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(वि.सं. 1369) ने इन दोनों गाथाओं को अलग-अलग माना है, । हैं।) युग्म नहीं, क्योंकि उन्होंने इनके उत्थानिका वाक्य और टीका इस तरह पंचास्तिकाय की गाथा नं. 111 क्षेपक है, यह वाक्य अलग-अलग दिये हैं। इन गाथाओं को युग्म मानने पर भी | सिद्ध होता है। अगर प्राचीन ताडपत्रीय प्रतियों की खोज की जाय जो दोष पहिले बता आये हैं, उनका कोई निरसन नहीं होता। ।
तो उसमें यह गाथा कभी नहीं मिलेगी। शंका -जयसेनाचार्य ने 111वीं गाथा के कथन में व्यवहार
(10) प्रसंगोपात्त त्रस और स्थावर के विषय में नीचे कुछ से तेजोवायु को त्रस मानना बताया है, इसमें क्या बाधा है?
ज्ञातव्य विवेचन किया जाता है: समाधान-धवलाकार और राजवार्तिककार ने तेजोवायु के
(क) "त्रस त्रसनाली में ही होते हैं, बाहर नहीं, स्थाव त्रसत्व का खण्डन किया है, वह व्यवहार से ही किया है अत:
सारे लोक में व्याप्त हैं" ऐसा शास्त्रनियम है। अगर तेजोवायु के व्यवहार से भी तेजोवायु का त्रसत्व उचित नहीं है। मूल गाथा में भी व्यवहार से मानने की कोई बात नहीं है। अगर फिर भी
त्रस माना जायेगा तो शास्त्रनियम गलत हो जायेगा, क्योंकि फिर व्यवहार का ही आग्रह हो, तो जल को भी त्रस बताना चाहिए था
त्रस भी सारे लोक में व्याप्त हो जायेंगे। इस तरह बस-स्थावर के उसे स्थावर क्यों बताया? क्या कुन्दकुन्द ऐसा स्खलन कर सकते
भेदरेखारूप त्रसनाली ही व्यर्थ हो जायेगी, अत: तेजोवायु को दि
आचार्यों ने त्रस नहीं माना है। इसके सिवा इस कथन में एक आपत्ति और है, वह यह
(ख) कर्मग्रन्थों में नाम कर्म की 93 प्रकृतियाँ बताई हैं कि आगे जो द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीवों का वर्णन है उन्हें उनमें त्रस, स्थावर तथा एकेन्द्रिय से पंचन्द्रिय तक 5 जातिनामकर्म क्या माना जाय? त्रस या स्थावर? या कोई अन्य? यह कुछ नहीं ये 7 अलग-अलग भेद बताये हैं। तब प्रश्र होता है कि द्वीन्द्रिय से बताया गया है।
पंचन्द्रिय तक 4 भेद अलग क्यों बताये? वे तो"द्वीन्द्रियादयस्त्रसा:" इस प्रकार के युक्ति और आगम के विरुद्ध तथा अनेक | इस सूत्र के अनुसार त्रस में आ जाते हैं। इसी तरह एकेन्द्रिय दोषों से युक्त कथन कुन्द-कुन्द के नहीं हो सकते।
जातिनामकर्म भी अलग क्यों बताया? वह भी स्थावर में आ जाता __(9) मोक्षाशास्त्र अ. 2 सूत्र 14 का दिगंबरीय पाठ | है। यह मूल कर्म फिलासफी में ही गड़बड़ क्यों है? 'द्वीन्द्रियादयस्त्रसाः' है किन्तु श्वेतांबरीय पाठ "तेजोवायुद्वी
समाधान-जो जातिनामकर्म के 5 इन्द्रियभेद बताये हैं, वे न्द्रियादयश्च त्रसा:" है। इससे तेजोवायु को त्रस कहने की मान्यता पाँचों पुद्गलविपाकी प्रकृतियाँ हैं। और त्रस तथा स्थावर ये 2 श्वेतांबरीय ही है। ऐसा प्रतीत होता है किसी श्वे. विद्वान् ने | अलग नाम कर्म बताये हैं वे जीवविपाकी प्रकृतियाँ हैं। यही इन 112वीं गाथा के पूर्वार्ध में अपने मत के अनुसार "तित्थावर तणु दोनों में खास अन्तर है। इसी को लक्ष्यकर पंचास्तिकाय की गाथा जोगा अणिलाणलकाइया य तेसु तसा" ये वाक्य बढ़ा दिये।। 39 में स्थावर का लक्षण कर्मफलचेतना का भोक्ता और त्रस का प्रतिलिपिकारादि के द्वारा फिर वे ही 2 अलग-अलग गाथाओं के लक्षण कार्य चेतना का भोक्ता बताया गया है जो जीवविपाकित्व रूप में निबद्ध हो गये। यह सब अमृतचन्द्र के बाद हुआ है, की दष्टि से है। इसमें 'एकेन्द्रिय को स्थावर और 2 से 5 इन्द्रिय को जयसेन के निम्नांकित कथन से भी इसकी सूचना मिलती हैं : त्रस कहते हैं ' इसका भी अन्तर्भाव हो जाता है। पंचास्तिकाय का
जयसेन ने पंचास्तिकाय की तात्पर्यवृर्ति पृ.9 पर उपोद्घात लक्षण सूक्ष्म-आभ्यंतरिक है। षट्खंडागम, तत्त्वार्थसूत्रादि में में लिखा है-"मेरे पाठक्रम से पहिले अधिकार में 111 गाथा हैं द्वीन्द्रियादि को त्रस और एकेन्द्रिय को स्थावर लिखा है, वह स्थूल
और अमृतचन्द्र की टीका के अनुसार 103 गाथाएँ हैं। दूसरे अधिकार (बाह्य) कथन है, लक्षण नहीं, उसे फलितार्थ मात्र समझना चाहिए। में मेरे पाठक्रम से 50 गाथाएँ हैं और अमृतचन्द्र की टीकानुसार 48 इस प्रकार दोनों कथनों में कोई विरोध नहीं है, दोनों अलग-अलग गाथाएँ हैं और चूलिका रूप तीसरे अधिकार में 20 गाथायें हैं।" विवक्षा से हैं।
इस उपोद्घात से साफ लक्षित होता है कि अमृतचन्द्र की पं. कैलाशचन्द्र जी का सम्पादकीय नोट-"विद्वान् टीका के अनुसार दूसरे अधिकार में सिर्फ 48 गाथाएँ ही जयसेन | लेखक ने पञ्चास्तिकाय की 111वीं गाथा के प्रक्षिप्त होने के के वक्त थीं, जब कि मुद्रित में दूसरे अधिकार की गाथाएँ 49 दी | सम्बन्ध में जो उपपत्तियाँ दी हैं वे विचारणीय हैं । इतना तो निश्चित हुई फलित होती हैं। इस तरह यह एक बढ़ी हुई गाथा वही 111 | प्रतीत होता है कि अमृतचन्द्र के सामने यह गाथा नहीं थी अथवा वीं होनी चाहिए, जिस पर न तो अमृतचन्द्र की कोई टीका है और न उत्थानिका वाक्य, (पहले अधिकार में भी एक गाथा बढ़ी हुई | छपा है वह आगे की गाथा का उत्थानिका वाक्य ही होना चाहिए। है क्योंकि जयसेन ने अमृतचन्द्र के मत से प्रथम अधिकार में 103 | गाथा 111 से उसका कोई सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता।" ही गाथायें सूचित की हैं जबकि मुद्रित संस्करण में 104 दी गई।
'जैन निबन्ध रत्नावली' से साभार
22 जुलाई 2002 जिनभाषित
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