान- ये प्रतियाँ ज्यादा प्राचीन नहीं हैं। जयसेनाचार्य -जुलाई 2002 जिनभाषित 21 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वि.सं. 1369) ने इन दोनों गाथाओं को अलग-अलग माना है, । हैं।) युग्म नहीं, क्योंकि उन्होंने इनके उत्थानिका वाक्य और टीका इस तरह पंचास्तिकाय की गाथा नं. 111 क्षेपक है, यह वाक्य अलग-अलग दिये हैं। इन गाथाओं को युग्म मानने पर भी | सिद्ध होता है। अगर प्राचीन ताडपत्रीय प्रतियों की खोज की जाय जो दोष पहिले बता आये हैं, उनका कोई निरसन नहीं होता। । तो उसमें यह गाथा कभी नहीं मिलेगी। शंका -जयसेनाचार्य ने 111वीं गाथा के कथन में व्यवहार (10) प्रसंगोपात्त त्रस और स्थावर के विषय में नीचे कुछ से तेजोवायु को त्रस मानना बताया है, इसमें क्या बाधा है? ज्ञातव्य विवेचन किया जाता है: समाधान-धवलाकार और राजवार्तिककार ने तेजोवायु के (क) "त्रस त्रसनाली में ही होते हैं, बाहर नहीं, स्थाव त्रसत्व का खण्डन किया है, वह व्यवहार से ही किया है अत: सारे लोक में व्याप्त हैं" ऐसा शास्त्रनियम है। अगर तेजोवायु के व्यवहार से भी तेजोवायु का त्रसत्व उचित नहीं है। मूल गाथा में भी व्यवहार से मानने की कोई बात नहीं है। अगर फिर भी त्रस माना जायेगा तो शास्त्रनियम गलत हो जायेगा, क्योंकि फिर व्यवहार का ही आग्रह हो, तो जल को भी त्रस बताना चाहिए था त्रस भी सारे लोक में व्याप्त हो जायेंगे। इस तरह बस-स्थावर के उसे स्थावर क्यों बताया? क्या कुन्दकुन्द ऐसा स्खलन कर सकते भेदरेखारूप त्रसनाली ही व्यर्थ हो जायेगी, अत: तेजोवायु को दि आचार्यों ने त्रस नहीं माना है। इसके सिवा इस कथन में एक आपत्ति और है, वह यह (ख) कर्मग्रन्थों में नाम कर्म की 93 प्रकृतियाँ बताई हैं कि आगे जो द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीवों का वर्णन है उन्हें उनमें त्रस, स्थावर तथा एकेन्द्रिय से पंचन्द्रिय तक 5 जातिनामकर्म क्या माना जाय? त्रस या स्थावर? या कोई अन्य? यह कुछ नहीं ये 7 अलग-अलग भेद बताये हैं। तब प्रश्र होता है कि द्वीन्द्रिय से बताया गया है। पंचन्द्रिय तक 4 भेद अलग क्यों बताये? वे तो"द्वीन्द्रियादयस्त्रसा:" इस प्रकार के युक्ति और आगम के विरुद्ध तथा अनेक | इस सूत्र के अनुसार त्रस में आ जाते हैं। इसी तरह एकेन्द्रिय दोषों से युक्त कथन कुन्द-कुन्द के नहीं हो सकते। जातिनामकर्म भी अलग क्यों बताया? वह भी स्थावर में आ जाता __(9) मोक्षाशास्त्र अ. 2 सूत्र 14 का दिगंबरीय पाठ | है। यह मूल कर्म फिलासफी में ही गड़बड़ क्यों है? 'द्वीन्द्रियादयस्त्रसाः' है किन्तु श्वेतांबरीय पाठ "तेजोवायुद्वी समाधान-जो जातिनामकर्म के 5 इन्द्रियभेद बताये हैं, वे न्द्रियादयश्च त्रसा:" है। इससे तेजोवायु को त्रस कहने की मान्यता पाँचों पुद्गलविपाकी प्रकृतियाँ हैं। और त्रस तथा स्थावर ये 2 श्वेतांबरीय ही है। ऐसा प्रतीत होता है किसी श्वे. विद्वान् ने | अलग नाम कर्म बताये हैं वे जीवविपाकी प्रकृतियाँ हैं। यही इन 112वीं गाथा के पूर्वार्ध में अपने मत के अनुसार "तित्थावर तणु दोनों में खास अन्तर है। इसी को लक्ष्यकर पंचास्तिकाय की गाथा जोगा अणिलाणलकाइया य तेसु तसा" ये वाक्य बढ़ा दिये।। 39 में स्थावर का लक्षण कर्मफलचेतना का भोक्ता और त्रस का प्रतिलिपिकारादि के द्वारा फिर वे ही 2 अलग-अलग गाथाओं के लक्षण कार्य चेतना का भोक्ता बताया गया है जो जीवविपाकित्व रूप में निबद्ध हो गये। यह सब अमृतचन्द्र के बाद हुआ है, की दष्टि से है। इसमें 'एकेन्द्रिय को स्थावर और 2 से 5 इन्द्रिय को जयसेन के निम्नांकित कथन से भी इसकी सूचना मिलती हैं : त्रस कहते हैं ' इसका भी अन्तर्भाव हो जाता है। पंचास्तिकाय का जयसेन ने पंचास्तिकाय की तात्पर्यवृर्ति पृ.9 पर उपोद्घात लक्षण सूक्ष्म-आभ्यंतरिक है। षट्खंडागम, तत्त्वार्थसूत्रादि में में लिखा है-"मेरे पाठक्रम से पहिले अधिकार में 111 गाथा हैं द्वीन्द्रियादि को त्रस और एकेन्द्रिय को स्थावर लिखा है, वह स्थूल और अमृतचन्द्र की टीका के अनुसार 103 गाथाएँ हैं। दूसरे अधिकार (बाह्य) कथन है, लक्षण नहीं, उसे फलितार्थ मात्र समझना चाहिए। में मेरे पाठक्रम से 50 गाथाएँ हैं और अमृतचन्द्र की टीकानुसार 48 इस प्रकार दोनों कथनों में कोई विरोध नहीं है, दोनों अलग-अलग गाथाएँ हैं और चूलिका रूप तीसरे अधिकार में 20 गाथायें हैं।" विवक्षा से हैं। इस उपोद्घात से साफ लक्षित होता है कि अमृतचन्द्र की पं. कैलाशचन्द्र जी का सम्पादकीय नोट-"विद्वान् टीका के अनुसार दूसरे अधिकार में सिर्फ 48 गाथाएँ ही जयसेन | लेखक ने पञ्चास्तिकाय की 111वीं गाथा के प्रक्षिप्त होने के के वक्त थीं, जब कि मुद्रित में दूसरे अधिकार की गाथाएँ 49 दी | सम्बन्ध में जो उपपत्तियाँ दी हैं वे विचारणीय हैं । इतना तो निश्चित हुई फलित होती हैं। इस तरह यह एक बढ़ी हुई गाथा वही 111 | प्रतीत होता है कि अमृतचन्द्र के सामने यह गाथा नहीं थी अथवा वीं होनी चाहिए, जिस पर न तो अमृतचन्द्र की कोई टीका है और न उत्थानिका वाक्य, (पहले अधिकार में भी एक गाथा बढ़ी हुई | छपा है वह आगे की गाथा का उत्थानिका वाक्य ही होना चाहिए। है क्योंकि जयसेन ने अमृतचन्द्र के मत से प्रथम अधिकार में 103 | गाथा 111 से उसका कोई सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता।" ही गाथायें सूचित की हैं जबकि मुद्रित संस्करण में 104 दी गई। 'जैन निबन्ध रत्नावली' से साभार 22 जुलाई 2002 जिनभाषित Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर सन्तलाल और उनका सिद्धचक्र विधान डॉ. कपूरचन्द्र जैन जैन संस्कृति के अनुसार श्रावक के प्रमुख कर्त्तव्य दान | शीलचन्द्र के घर एक बालक का जन्म हुआ। लाला शीलचन्द्र का और पूजा हैं-'दाणं पूजा सावयधम्मो'। पूजा की महत्ता बताते हुए | परिवार जनपद का प्रतिष्ठित परिवार था, जो धर्माचरण में तो कहा गया है कि जो जिनेन्द्र देव की पूजा करता है वह इहलौकिक निष्ठावान था, ही जाति सुधार और कुरीतिनिवारण में भी अग्रणी यश को प्राप्त कर अविनाशी मोक्षपद प्राप्त करता है था। बालक पर अपने पिता और पितामह का गहरा प्रभाव था, यः करोति जिनेन्द्राणां पूजनं स्नपनं वा । आयु के साथ धर्म के प्रति बालक की रुचि बढ़ती गयी, उसने सः पूजामाप्य निःशेषां लभते शाश्वतीं श्रियम्॥ कभी असत्य भाषण न करने तथा शुभ कार्य में ही रत रहने का पूजा के साथ-साथ समय-समय पर भावशुद्धि के लिये संकल्प बचपन में ही ले लिया, सम्भवत: इसी कारण बालका का विशेष पूजाविधानों का उल्लेख भी जैनागमों में प्राप्त होता है। ऐसे नाम 'सन्तलाल' प्रचलित हो गया। विधानों में "सिद्धचक्र विधान" सबसे प्रमुख है, क्योंकि इसमें सन्तलाल जी की आरम्भिक शिक्षा नकुड में ही सम्पन्न सिद्ध-भगवन्तों का गुणगान किया गया है तथा सिद्ध-पद प्राप्ति की हुई। तदनन्तर रुड़की के थॉमसन कॉलेज में आपने अध्ययन किया प्रक्रिया भी बतलाई गयी है। आज तो विधानों की संख्या बहुत है, और प्रतिष्ठित परीक्षा उत्तीर्ण की, किन्तु धर्म के प्रति गहन आस्था नये-नये विधान हाल के वर्षों में लिखे गये हैं और लिखे जा रहे और समर्पण होने के कारण उस परीक्षा को जीविकोपार्जन का हैं, किन्तु कुछ दशक पूर्व तक विधान का अर्थ ही सिद्धचक्र साधन नहीं बनाया। घर पर रहकर ही आप जैन शास्त्रों के अध्ययन विधान था। इस विधान का आयोजन किसी भी समय किया जा में लग गये और स्वाध्याय के बल पर अच्छे विद्वान् बन गये। बाबू सकता है, किन्तु 'आष्टाह्निक पर्व' में ही इसका आयोजन कब सूरजभान वकील ने लिखा है-"यहाँ (नकुड में) पं. सन्तलाल क्यों प्रारंभ हो गया यह, स्वतन्त्र शोध का विषय है। सम्भवतः जी जैन हिन्दी भाषा जानने वाले जैन धर्म के अच्छे विद्वान् रहते 'आष्टाह्निक पर्व' के आठ दिन तथा इस विधान की आठ पूजायें थे। वह भी बड़े तीक्ष्णबुद्धि थे और न्याय तथा तर्क के शौकीन थे। होने से इसका आयोजन उक्त पर्व में होने लगा है। यह भी विचारणीय 'परीक्षामुख' और 'प्रमाणपरीक्षा' को खूब समझे हुए थे।" है. कि इस विधान का सम्बन्ध श्रीपाल-मैनासुन्दरी की कथा से सन्तलाल जी की विद्वत्ता और तर्क करने की क्षमता की कब से कैसे जुड़ गया? (आगे सिद्धचक्र विधान के लिये सि.