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________________ जिज्ञासा-समाधान पं. रतनलाल बैनाडा जिज्ञासा : जन्मकल्याणक के समय जन्माभिषेक के। उपर्युक्त प्रमाणों से स्पष्ट है कि प्रथमानुयोग के ग्रन्थों में बाद तीर्थंकर बालक के कान में कुण्डल पहनाये जाते हैं तो क्या | दोनों प्रकार के प्रमाण उपलब्ध हैं। किन्हीं आचार्यों ने तीर्थंकर भगवान् के कान जन्म से ही छिद्र सहित होते हैं? बालक के कान जन्म से छिद्र सहित माने हैं और किन्हीं आचार्यों समाधान : उपर्युक्त प्रसंग पर श्री हरिवंशपुराण सर्ग-8 | ने इन्द्र द्वारा वज्र सूची से छिद्र किये जाना स्वीकार किया है। हम श्लोक 175-176 में इस प्रकार कहा है- समं च चतुरस्रं च | कम बुद्धि वाले जीवों को दोनों ही प्रकार के प्रमाण स्वीकार करने संस्थानं दधतः परम्। सुवज्रर्षभनाराचसंघातसुघनात्मनः। 175 | योग्य हैं। कमर्णविक्षतकायस्कंथचिद् वज्रपाणिना। विद्धौ वज्रघनौ तस्य | जिज्ञासा : तीन लोक के नक्शे में जो नीचे के एक राजू वज्रसूचीमुखेन तौ। 176 को निगोद कहा जाता है वह क्या है? और उसमें कौन-कौन से अर्थ : जो परम सुन्दर समचतुरस्त्र संस्थान को धारण कर | जीव पाये जाते हैं। रहे थे तथा वज्रर्षभ नाराच संहनन से जिनका शरीर अत्यन्त सुदृढ़ समाधान : लोक में सबसे नीचे जो एक राजू निगोद था, ऐसे अक्षतकाय जिन-बालक के वज्र के समान मजबूत कानों | कहने तथा सुनने में आता है, उसके सम्बन्ध में केवल राजवार्तिककार को इन्द्र वज्रमयी सूची को नोक से किसी तरह वेध सका था। | श्री अकंलक स्वामी ने उसे कलकल पृथ्वी नाम से कहा है। अन्य (2) श्री आदिपुराणपर्व-14, श्लोक नं.-10 में इस प्रकार | किसी भी आचार्य ने इस एक राजू को कुछ नाम दिया हो ऐसा मेरे कहा गया है : कर्णावविद्ध सच्छिद्रो कुण्डलाभ्यां विरेजतुः। कान्ति देखने में नहीं आया। इस एक राजू स्थान में अक्सर स्वाध्यायी दीप्तिमुखेद्रष्टुमिन्द्रकभ्यामिपाश्रितौ। 1-10 लोग ऐसा समझते हैं कि - अर्थ : भगवान् के दोनों कान बिना वेधन किये ही छिद्र (1) मात्र निगोदिया जीवों का ही निवास होता है। अन्य सहित थे, इन्द्राणी ने उनमें मणिमय कुण्डल पहनाये थे जिससे वे | जीव इस एक राजू में नहीं पाये जाते। ऐसे जान पड़ते थे मानो भगवान् के मुख की कान्ति और दीप्ति को समाधान : इस एक राजू में पाँचों प्रकार के स्थावर सूक्ष्म देखने के लिये सूर्य और चन्द्रमा ही उनके पास पहुँचे हों। जीव तो पाये ही जाते हैं, जबकि वायु के आश्रय से रहने वाले (3) श्री वीरवर्धमान चरितम् अधिकार-9 पृष्ठ-86 श्लोक- बादर वायु कायिक जीवों का भी सद्भाव पाया जाता है। 54 में इस प्रकार कहा है (2) कुछ की धारणा ऐसी भी है कि निगोदिया जीव मात्र अविद्धछिद्रयोश्रारूकर्णयोस्त्रि जगत्पतेः। एक राजू में ही पाये जाते हैं, अन्य स्थानों पर नहीं। कुण्डलाभ्यां स्फुरद्रत्नाभ्यां शोभा सा परां व्यधात्।-54 | समाधान : निगोदिया जीव पूरे तीनों लोकों में व्याप्त हैं। अर्थ : पुन: त्रिजगत्पति के अबिद्ध छिद्रवाले दोनों कानों | ऐसा लोक का एक भी प्रदेश नहीं है जहाँ निगोद राशि न पाई जाती में प्रकाशमान रत्न जटित कुण्डलों को पहनाकर परम शोभा क़ी। हो। श्री षट्खण्डागम में इस प्रकार कहा है (4) श्री महापुराण (महाकवि पुष्पदंत विरचित) भाग-1 : वणप्फदिकाइया-णिगोद जीवा वादरा सुहु मा पृष्ठ-63 पर इस प्रकार कहा है पज्जत्तापज्जत्ता केवडि खेत्ते? सव्वलोगे। -3-25 पविसूइइ ववगयभवरिणहो विंधेप्पिणु सदणजुयलु जिणहो। : वादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, वनस्पतिकायिकनिगोद विच्छूढई मणिमयकुंडलई णं ससहर णियरमंडलई॥ | जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं? सर्वलोक में रहते हैं। अर्थ : संसार के ऋण से मुक्त जिनके दोनों कानों को | (3) कुछ यह भी कहते हैं कि इस एक राजू में नित्य वज्रसूची से वेधकर मणिमय कुण्डल पहना दिये गये, मानो चन्द्र | निगोदिया जीवों का निवास होता है। और दिनकर के मण्डल हों, जो मानो चंचल राहु से भागकर समाधान : जहाँ तक नित्य निगोदिया जीवों का प्रश्न है, नाभेय की शरण में आये हों। ये भी पूरे तीनों लोकों में ठसाठस भरे हैं। (नित्य निगोदिया जीव (5) श्री पद्मपुराण भाग-1 पर्व-3 श्लोक-188 में इस वे हैं जो अनादिकाल से आज तक निगोद पर्याय में ही हैं, कभीप्रकार कहा है भी अन्य पर्याय में जिन्होंने जन्म नहीं लिया है)। चन्द्रादित्यसमे तस्य कर्णयोः कुण्डले कृते । इस चर्चा से यह स्पष्ट होता है कि नीचे एक-एक राजू तत्क्षणं सुरनाथेन वज्रसूची विभिन्नयो : ।। 188 स्थान को कलकल पृथ्वी कहा जाता है और उसमें पाँचों प्रकार के अर्थ : इन्द्र ने तत्काल ही व्रज की सूची से विभिन्न किये | स्थावर जीवों का सद्भाव मानना चाहिये। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष हुए उनके कानों में चन्द्रमा और सूर्य के समान कुण्डल पहनाये।। भाग-3, पृष्ठ-442 में क्षुल्लक जिनेन्द्रवर्णी ने लिखा है "सातों -जुलाई 2002 जिनभाषित 27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524264
Book TitleJinabhashita 2002 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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