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________________ जिनकी इस देश में संख्या 36 हजार से ऊपर पहुँच चुकी है। इनमें गोवंश की जो निर्मम हत्या कर कहर ढाया जाता है वह शिकार का ही बीभत्स रूप है। मांसाहार और चमड़ा उद्योग यांत्रिक कत्लखाने व्यापारिक शुभ-लाभ के सिद्धान्त को अपनाकर वृहद्रूप ले चुके हैं जिसमें राज्य / देश की व्यापार नीति काम कर रही है। आगम में उल्लेख है कि शिकार खेलने वाला मनुष्य भवभव में अल्पायुधारी, विकलांगी, रोगी, अंधा, बहिरा, बौना, कोढ़ी, नपुंसक और दुष्ट होता है। जितने भी दुःसह दुख दिखाई देते हैं, वह सभी दुःख, जीवों का घात करने वाला प्राणी पाता है। अतः इस राक्षसी प्रवृत्ति को त्याग देना श्रेयस्कर है। 4. जुआ - यह ऐसा व्यसन है, जिसमें हजारों सभ्य परिवार दीनता / भुखमरी के कगार पर आकर खड़े हैं। लाटरी जुए का पंजीकृत षडयन्त्र है। राज्य सरकारें आय बढ़ाने के लिए इसे प्रोत्साहित करती है जो अनैतिक है। जुआरी सदैव चिन्तातुर रहता है। उसकी नींद और भूख दोनों नष्ट हो जाते हैं और वह अशान्त चित्त रहने लगता है। उसके हृदय की धड़कन असामान्य हो जाने से आयु क्षीण होने लगती है। जुआ सम्पूर्ण अनर्थों का मुखिया, मायाचार का घर, झूठ व चोरी का संगम स्थान होता है। 5-6. वेश्या गमन व परस्त्री सेवन- ये दोनों व्यसन कुशील पाप के पोषक और जीवन की तेजस्विता को नष्ट करने वाले हैं। यौवन के जोश में कामांध वीर पुरुष, साध्वी सुन्दर स्त्री को देखकर भी डिग जाते हैं फिर कायर पुरुषों की बात ही क्या ? ज्ञानार्णव में कामी व्यक्ति के दस वेग बताये हैं 1. पहले परस्त्री में रमण का भाव रखता है कि कब दूसरे की स्त्री को अपनी भोग्या बनाऊँ। 2. परस्वी को देखने का भाव करता है और उसे प्राप्त करने के साधन खोजता है। 3. परस्त्री उपलब्ध न होने पर खेद खिन्न होता है। 4. उसका शरीर काम ज्वर से पीड़ित हो जायेगा। 5. शरीर जलने लगेगा। 6. भोजन-पानी छोड़ देगा। 7. मूर्च्छा आनी प्रारम्भ हो जायेगी। 8. उन्मत्तता के कारण यद्वा तद्वा बकने लगता है। 9. उसकी मरणासन्न अवस्था भी हो जाती है और 10. वह मर जाता है। इस प्रकार परस्त्री लम्पटी व्यक्ति महाभारत में पाण्डवों के वनवास के अंतिम वर्ष में राजा विराट के पुत्र कीचक की भाँति, भीम द्वारा वध को प्राप्त होता है, जिसने द्रौपदी के ऊपर कुदृष्टि डालकर उस पर मोहित हो गया था। रावण की सोने की लंका कामाग्नि से ध्वस्त हो गयी थी । इसी प्रकार परपुरुष में रत कामुक स्त्री एक सर्पणी के 26 जुलाई 2002 जिनभाषित Jain Education International समान होती है जो अपनी कुलमर्यादा नष्ट करके घोर पाप-भागिनी होती है। अतः यह व्यसन हेय है। वेश्या का भोग करने वाला मूढ़ मद्य और मांस का परित्यागी नहीं होता। वेश्या कुत्ते के मुँह में लगी हड्डी के समान आचरण करती है। वेश्या के प्रेम में कामान्ध अपनी कुशलता व बड़प्पन को नष्ट करके जीवन बर्बाद कर देता है। वेश्या माँस खाती है, शराब पीती है, धन के लिए झूठ बोलकर प्रेम का स्वांग रचती है वह कुटिल मन से लोगों के मुँह व लार को चाटती है। अतः वेश्या इस पृथ्वी का नरक ही है। 1 वेश्या और पर पुरुष में रत स्त्री, धोबी की शिला के समान होती है, जिस पर ऊँच-नीच पुरुषों के निंदनीय घृणित कर्म से वीर्य और लार आदि मल बहते हैं। ये दोनों व्यसन ब्रह्मचर्य को नष्ट करके शरीर को निस्तेज और आत्मा को पतित करते हैं । मेडिकल शोध ने सिद्ध किया है कि 25 बूँद वीर्य में 60 मिलियन (छह करोड़) से 110 मिलियन तक सूक्ष्म जीव रहते हैं। एक बार सम्भोग करने से स्त्री योनि में स्थित नौ लाख सूक्ष्म जीवों की हत्या होती है। अतः ये व्यसन हिंसाकारक व पापास्रव के हेतु हैं । 7. चौर्य व्यसन बिना दी हुई किसी भी वस्तु को ग्रहण कर उस पर स्वामित्व कर लेना चोरी है। चोरी का संबंध वस्तु या धन के अभाव से नहीं है, बल्कि एक मानसिक विकृति का कुफल है। किसी की धरोहर को हड़प लेना चौर्य कर्म है। कम बढ़ नापना, तौलना, अनुपात से अधिक मुनाफा कमाना, अपमिश्रण द्वारा असली व नकली वस्तुओं को बेचना राजकर नहीं चुकाना या छिपाना आदि बातें चौर्य कर्म के अन्तर्गत आती हैं। - यह ऐसा व्यसन है, जिसे न केवल गरीब व्यक्ति करता है, बल्कि धनाढ्य व्यक्ति, मूर्च्छा (परिग्रह) के वशीभूत होकर इसका आदी हो जाता है। भगवती आराधना में कहा गया है कि सुअर का घात करने वाले व परस्त्रीगमन करने वाले से भी चोर अधिक पापी माना जाता है। अतः उक्त सप्त व्यसन जीवन के संघातक हैं। जिन्हें संकल्पपूर्वक त्याग करके व्यक्ति या श्रावक सदाचरण की ओर बढ़ता है और अणुव्रत के मंगल द्वार पर पहुँचता है। व्यसन से बड़ा कोई विष नहीं है, जिसकी एक बूँद से शील और आचरण का अमृत विषाक्त हो अग्राह्य हो जाता है। जो सप्तधा व्यसन सेवन त्याग देते, भाई कभी फल उदुम्बर खा न लेते। वे भव्य दार्शनिक श्रावक नाम पाते, धीमान धार दुग को निजधाम जाते ॥ रे मद्यपान परनारि कुशील खोरी, अत्यन्त क्रूरतम दण्ड, शिकार चोरी। भाई असत्यमय भाषण द्यूत क्रीड़ा, ये सात हैं व्यसन, दें दिन रैन पीड़ा ॥ For Private & Personal Use Only श्रावकधर्म सूत्र, आचार्य श्री विद्यासागर www.jainelibrary.org
SR No.524264
Book TitleJinabhashita 2002 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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