वि. ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी थी। उस समय के प्रसिद्ध विद्वान् का प्रयोग हमने किया है।) भी उनका लोहा मानने लगे। उन दिनों जैन समाज और आर्य आरम्भ में सि.वि. संस्कृत भाषा में लिखा गया था। 18 समाज के बीच शास्त्रार्थ, विशेषत: उत्तर भारत में, प्राय: होते रहते 19वीं शताब्दी में जब हिन्दी का प्रयोग जन-जन में बढ़ने लगा, तो थे। सन्तलाल जी इनमें भागीदारी करते थे और उनके लिखे उत्तरहमारे पूजा-विधान भी हिन्दी में लिखे जाने लगे। सि.वि. की भी प्रत्युत्तर भी बड़े गम्भीर और वैदुष्यपूर्ण होते थे। तत्कालीन प्रसिद्ध हिन्दी में आवश्यकता अनुभव हुई। तब कविवर श्री सन्तताल जी तर्कशास्त्री पं. ऋषभदास सन्तलाल जी को अपना गुरु मानते थे। ने हिन्दी भाषामय सि.वि. लिखकर जैन संस्कृति की महती सेवा सन्तलाल जी तर्कशास्त्र के पण्डित होने के साथ हिन्दी के की। यह संस्कृत सि.वि. का अनुवाद भी है तथा स्वरचित भी। | अच्छे कवि भी थे। सहारनपुर जनपद के इतिहास के अनुसार सि.वि. केवल विधान ही नहीं है, उसे हम अध्यात्म विद्या का सहारनपुर जनपद के हिन्दी कवियों में सन्तलाल जी का स्थान महाकाव्य भी कह सकते हैं। रस, छंद, अलंकार आदि सभी सर्वोच्च था। सन्तलाल जी छंदशास्त्र के अप्रतिम ज्ञाता थे। उनकी दृष्टियों से वह महाकाव्य पद का अधिकारी है। विविध छंदों में तुलना यदि किसी हिन्दी कवि से की जा सकती है तो वे हैं आठ पूजाओं या आठ अध्यायों के माध्यम से सन्तलाल जी ने महाकवि केशवदास, जो अपनी विविध छंदमयी रचनाओं के सिद्धों के गुणों का जो वर्णन किया है वह अनूठा है। सन्तलाल जी | लिखे विख्यात हैं। 'कविवर' पद के सच्चे अधिकारी हैं। हिन्दी जैन साहित्य के सन्तलाल जी की एक कृति सि.वि. उपलब्ध है, किन्तु इतिहास में उनका नाम बड़े गौरव के साथ लिख जाना चाहिये। | वही इतनी गरिमामय है कि उसने सन्तलाल जी को हिन्दी जैन सहारनपुर जनपद के कस्बा नकुड में 1834 ई. में लाला | कवियों के उच्चासन पर विराजमान करा दिया है। कहा जाता है -जुलाई 2002 जिनभाषित 23 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि बहुत दिनों तक यह कृति सहारनपुरनिवासी लाला रुडामल अडिल्ल जी शामयाना वालों के पास पड़ी रही। उनके तथा श्री मूलचन्द्र पंच परम गुरु नाम विशेषण को धरै। किशनदास कापड़िया के अथक प्रयासों से यह प्रकाश में आई। तीन लोक में मंगलमय आनन्द करें। सिद्धचक्र विधान की महत्ता उसके धार्मिक काव्य होने से पूरण कर थुति नाम अन्त सुखकारणं। तो है ही, वह साहित्यिक दृष्टि से भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। आज पूजूं हूँ युतभाव सुअर्घ उतारणं॥ लावनी अतुकान्त कविता का युग है, छन्दोबद्धता आज कविता का अनिवार्य तुम परमपूज्य परमेश परमपद पाया। अंग नहीं, परन्तु नई कविता से पूर्व लगभग सभी काव्यशास्त्रियों ने हम शरण गही पूजें नित मनवचकाया। छन्दोबद्धता को काव्य का मूल आधार स्वीकार किया था। कविवर निजरूप मगन मन ध्यान धेरै मुनिराजै। सन्तलाल जी की विशेषता है कि उन्होंने उस सयम प्रचलित सभी मैं नमूं साधु सम सिद्ध अकंप विराजै॥ छन्दों का प्रयोग सि.वि. में किया है। लगभग पचास तरह के छन्दों सि.वि. का अंगी रस अध्यात्मप्रधान शान्त रस है। पूरे का प्रयोग सि.वि. में हुआ है। सभी छन्द शास्त्रीय कसौटी पर खरे | काव्य में अध्यात्म की जो धारा बह रही है, उसमें अवगाहन कर उतरते हैं। इतना ही नहीं, संस्कृत के इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, मालिनी, | न जाने कितने भव्य जीवों ने अपने कल्याण का पथ प्रशस्त किय वसन्ततिलका, भुजंगप्रयात आदि छंदों को हिन्दी में यथावत् स्वीकार होगा। इसकी भाषा सरल सरस और प्रवाहमयी है, जिसमें देशी कर और तद्नुरूप रचनाकर सन्तलाल जी ने हिन्दी में नई परम्परा शब्दों का प्रयोग भी हुआ है, संस्कृत शब्दों का बाहुल्य है। संस्कृत का'ॐ नमः सिद्धेभ्यः' किया है। के प्रभाव से प्रभावित एक पद्य हैहिन्दी के अन्य जैन कवियों की भाँति सन्तलाल जी की जय अमल अनूपं शुद्ध स्वरूपं निखिल निरूपं धर्म धरा। जय विघन नशायक मंगलदायक तिहुँ जगनायक परमपरा ।। कविता का धार्मिक मूल्यांकन तो अधिक हुआ है, किन्तु साहित्यिक सि.वि. में शब्द तथा अर्थ दोनों तरह के अलंकारों का मूल्याकंन न के बराबर हुआ है। यही कारण है कि साहित्य का प्रचुर प्रयोग हुआ है। शब्दालंकारों में अनुप्रास सन्तलाल जी का 'अमृतकलश' होते हुए भी सि.वि. हिन्दी साहित्य में अपना वह प्रिय अलंकार है, इसका सातिशय प्रयोग पूरे काव्य में पदे-पदे स्थान नहीं पा सका, जिसका वह अधिकारी था। इसमें बहुत कुछ देखा जा सकता है। अर्थालंकारों में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा का दोष जैन समाज का भी है, जिसने अपने साहित्य को मन्दिरों तक बहुधा प्रयोग हुआ है। उभयालंकार संसृष्टि का भी प्रयोग हुआ है। ही सीमित कर रखा है। तीनों के एक-एक उदाहरण यहाँ प्रस्तुत हैंछन्द शास्त्र/पिंगल शास्त्र के विशेष ज्ञाता सन्तलाल जी ने तत्कालीन प्रचलित दोहा, सोरठा आदि ख्यात छंदों के अतिरिक्त शब्दालंकार- अनुप्रास अख्यात या अल्पख्यात छन्दों का भी प्रयोग किया है, इनमें जय मदन कदन मन करण नाश, जय शान्तिरूप निज सुख विलास। कामिनीमोहन, सुन्दरी, मोतीदाम, लक्ष्मीधरा, शंखनारी, नाराच, जय कपट-सुभट पट करन सूर, जय लोभ क्षोभ मद दम्भ चूर॥ अर्ध नाराच, शंखरूपिणी डालर, उल्लाला, चूलिका, माला, चकोर, अर्थालंकार- उपमा पायता आदि को लिया जा सकता है। छंद के साथ उपराग या फैली दीपन की जोति, अति परकाश करै। देशीराग के अन्तर्गत परिगणित लोक गीतों से विकसित लावनी जिम स्याद्वाद उद्योग, संशय तिमिर हरै। का प्रयोग तथा लोक गीतों की धुन पर कतिपय पद्यों की रचना उभयालंकार- उत्प्रेक्षा-रूपक की संसृष्टि सन्तकाल जी ने की है। वानगी के तौर पर पाँच पद्य यहाँ प्रस्तुत तुम चरण चन्द्र के पास पुष्प धरै सोहें, भुजंगप्रयात मानू नक्षत्रन की रास सोहत मन मौहें। मनोयोग क्रोधी समारम्भधारी, सदा जीव भोगे महाखेद भारी। अन्तरगत अष्ट स्वरूप गुणभई राजत हैं, महानंद आख्यात को भाव पायो, नमों सिद्ध सो दोष नाहीं उपायो॥ नमूं सिद्धचक्र शिवभूप अचल विराजत हैं। त्रोटक इस प्रकार सि.वि. भाषा, भाव, रस, छन्द अलंकार आदि दुखकारन द्वेष विडारन हो, वश डारन राग निवारन हो। सभी दृष्टियों से असाधारण अध्यात्म साहित्य-कृति है इसका भवितारन पूरणकारण हो, सब सिद्ध नमों सुखकारन हो। साहित्यिक मूल्यांकन एक काव्य की दृष्टि से भी होना चाहिये। गीता अध्यक्ष, संस्कृत विभाग निज आत्मरूप सुतीर्थ मग नित सरस आनन्द धार हो। श्री कुन्द-कुन्द स्नातकोत्तर महाविद्यालय नाशे त्रिविधमल सकल दुखमय, भवजलधि के पार हो। खतौली-251201(उ.