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________________ सम्पादकीय मूकमाटी : एक उत्कृष्ट महाकाव्य 'वाक्यं रसात्मकं काव्यम्' अर्थात् जो उक्ति सहृदय को | कल्पित की गई है। बिना तप के जीवन में परिशुद्धता एवं परिपक्वता भावमग्न कर दे, मन को छू ले, हृदय को आन्दोलित कर दे, उसे नहीं आती, इस तथ्य के प्रकाशन हेतु कुम्भ को आवा में तपाये काव्य कहते हैं। काव्य की यह परिभाषा साहित्यदर्पणकार आचार्य | जाने का दृश्य समाविष्ट किया गया है। योग्य बनकर मनुष्य दूसरों विश्वनाथ ने की है, जो अत्यन्त सरल और सटीक है।' के उपकार में अपना जीवन लगाता है, इस आदर्श के दर्शन कराने ऐसी उक्ति की रचना तब होती है जब मानवचरित, मानव | हेतु घट के द्वारा मुनि के लिए आहारदान के समय जलभरण तथा आदर्श एवं जगत् के वैचित्र्य को कलात्मक रीति से प्रस्तुत किया | संकट की स्थिति में अपने स्वामी को नदी पार कराये जाने की जाता है। कलात्मक रीति का प्राण है भाषा की लाक्षणिकता एवं | घटनाएँ बुनी गई हैं। व्यंजकता। भाषा को लाक्षणिक एवं व्यंजक बनाने के उपाय हैं: विभिन्न उपदेशों और सिद्धान्तों के प्रतिपादन का प्रसंग अन्योक्ति, प्रतीकविधान, उपचारवक्रता, अलंकार-योजना, | उपस्थित करने के लिए अनेक तिर्यंचों और जड़ पदार्थों को पात्रों बिम्बयोजना, शब्दों का सन्दर्भविशेष में व्यंजनामय गुम्फन आदि। के रूप में कथा से सम्बद्ध किया गया है। शब्दसौष्ठव एवं लयात्मकता भी कलात्मक रीति के अंग हैं। इन | इस कथा की धारा में उत्तम काव्य के अनेक उदाहरण सबको आचार्य कुन्तक ने वक्रोक्ति नाम दिया है। कलात्मक | दृष्टिगोचर होते हैं और काव्यकला के अनेक उपादानों का सटीक अभिव्यंजना में ही सौन्दर्य होता है। सुन्दर कथन प्रकार का नाम | प्रयोग भी मन को मोहित करता है। उन सब पर एक दृष्टि डालना ही काव्यकला है। रमणीय कथनप्रकार में ढला कथ्य काव्य कहलाता | सुखकर होगा। है। 'रमणीयार्थप्रतिपादकः शब्दः काव्यम् (पंडितराज जगन्नाथ), भावों की कलात्मक अभिव्यंजना सारभूतोह्यर्थ: स्वशब्दानमिधेयत्वेन प्रकाशितः सुतरामेव शोभा- कृति के आरम्भ में ही मानवीकरण द्वारा प्रभात का मनोहारी मावहति' (ध्वन्यालोक/उल्लास, 4), ये उक्तियाँ इसी तथ्य की | वर्णन हआ है। सूर्य और प्राची, प्रभाकर और कुमुदिनी, चन्द्रमा पुष्टि करती हैं। विषय हो मानवचरित, मानव-आदर्श या जगत्स्वभाव और कमलिनी, इन्दु और तारिकाओं पर नायकनायिका के व्यापार तथा अभिव्यंजना हो कलात्मक तभी काव्य जन्म लेता है। इनमें से | का आरोप कर श्रृंगाररस की व्यंजना की गई हैएक का भी अभाव हुआ तो काव्य अवतरित न होगा। विषय लज्जा के घूघट में / डूबती सी कुमुदिनी मानवचरित मानव-आदर्श या जगत्स्वभाव हुआ, किन्तु अभिव्यंजना प्रभाकर के कर-छुवन से / बचना चाहती है। कलात्मक न हुई तो वह शास्त्र, इतिहास या आचारसंहिता, बन अपने पराग को / सराग मुद्रा को/ जायेगा, काव्य न होगा। इसके विपरीत अभिव्यंजना कलात्मक पाँखुरियों की ओट देती है। (पृ. 62) हुई और विषय मानवचरित, मानव-आदर्श या जगत्स्वभाव न सहदयों के सम्पर्क में रहने पर भी हृदयहीनों में सहृदयता हुआ तो प्रहेलिका बन जायेगी, उसमें काव्यत्व न आ पायेगा। | का आविर्भाव असम्भव है, इस स्वजाति१रतिक्रमा का घोष करने महाकवि आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित 'मूकमाटी' | वाले मनौवैज्ञानिक तथ्य की व्यंजना कंकरों की प्रकृति के द्वारा के काव्यत्व को इसी कसौटी पर कसकर परखना होगा। इस | कितने मार्मिक ढंग से हुई है। अन्योक्ति या प्रतीकात्मक काव्य का कसौटी पर कसने से उसमें काव्य के अनेक सुन्दर उदाहरण यह सुन्दर नमूना है। लाक्षणिक प्रयोगों से इस काव्य की हृदयस्पर्शिता मिलते हैं। द्विगुणित हो गई हैकथावस्तु अरे कंकरो/माटी से मिलन तो हुआ/पर माटी से मिले अर्थहीन तुच्छ माटी का कुम्भकार के निमित्त से कुंभ का नहीं तुम/माटी से छुवन तो हुआ/पर माटी में घुले सुन्दर रूप धारण करना और जलधारण तथा जलतारण (नदी नहीं तुम/इतना ही नहीं, चक्की में डालकर पीसने पर भी/ आदि को पार करना) द्वारा परोपकारी बनना, यह इस काव्य की अपने गुण-धर्म भूलते नहीं तुम/भले ही चूरण बनते रेतिल/ कथावस्तु है, जो देवशास्त्रगुरु के निमित्त से बहिरात्मत्व से परमात्मत्व माटी नहीं बनते तुम/जल के सिंचन से भीगते भी हो, परन्तु अवस्था की प्राप्ति का प्रतीक है। ' श्रेयांसि बहुविध्नानि' नियम की भूलकर भी फूलते नहीं तुम/माटी सम तुम में आती नमी ओर ध्यान आकृष्ट करने के लिए कुंभदशा की प्राप्ति में सागर द्वारा नहीं/क्या यह तुम्हारी है कमी नहीं? तुम में कहाँ है जलवर्षा और उपलवृष्टि के विघ्न उपस्थित कराये गये हैं। सज्जन वह जलधारण की क्षमता? जलाशय में रहकर भी सदा दूसरों के विघ्ननिवारण में तत्पर रहते हैं, यह दर्शने के लिए युगों-युगों तक नहीं बन सकते जलाशय तुम/मैं तुम्हें हृदयशून्य तो सूर्य और पवन के द्वारा मेघों के छिन्न-भिन्न किये जाने की घटना न कहूँगा/परन्तु पाषाणहृदय है तुम्हारा/ 6 जुलाई 2002 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524264
Book TitleJinabhashita 2002 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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