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व्यंग्य
खेल न खेलने का दुःख
शिखरचन्द्र जैन
व्यंग्य अभिव्यक्ति की अत्यन्त रोचक साहित्यिक विधा है। व्यंग्यकार समाज में प्रचलित अवांछनीय प्रवृत्तियों पर वक्रोक्तियों, अतिशयोक्तियों, व्याजनिन्दा और व्याजस्तुति के माध्यम से करारी चोट करता है, जिससे शब्दों की व्यंजना शक्ति के द्वारा वांछनीय (नैतिक और धार्मिक ) सन्देश मनोरंजक और हृदयस्पर्शी रीति से पाठकों तक अनायास पहुँच जाता है। एक व्यंग्य जितने प्रभावशाली ढंग से नैतिक शिक्षा का सम्प्रेषण करता है, उतना प्रत्यक्ष उपदेश नहीं करता। इसलिए साहित्य में व्यंग्य का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है और यह साहित्यकार की कसौटी भी है। उत्कृष्ट व्यंग्य किसी मासिक पत्रिका के लिए अँगूठी में नगीने के समान होता है। मैं चाहता हूँ कि जैन व्यंग्यकारों की सूची में श्री शिखरचन्द्र जी जैन के साथ और भी नाम जुड़ें। श्रेष्ठ व्यंग्य आमंत्रित हैं।
भारत में हिन्दी की उपेक्षा और अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा पाने के लिए गाँव-गाँव तक फैलता बेतहाशा पागलपन भारत के लिए सचमुच दुर्भाग्य एवं शर्म की बात है अच्छे कैरियर और चमक-दमक से भरी पाश्चात्य जीवनशैली की भूख ने भारत के हर नागरिक को पब्लिक स्कूलों का दीवाना बना दिया है। इससे भारतीय स्वाभिमान को कितना आघात लग रहा है, इस पर किसी का ध्यान नहीं है तथा विद्या की अपेक्षा क्रीडा ने सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में जो अधिक उपयोगी और प्रतिष्ठित स्थान पा लिया है, वह भी चिन्ता का विषय है। इन घातक प्रवृत्तियों पर मार्मिक चोट की गई है प्रस्तुत व्यंग्य में।
इस बात को लेकर नायकजी के मन में बड़ा मलाल है कि उनका पप्पू खेलता ही नहीं है। दिन भर या तो कामिक पढ़ता है या कार्टून देखता है। कोर्स की किताबों से उसे लगाव नहीं, तो चलो कोई बात नहीं, पर उसे खेलना तो चाहिए न ! लेकिन नहीं खेलता । बड़े दुख की बात है। इस संसार में सचमुच दुख ही दुख हैं ।
एक रोज मिल गए तो उन्होंने बहुत दिनों से लबालब पीड़ा का घड़ा मेरे सामने उड़ेल दिया। बोले-"देखिए न जैन साब, पप्पू पन्द्रह का होने को आया, पर अब तक यह पता नहीं लग पाया कि उसकी नाव किस ठोर लगना है? गणित उसके पल्ले पड़ता नहीं । साइंस समझ में नहीं आता । भूगोल के नाम से उसे चक्कर आता है। ऐसे में पढ़-लिख कर कुछ बन पाएगा, सो तो लगता नहीं।"
"कैसी बातें करते हैं नायक जी !" मैंने उन्हें सान्त्वना देने की गरज से कहा-‘“ अभी पप्पू की उम्र ही क्या है? आजकल तो पढ़ाई पच्चीस-तीस की उम्र होते तक ही पूरी हो पाती है तब कहीं पता लग पाता है कि कौन कितने पानी में है।"
'सो बात सही नहीं है जैन साब!" उन्होंने कहा-" और मैं जानता हूँ कि आप जो कह रहे हैं वह मात्र मुझे दिलासा देने के लिए। वरना यह कौन नहीं जानता कि आजकल बच्चा तीन वर्ष का हुआ नहीं कि पता लग जाता है कि वो कलेक्टर बनेगा या चपरासी, इंजीनियर बनेगा या मजदूर, आई.आई.टी. में जायेगा या आई.टी.आई. में।''
"वो कैसे?"
"नर्सरी में एडमीशन से। बच्चा अगर किसी ढंग के पब्लिक स्कूल की प्री-प्रायमरी में एडमीशन पा गया तो समझ लो कि गंगा
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नहा लिए। फिर तो बच्चे का सिविल सर्विसेज में, या आई.आई.टी. में या आई.आई.एम. तक जा पहुँचना लगभग तय हो जाता है । इसीलिए तो माँ-बाप अपने बच्चे को पब्लिक स्कूल में भरती कराने में जी-जान लगा देते हैं। बड़े शहरों में तो इसके लिए बाकायदा कोचिंग क्लासेस चालू हो गई हैं। बच्चे को भले ही अपने हाथ से नाम पौंछना न आता हो, पर बोलना सीखते ही उसे कैट-रैट मैट की रटाई में लगा दिया जाता है और जो रट लेता है, उसका बेड़ा पार हो जाता है। "
" अब ये बात इतनी सीधी भी नहीं है नायकजी, जितनी आप बतला रहे हैं।" मैंने संतुलन बनाए रखने के दृष्टिकोण से कहा - " पब्लिक स्कूल में पढ़ने वाला हर बच्चा हीरा बनकर ही निकलता हो, सो बात भी नहीं है। पर हाँ! एक बात मैं भी मानता हूँ कि इधर लोगों में अपने बच्चों को पब्लिक स्कूल में पढ़ाने की ललक पागलपन की हद तक पहुँचने लगी है और आदमी की इसी कमजोरी का फायदा उठाने हेतु गाँव-गाँव, गली-गली में पब्लिक स्कूल नामधारी संस्थाएँ कुकुरमुत्ते की तरह उग आई हैं, जो मात्र अंग्रेजी भाषा में ही शिक्षा देने का दम भरती हैं। आजकल क्या रईस, क्या मध्यमवर्गीय, क्या गरीब, सबकी इच्छा यही पाई जाती है कि उनका बच्चा पब्लिक स्कूल में पढ़े। अभी एक रोज हमारी काम वाली बाई मुझसे बोली कि मैं उसके बेटे को किसी पब्लिक स्कूल में भरती करने में मदद कर दूँ। बच्चे को पब्लिक स्कूल में पढ़ाने की खातिर वह दो-एक और घर काम पकड़ने को उतारू थी। उसका पति रात में दो घंटे और रिक्शा चलाने के लिए तैय्यार था । पर उनकी दिली तमन्ना थी कि वे अपने बालक को साफ-सुथरी टाईवाली ड्रेस पहने अँग्रेजी में पहाड़ा रटते देखें। -जुलाई 2002 जिनभाषित
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