प्र.) 24 जुलाई 2002 जिनभाषित Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्त व्यसन त्याग की वैज्ञानिक अवधारणा प्राचार्य निहालचंद जैन, बीना श्रावक का सौन्दर्य उसका शील एवं सदाचरण होता है। सम्यक्चारित्र की अन्विति सम्यग्दर्शन पूर्वक सम्यग्ज्ञान से होती है। श्रावक रत्नत्रय का आराधक होता है। शील से रहित श्रावक का ज्ञान, गधे की पीठ पर लदे हुए बोझ के समान होता है। जीवन का कल्पवृक्ष मनुष्य का शील एवं सदाचरण होता है। क्योंकि उससे वह मनोवांछित फल प्राप्त करता है। सदाचरण / शील को भंग करने वाले सप्त व्यसन होते हैं, जो महापाप के बीज और बुद्धि-विवेक को नष्ट करने वाले होते हैं। द्यूत मांस-सुरा वेश्या चौर्याखेटपराङ्गना। महापापनि सप्तानि व्यसनानि त्यजेद् बुधः ॥ " ये सात व्यसन है- द्यूत (जुआ), मांस भक्षण, सुरा-पान, वेश्या और परस्त्री गमन, चोरी करना तथा आखेट (शिकार) करना। द्यूत में झूठ व चौर्य पाप, मांस भक्षण और आखेट में हिंसा पाप, मद्यपान में हिंसा व झूठ पाप तथा वेश्या व परस्त्रीगमन में कुशील पाप गर्भित है, अतः ये दुर्गति के कारण हैं। व्यसन का सम्मोहन व्यक्ति को नैराश्य, मानसिक तनाव, घुटन, आत्महत्या, नृशंसता और पशुता की ओर प्रेरित करता है। यह ऐसा मोहक विषफल है, जिसे विवेक से रहित मूड़ जीव एक बार चखकर बार-बार भोगने की लालसा करने लगता है। ससन, वासनाओं के गर्भ से उपजी ऐसी इच्छा है, जो मनुष्य के आचरण पर सीधा प्रभाव डालती है और वह पतन के गर्त में गिरता जाता है। व्यसन विपत्ति और विनाश का खुला निमन्त्रण है । व्यसन मय जीवन, घोर अंधकार की काली रात्रि है जो अणुव्रत के प्रकाशामय दीप से अपने कल्याण का मार्ग देख सकता है। धर्म और संत-महापुरुषों का आह्वान एक व्यसनमुक्त समाज का निर्माण करना । व्यसनमुक्त समाज ही अपना अस्तित्व कायम रख सकता है। यदि वसुन्धरा पर वात्सल्य/करुणा / प्रेम / अहिंसा की फसलें उगाना हों, तो व्यसनमुक्त समाज का एक प्रशस्त संकल्प हो । 1. मांस भक्षण एक ऐसा व्यसन है, जिसके कारण शेष छह व्यसन अपने आप जीवन में प्रवेश कर जाते हैं। इसमें न तो कार्बोहाईड्रेट जैसा ऊर्जादायी तत्त्व होता है। और न ही फाइबर जो भोजन को पचाने में मदद करता है। यह रक्त में कॉलेस्ट्रॉल की मात्रा बढ़ा देता है, जिससे हार्ट अटैक का खतरा बढ़ जाता है। आँतों का कैंसर, संधिवात, रक्तचाप, किडनी का रोग, मांसाहार के कारण असामान्य रूप से बढ़ रहे हैं। , हारवर्ड मेडिकल स्कूल ऑफ अमेरिका के डॉ. वॉचमेन एवं डॉ. डी. एस. बर्मस्टीन ने अपनी खोजों से यह तथ्य निकाला कि जिनकी हड्डी कमजोर है उन्हें मांस एकदम छोड़ देना चाहिए। लंदन के डॉ. एलैग्जेण्डर हेग ने बताया कि मांस में यूरिक एसिड विष प्रमुख रूप से पाया जाता है, जो टी.बी., जिगर की खराबी, गठिया रक्तअल्पता हिस्टीरिया, सांस रोग को निमन्त्रण देता है। नोबल पुरस्कार विजेता (1985) डॉ. माइकल एस. ब्राउन तथा डॉ. जोसेफ आई. गोल्ड स्टीव ने सिद्ध किया है कि पशुओं का कत्ल से उनके भीतर एक ऐसे पदार्थ को निर्मित करता है, जो रक्तचाप बढ़ाता तथा असाध्य रोगों को उत्पन्न करता है । अतः मांस भक्षण पूर्णत: वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अभक्ष्य / त्याज्य है । 2. मद्यपान - मांसाहार मद्यपान के लिए प्रेरित करता है। मांस एक अप्राकृतिक आहार है, जिसे पचाने के लिए मनुष्य को एल्कोहल सहायक होता है। अतः मांसाहारी शराब का आदी हो जाता है। मद्यपान में वे सभी वस्तुएँ आ जाती हैं जो स्नायुशैथिल्य को बढ़ाकर उत्तेजना व निर्बलता बढ़ाती है इसमें धूमपान, चरस, अफीम, ब्राउन शुगर, भांग, हेरोइन आदि आ जाते हैं। ये वस्तुएँ शरीर व मस्तिष्क को बेकाबू करके कम्पन रोग बढ़ा देती हैं। नशा चाहे शराब का हो या नशीली वस्तुओं का, पुरुषार्थ को नष्ट करने वाला कामोत्तेजक होता है। शराबी व्यक्ति की कामाग्नि ईंट के भट्टे की तरह होती है, जो अन्दर ही अन्दर जलती रहती है, जिससे वह नपुंसकता को प्राप्त हो जाता है क्योंकि उसकी वीर्य शक्ति शीघ्र स्खलित हो जाती है । मद्य व्यसनी की इन्द्रियां अशक्त हो जाती हैं। करोड़पति का बेटा जब शराबी हो जाता है तो उसका घर कलह का केन्द्र बन जाता है। शराब फल, जौ, गुड़, महुआ आदि को सड़ाकर एवं निचोड़कर आसवन विधि से तैयार की जाती है जिसमें अनन्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव / द्वीन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति एवं उनका मरण होता है अत: हिंसा का महादोष लगता है । मद्य की एक बूँद में इतने सूक्ष्म जीव होते हैं कि यदि वे बड़े होकर फैल जाएँ तो तीनों लोक भर सकते हैं। मांसाहार शरीर को शक्ति नहीं वरन् एक किस्म की विकृत उत्तेजना देता है। अमरीकी बहुराष्ट्रीय कम्पनी केंटुकी, अपने प्रचार तंत्र से युवाओं में ऐसा क्रेज पैदा करने में सफल है, जो मांसाहार को आधुनिक संस्कृति का प्रतीक और शक्तिदायक मानता है। यही कारण है कि 20 वर्षों से मांसाहार का उत्पादन 40 से 45 प्रतिशत बढ़ा है। 3. शिकार मांसाहारी शिकार करने के लिए प्रेरित होता कोई भी सम्प्रदाय / धर्म मांस भक्षण की अनुमति नहीं है। शिकार उसका हत्याजन्य खेल है। आज नये-नये खुल रहे यांत्रिक कत्लखाने 'शिकार' के परिवर्द्धित / नये संस्करण हैं। देता । 25 -जुलाई 2002 जिनभाषित Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनकी इस देश में संख्या 36 हजार से ऊपर पहुँच चुकी है। इनमें गोवंश की जो निर्मम हत्या कर कहर ढाया जाता है वह शिकार का ही बीभत्स रूप है। मांसाहार और चमड़ा उद्योग यांत्रिक कत्लखाने व्यापारिक शुभ-लाभ के सिद्धान्त को अपनाकर वृहद्रूप ले चुके हैं जिसमें राज्य / देश की व्यापार नीति काम कर रही है। आगम में उल्लेख है कि शिकार खेलने वाला मनुष्य भवभव में अल्पायुधारी, विकलांगी, रोगी, अंधा, बहिरा, बौना, कोढ़ी, नपुंसक और दुष्ट होता है। जितने भी दुःसह दुख दिखाई देते हैं, वह सभी दुःख, जीवों का घात करने वाला प्राणी पाता है। अतः इस राक्षसी प्रवृत्ति को त्याग देना श्रेयस्कर है। 4. जुआ - यह ऐसा व्यसन है, जिसमें हजारों सभ्य परिवार दीनता / भुखमरी के कगार पर आकर खड़े हैं। लाटरी जुए का पंजीकृत षडयन्त्र है। राज्य सरकारें आय बढ़ाने के लिए इसे प्रोत्साहित करती है जो अनैतिक है। जुआरी सदैव चिन्तातुर रहता है। उसकी नींद और भूख दोनों नष्ट हो जाते हैं और वह अशान्त चित्त रहने लगता है। उसके हृदय की धड़कन असामान्य हो जाने से आयु क्षीण होने लगती है। जुआ सम्पूर्ण अनर्थों का मुखिया, मायाचार का घर, झूठ व चोरी का संगम स्थान होता है। 5-6. वेश्या गमन व परस्त्री सेवन- ये दोनों व्यसन कुशील पाप के पोषक और जीवन की तेजस्विता को नष्ट करने वाले हैं। यौवन के जोश में कामांध वीर पुरुष, साध्वी सुन्दर स्त्री को देखकर भी डिग जाते हैं फिर कायर पुरुषों की बात ही क्या ? ज्ञानार्णव में कामी व्यक्ति के दस वेग बताये हैं 1. पहले परस्त्री में रमण का भाव रखता है कि कब दूसरे की स्त्री को अपनी भोग्या बनाऊँ। 2. परस्वी को देखने का भाव करता है और उसे प्राप्त करने के साधन खोजता है। 3. परस्त्री उपलब्ध न होने पर खेद खिन्न होता है। 4. उसका शरीर काम ज्वर से पीड़ित हो जायेगा। 5. शरीर जलने लगेगा। 6. भोजन-पानी छोड़ देगा। 7. मूर्च्छा आनी प्रारम्भ हो जायेगी। 8. उन्मत्तता के कारण यद्वा तद्वा बकने लगता है। 9. उसकी मरणासन्न अवस्था भी हो जाती है और 10. वह मर जाता है। इस प्रकार परस्त्री लम्पटी व्यक्ति महाभारत में पाण्डवों के वनवास के अंतिम वर्ष में राजा विराट के पुत्र कीचक की भाँति, भीम द्वारा वध को प्राप्त होता है, जिसने द्रौपदी के ऊपर कुदृष्टि डालकर उस पर मोहित हो गया था। रावण की सोने की लंका कामाग्नि से ध्वस्त हो गयी थी । इसी प्रकार परपुरुष में रत कामुक स्त्री एक सर्पणी के 26 जुलाई 2002 जिनभाषित समान होती है जो अपनी कुलमर्यादा नष्ट करके घोर पाप-भागिनी होती है। अतः यह व्यसन हेय है। वेश्या का भोग करने वाला मूढ़ मद्य और मांस का परित्यागी नहीं होता। वेश्या कुत्ते के मुँह में लगी हड्डी के समान आचरण करती है। वेश्या के प्रेम में कामान्ध अपनी कुशलता व बड़प्पन को नष्ट करके जीवन बर्बाद कर देता है। वेश्या माँस खाती है, शराब पीती है, धन के लिए झूठ बोलकर प्रेम का स्वांग रचती है वह कुटिल मन से लोगों के मुँह व लार को चाटती है। अतः वेश्या इस पृथ्वी का नरक ही है। 