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________________ सरवर का भीतरी भाग भासित होता है उस, पर को परख रहे हो? अपने को परखो जरा/ बहिर्जगत् का सम्बन्ध टूट जाता है। (पृ. 289) परीक्षा लो अपनी/ बजा-बजा कर देख लो स्वयं को/ मनुष्य की साधना यदि निर्दोष हो तो संसारसागर को पार कौन सा स्वर उभरता है वहाँ/सुनो उसे अपने कानों से/ करना असंभव नहीं है । सागर और नाव के प्रतीकों ने इस भाव को काक का प्रलाप है/या गर्दभ का आलाप?(पृ. 303) कितनी मार्मिक व्यंजना दी है पाप कर्म का फल प्रत्येक को भोगना पड़ता है, चाहे वह अपार सागर का पार कोई भी हो। यह तथ्य व्यंजित किया गया है लक्ष्मण रेखा''राम' पा जाती है नाव 'सीता' और 'रावण' के पौराणिक प्रतीकों से, जिससे अभिव्यक्ति हो उसमें छेद का अभाव भर। (पृ.51) कलात्मक बन गई हैविषयों की चाह इन्द्रियों को नहीं होती। वे तो जड़ हैं। लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन इन्द्रियों के माध्यम से वासना ग्रस्त आत्मा ही विषयों की चाह रावण हो या सीता, करता है। रूपकालंकार में पिरोया गया यह भाव शोभा से निखर राम ही क्यों न हों उठा है दण्डित करेगा ही। (पृ. 217) इन्द्रियाँ खिड़कियाँ हैं, सन्त कवि की कवितामयी लेखनी से आहारदान के तन भवन है। उत्तमपात्रभूत साधु का स्वरूप उपमाओं के मनोहर दर्पण से झाँकता भवन में बैठा पुरुष हुआ मनहरण करता हैखिड़कियों से झाँकता है पात्र हो पूत-पवित्र/पदयात्री हो, पाणिपात्री हो/ वासना की आँखों से। पीयूषपायी हंस-परमहंस हो/ अपने प्रति वज्रसम कठोर/ जो कठिनतम संकट को पार कर लेता है उसके लिए पर के प्रति नवनीत/पवनसम नि:संग/ छोटे-मोटे संकट खिलौनों के समान हो जाते हैं । उपचारवक्रता के दर्पणसम दर्प से परीत/पादपसम विनीत/ द्वारा अभिव्यक्त यह भाव कितना नुकीला हो गया है। बाढ़ से प्रवाहसम लक्ष्य की ओर गतिमान्/ उफनती हुई नदी के बीच में चलता हुआ साधक कहता है सिंहसम निर्भीक। (पृ. 300) जब आग की नदी को पार कर आये हम पथ प्रकाशक सूक्तियाँ और साधना की सीमा-श्री से मूकमाटी में जीवनपथ को आलोकित करनेवाले सूक्तिरत्न हार कर नहीं, प्यार कर आये हम बिखरे पड़े हैं, जो मन को जगमगा देते हैं। कुछ उदाहरण दर्शनीय फिर भी हमें डुबोने की क्षमता रखती हो तुम? (पृ.452) आस्था के बिना रास्ता नहीं, आग की नदी का यह उपचारवक्र प्रयोग संकट की विकटता मूल के बिना चूल नहीं। (पृ. 10) का अहसास कराने में अद्भुत क्षमता रखता है। एक तो नदी अपने आप में संकट का प्रतीक है, फिर वह भी आग की? आग ने संघर्षमयजीवन का उपसंहार संकट को सहस्रगुना भयावह कर दिया है। इसी प्रकार साधना की नियम से हर्षमय होता है। (पृ. 14) चरमसीमा से, जहाँ हारना संभव हो, प्यार कर लेना साधना के अत्यन्त आनन्दपूर्वक सम्पन्न होने का द्योतक है। यहाँ भी दुःख की वेदना में जब न्यूनता आती है उपचारवक्ता ने अपार सौन्दर्य का निवेश कर दिया है। दुःख भी सुख सा लगता है। (पृ. 18) संसार-सन्ताप से मुक्ति की आकांक्षा बड़ी व्यग्रता से झाँक रही है शब्दों के इन सुन्दर झरोखों से पीड़ा की अति ही कितनी तपन है बाहर और भीतर/ पीड़ा की इति है। (पृ. 33) ज्वालामुखी हवाएँ / झुलसी काया/ चाहती है। स्पर्श में बदलाहट । सब रसों का अन्त होना ही शान्तरस है। (पृ. 160) मानव-स्वभाव की यही विडम्बना है कि मनुष्य की दृष्टि तीर मिलता नहीं बिना तैरे। (पृ. 267) सदा दूसरों को परखने में लगी रहती है। अपने को वह दूसरों से | सटीक मुहावरे सदा ऊपर समझता है। यही उसके जहाँ का तहाँ रह जाने का मुहावरे उपचारवक्रता (लाक्षणिक प्रयोग) के सुन्दर नमूने कारण है। कवि की मुहावरामय काव्यकला इस तथ्य की ओर | हैं। उनसे अभिव्यक्ति लाक्षणिक और व्यंजक बन जाती है जो बड़े आह्लादक ढंग से ध्यान आकृष्ट करती है | काव्यकला का प्राण है। इस कारण उनमें हृदयस्पर्शिता एवं रमणीयता 8 जुलाई 2002 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524264
Book TitleJinabhashita 2002 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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