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________________ कि बहुत दिनों तक यह कृति सहारनपुरनिवासी लाला रुडामल अडिल्ल जी शामयाना वालों के पास पड़ी रही। उनके तथा श्री मूलचन्द्र पंच परम गुरु नाम विशेषण को धरै। किशनदास कापड़िया के अथक प्रयासों से यह प्रकाश में आई। तीन लोक में मंगलमय आनन्द करें। सिद्धचक्र विधान की महत्ता उसके धार्मिक काव्य होने से पूरण कर थुति नाम अन्त सुखकारणं। तो है ही, वह साहित्यिक दृष्टि से भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। आज पूजूं हूँ युतभाव सुअर्घ उतारणं॥ लावनी अतुकान्त कविता का युग है, छन्दोबद्धता आज कविता का अनिवार्य तुम परमपूज्य परमेश परमपद पाया। अंग नहीं, परन्तु नई कविता से पूर्व लगभग सभी काव्यशास्त्रियों ने हम शरण गही पूजें नित मनवचकाया। छन्दोबद्धता को काव्य का मूल आधार स्वीकार किया था। कविवर निजरूप मगन मन ध्यान धेरै मुनिराजै। सन्तलाल जी की विशेषता है कि उन्होंने उस सयम प्रचलित सभी मैं नमूं साधु सम सिद्ध अकंप विराजै॥ छन्दों का प्रयोग सि.वि. में किया है। लगभग पचास तरह के छन्दों सि.वि. का अंगी रस अध्यात्मप्रधान शान्त रस है। पूरे का प्रयोग सि.वि. में हुआ है। सभी छन्द शास्त्रीय कसौटी पर खरे | काव्य में अध्यात्म की जो धारा बह रही है, उसमें अवगाहन कर उतरते हैं। इतना ही नहीं, संस्कृत के इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, मालिनी, | न जाने कितने भव्य जीवों ने अपने कल्याण का पथ प्रशस्त किय वसन्ततिलका, भुजंगप्रयात आदि छंदों को हिन्दी में यथावत् स्वीकार होगा। इसकी भाषा सरल सरस और प्रवाहमयी है, जिसमें देशी कर और तद्नुरूप रचनाकर सन्तलाल जी ने हिन्दी में नई परम्परा शब्दों का प्रयोग भी हुआ है, संस्कृत शब्दों का बाहुल्य है। संस्कृत का'ॐ नमः सिद्धेभ्यः' किया है। के प्रभाव से प्रभावित एक पद्य हैहिन्दी के अन्य जैन कवियों की भाँति सन्तलाल जी की जय अमल अनूपं शुद्ध स्वरूपं निखिल निरूपं धर्म धरा। जय विघन नशायक मंगलदायक तिहुँ जगनायक परमपरा ।। कविता का धार्मिक मूल्यांकन तो अधिक हुआ है, किन्तु साहित्यिक सि.वि. में शब्द तथा अर्थ दोनों तरह के अलंकारों का मूल्याकंन न के बराबर हुआ है। यही कारण है कि साहित्य का प्रचुर प्रयोग हुआ है। शब्दालंकारों में अनुप्रास सन्तलाल जी का 'अमृतकलश' होते हुए भी सि.वि. हिन्दी साहित्य में अपना वह प्रिय अलंकार है, इसका सातिशय प्रयोग पूरे काव्य में पदे-पदे स्थान नहीं पा सका, जिसका वह अधिकारी था। इसमें बहुत कुछ देखा जा सकता है। अर्थालंकारों में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा का दोष जैन समाज का भी है, जिसने अपने साहित्य को मन्दिरों तक बहुधा प्रयोग हुआ है। उभयालंकार संसृष्टि का भी प्रयोग हुआ है। ही सीमित कर रखा है। तीनों के एक-एक उदाहरण यहाँ प्रस्तुत हैंछन्द शास्त्र/पिंगल शास्त्र के विशेष ज्ञाता सन्तलाल जी ने तत्कालीन प्रचलित दोहा, सोरठा आदि ख्यात छंदों के अतिरिक्त शब्दालंकार- अनुप्रास अख्यात या अल्पख्यात छन्दों का भी प्रयोग किया है, इनमें जय मदन कदन मन करण नाश, जय शान्तिरूप निज सुख विलास। कामिनीमोहन, सुन्दरी, मोतीदाम, लक्ष्मीधरा, शंखनारी, नाराच, जय कपट-सुभट पट करन सूर, जय लोभ क्षोभ मद दम्भ चूर॥ अर्ध नाराच, शंखरूपिणी डालर, उल्लाला, चूलिका, माला, चकोर, अर्थालंकार- उपमा पायता आदि को लिया जा सकता है। छंद के साथ उपराग या फैली दीपन की जोति, अति परकाश करै। देशीराग के अन्तर्गत परिगणित लोक गीतों से विकसित लावनी जिम स्याद्वाद उद्योग, संशय तिमिर हरै। का प्रयोग तथा लोक गीतों की धुन पर कतिपय पद्यों की रचना उभयालंकार- उत्प्रेक्षा-रूपक की संसृष्टि सन्तकाल जी ने की है। वानगी के तौर पर पाँच पद्य यहाँ प्रस्तुत तुम चरण चन्द्र के पास पुष्प धरै सोहें, भुजंगप्रयात मानू नक्षत्रन की रास सोहत मन मौहें। मनोयोग क्रोधी समारम्भधारी, सदा जीव भोगे महाखेद भारी। अन्तरगत अष्ट स्वरूप गुणभई राजत हैं, महानंद आख्यात को भाव पायो, नमों सिद्ध सो दोष नाहीं उपायो॥ नमूं सिद्धचक्र शिवभूप अचल विराजत हैं। त्रोटक इस प्रकार सि.वि. भाषा, भाव, रस, छन्द अलंकार आदि दुखकारन द्वेष विडारन हो, वश डारन राग निवारन हो। सभी दृष्टियों से असाधारण अध्यात्म साहित्य-कृति है इसका भवितारन पूरणकारण हो, सब सिद्ध नमों सुखकारन हो। साहित्यिक मूल्यांकन एक काव्य की दृष्टि से भी होना चाहिये। गीता अध्यक्ष, संस्कृत विभाग निज आत्मरूप सुतीर्थ मग नित सरस आनन्द धार हो। श्री कुन्द-कुन्द स्नातकोत्तर महाविद्यालय नाशे त्रिविधमल सकल दुखमय, भवजलधि के पार हो। खतौली-251201(उ.प्र.) 24 जुलाई 2002 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524264
Book TitleJinabhashita 2002 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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