1 वेश्या और पर पुरुष में रत स्त्री, धोबी की शिला के समान होती है, जिस पर ऊँच-नीच पुरुषों के निंदनीय घृणित कर्म से वीर्य और लार आदि मल बहते हैं। ये दोनों व्यसन ब्रह्मचर्य को नष्ट करके शरीर को निस्तेज और आत्मा को पतित करते हैं । मेडिकल शोध ने सिद्ध किया है कि 25 बूँद वीर्य में 60 मिलियन (छह करोड़) से 110 मिलियन तक सूक्ष्म जीव रहते हैं। एक बार सम्भोग करने से स्त्री योनि में स्थित नौ लाख सूक्ष्म जीवों की हत्या होती है। अतः ये व्यसन हिंसाकारक व पापास्रव के हेतु हैं । 7. चौर्य व्यसन बिना दी हुई किसी भी वस्तु को ग्रहण कर उस पर स्वामित्व कर लेना चोरी है। चोरी का संबंध वस्तु या धन के अभाव से नहीं है, बल्कि एक मानसिक विकृति का कुफल है। किसी की धरोहर को हड़प लेना चौर्य कर्म है। कम बढ़ नापना, तौलना, अनुपात से अधिक मुनाफा कमाना, अपमिश्रण द्वारा असली व नकली वस्तुओं को बेचना राजकर नहीं चुकाना या छिपाना आदि बातें चौर्य कर्म के अन्तर्गत आती हैं। - यह ऐसा व्यसन है, जिसे न केवल गरीब व्यक्ति करता है, बल्कि धनाढ्य व्यक्ति, मूर्च्छा (परिग्रह) के वशीभूत होकर इसका आदी हो जाता है। भगवती आराधना में कहा गया है कि सुअर का घात करने वाले व परस्त्रीगमन करने वाले से भी चोर अधिक पापी माना जाता है। अतः उक्त सप्त व्यसन जीवन के संघातक हैं। जिन्हें संकल्पपूर्वक त्याग करके व्यक्ति या श्रावक सदाचरण की ओर बढ़ता है और अणुव्रत के मंगल द्वार पर पहुँचता है। व्यसन से बड़ा कोई विष नहीं है, जिसकी एक बूँद से शील और आचरण का अमृत विषाक्त हो अग्राह्य हो जाता है। जो सप्तधा व्यसन सेवन त्याग देते, भाई कभी फल उदुम्बर खा न लेते। वे भव्य दार्शनिक श्रावक नाम पाते, धीमान धार दुग को निजधाम जाते ॥ रे मद्यपान परनारि कुशील खोरी, अत्यन्त क्रूरतम दण्ड, शिकार चोरी। भाई असत्यमय भाषण द्यूत क्रीड़ा, ये सात हैं व्यसन, दें दिन रैन पीड़ा ॥ श्रावकधर्म सूत्र, आचार्य श्री विद्यासागर Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिज्ञासा-समाधान पं. रतनलाल बैनाडा जिज्ञासा : जन्मकल्याणक के समय जन्माभिषेक के। उपर्युक्त प्रमाणों से स्पष्ट है कि प्रथमानुयोग के ग्रन्थों में बाद तीर्थंकर बालक के कान में कुण्डल पहनाये जाते हैं तो क्या | दोनों प्रकार के प्रमाण उपलब्ध हैं। किन्हीं आचार्यों ने तीर्थंकर भगवान् के कान जन्म से ही छिद्र सहित होते हैं? बालक के कान जन्म से छिद्र सहित माने हैं और किन्हीं आचार्यों समाधान : उपर्युक्त प्रसंग पर श्री हरिवंशपुराण सर्ग-8 | ने इन्द्र द्वारा वज्र सूची से छिद्र किये जाना स्वीकार किया है। हम श्लोक 175-176 में इस प्रकार कहा है- समं च चतुरस्रं च | कम बुद्धि वाले जीवों को दोनों ही प्रकार के प्रमाण स्वीकार करने संस्थानं दधतः परम्। सुवज्रर्षभनाराचसंघातसुघनात्मनः। 175 | योग्य हैं। कमर्णविक्षतकायस्कंथचिद् वज्रपाणिना। विद्धौ वज्रघनौ तस्य | जिज्ञासा : तीन लोक के नक्शे में जो नीचे के एक राजू वज्रसूचीमुखेन तौ। 176 को निगोद कहा जाता है वह क्या है? और उसमें कौन-कौन से अर्थ : जो परम सुन्दर समचतुरस्त्र संस्थान को धारण कर | जीव पाये जाते हैं। रहे थे तथा वज्रर्षभ नाराच संहनन से जिनका शरीर अत्यन्त सुदृढ़ समाधान : लोक में सबसे नीचे जो एक राजू निगोद था, ऐसे अक्षतकाय जिन-बालक के वज्र के समान मजबूत कानों | कहने तथा सुनने में आता है, उसके सम्बन्ध में केवल राजवार्तिककार को इन्द्र वज्रमयी सूची को नोक से किसी तरह वेध सका था। | श्री अकंलक स्वामी ने उसे कलकल पृथ्वी नाम से कहा है। अन्य (2) श्री आदिपुराणपर्व-14, श्लोक नं.-10 में इस प्रकार | किसी भी आचार्य ने इस एक राजू को कुछ नाम दिया हो ऐसा मेरे कहा गया है : कर्णावविद्ध सच्छिद्रो कुण्डलाभ्यां विरेजतुः। कान्ति देखने में नहीं आया। इस एक राजू स्थान में अक्सर स्वाध्यायी दीप्तिमुखेद्रष्टुमिन्द्रकभ्यामिपाश्रितौ। 1-10 लोग ऐसा समझते हैं कि - अर्थ : भगवान् के दोनों कान बिना वेधन किये ही छिद्र (1) मात्र निगोदिया जीवों का ही निवास होता है। अन्य सहित थे, इन्द्राणी ने उनमें मणिमय कुण्डल पहनाये थे जिससे वे | जीव इस एक राजू में नहीं पाये जाते। ऐसे जान पड़ते थे मानो भगवान् के मुख की कान्ति और दीप्ति को समाधान : इस एक राजू में पाँचों प्रकार के स्थावर सूक्ष्म देखने के लिये सूर्य और चन्द्रमा ही उनके पास पहुँचे हों। जीव तो पाये ही जाते हैं, जबकि वायु के आश्रय से रहने वाले (3) श्री वीरवर्धमान चरितम् अधिकार-9 पृष्ठ-86 श्लोक- बादर वायु कायिक जीवों का भी सद्भाव पाया जाता है। 54 में इस प्रकार कहा है (2) कुछ की धारणा ऐसी भी है कि निगोदिया जीव मात्र अविद्धछिद्रयोश्रारूकर्णयोस्त्रि जगत्पतेः। एक राजू में ही पाये जाते हैं, अन्य स्थानों पर नहीं। कुण्डलाभ्यां स्फुरद्रत्नाभ्यां शोभा सा परां व्यधात्।-54 | समाधान : निगोदिया जीव पूरे तीनों लोकों में व्याप्त हैं। अर्थ : पुन: त्रिजगत्पति के अबिद्ध छिद्रवाले दोनों कानों | ऐसा लोक का एक भी प्रदेश नहीं है जहाँ निगोद राशि न पाई जाती में प्रकाशमान रत्न जटित कुण्डलों को पहनाकर परम शोभा क़ी। हो। श्री षट्खण्डागम में इस प्रकार कहा है (4) श्री महापुराण (महाकवि पुष्पदंत विरचित) भाग-1 : वणप्फदिकाइया-णिगोद जीवा वादरा सुहु मा पृष्ठ-63 पर इस प्रकार कहा है पज्जत्तापज्जत्ता केवडि खेत्ते? सव्वलोगे। -3-25 पविसूइइ ववगयभवरिणहो विंधेप्पिणु सदणजुयलु जिणहो। : वादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, वनस्पतिकायिकनिगोद विच्छूढई मणिमयकुंडलई णं ससहर णियरमंडलई॥ | जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं? सर्वलोक में रहते हैं। अर्थ : संसार के ऋण से मुक्त जिनके दोनों कानों को | (3) कुछ यह भी कहते हैं कि इस एक राजू में नित्य वज्रसूची से वेधकर मणिमय कुण्डल पहना दिये गये, मानो चन्द्र | निगोदिया जीवों का निवास होता है। और दिनकर के मण्डल हों, जो मानो चंचल राहु से भागकर समाधान : जहाँ तक नित्य निगोदिया जीवों का प्रश्न है, नाभेय की शरण में आये हों। ये भी पूरे तीनों लोकों में ठसाठस भरे हैं। (नित्य निगोदिया जीव (5) श्री पद्मपुराण भाग-1 पर्व-3 श्लोक-188 में इस वे हैं जो अनादिकाल से आज तक निगोद पर्याय में ही हैं, कभीप्रकार कहा है भी अन्य पर्याय में जिन्होंने जन्म नहीं लिया है)। चन्द्रादित्यसमे तस्य कर्णयोः कुण्डले कृते । इस चर्चा से यह स्पष्ट होता है कि नीचे एक-एक राजू तत्क्षणं सुरनाथेन वज्रसूची विभिन्नयो : ।। 188 स्थान को कलकल पृथ्वी कहा जाता है और उसमें पाँचों प्रकार के अर्थ : इन्द्र ने तत्काल ही व्रज की सूची से विभिन्न किये | स्थावर जीवों का सद्भाव मानना चाहिये। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष हुए उनके कानों में चन्द्रमा और सूर्य के समान कुण्डल पहनाये।। भाग-3, पृष्ठ-442 में क्षुल्लक जिनेन्द्रवर्णी ने लिखा है "सातों -जुलाई 2002 जिनभाषित 27 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृथ्वियों के नीचे, अन्त में एक राजू प्रमाण क्षेत्र खाली है (उसमें समाधान : श्री त्रिलोकसार गाथा- 833 में इस प्रकार केवल निगोद जीव रहते हैं)। यह कथन आगम सम्मत नहीं है। | कहा हैविद्वतगण विचार करें। भरह इरावद पण पण मिलेच्छखंडे सुखयरसेढीसु। जिज्ञासा: मनुष्यों का अल्पबहुत्व बताएँ? दुस्समसुमादीदो अंतोत्ति य हाणिवड्डी य 18331 समाधान : सिद्धांतसार दीपक (भट्टारक सकलकीर्ति अर्थ : भरत और ऐरावत क्षेत्रों में पाँच-पाँच म्लेच्छ खण्डों विरचित) में मनुष्यों का अल्पबहुत्व ग्यारहवें अधिकार के श्लोक | में तथा विद्याधरों की श्रेणियों में दुःषमा-सुषमा काल के आदि से नं. 