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________________ काव्य-चेतना बन गई है, जिसके द्वारा उन्होंने सांसारिक प्राणियों | होगी। मुझे लगता है कि इस पुस्तक के प्रकाशन से आचार्य को आत्मकाव्यरस की संजीवनी पिलाकर जीवन दान दिया है। | विद्यासागर की उदात्त जीवन-प्रणाली, धार्मिक औदार्य और आचार्यश्री ने भावों की अभिव्यक्ति के लिए सुन्दर भाषा | रचनात्मक उत्कर्ष का जो सन्देश साहित्य जगत् तक पहुँचेगा, वह और श्रेष्ठ शब्दावली का चयन किया है। लेकिन छन्दों के बन्धन | निश्चित रूप से अन्यतम होगा। को स्वीकारना इसलिए उचित नहीं माना कि मुक्ति की चाह रखने मेरो विनम्र अनुरोध है कि सुधी और विज्ञजन इस महनीय वाला निर्बन्ध 'सन्त' किसी बन्धन को (जीवन और काव्य में) | ग्रन्थ को अवश्य पढ़ें, उन्हें अनूठा लाभ होगा। क्योंकि समकालीन कैसे स्वीकार सकता है। इसलिए उन्होंने मुक्त-छन्द को भी अपनी | समय के आचार्य विद्यासागर एक ऐसे 'सन्त हैं: अभिव्यक्ति का आधार बनाया, पर उसमें भी जो एक गति और "श्रद्धानत हो अक्षय कीर्ति करती जिन्हें प्रणाम। लय का भाव है वह पाठक को आन्दोलित करने के साथ-साथ अधर-अधर पर कौन लिख गया विद्यासागर नाम॥" रससिक्त भी कर देता है। प्रोफेसर एवं अध्यक्ष-हिन्दी विभाग डॉ. बारेलाल जैन द्वारा लिखित हिन्दी साहित्य की सन्त शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, टीकमगढ़ (म.प्र.) काव्य परम्परा के परिप्रेक्ष्य में आचार्य विद्यासागर के कृतित्व | 1.हिन्दी-साहित्य की सन्त काव्य-परम्परा के परिप्रेक्ष्य में आचार्य का अनुशीलन' पुस्तक की रचनात्मक क्षमता पठनीय और ग्रहणीय विद्यासागर के कृतित्व का अनुशीलन है। यह कृति 'सन्त-साहित्य' के अध्येताओं को एक नूतन दृष्टि लेखक - डॉ. बारेलाल जैन, शोध सहायक-महाकवि प्रदान करने के साथ-साथ समय के महत्त्व को समझने के लिए केशव अध्यापन-अध्यापन विभाग, अवधेश प्रताप सिंह विश्वभी चेतना प्रदान करेगी। विद्यालय, रीवा, मध्यप्रदेश। सामाजिक परिष्कार के लिए इस प्रकार की पुस्तकों का | प्रकाशक- निर्ग्रन्थ साहित्य प्रकाशन समिति, 4, कलाकार औचित्य असन्दिग्ध है। पुस्तक की भाषा सहज और सरल होने | स्ट्रीट, कोलकाता-700007 (पं.बंगाल) प्रथमावृत्ति, पृ. 20+254, के कारण पाठक को पहेलियों में भटकने की अड़चन प्रतीत नहीं | मूल्य 45 रुपए। आदिपुराण के सुभाषित विद्यावान् पुरुषो लोके सम्मतिं याति कोविदैः। । विद्या बन्धुश्च मित्रं च विद्या कल्याणकारकम्। नारी च तद्वती धत्ते स्त्रीसष्टेरग्रिमं पदं॥ सहयायि धनं विद्या विद्या सर्वार्थसाधनी।। भावार्थ- इस लोक में विद्यावान पुरुष पण्डितों के भावार्थ - विद्या ही मनुष्यों का बन्धु है, विद्या ही द्वारा भी सम्मान को प्राप्त होता है और विद्यावती स्त्री भी मित्र है, विद्या ही कल्याण करने वाली है, विद्या ही साथ सर्वश्रेष्ठ पद को प्राप्त होती है। जाने वाला धन है और विद्या ही सर्व प्रयोजनों को सिद्ध करने विद्या यशस्करी पुसां विद्या श्रेयस्करी मता। वाली है। सम्यगाराधिता विद्या देवता कामदायिनी॥ पुष्यात् सुखं न सुखमस्ति विनेह पुण्याद्। भावार्थ - विद्या ही मनुष्य का यश करने वाली है, बीजाद्विना न हि भवेयुरिह प्ररोहाः॥ विद्या ही मनुष्यों का कल्याण करने वाली है। अच्छी तरह से भावार्थ- इस संसार में पुण्य से ही सुख प्राप्त होता आराधना की गई विद्या देवता ही सब मनोरथों को पूर्ण | है। जिस प्रकार बीज के बिना अंकुर उत्पन्न नहीं होता, उसी करती है। प्रकार पुण्य के बिना सुख नहीं होता। विद्या कामदुहा धेनुर्विद्या चिन्तामणिर्नृणाम्। प्रस्तुति त्रिवर्गफलितां सूते विद्या संपत् परम्पराम्॥ पं. सनतकुमार विनोद कुमार जैन भावार्थ - विद्या मनुष्यों के मनोरथों को पूर्ण करने रजवाँस (सागर) म.प्र. -470422 वाली कामधेनु है, विद्या ही चिन्तामणि है, विद्या ही धर्म, अर्थ तथा काम रूप फल से सहित सम्पदाओं की परम्परा उत्पन्न करती है। 16 जुलाई 2002 जिनभाषित -- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524264
Book TitleJinabhashita 2002 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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