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________________ साहित्य जगत के ज्योतिर्मय नक्षत्र : आचार्य विद्यासागर डॉ. के.एल. जैन 'साहित्य' शब्द की हिन्दी, संस्कृत और अंग्रेजी के विद्वानों | शब्दों के माध्यम से व्यक्त होकर जन-जन के हृदय को अनुरंजित ने अपने-अपने ढंग से व्याख्या की है। विद्वानों का तत्सम्बन्ध में | करती हुईं अतीन्द्रिय आनन्द की अनुभूति कराती हैं तो कविता यही मत रहा है कि 'साहित्य' वह है जो सभी का 'हित-साधन' | धन्य हो जाती है। और ऐसा ही कार्य किया है कवि की 'मूकमाटी' करे, जिसमें जन कल्याण की भावना हो तथा जिसके द्वारा जीवन ने। फिर 'मूकमाटी' केवल एक काव्यकृति नहीं, वरन् एक ऐसी की व्याख्या इस तरह से की जाय जिसमें मानवीय भावनाओं, | रचना है जिसमें भक्ति, ज्ञान और काव्य की त्रिवेणी का संगम संवेदनाओं और आत्माभिव्यक्ति को पूरा-पूरा स्थान मिल सके। सबको पावन बना देता है। 'मूकमाटी' महाकाव्य 'जैनदर्शन' के आचार्य विद्यासागर जी साहित्य का सम्बन्ध 'सामाजिक-सुख' धरातल पर समकालीन परिप्रेक्ष्य में काव्य-शास्त्र की एक नवीन और उसके हित-चिन्तन' से मानते हैं । अर्थात् साहित्य में सम्पूर्ण भावभूमि प्रस्तुत करने के साथ-साथ सांस्कृतिक विकास के स्वरूप समाज के हित-चिन्तन' का भाव समाहित होना चाहिए तभी वह को दर्पण की भाँति रेखांकित करता है। महत्त्वूपर्ण बात यह है कि सच्चा साहित्य कहलाने का हकदार होता है। इस कृति ने जीवन में हताशा, पराजय और कुण्ठा के स्थान पर आचार्यश्री ने विपुल साहित्य का सृजन किया है। इस जिस आशा, पुरुषार्थ और स्थाई मूल्यों का संचार किया है वह साहित्य में सृष्टि का सार समाया हुआ है। उनकी कृतियाँ 'ज्ञान | अपने आप में अन्यतम है। कुल मिलाकर देखा जाय तो यही राशि के संचित कोश' हैं जिनमें जनकल्याण और लोक कल्याण | कहना पर्याप्त होगा कि 'मूकमाटी' एक ऐसी काव्यकृति है जिसमें की भावना समाहित है। इस दृष्टि से उनके प्रवचन' काफी महत्त्वपूर्ण | सम्पूर्ण सृष्टि का सार तत्त्व समाया हुआ है जिसे कोई भी साहित्यकार एवं सारग्राही हैं। वैसे 'प्रवचन' एक कला है, परन्तु उस कला में | किसी एक रचना में संयोजित करने का दुर्लभ प्रयास न तो आज पारंगत हो पाना अत्यन्त कठिन कार्य है। इसके लिए पुस्तकीय तक कर सका है और भविष्य में भी कर सकेगा, यह कहना भी ज्ञान के साथ-साथ शास्त्रीय बोध और लौकिक ज्ञान की भी कठिन है। आवश्यकता होती है, तभी एक श्रेष्ठ 'प्रवचनकार' अपनी वाणी के । ऐसा माना गया है कि जब एक 'सन्त' कविता के रूप में माध्यम से इस संसार में भटक रहे मानवों को ज्ञानामृत पिलाकर | अपनी आत्मानुभूति को प्रकट करता है तब उसकी वाणी के उनका पथ प्रशस्त सकता है। चूंकि आचार्य विद्यासागर को संस्कृत, सारतत्त्व को हृदयंगम करने में अधिक सरलता होती है। आचार्य प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, मराठी, कन्नड़, अंग्रेजी और बंगला भाषा विद्यासागर ने आगम की भूल-भुलइयों तथा काव्य की दुरूहता से का पर्याप्त ज्ञान है, इसलिये उनके प्रवचन' ज्ञानराशि के खजाने हैं आज के श्रावक और पाठक को बाहर निकालने का जो मंगल जिनमें सृष्टि का सारतत्त्व समाया हुआ है। कार्य किया है वह निश्चित रूप से समकालीन कविता की दृष्टि से आचार्य विद्यासागर इस धरित्री पर एक प्रकार के जंगमतीर्थ | एक अनूठा प्रयोग माना जाएगा और साहित्य जगत में इसके लिए हैं, जो इस भौतिक जगत् को सन्तापों से मुक्त कराने में लगे हुए | आपके प्रति चिर ऋणी रहेगा। हैं। फिर एक सच्चा 'सन्त' तो अपने ज्ञान और साधना के द्वारा काव्य का सीधा सम्बन्ध आत्मा से है। जिस प्रकार धर्म ऐसा 'अलख' जगाता है कि संसार में भटक रहे लोगों को दिशा | का उद्देश्य जन-जन का हित करना है, ठीक वैसे ही उत्तम साहित्य मिल जाती है। आचार्य विद्यासागर ने अपने प्रवचनों के द्वारा | भी हितेन साहितम्' होता है। अर्थात् उत्तम साहित्य वह है जो 'जिनवाणी' के प्रसाद को सम्पूर्ण उत्तर भारत में जिस उदारता से | मानव को हित की ओर उन्मुख करे। उसके जीवन का परिमार्जन बाँटा है उसके लिए सदियाँ भी उनके इस उपकार को विस्मृत नहीं | करे। अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाय। मृत्यु से मुक्त कर दे। कर पाएँगीं। क्योंकि इन प्रवचनों में सृष्टि का सार, जीवन का यदि सही मायने में देखा जाए तो साहित्य का यही स्वरूप 'धर्मसौन्दर्य, मानवता का मर्मं, मनुष्यत्व की गरिमा, संस्कृति का स्वरूप | साधना' से भी निखरता है। 'धर्म' हमें बाह्य प्रदूषण से मुक्त कर मर्यादाओं की थाती, मुक्ति की प्रेरणा, तप और संयम का उत्कर्ष आत्मा के पवित्र पर्यावरण में ले जाता है। इस व्याख्या से यह बात तथा जागरण का सन्देश/शंखनाद सुनाई देता है। स्वयमेव ही स्पष्ट हो जाती है कि 'धर्म' और 'साहित्य' का परस्पर विद्वानों का ऐसा मानना है कि कविता मन की असल / एक दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध है। तत्सम्बन्ध में इतना कहना ही गहराइयों से उठती हुई अनुभूतियों की तरंग है। ये ही तरंगें जब | पर्याप्त होगा कि आचार्य विद्यासागर का धर्म-चिन्तन ही उनकी -जुलाई 2002 जिनभाषित 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524264
Book TitleJinabhashita 2002 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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