181 से 190 (पृष्ठ-423) तक कहा है। जिसका हिन्दी अर्थ | लगाकर उसी काल के अन्त पर्यन्त हानि-वृद्धि होती है। इस प्रकार है-मनुष्य गति में लवणोदधि और कालोदधि समुद्रों में श्री तिलोयपण्णति अधिकार-4, गाथा-1629 में भी इसी स्थित-96 अन्तर्वीपों के मनुष्यों का प्रमाण एकत्रित करने पर भी प्रकार कहा हैवे सर्वस्तोक हैं। अन्तीपों के मनुष्यों के पंचमेरु सम्बन्धी दश पण-मेच्छ-खयरसेढिसु, अवसप्पुस्सप्पिणीए तुरिमम्मि उत्कृष्ट भोगभूमियों के मनुष्य संख्यातगुणे हैं। 181-182 उत्कृष्ट तदियाए हाणि-चयं,कमसो पढमादुचरिमोत्ति 1629 भोगभूमियों के मनुष्यों के पंचमेरु सम्बन्धी हरि-रम्यक नामक अर्थ : पाँच म्लेच्छ खण्डों और विद्याधर श्रेणियों में दश मध्यम भोगभूमियों के मनुष्य संख्यातगुणे हैं। 183 मध्यम भोगभूमियों से हैमवत-हैरण्यवत नामक 10 जघन्य भोगभूमियों अससर्पिणी एवं उत्सर्पिणी काल में क्रमश: चतुर्थ और तृतीय के मनुष्य संख्यातगुणे हैं, और जघन्य भोगभूमियों के प्रमाण से काल के प्रारम्भ से अन्त पर्यन्त हानि एवं वृद्धि होती रहती है। पंच भरत, पंच ऐरावत नामक दश कर्मभूमियों में शुभ-अशुभ जिज्ञासा : जम्बू द्वीप का विस्तार 1 लाख योजन और कर्मों से युक्त मनुष्य संख्यातगुणे हैं। 184-185 कर्मभूमिज मनुष्यों | धातकी खण्डद्वीप का विस्तार 4 लाख योजन है। तो क्या जम्बूद्वीप के प्रमाण से पंचविदेह क्षेत्रों के मनुष्य संख्यातगुणे और विदेहस्थ | से धातकी खण्ड का क्षेत्रफल 4 गुना मानना चाहिए? मनुष्यों के प्रमाण से सम्मूर्च्छन मनुष्यों का प्रमाण असंख्यातगुणा | समाधान : आपका इस प्रकार मानना उचित नहीं है है। 186। जो श्रेणी के असंख्यात भागों में से एक भाग मात्र हैं। गणित के अनुसार जिस प्रकार वृत्त का क्षेत्रफल निकाल जाता है आगम में उस श्रेणी के असंख्यातवें भाग का प्रमाण असंख्यात उसी प्रकार क्षेत्रफल निकालना चाहिए। केवल विस्तार 4 गुन कोटा-कोटि योजन क्षेत्र के जितने प्रदेश होते हैं, उतने प्रमाण कहा होने से क्षेत्रफल 4 गुना नहीं होता। श्री 'जम्बूद्वीप पण्णति संगहो' ग्रन्थ में पृष्ठ 188 पर द्वीप अतः सम्मूर्च्छन जन्म वाले लब्धपर्याप्तक मनुष्य कर्मभूमिज | स्त्रियों की नाभि, योनि, स्तन और कांख में स्वभावत: उत्पन्न होते | और समुद्रों के क्षेत्रफल की अच्छी चर्चा आयी है, तदनुसार जम्बूद्वीप है। 189 इस अपर्याप्तक मनुष्यों के अवशेष गर्भज मनुष्य पर्याप्त ही के क्षेत्रफल से घातकी खण्ड का क्षेत्रफल 144 गुना है। कालोदधि होते हैं, अपर्याप्तक नहीं। समुद्र का क्षेत्रफल जम्बूद्वीप से 672 गुना है तथा पुष्कारार्धद्वीप क श्री तिलोयपण्णत्ति अधिकार-गाथा नं. 2976 से 2979 | क्षेत्रफल जम्बूद्वीप से 1184 गुना है। गणित के अनुसार क्षेत्रफल तक भी इसी प्रकार मनुष्यों के अल्पबहुत्व का वर्णन किया है। | निकाले जाने पर भी ये सभी प्रमाण बिल्कुल ठीक बैठते हैं। अत जिज्ञासा : विजयार्ध पर्वतों पर और भरत आदि क्षेत्रों के | इसी प्रकार मान्यता बनानी चाहिए। म्लेच्छ खण्डों में कौन-सा काल वर्तता है और उसमें हानि-वृद्धि 1/205, प्रोफेसर्स कालोन होती है अथवा नहीं। . आगरा-.282 001(उ.प्र.. अनेकान्त वाचनालय की स्थापना अनेकान्त ज्ञानमंदिर शोधसंस्थान बीना (म.प्र.) द्वारा स्थापित किये जो रहे 26 अनेकान्त वाचनालयों की स्थापना के क्रम में 14वाँ अनेकान्त वाचनालय का योग बना झाँसी नगर में। श्री दि. जैन पंचायती बड़ा मंदिर झाँसी में उत्तरप्रदेश का प्रथम वाचनालय अत्यधिक धूमधाम एवं उल्लास के साथ 26 जून को प्रात: 9 बजे स्थापित हुआ। इस वाचनालय में चारों अनुयोगों के ग्रन्थों के अतिरिक्त बाल साहित्य एवं श्रेष्ठ साहित्यकारों की नीतिपरक रचनाओं को उपलब्ध कराया गया है । वाचनालय के अन्तर्गत मंदिर जी में स्थित लगभग 100 हस्तलिखित ग्रन्थों को भी संरक्षित करके विराजमान किया गया है। वाचनालय के सम्यक्संचालन के लिए एक संचालन समिति का भी गठन किया गया है। संजय जैन, कर्नल, झाँसी 28 जुलाई 2002 जिनभाषित Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यंग्य खेल न खेलने का दुःख शिखरचन्द्र जैन व्यंग्य अभिव्यक्ति की अत्यन्त रोचक साहित्यिक विधा है। व्यंग्यकार समाज में प्रचलित अवांछनीय प्रवृत्तियों पर वक्रोक्तियों, अतिशयोक्तियों, व्याजनिन्दा और व्याजस्तुति के माध्यम से करारी चोट करता है, जिससे शब्दों की व्यंजना शक्ति के द्वारा वांछनीय (नैतिक और धार्मिक ) सन्देश मनोरंजक और हृदयस्पर्शी रीति से पाठकों तक अनायास पहुँच जाता है। एक व्यंग्य जितने प्रभावशाली ढंग से नैतिक शिक्षा का सम्प्रेषण करता है, उतना प्रत्यक्ष उपदेश नहीं करता। इसलिए साहित्य में व्यंग्य का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है और यह साहित्यकार की कसौटी भी है। उत्कृष्ट व्यंग्य किसी मासिक पत्रिका के लिए अँगूठी में नगीने के समान होता है। मैं चाहता हूँ कि जैन व्यंग्यकारों की सूची में श्री शिखरचन्द्र जी जैन के साथ और भी नाम जुड़ें। श्रेष्ठ व्यंग्य आमंत्रित हैं। भारत में हिन्दी की उपेक्षा और अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा पाने के लिए गाँव-गाँव तक फैलता बेतहाशा पागलपन भारत के लिए सचमुच दुर्भाग्य एवं शर्म की बात है अच्छे कैरियर और चमक-दमक से भरी पाश्चात्य जीवनशैली की भूख ने भारत के हर नागरिक को पब्लिक स्कूलों का दीवाना बना दिया है। इससे भारतीय स्वाभिमान को कितना आघात लग रहा है, इस पर किसी का ध्यान नहीं है तथा विद्या की अपेक्षा क्रीडा ने सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में जो अधिक उपयोगी और प्रतिष्ठित स्थान पा लिया है, वह भी चिन्ता का विषय है। इन घातक प्रवृत्तियों पर मार्मिक चोट की गई है प्रस्तुत व्यंग्य में। इस बात को लेकर नायकजी के मन में बड़ा मलाल है कि उनका पप्पू खेलता ही नहीं है। दिन भर या तो कामिक पढ़ता है या कार्टून देखता है। कोर्स की किताबों से उसे लगाव नहीं, तो चलो कोई बात नहीं, पर उसे खेलना तो चाहिए न ! लेकिन नहीं खेलता । बड़े दुख की बात है। इस संसार में सचमुच दुख ही दुख हैं । एक रोज मिल गए तो उन्होंने बहुत दिनों से लबालब पीड़ा का घड़ा मेरे सामने उड़ेल दिया। बोले-"देखिए न जैन साब, पप्पू पन्द्रह का होने को आया, पर अब तक यह पता नहीं लग पाया कि उसकी नाव किस ठोर लगना है? गणित उसके पल्ले पड़ता नहीं । साइंस समझ में नहीं आता । भूगोल के नाम से उसे चक्कर आता है। ऐसे में पढ़-लिख कर कुछ बन पाएगा, सो तो लगता नहीं।" "कैसी बातें करते हैं नायक जी !" मैंने उन्हें सान्त्वना देने की गरज से कहा-‘“ अभी पप्पू की उम्र ही क्या है? आजकल तो पढ़ाई पच्चीस-तीस की उम्र होते तक ही पूरी हो पाती है तब कहीं पता लग पाता है कि कौन कितने पानी में है।" 'सो बात सही नहीं है जैन साब!" उन्होंने कहा-" और मैं जानता हूँ कि आप जो कह रहे हैं वह मात्र मुझे दिलासा देने के लिए। वरना यह कौन नहीं जानता कि आजकल बच्चा तीन वर्ष का हुआ नहीं कि पता लग जाता है कि वो कलेक्टर बनेगा या चपरासी, इंजीनियर बनेगा या मजदूर, आई.आई.टी. में जायेगा या आई.टी.