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________________ रत्नत्रय के प्रकाशपुञ्ज डॉ. श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत अध्यात्म भावना के भावयिता आत्मचिन्तक, संयम साधना । महात्म्य है। सतत संलीन आचार्य श्री विद्यासागर महाराज सौम्य गुण ग्राहक, आचार्य श्री अमृतचन्द्रसूरि ने तो मोक्ष के हेतुओं में ज्ञान शुचिता, सत्यता; संयत, सुललित व्यक्तित्व सम्पन्न श्रमणसंस्कृति | को बहुत अधिक महत्त्व दिया है। वे समयसार की गाथा 153की उन्नायक श्रेष्ठ साहित्यकार हैं। भव्य और दिव्य व्यक्तित्व के धारक टीका में लिखते है-"ज्ञान के अभाव में अज्ञानियों में अन्तरंग व्रत, रत्नत्रय के मूर्तिमान स्वरूप हैं। रत्नत्रय में प्रथम स्थान सम्यग्दर्शन | नियम, सदाचरण, तप आदि होते हुए भी मोक्ष नहीं है, क्योंकि का है। आचार्य श्री में सम्यक्त्व के बाह्य लक्षण स्फुट रूप से | अज्ञान ही बन्ध का हेतु है" इस कथन से स्पष्ट है कि ज्ञानी की परिलक्षित होते हैं। व्यवहार सम्यक्त्व के साथ निश्चय सम्यक्त्व के | क्रियाएँ ही सार्थक हैं, ज्ञानपूर्वक चारित्र का पालन साध्य की अधिकारी इसलिए प्रतीत होते हैं, क्योंकि उनका ज्ञान और चारित्र | सिद्धि कराने वाला है। सम्यक् है। सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की उत्पत्ति, वृद्धि बिना आचार्यश्री का अध्ययन का व्यापक है, उनका अध्ययन सम्यग्दर्शन के नहीं होती है जैसा कि जिन शासन की महती | जैनधर्म-दर्शन, आगम-सिद्धान्त और साहित्य के घेरे में ही आबद्ध प्रभावना करने वाले आचार्य श्री समन्तभद्रस्वामी ने कहा है- नहीं है उन्होंने समग्र भारतीय दर्शनों और भारतीय धर्मों के ग्रन्थों विद्या वृत्तस्य संभूति स्थितिवृद्धि फलोदयाः। को अपने अध्ययन का विषय बनाया है, उनका गम्भीर चिन्तन है। न सन्त्यसति सम्यक्त्वे बीजाभावे तरोरिव ॥32॥ गहराई से सोचा-समझा है, जिसका परिणाम उनके संस्कृत और रत्नकरण्ड श्रावकाचार | हिन्दी काव्य साहित्य में स्पष्ट दिखलायी पड़ता है। उनके द्वारा जिस प्रकार बीज के बिना वृक्ष की उत्पत्ति नहीं हो सकती | लिखित संस्कृत शतकसाहित्य और मूकमाटी सहित अन्य काव्यग्रन्थों उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के बिना सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र की | का अनुशीलन-परिशील करने तथा उनके प्रवचनों को सुनने पर उत्पत्ति, वृद्धि, स्थिति नहीं होती है। उनकी विशाल दृष्टि, उनके विराट व्यक्तित्व, गम्भीर चिन्तन' और आचार्य श्री आगम और सिद्धान्त के गहन अभ्यासी हैं। धर्मात्माओं के प्रति समभाव के स्पष्ट दर्शन होते हैं। इतना ज्ञान उन्हें पूर्ण अवबोध है कि मोक्षमार्ग में ज्ञान और चारित्र का महत्त्व | होने पर भी उन्हें अहंकार और अहंभाव छू तक नहीं गया है। हाँ कम नहीं है, इसीलिए उन्होंने पूर्ण श्रद्धापूर्वक ज्ञान और चारित्र को | | रूढ़िवादिता से हटकर उनके चिन्तन को कुछ लोग स्वीकार नहीं विकसित किया है। यही अमृतचन्द्र सूरि का कहना है कर पाते हैं या शास्त्रों के मर्म को न समझने के कारण भी उन्हें वह ___ तत्रादौ सम्यक्त्वं समुपाश्रयणीयमखिलयत्नेन। अस्वीकार्य होता है, इसलिए कोई कभी दबी जुबान से आचार्य श्री तस्मिन्सत्येव यतो भवति ज्ञानं चारित्रञ्च ॥ पुरुषार्थल के विरोध में भी स्वर निकालता है, किन्तु जब वास्तविकता का रत्नत्रयरूपी मोक्षमार्ग में सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन का अखिल | बोध हो जाता है, तो वही आचार्यश्री के द्वारा प्रस्तुत चिन्तन का प्रयत्नपूर्वक आश्रय लेना चाहिए क्योंकि सम्यग्दर्शन के होने पर | जोरदारी से स्वागत करता है। ही ज्ञान और चारित्र सम्यक् बनते हैं। तीनों के सम्यक् होने पर | आचार्य श्री वर्तमान साधकों में सर्वाधिक ज्ञानवान हैं। मोक्षमार्ग प्रशस्त होता है। | जहाँ उनके ज्ञान का परिणाम विविध विधाओं के विविध ग्रन्थ हैं समयक्त्वनिधि से विभूषित आचार्य श्री विद्यासागर जी | जिन पर अनेक छात्र-छात्राएँ शोध कर पी-एच.डी. उपाधि ग्रहण का विपुल साहित्य और सहस्रों मनीषियों की ज्ञान-पिपासा को | कर चुके हैं, वहीं "णाणस्स फलं पच्चक्खाणं" अर्थात् ज्ञान का शान्त करने वाले उनके प्रवचन ज्ञान गुण की विशिष्टता के परिचायक | फल त्याग (चारित्र) है। आचार्यश्री इसके सच्चे अधिकारी हैं। हैं। लेखन, प्रवचन शब्दाडम्बर नहीं है अपितु अर्थवहन की क्षमता | उनका जीवन ज़ान और चारित्र की समन्वित साधना का स्वरूप वाला है, मोक्षमार्ग को प्रशस्त करने वाला है और यही कारण है है। श्रमण संस्कृति में उसी ज्ञान को महत्त्व दिया जाता है जो कि लाखों धर्मश्रद्धालु आपके बताये मार्ग पर चलकर अपने आपको | आचरण में मूर्त रूप लेता है। जो ज्ञान आचार में नहीं उतरता धन्य समझ रहे हैं। जिसके धर्मोपदेश से सहस्रों प्राणी मोक्षमार्ग | केवल तत्त्वचर्चा एवं वाद-विवाद या उपदेश तक ही सीमित पर बढ़ जाएँ उसका ज्ञान सम्यग्ज्ञान ही होता है। चतुर्थकाल में | रहता है, वह केवल बोझ रूप है। उससे साध्य की सिद्धि नहीं तीर्थंकरों के उपदेशों से कोटि-कोटि मानव मोक्षमार्गी बनकर | होती है। साध्य की सिद्धि या साधुत्व की सफलता के लिए ज्ञान आत्मकल्याण कर सके। वर्तमान में आचार्य श्री विद्यासागर महाराज | के साथ चारित्र का होना अनिवार्य है। यह कहना अत्युक्ति नहीं है के उपदेश और संस्कार से सहस्रों, श्रद्धालु मोक्षमार्ग पर आरूढ़ | कि आचार्यश्री के जीवन में ज्ञान की दिव्य ज्योति के साथ होकर आत्म कल्याण कर रहे हैं, यह सब सम्यग्ज्ञान का ही | सम्यक्चारित्र के उज्ज्वल-समुज्ज्वल स्वरूप का दर्शन होता है। -जुलाई 2002 जिनभाषित 13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524264
Book TitleJinabhashita 2002 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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