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________________ आप सबके बीच निर्लिप्त और शान्त रहे आते हैं। सम्यग्दर्शन, ज्ञान | के समान हैं, जो स्वयं नदी के उस पार जाती है और अपने साथ और चारित्र्य जैसे श्रेष्ठ रत्नों को अपनी अनंत आत्म-गहराई में | अन्यों को भी पार लगाती है। छिपाए हुए आप सचमुच रत्नाकर हैं। दिन में एक बार सद्गृहस्थ बालक अपनी माँ के पास बैठकर अपने हृदय की हर बात के द्वारा हाथ की अंजली में दिया गया शुद्ध सात्त्विक आहार ग्रहण बड़ी सरलता से कह देता है और प्रसन्न होता है। इसी प्रकार, करना, लकड़ी के आसन पर अल्प निद्रा लेना, केशलुंचन करना, सरल हृदय वाला साधक जब यथावत होकर सभी ग्रंथियाँ खोल बालकवत् निर्विकार भाव से विचरण करना और शरीर के देता है और सीधा-सादा अपने मार्ग पर चलना प्रारम्भ कर देता है, श्रृंगार,स्नान आदि से विरक्त रहना-यह आपके साधु जीवन की तब उसके जीवन में सहज आनन्द की प्राप्ति होने लगती है। जिसका मन संसार के प्रति वैराग्य और प्राणी मात्र के प्रति कठोर तपश्चर्या है। इतनी कठोर तपश्चर्या के बावजूद आप अत्यन्त मृदुता से भरा है, वह इस संसार से सहज ही पार हो जाता है। सरल, सहज और संवदेनशील हैं। आपके आत्मानुशासित जीवन | निराकुलता जितनी-जितनी जीवन में आये, आकुलता में अद्भुत लयात्मकता सहज ही दिखाई देती है। जितनी-जितनी घटती जाये, उतना-उतना मोक्ष आज भी संभव आपकी नग्नता भीतर-बाहर एक-सा उज्ज्वल, निर्मल | और पारदर्शी होने का संदेश देती है। साथ ही अपरिग्रह और संयम वह है जिसके द्वारा जीवन स्वतंत्र और स्वावलंबी अनासक्ति का या अल्पतम लेकर अधिकतम लौटाने का पाठ हो जाता है। प्रारम्भ में तो संयम बंधन जैसा लगता है, लेकिन बाद सिखाती है। में वही जब हमें निबंध बना देता है, हमारे विकास में सहायक आप भक्ति, ज्ञान और आचरण की पावन त्रिवेणी हैं।। बनता है तब ज्ञात होता है कि यह बंधन तो निर्बंध होने का बंधन आपका चरण-सानिध्य पाकर हम सहज ही अपने पापों का | | था। प्रक्षालन करके निर्मल आत्मा की अनुभूति कर सकते हैं। आपकी | दुनिया के सारे संबंधों के बीच भी मैं अकेला हूँ - यही भाव मधुर, मुस्कान और मृदुता मन को मुग्ध ही नहीं करती, बल्कि | बनाये रखना सुखी रहने का एकमात्र उपाय है। वास्तव में, सुख संसार से मुक्त भी करती है। आत्म-साधना में लीन रहकर भी | अन्यत्र कहीं नहीं है, सुख तो अपने ही भीतर एकाकी होने में है। आप अपनी हित-मित और प्रिय वाणी से लोक-कल्याण में तत्पर |.सभी के प्रति राग-द्वेषरूप विकारी भावों से मुक्त अपने वीतराग रहते हैं। स्वरूप का चिन्तन करना धर्म की वास्तविक उपलब्धि है। अनेक प्राचीन तीर्थस्थल आपका स्पर्श पाकर जीवन्त हो आज का युग भाषा-विज्ञान में उलझ रहा है और भीतर के उठे हैं और आगामी पीढ़ी के लिए कुछ नए श्रद्धास्थल भी आपके तत्त्व को पकड़ ही नहीं पा रहा है। जो ज्ञान, साधना के माध्यम से शुभाशीष से आकार ले रहे हैं। समाज आपसे सही दिशा पाता है | जीवन में आता है, वह भाषा के माध्यम से कैसे आ सकता है? और युवा-शक्ति आपके श्रीचरणों में नतशीर्ष होकर सदाचार का पाँच इन्द्रियों के विषयों से मन को हटाकर अपने आत्म-ध्यान में पाठ सीखती है। संस्कारवान युवा देश की प्रशासनिक सेवाओं में लगाना ही ज्ञानीपने का लक्षण है। ज्ञान का प्रवाह तो नदी के प्रवाह की तरह है,उसे किसी भी योगदान दे सकें, इसलिए उनके योग्य प्रशिक्षण केन्द्र का संचालन दिशा में बहाया जा सकता है। हमारा कर्त्तव्य है कि उसे स्व-परआपके आशीर्वाद से सफलतापूर्वक किया जा रहा है। पशु-पक्षियों हित के लिए उपयोग में लायें, उसे सही दिशा दें। ज्ञान का दुरुपयोग को जीवनदान देने वाली अनेक गोशालाएँआपकी चरण-रज पाकर पवित्र हो गई हैं। सर्वमैत्री और करुणा का संदेश देने वाला भाग्योदय होना विनाश है और ज्ञान का सदुपयोग करना ही विकास है। प्रत्येक व्यक्ति आकश की ऊँचाइयाँ छूना चाहता है, लेकिन तीर्थ आपकी असीम कृपा का सुफल है। कबीर ने ठीक ही लिखा अपने ऊपर लादे हुए अपवित्र / अनावश्यक बोझ को नहीं हटाता, है कि - जो उसे ऊपर उठने में बाधक साबित हो रहा है। पवित्रता तो लोभ तन का जोगी सब करै, के परित्याग से ही संभव है। मन का बिरला कोय। आज देश के सामने सबसे बड़ा संकट, सबसे बड़ी समस्या सब सिधि सहजै पाइए, मात्र भूख-प्यास की नहीं है, बल्कि समस्या तो विचारों के परिमार्जन जो मन जोगी होय । की है। सभी के प्रति सद्भाव ही इस समस्या का अंतिम समाधान वचनामृत है। लोकतंत्र की नींव देश के प्रति गौरव, बहुमान एवं परस्पर जैसे माँ अपने बच्चे को बड़े प्रेम से दूध पिलाती है, वैसी | अपनत्व की भावना के द्वारा ही सुरक्षित रहेगी। ही मनोदशा होती है बहुश्रुतवान गुरु महाराज की। अपने पास 'पर' कल्याण में भी 'स्व' कल्याण निहित है। किसान आने वालों को वे बताते हैं संसार की प्रक्रिया से दूर रहने का ढंग | की यही भावना रहती है कि वृष्टि समय पर हुआ करे और जब भी और उनका प्रभाव भी पड़ता है, क्योंकि वे स्वयं उस प्रक्रिया की | होती है सभी के खेतों पर होती है किन्तु जब किसान फसल साक्षात् प्रतिमूर्ति होते हैं। काटता है तो अपनी ही काटता है किसी दूसरे की नहीं। गुरु स्वयं भी तरते हैं और दूसरों को भी तारते हैं। वे नौका | 12 जुलाई 2002 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524264
Book TitleJinabhashita 2002 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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