आई. में।'' "वो कैसे?" "नर्सरी में एडमीशन से। बच्चा अगर किसी ढंग के पब्लिक स्कूल की प्री-प्रायमरी में एडमीशन पा गया तो समझ लो कि गंगा नहा लिए। फिर तो बच्चे का सिविल सर्विसेज में, या आई.आई.टी. में या आई.आई.एम. तक जा पहुँचना लगभग तय हो जाता है । इसीलिए तो माँ-बाप अपने बच्चे को पब्लिक स्कूल में भरती कराने में जी-जान लगा देते हैं। बड़े शहरों में तो इसके लिए बाकायदा कोचिंग क्लासेस चालू हो गई हैं। बच्चे को भले ही अपने हाथ से नाम पौंछना न आता हो, पर बोलना सीखते ही उसे कैट-रैट मैट की रटाई में लगा दिया जाता है और जो रट लेता है, उसका बेड़ा पार हो जाता है। " " अब ये बात इतनी सीधी भी नहीं है नायकजी, जितनी आप बतला रहे हैं।" मैंने संतुलन बनाए रखने के दृष्टिकोण से कहा - " पब्लिक स्कूल में पढ़ने वाला हर बच्चा हीरा बनकर ही निकलता हो, सो बात भी नहीं है। पर हाँ! एक बात मैं भी मानता हूँ कि इधर लोगों में अपने बच्चों को पब्लिक स्कूल में पढ़ाने की ललक पागलपन की हद तक पहुँचने लगी है और आदमी की इसी कमजोरी का फायदा उठाने हेतु गाँव-गाँव, गली-गली में पब्लिक स्कूल नामधारी संस्थाएँ कुकुरमुत्ते की तरह उग आई हैं, जो मात्र अंग्रेजी भाषा में ही शिक्षा देने का दम भरती हैं। आजकल क्या रईस, क्या मध्यमवर्गीय, क्या गरीब, सबकी इच्छा यही पाई जाती है कि उनका बच्चा पब्लिक स्कूल में पढ़े। अभी एक रोज हमारी काम वाली बाई मुझसे बोली कि मैं उसके बेटे को किसी पब्लिक स्कूल में भरती करने में मदद कर दूँ। बच्चे को पब्लिक स्कूल में पढ़ाने की खातिर वह दो-एक और घर काम पकड़ने को उतारू थी। उसका पति रात में दो घंटे और रिक्शा चलाने के लिए तैय्यार था । पर उनकी दिली तमन्ना थी कि वे अपने बालक को साफ-सुथरी टाईवाली ड्रेस पहने अँग्रेजी में पहाड़ा रटते देखें। -जुलाई 2002 जिनभाषित 29 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेकिन, मेरे भाई, यह मात्र छलावा है। केवल भेड़-चाल है। | ला पाने में सफल हुए हों, जिस पर वो सचमुच चर्चा करना चाह इसमें बच्चे का भविष्य बनने की गारंटी तो नहीं, पर तथाकथित | रहे थे। बोले-"लेकिन अब तो यह बात कतई सही नहीं बैठती। पब्लिक स्कूल चलानेवालों का वर्तमान बनने की गारंटी पक्की आजकल तो, जो नवाबी है सो खेल-कूद में ही है। जिसे खेलना होती है।" आ जाता है, वह कार के एडवरटाइजमेंट में पोज़ देकर लाखों "फिर भी, पब्लिक स्कूल में पढ़ने से बच्चे में अतिरिक्त | कमा लेता है। इधर कोई दौड़ में अव्वल आया नहीं कि उधर स्मार्टनेस तो आ ही जाती है।" नायकजी ने विषय को मजबूती से पुलिस में उसकी नौकरी पक्की हो जाती है, जबकि जो यूनिवर्सिटी पकड़े रहते हुए कहा-"म्युनिसिपिल स्कूल के विद्यार्थी की अपेक्षा की परीक्षा में अव्वल आता है उसे पी.एस.सी. क्लियर करने में विषय पर उनकी पकड़ तो अधिक मजबूत हो ही जाती है। गणित | पसीना आ जाता है। पलभर को दोनों हाथों पर बोझा साधकर जो की नींव तो दृढ़ बन ही जाती है।" भारोत्तोलन का पदक पा लेता है, वह तत्काल रेल्वे के अफसर "गणित को लेकर आप नाहक परेशान हो रहे हैं नायक | की कुर्सी पर सुस्ताने बैठ जाता है, जबकि केमिस्ट्री की किताब जी।" मैंने उन्हें समझाते हुए कहा-"जिन्हें गणित नहीं आता वे / से वर्षों उलझ कर जो परीक्षा पास करता है, उसे मजबूरन रेल्वे किसी से कम बैठते हों सो बात नहीं है। मेरे भाई साहब संस्कृत | प्लेटफार्म पर बोझा ढोने का काम करना पड़ता है। अब तो के प्रकांड विद्वान् हैं। यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर रहे हैं। उनकी लिखी | नौकरियों में स्पोर्ट्स का कोटा अलग से तय रहता है और वह भी हुई पुस्तकें कोर्स में पढ़ाई जाती हैं। पर लघुतम का गणित उनसे केवल सरकारी नौकरियों में नहीं, बल्कि प्रायवेट सेक्टर की नौकरियों न तब बनता था, जब बनना चाहिए था और न अब बनता है, जब | में भी। इसलिए क्या हर माँ-बाप को बच्चों को खेलने के लिए बनने-ना बनने से कोई फर्क नहीं पड़ता।" प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए?" "अच्छा एक बात बतलाइए जैन साहब," इन्होंने तत्काल | "जरूर करना चाहिए।" मैंने उनकी प्रसन्नता बनाए रखने विषय बदलते हुए कहा-"आप जब पढ़ते थे, तब कोई खेल भी | के उद्देश्य से कहा। खेलते थे क्या?" "लेकिन अफसोस कि इस मामले में मैं पूरी तरह हार "जरूर खेलता था।" मैंने उत्तर दिया-"गपई-समुंदर | गया हूँ।" नायकजी ने एक गहरी हाय-साँस लेते हुए कहा। खेलता था। पिट्ट खेलता था। कबड्डी खेलता था। ऐसे तमाम | उनके चेहरे पर प्रसन्नता के स्थान पर विषाद की एक मोटी परत खेल-खेलता था जिनमें पैसे खर्च नहीं होते थे। एक बार तो उभर आई। अत्यंत गमगीन स्वर में बोले-"मैंने बहुत कोशिश की त्रिटंगी दौड़ में डिस्ट्रिक्ट लेबिल तक सांत्वना पुरस्कार भी मिला | जैन साहब, कि पप्पू कोई खेल खेलने लगे। पर नहीं खेलता। था। लेकिन इससे आगे नहीं बढ़ पाया। कारण कि पिता जी खेलों | खेलता ही नहीं। मुझे इस बात का बहुत दुःख है। इस संसार में के सख्त खिलाफ थे। वह बहुधा कहा करते थे कि 'पढ़ोगे लिखोगे | सचमुच दुःख ही दुःख हैं।" बनोगे नवाब, खेलोगे कूदोगे होगे खराब'।". ___यह सुनकर नायक जी के चेहरे पर प्रफुल्लता पसर गई। 7/56-A मोतीलाल नेहरू नगर (पश्चिम) भिलाई (दुर्ग) छ.ग. - 490020 मानो वह बहुत देर के बाद, घुमा-फिरा कर मुझे उस विषय पर । वर्ष 2001 के विद्वत् महासंघ पुरस्कारों का समर्पण एवं सम्मान समारोह तीर्थंकर ऋषभदेव जैन विद्वत् महासंघ द्वारा स्थापित । महासंघ के अध्यक्ष महोदय द्वारा घोषित ऋषभदेव पुरस्कार से स्व. चन्दारानी जैन, टिकैतनगर स्मृति विद्वत् महासंघ पुरस्कार | सम्मानित किया गया। महासंघ की वरिष्ठ सदस्या डॉ. रमा जैन, 2001 तथा सौ. रूपाबाई जैन, सनावद विद्वत् महासंघ | छतरपुर द्वारा संकलित / संयोजित कुण्डलपुर के राजकुमारपुरस्कार 2001 का समर्पण समारोह गत 24 जून 2002 को | जयनायक तीर्थंकर महावीर पुस्तक का विमोचन डॉ. पन्नालाल परमपूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माता जी के ससंघ सान्निध्य | पापड़ीवाल, पैठण ने किया। में तीर्थंकर ऋषभदेव तपस्थली, प्रयाग में आयोजित किया गया। गणिनी ज्ञानमती, प्राकृत शोधपीठ के इन्दौर केन्द्र के विकास इस समारोह में वरिष्ठ जैन विद्वान् डॉ. दयाचन्द्र जैन साहित्याचार्य, | हेतु भूखण्ड प्रदान करने एवं दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान सागर एवं सन्मतिवाणी मासिक के यशस्वी सम्पादक पं.जयसेन | की अन्य गतिविधियों में सहयोग प्रदान करते हुए कुँवर दिग्विजय जैन, इन्दौर को चन्दारानी जैन स्मृति विद्वत् महासंघ पुरस्कार | सिंह जैन, इन्दौर तथा राष्ट्र एवं समाज की अप्रतिम सेवा हेतु 2001 तथा आगमनिष्ठ सक्रिय पं. विद्वान शिखरचन्द्र जैन एवं | महासमिति ने राष्ट्रीय महामंत्री की माणिकचन्द्र पाटनी, इन्दौर को पं. शीतलचन्द्र जैन, सागर को सौ. रूपाबाई जैन विद्वत् महासंघ | 'समाज रत्न' की उपाधि से सम्मानित किया गया। कार्यक्रम पुरस्कार 2001 से सम्मानित किया गया। संचालन एवं संयोजन डॉ. अनुपम जैन ने किया। ग्वालियर के युवा विद्वान् डॉ. अभयप्रकाश जैन को डॉ. अनुपम जैन 30 जुलाई 2002 जिनभाषित Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दी। समाचार महाविद्यालय के अधूरे पड़े छात्रावास के निर्माण में आने वाले संपूर्ण व्यय (लगभग 5-6 लाख) को श्री प्रेमचंद जी पटना परिवार भव्य आर्यिका दीक्षा समारोह सम्पन्न ने एवं नलकूप उत्खनन में होने वाले संपूर्ण व्यय (लगभग 1 लाख 21 जून वह चिरप्रतीक्षित दिन था जिसकी बड़ी उत्सुकता | रुपये) को श्री शीतलचंद जी पड़ा वालों ने प्रदान करने की स्वीकृति