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कविवर सन्तलाल और उनका सिद्धचक्र विधान
डॉ. कपूरचन्द्र जैन
जैन संस्कृति के अनुसार श्रावक के प्रमुख कर्त्तव्य दान | शीलचन्द्र के घर एक बालक का जन्म हुआ। लाला शीलचन्द्र का और पूजा हैं-'दाणं पूजा सावयधम्मो'। पूजा की महत्ता बताते हुए | परिवार जनपद का प्रतिष्ठित परिवार था, जो धर्माचरण में तो कहा गया है कि जो जिनेन्द्र देव की पूजा करता है वह इहलौकिक निष्ठावान था, ही जाति सुधार और कुरीतिनिवारण में भी अग्रणी यश को प्राप्त कर अविनाशी मोक्षपद प्राप्त करता है
था। बालक पर अपने पिता और पितामह का गहरा प्रभाव था, यः करोति जिनेन्द्राणां पूजनं स्नपनं वा ।
आयु के साथ धर्म के प्रति बालक की रुचि बढ़ती गयी, उसने सः पूजामाप्य निःशेषां लभते शाश्वतीं श्रियम्॥
कभी असत्य भाषण न करने तथा शुभ कार्य में ही रत रहने का पूजा के साथ-साथ समय-समय पर भावशुद्धि के लिये
संकल्प बचपन में ही ले लिया, सम्भवत: इसी कारण बालका का विशेष पूजाविधानों का उल्लेख भी जैनागमों में प्राप्त होता है। ऐसे
नाम 'सन्तलाल' प्रचलित हो गया। विधानों में "सिद्धचक्र विधान" सबसे प्रमुख है, क्योंकि इसमें
सन्तलाल जी की आरम्भिक शिक्षा नकुड में ही सम्पन्न सिद्ध-भगवन्तों का गुणगान किया गया है तथा सिद्ध-पद प्राप्ति की
हुई। तदनन्तर रुड़की के थॉमसन कॉलेज में आपने अध्ययन किया प्रक्रिया भी बतलाई गयी है। आज तो विधानों की संख्या बहुत है,
और प्रतिष्ठित परीक्षा उत्तीर्ण की, किन्तु धर्म के प्रति गहन आस्था नये-नये विधान हाल के वर्षों में लिखे गये हैं और लिखे जा रहे
और समर्पण होने के कारण उस परीक्षा को जीविकोपार्जन का हैं, किन्तु कुछ दशक पूर्व तक विधान का अर्थ ही सिद्धचक्र
साधन नहीं बनाया। घर पर रहकर ही आप जैन शास्त्रों के अध्ययन विधान था। इस विधान का आयोजन किसी भी समय किया जा
में लग गये और स्वाध्याय के बल पर अच्छे विद्वान् बन गये। बाबू सकता है, किन्तु 'आष्टाह्निक पर्व' में ही इसका आयोजन कब
सूरजभान वकील ने लिखा है-"यहाँ (नकुड में) पं. सन्तलाल क्यों प्रारंभ हो गया यह, स्वतन्त्र शोध का विषय है। सम्भवतः
जी जैन हिन्दी भाषा जानने वाले जैन धर्म के अच्छे विद्वान् रहते 'आष्टाह्निक पर्व' के आठ दिन तथा इस विधान की आठ पूजायें
थे। वह भी बड़े तीक्ष्णबुद्धि थे और न्याय तथा तर्क के शौकीन थे। होने से इसका आयोजन उक्त पर्व में होने लगा है। यह भी विचारणीय
'परीक्षामुख' और 'प्रमाणपरीक्षा' को खूब समझे हुए थे।" है. कि इस विधान का सम्बन्ध श्रीपाल-मैनासुन्दरी की कथा से
सन्तलाल जी की विद्वत्ता और तर्क करने की क्षमता की कब से कैसे जुड़ गया? (आगे सिद्धचक्र विधान के लिये सि.वि.
ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी थी। उस समय के प्रसिद्ध विद्वान् का प्रयोग हमने किया है।)
भी उनका लोहा मानने लगे। उन दिनों जैन समाज और आर्य आरम्भ में सि.वि. संस्कृत भाषा में लिखा गया था। 18
समाज के बीच शास्त्रार्थ, विशेषत: उत्तर भारत में, प्राय: होते रहते 19वीं शताब्दी में जब हिन्दी का प्रयोग जन-जन में बढ़ने लगा, तो
थे। सन्तलाल जी इनमें भागीदारी करते थे और उनके लिखे उत्तरहमारे पूजा-विधान भी हिन्दी में लिखे जाने लगे। सि.वि. की भी
प्रत्युत्तर भी बड़े गम्भीर और वैदुष्यपूर्ण होते थे। तत्कालीन प्रसिद्ध हिन्दी में आवश्यकता अनुभव हुई। तब कविवर श्री सन्तताल जी
तर्कशास्त्री पं. ऋषभदास सन्तलाल जी को अपना गुरु मानते थे। ने हिन्दी भाषामय सि.वि. लिखकर जैन संस्कृति की महती सेवा
सन्तलाल जी तर्कशास्त्र के पण्डित होने के साथ हिन्दी के की। यह संस्कृत सि.वि. का अनुवाद भी है तथा स्वरचित भी।
| अच्छे कवि भी थे। सहारनपुर जनपद के इतिहास के अनुसार सि.वि. केवल विधान ही नहीं है, उसे हम अध्यात्म विद्या का
सहारनपुर जनपद के हिन्दी कवियों में सन्तलाल जी का स्थान महाकाव्य भी कह सकते हैं। रस, छंद, अलंकार आदि सभी सर्वोच्च था। सन्तलाल जी छंदशास्त्र के अप्रतिम ज्ञाता थे। उनकी दृष्टियों से वह महाकाव्य पद का अधिकारी है। विविध छंदों में तुलना यदि किसी हिन्दी कवि से की जा सकती है तो वे हैं आठ पूजाओं या आठ अध्यायों के माध्यम से सन्तलाल जी ने महाकवि केशवदास, जो अपनी विविध छंदमयी रचनाओं के सिद्धों के गुणों का जो वर्णन किया है वह अनूठा है। सन्तलाल जी | लिखे विख्यात हैं। 'कविवर' पद के सच्चे अधिकारी हैं। हिन्दी जैन साहित्य के सन्तलाल जी की एक कृति सि.वि. उपलब्ध है, किन्तु इतिहास में उनका नाम बड़े गौरव के साथ लिख जाना चाहिये। | वही इतनी गरिमामय है कि उसने सन्तलाल जी को हिन्दी जैन सहारनपुर जनपद के कस्बा नकुड में 1834 ई. में लाला | कवियों के उच्चासन पर विराजमान करा दिया है। कहा जाता है
-जुलाई 2002 जिनभाषित 23
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