के साथ प्रतीक्षा थी। इस दिन परमपूज्य आचार्य श्री विरागसागर जी से 13 बहनें आर्यिका दीक्षा ग्रहण करने वाली थीं। प्रात:काल ब्र. पंकज 'सागर' से ही मोराजी प्रांगण में स्थान-स्थान से लोगों के आने का ताँता | कैलाश पर्वत का उदघाटन एवं लोकार्पण समारोह लगा हुआ था। सभी जन इस ऐतिहासिक वैराग्य के दृश्य को भगवान् ऋषभदेव की दीक्षा एवं केवलज्ञान कल्याणक से देखने आ रहे थे। प्रात: काल 4 बजे से सभी दीक्षार्थी बहनों के । पावन भूमि प्रयाग-इलाहाबाद में पिछले वर्ष पूज्य गणिनी प्रमुख केशलोंच हुए। श्री ज्ञानमती माताजी की मंगल प्रेरणा से "तीर्थंकर ऋषभदेव ___ दोपहर में ठीक 1 बजे से दर्शकों से खचाखच भरे वर्णी तपस्थली" तीर्थ का भव्य निर्माण सम्पन्न हुआ था, जिसमें दीक्षा भवन प्रांगण में विशेष तौर पर बनाये गये मंच से दीक्षा समारोह कल्याणक तपोवन में महामुनि ऋषभदेव की पिच्छी-कमण्डलु प्रारंभ हुआ। दीक्षार्थी बहनों ने आचार्य श्री के चरणों में श्रीफल सहित खड्गासन प्रतिमा धातु के वट वृक्ष के नीचे विराजमान की अर्पण कर दीक्षा हेतु प्रार्थना की। आचार्य श्री ने इस प्रार्थना पर | गई। साथ ही केवलज्ञान कल्याणक समवसरण मंदिर, निर्वाण मंगल उद्बोधन देते हुए जिनदीक्षा के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए | कल्याणक कैलाश पर्वत एवं भगवान् ऋषभदेव कीर्तिस्तंभ का भी बताया कि जिनशासन में स्त्री पर्याय में आर्यिका पद सर्वोत्कृष्ट । निर्माण किया गया था। होता है, जिसमें साधना के द्वारा स्त्रीलिंग का छेद कर परंपरा से वर्तमान में राजधानी दिल्ली से 20 फरवरी 2002 को भगवान् मुक्ति प्राप्त होती है। चतुर्विध संघ, विद्वद्वर्ग, उपस्थित जनसमूह महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर के लिए मंगल विहार करके मार्ग में को स्वीकृति प्राप्त करने के बाद आचार्य श्री ने दीक्षार्थिनियों की | भारी धर्मप्रभावना करते हुए पूज्य माताजी (ससंघ) 12 जून को दीक्षा हेतु आशीर्वाद प्रदान किया। तीर्थंकर ऋषभदेव तपस्थली पर पधारी, जहाँ उनके ससंघ सान्निध्य सौभाग्यवती महिलाओं द्वारा बनाये गये अक्षत स्वास्तिक में 24 जून को सम्पन्न हुआ भारत वर्ष में प्रथम बार निर्मित अत्यंत पर बैठकर दीक्षार्थिनियों ने ज्ञाताज्ञात भाव से हुए अपराधों की सुन्दर-झरनों, फव्वारों, प्राकृतिक सौन्दर्य से समन्वित 108 फुट क्षमा याचना कर समस्त आभूषणों का त्याग किया। तत्पश्चात् लम्बे, 72 फुट चौड़े एवं 50 फुट ऊँचे कैलाश पर्वत का भव्य आचार्य श्री ने दीक्षासंस्कार किये। ज्ञानोपकरण शास्त्र, संयमोपकरण उद्घाटन एवं लोकार्पण समारोह । पिच्छी, शौचोपकरण कमण्डलु एवं वस्त्र प्रदान किये गये। अंत में कर्मयोगी ब्र. रवीन्द्र कुमार जैन आचार्य श्री द्वारा नामकरण किया गया। नामकरण संस्कार होते ही अतिशयक्षेत्र खण्डेला विकास परिषद् उपस्थित जन समूह ने जय-जयकार के नारों से पूरे सभा भवन को खण्डेला 26 जून। श्री खण्डेलवाल दिगम्बर जैन गुंजायमान कर दिया। दीक्षार्थिनियों के नाम क्रमशः स्वाति अतिशयक्षेत्र, खण्डेला में श्री दिगम्बर जैन अतिशयक्षेत्र खण्डेला (भिलाई)- विबोधश्री, स्वप्निल (भिलाई)-विमोहश्री वर्षा विकास परिषद् का स्थापना समारोह मनाया गया जिसकी अध्यक्षता (सागर)-विविक्तश्री, नीतू (भिलाई)-वियुक्त श्री, नीतू (भिण्ड) भूतपूर्व इंजीनियर लल्लू लाल छाबड़ा, जयपुर ने की। समारोह के विजेताश्री, अनुराधा (भिलाई)-विनेताश्री, पिंकी (कटनी) मुख्य अतिथि श्री पारस कुमार जैन ए.सी.जे. एम. श्रीमाधोपुर ने विद्वतश्री, वीणा (भिण्ड)-विशोधश्री, जूली (भिण्ड) विश्वासश्री, दीप प्रज्ज्वलित किया। सर्वप्रथम मुख्य अतिथि एवं अध्यक्ष का माल्यार्पण कर श्यामादेवी (पथरिया) क्षु. विशांतश्री, मुन्नी बाई (लखनऊ)-क्षु. विधाताश्री नाम रखे गये। इन दीक्षार्थिनियों में क्षु. विशांतश्री स्वागत किया गया। अतिशयक्षेत्र खण्डेला के मंत्री श्री महावीर प्रसाद जैन लालासवालों ने कार्यक्रमों के बारे में विशद जानकारी दी। आचार्यश्री विराग सागरजी महाराज की गृहस्थावस्था की माँ हैं। महावीर प्रसाद जैन लालासवाला इसी आयोजना के मध्य में विराग विद्यापीठ भिण्ड के मुखपत्र 'विरागवाणी' के द्वितीय अंक का विमोचन वीरेन्द्र कुमार विद्वत् महासंघ पुरस्कारों हेतु प्रस्ताव आमंत्रित "वेटे" कटनी, भरत कुमारजी छाबड़ा, अशोक कुमार गोइल भिलाई द्वारा किया गया। साथ ही पत्रिका के प्रधान संपादक तीर्थंकर ऋषभदेव जैन विद्वत् महासंघ द्वारा वर्ष 2000 में श्रीपाल जैन 'दिवा', कमलकुमार जी कमलांकुर, श्री दीपचंद जी निम्नांकित 2 पुरस्कारों की स्थापना की गई। प्रत्येक पुरस्कार में भोपाल ने पू. आचार्यश्री के कर कमलों में पत्रिका की प्रतियाँ भेंट 11,000/- रु. की नकद राशि, शाल, श्रीफल एवं प्रशस्ति प्रदान की। की जाती है। वैराग्य के इस क्षण पू. आचार्य श्री की प्रेरणा से वर्णी | (1) स्व. चन्दारानी जैन, टिकैतनगर स्मृति विद्वत् महासंघ पुरस्कार -जुलाई 2002 जिनभाषित 31 महामंत्री Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) सौ. रूपाबाई जैन, सनावद विद्वत् महासंघ पुरस्कार वर्ष 2002 के लिए उक्त पुरस्कारों हेतु महासंघ के सदस्यों से प्रस्ताव सादर आमंत्रित हैं। कृपया प्रस्ताव सादे कागज पर पूर्ण विवरण सहित 31 अगस्त 2002 तक महामंत्री कार्यालय पर भिजवाने का कष्ट करें। प्रस्तावित विद्वान का भी महासंघ का सदस्य होना आवश्यक है। डॉ. अनुपम जैन प्रदेश के प्रथम पक्षी चिकित्सालय का शुभारंभ इंदौर, 26 अप्रैल। दिल्ली में स्थित पक्षी चिकित्सालय की तर्ज पर म.प्र. के पहले पक्षी चिकित्सालय का उद्घाटन आज यहाँ कमला नेहरू प्राणी संग्रहालय में किया गया। इसका उद्घाटन महापौर कैलाश विजयवर्गीय और निगमायुक्त संजय शुक्ल की उपस्थिति में हुआ। इंदौर नगर निगम तथा जैन समाज के संयुक्त तत्त्वावधान में स्थापित किये गये इस चिकित्सालय में पक्षियों का निःशुल्क उपचार किया जायेगा। इंदौर के इस अस्पताल को समाजसेवी नरेंद्र बाफना ने सेवाएँ देकर तैयार किया है। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए केंद्रीय अध्यक्ष श्रीमती आशा विनायका ने प्रोजेक्ट रिपोर्ट बतायी। स्वागत भाषण जया सालगिया ने दिया । आचार्य ज्ञानसागर विद्वत् संगोष्ठी का आयोजन दि. 10 वा 11 को आ. ज्ञान सागर जी महाराज की 30वीं पुण्य तिथि के अवसर पर दो दिवसीय आ. ज्ञानसागर विद्वतसंगोष्ठी का आयोजन पाँच सत्रों में किया गया। मुनि संघ के अतिरिक्त प्राचार्य नरेन्द्र प्रकाश जैन फिरोजाबाद, श्री अनूप चन्द्र जैन एडवोकेट फिरोजाबाद, डॉ. सुशील जैन कुरावली, ब्र. सुनीता शास्त्री ललितपुर, ब्र. सुनीता दीदी, वल्लभ गढ़, पं. शिवचरण लाल जैन मैनपुरी प्रो. मालती जैन मैनुपरी, डॉ. सुशील जैन मैनपुरी आदि ने पूज्य ज्ञान सागरजी महाराज के कृतित्व व व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला। अष्ट दिवसीय पूजन, प्राकृत भाषा प्रशिक्षण शिविर सम्पन्न श्री दिग जैन पंचायती बड़े मंदिर झाँसी में अनेकान्त ज्ञानमंदिर शोधसंस्थान बीना (म.प्र.) ने 18 से 26 जून 2002 तक इस ऐतिहासिक शिविर का आयोजन किया। शिविर के प्रशिक्षक एवं निर्देशक ब्र. संदीप जी 'सरल' ने समस्त शिविरार्थियों के लिए शिविर सम्बंधी नियमावली से अवगत कराते हुए शिविर की उपादेयता पर प्रकाश डाला। ऐलक 105 नम्रसागर जी महाराज ने न. 'सरल' जी के इस अनूठे प्रयास को ऐतिहासिक बतलाते हुए प्राकृत भाषा शिक्षण को एक महान् उपलब्धि कहा । वाग्भारती पुरस्कार डॉ. उज्ज्वला जैन औरंगाबाद को युवावर्ग को धर्म क्षेत्र में प्रोत्साहित करने की भावना से डॉ. सुशील जैन मैनपुरी द्वारा स्थापित वाग्भारती पुरस्कार वर्ष 2000 हेतु 32 जुलाई 2002 जिनभाषित ब्र. उज्ज्वला सुरेश गोसावी जैन औरंगाबाद को श्रुत पंचमी के पावन पर्व पर 108 मुनि श्री प्रज्ञासागर जी महाराज एवं प्रशस्ति सागर जी महाराज शिष्य आ. श्री पुष्पदन्त सागर जी के सान्निध्य में दि. जैन मंदिर राँची के विशाल हाल में प्रदान किया गया। शिवपुरी- समाचार 1. श्री महावीर जिनालय में जैन मिलन के सौजन्य से रात्रिकालीन धार्मिक पाठशाला 2 घंटे के लिये नियमित पं. गोपालदास वरैया जयंती पर प्रारंभ की गई जिसमें 80 विद्यार्थी चारों भाग का अध्ययन कर रहे हैं। 2. जीवाजी विश्वविद्यालय द्वारा शास. स्नातकोत्तर महाविद्यालय शिवपुरी के सहयोग से महावीर जिनालय में एक सरल संस्कृत भाषण शिविर 12 मई से निर्देशक श्री नीरज शर्मा के नेतृत्व में प्रो. श्रीमती मधुलता जैन के सहयोग से लगाया गया जिसमें 60 विद्यार्थियों ने प्रतिदिन उपस्थित होकर संस्कृत पढ़नाबोलना सीखा। 3. माध्यमिक शिक्षा मण्डल की दसवीं बोर्ड परीक्षा में धर्मेन्द जैन पुत्र श्री रवीन्द्र जैन सुपौत्र श्री मुरारीलाल जैन नरवर ने 95 प्रतिशत अंक प्राप्त कर नरवर शिवपुरी ही नहीं वरन् पूरे म.प्र. का गौरव बढ़ाया है। सुरेश जैन मारौरा जीवन सदन सर्किट हाउस के पास, शिवपुरी प्रवचन, विधिविधान हेतु योग्य विद्वान् उपलब्ध श्री दि. जैन श्रमण संस्कृति संस्थान सांगानेर में सभी धार्मिक पर्व, दशलक्षण पर्व, आष्टाह्निका पर्व, मंदिर वेदी प्रतिष्ठा, नैमित्तिक पर्व एवं अन्य विधि विधान आदि महोत्सव सम्पन्न कराने हेतु सुयोग्य प्रभावी विद्वान वक्ता उपलब्ध हैं। दशलक्षण पर्व में विधि-विधान एवं प्रवचनार्थ आप अपने आमंत्रण पत्र संस्थान कार्यालय में शीघ्र भेजें अथवा फोन से सम्पर्क करें ताकि समय रहते व्यवस्था की जा सके। सुकांत जैन ( अधीक्षक ) फोन नं. 730552 दशलक्षण पर्व पर व्रती भाइयों एवं सदाचारी विद्वानों को बुलायें आगम संरक्षण के पुनीत कार्य में सतत संलग्न अनेकान्त ज्ञानमंदिर शोध संस्थान, बीना दशलक्षण पर्व पर समाज के आमंत्रण पर विद्वानों को भेजता है। आमंत्रण पत्र संस्थापक अनेकान्त ज्ञानमंदिर शोधसंस्थान, बीना के नाम 10 अगस्त तक भेजें। जो विद्वान् इस संस्थान के माध्यम से दशलक्षण पर्व पर जाना चाहें, वे शीघ्र ही फोन पर सम्पर्क स्थापित करलें। ब्र. संदीप 'सरल' अनेकान्त ज्ञानमंदिर शोधसंस्थान, बीना, सगार (म.प्र.) 470113 फोन नं. (07580 ) 22270 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत सरकार टकसाल, मुंबई __ नोटिस 2600वीं की बकिंग भगवान महावीर की जयंती स्मारक 2600वीं (2001) सिक्कों की बुकिंग अधिसूचित किया जाता है कि भारत सरकार टकसाल, मुंबई ने भगवान की 2600वीं जयंती के अवसर पर विमोचित प्रूफ एवं अपरिचालित स्मारक सिक्कों की बिक्री का प्रबंध किया है। मध्ययन पretupASIR 2001 7. पा अ. सिक्कों का विवरण 1. सौ रुपये का सिक्का चार मिश्र धातुओं का वृत्ताकार (परिधि 39 मिमी.) सिक्का है तथा इसका वजन 35 ग्राम है। पाँच रुपये का सिक्का ताम्र निकल मिश्र धातु का वृत्ताकार सिक्का है। इसकी परिधि 23 मिमी है। इसमें प्रतिभूति किनारा भी है, इसका वजन 9 ग्राम है। ब. सिक्कों के विभिन्न सेटों का मूल्य जैसा ऑर्डर फार्म में दर्शाया गया है। स. प्रूफ और अपरिचालित सिक्कों के प्रत्येक सेट की बुकिंग के लिए डाक, पैकिंग और बीमा शुल्क 1 सेट 2 सेट 3 सेट 4 सेट 5 सेट रु. 130 रु. 190 रु. 250 रु. 330 रु. 400 नियम और शर्ते डाक, पैकिंग, बीमा शुल्क तथा बिक्री कर, अधिभार एवं टर्न ओवर टैक्स सहित पूरी राशि अग्रिम रूप में मनीऑर्डर अथवा भारतीय रिजर्व बैंक-खाता भारत सरकार टकसाल, मुंबई के पक्ष में देय किसी भी राष्ट्रीयकृत बैंक की मुंबई शाखा के क्रास किये हुए डी.डी. द्वारा ठीक प्रकार से भरे ऑर्डर फार्म के साथ मुंबई टकसाल में पहुँच जानी चाहिए। मुंबई टकसाल के बुकिंग काउंटर पर नकद भुगतान भी किया जा सकता है। चैक स्वीकार नहीं किये जायेंगे। विदेश में रहने वाले व्यक्ति यू.एस. डालरों में अग्रिम भुगतान करके ऑर्डर बुक कर सकते हैं। इसके लिए मुंबई टकसाल में - अलग ऑर्डर फार्म उपलब्ध हैं। सेटों की डिलीवरी के समय मूल्य पर 13 प्रतिशत बिक्री कर लागू होता है। (पैसों को रुपये में राउंड कर दिया जायेगा) यह टैक्स सभी आदेशों पर बुकिंग के समय अदा किया जाना चाहिये। केवल महाराष्ट्र में बुक किये गए सेटों में बिक्री कर पर 10 प्रतिशत अधिभार तथा सेट के मूल्य पर 1 प्रतिशत टर्न ओवर टैक्स (पैसों को रुपये में बदल दिया जायेगा) अदा किया जाना चाहिये। बुकिंग सीमा : एक संग्राहक को हर किस्म के केवल 5 सेट दिये जायेंगे। तथापि बैंक सिक्का क्लब, शैक्षणिक संस्थान आदि अपने सदस्यों की विस्तृत सूची प्रस्तुत करके अधिकतम सेटों के आर्डर बुक कर सकते है। बुकिंग समय : 15.7.2002 से 30.8.2002 तक मुंबई टकसाल के बुकिंग काउंटर पर 10.00 बजे से 12.00 बजे के बीच आर्डर बुक किये जा सकते हैं। अंतिम तिथि के बाद कोई आर्डर स्वीकार नहीं किया जायेगा। डिलीवरी : बुकिंग बंद होने के बाद 18 महीनों के अंदर डिलीवरी दी जायेगी। ऑर्डर फार्म दिया जायहर किस्म अधिकत दिनांक प्रति, महाप्रबंधक, भारत सरकार टकसाल, फोर्ट, मुंबई-400023 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि.नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC डाक पंजीयन क्र.-म.प्र./भोपाल/588/2002 पर्युषण केंदशदिन “पर्युषण के दश दिन" पुस्तक उपलब्ध है मुनि समतासागर पर्वराज पर्युषण जैन परम्परा का एक सुप्रसिद्ध पर्व है। इस पर्व के सार-संदेश को समझने-समझाने के लिये मुनि श्री समतासागरजी द्वारा लिखित कृति पर्युषण के दश दिन कुछ वर्षों से बहुचर्चित हो चुकी है। इस कृति में पर्युषण की ऐतिहासिकता, दशधर्मों की सांगोपांग व्याख्या और क्षमावाणी की आत्मिक भावधारा को सरल, सारगर्भित शब्दों में स्पष्ट किया गया है। यह कृति त्यागी-व्रती एवं विद्वान प्रवचनकारों के लिये अत्यंत उपयोगी है। यही कारण है कि अल्प समय में ही इसके अनेक संस्करण निकल चुके हैं। मौलिक शास्त्रीय सन्दर्भो और जनजीवन में रचे-बसे सरल उदाहरणों के माध्यम से कृति का कथ्य सरल और सुग्राह्य है। दशलक्षण पर्व के समय इसे आप स्वयं पढ़ें और पढ़-बाचकर श्रोता समुदाय को भी लाभान्वित करें। - पुस्तक का मूल्य 20 रु है। डाक व्यय सहित इसे निम्न पते से प्राप्त कर सकते हैं : ब्र. प्रदीप जी, श्री वर्णी दि. जैन गुरूकुल मढ़ियाजी जबलपुर 3 फोन-370991 2. राजीव कुमार जैन, लकी बुक डिपो, घंटा घर के पास, ललितपुर, फोन-73790 भक्तामर स्तोत्र की नई केसिट तैयार जैन जगत् के सुप्रसिद्ध गीतकार / संगीतकार रवीन्द्र जैन ने 'भक्तामर स्तोत्र' पर एक नई केसिट तैयार की है, जिसमें संस्कृत भक्तामर स्तोत्र के 48काव्यों के साथ-साथ मुनि श्री समतासागर जी महाराज द्वारा किया गया उसका दोहानुवाद भी गाया गया है। संस्कृत के शुद्ध उच्चारण और दोहानुवाद के गायन में स्वर संगीत की मधुरता और मोहकता अद्वितीय है। इस केसिट को प्रभात जैन, बम्बई ने तैयार कराया है। रवीन्द्र जी ने इसे अपने डी.आर. प्रोडक्शन से रिलीज किया है। केसिट उपलब्ध कर आप सस्वर भक्तामर-भक्ति का आनंद अवश्य लें। स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक :रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, जोन-1, महाराणा प्रताप नगर, Jain Education Inte भोपाला (म.प्र.) से मुद्रित एवं सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कालोनी, आगरा - 282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित!w.jainelibrary.org