SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 2
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ देवदर्शन आचार्यश्री विद्यासागर जी देव की आराधना मानव को देव बना देती है। लोक में कहावत प्रसिद्ध है कि दीप से दीप जलता है। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि आप लोग देव बनना चाहते हैं, अरहंत परमेष्ठी बनना चाहते हैं, तो उसके लिए आत्मारूपी उपादान की सँभाल करो। हृदय की शूद्धि करो तब अन्य निमित्त बनेंगे। कुन्द-कुन्द स्वामी ने प्रवचनसार में लिखा है जो जाणदि अरहंतं दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं । सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं ॥ जो द्रव्य गुण और पर्याय के माध्यम से अरहंत को जानता है, वह आत्मा को जानता है और जो आत्मा को जानता है उसका मोह नियम से विनाश को प्राप्त होता है। संसार का प्रत्येक पदार्थ त्रिरूप है अर्थात् द्रव्य, गुण और पर्याय रूप है। अन्य पदार्थों के समान अरहन्त परमेष्ठी भी त्रिकात्मक हैं। उनके ज्ञाता द्रष्टा स्वभाव वाले जीवद्रव्य. चराचर को जानने वाले केवलज्ञानादि गुण और अन्तिम विभाव व्यंजन पर्याय को जो जानता है और साथ में अपने द्रव्य, गुण, पर्याय की तुलना करता है वह अवश्य ही आत्मा को जानता है और जिसने शुद्ध-बुद्ध अर्थात वीतराग सर्वज्ञ स्वभाव वाले आत्मा को जान लिया, वह रागादि विकारों को भी स्वीकृत नहीं कर सकता।। साक्षात् अरहंत तो आजकल उपलब्ध नहीं है, पर स्थापना निक्षेप के द्वारा जिनकी स्थापना की जाती है, वे अरहंत विद्यमान है। अरहंत की प्रतिमा एक दर्पण है। उसमें अपने आपको देखकर अपनी कालिमा को दूर करने का प्रयत्न करो। कोई भी व्यक्ति दर्पण नहीं देखता, परन्तु दर्पण के द्वारा अपने मुख को देखता है, उसमें लगी हुई कलिमा को छुटाता है। णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं' यहाँ अरहंत परमेष्ठी को पहले नमस्कार किया है और सिद्ध परमेष्ठी को पश्चात्, जबकि अरहंत परमेष्ठी चार घातिया कर्मों से सहित होने के कारण संसारी हैं और सिद्ध परमेष्ठी अष्टकर्म से रहित होने के कारण मुक्त हैं। इतना स्पष्ट अन्तर होते हुए भी अरहन्त को पहले नमस्कार करने का प्रयोजन यह है कि उनसे हमें मंगल की प्राप्ति होती है, सिद्ध परमेष्ठी के अस्तित्व का पता भी हमें अरहन्त से मिलता है, इसलिये 'अरहंता मंगलं' के पश्चात् 'सिद्धा मंगलं' कहा जाता है। अरहन्त उस काँच के समान हैं जिसके पीछे लाल-लाल मसाला लगा हुआ है। उस मसाले के कारण ही दर्पण में हमें हमारा मुख दिखता है। सिद्धपरमेष्ठी उस काँच के समान हैं जिस पर कोई मसाला नहीं लगा है, सब कुछ आरपार हो जाता है। दूसरा दृष्टान्त-सुवर्ण यदि शुद्ध है तो कोमलता के कारण उससे आभूषण नहीं बनते ,परन्तु जिस सुवर्ण में थोड़ी अशुद्धता है, किंचिन्मात्र तामा आदि जिसमें मिला है, उससे आभूषण बनते हैं और ये टिकाऊ रहते हैं । सिद्ध परमेष्ठी शुद्ध सुवर्ण के समान हैं अत: उनसे किसी को उपदेशादि नहीं मिलता। अरहन्त अशुद्ध सुवर्ण के समान हैं, उनसे सबको उपदेशादि मिलता है। यहाँ अशद्धता का सम्बन्ध अपूज्यता के साथ नहीं लगाना। इतनी अशुद्धता के रहने पर भी अरहन्त शत इन्द्रों के द्वारा पूज्य होते हैं। अरहंत भगवान् की विशेषता वीतरागता और सर्वज्ञता से है। सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति वीतराग और सर्वज्ञ की उपासना से ही हो सकती है, रागी और अल्पज्ञानी जीवों की उपासना से नहीं। अरहंत की प्रतिमा को प्रतिष्ठा शास्त्र के अनुसार अरहंत माना जाता है और उसके दर्शन करने से सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। शास्त्र के द्वारा उसी जीव को आत्मा का ज्ञान हो सकता है जो बहरा नहीं है तथा पढ़-लिख सकता है, परन्तु अरहन्त की प्रतिमा का दर्शन तो प्रत्येक मनुष्य के लिये सम्यक्त्व की प्राप्ति में सहायक हो सकता है। अरहंत का दर्शन दृश्य काव्य के समान तत्काल आनंद देने वाला होता है। यह तो रही उपशम और क्षयोपशम सम्यक्त्व की बात, परन्तु क्षायिक सम्यग्दर्शन तो साक्षात् जिनेन्द्र के पादमूल का आश्रय लिये बिना हो नहीं सकता। पूज्यपाद स्वामी ने सवार्थसिद्धि के प्रारंभ में निर्ग्रन्थाचार्य का वर्णन करते हुए लिखा है 'अवाग्विसर्ग वपुषा मोक्षमार्ग निरूपयन्तं' अर्थात् वचन बोले बिना ही जो शरीर मात्र से मोक्षमार्ग का निरूपण कर रहे थे। वंदना अर्थात् देवस्तुति मुनि के षडावश्यकों में सम्मिलित है। उसे मुनि अवश्य ही करते हैं । समन्तभद्र स्वामी ने कहा है स्तुतिः स्तोतुः साधो: कुशलपरिणामाय स तदा, भवेन्मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सतः॥ अर्थात् जिसकी स्तुति करना है वह सामने हो भी और नहीं भी हो, परन्तु स्तुति करने वाले साधु को उसके फल की प्राप्ति अवश्य ही होती है। वंदना या दर्शन करते समय इतना ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि वंदना का प्रयोजन भोग की प्राप्ति न हो, किन्तु कर्म क्षय हो। अभव्य जीव भोग के निमित्त धर्म करता है, परन्तु भव्य प्राणी कर्म क्षय के लिए धर्म करता है। कितना अन्तर है दोनों में, एक का लक्ष्य संसार है और एक का लक्ष्य मुक्ति। ज्ञानी जीव भगवान् के दर्शन करते समय कहता हैगुणवंत प्रभो, तुम हम सम, परन्तु तुमसे हम भिन्नतम अर्थात् हे प्रभो! द्रव्य दृष्टि से हम और आप समान हैं परन्तु पर्याय दृष्टि से हम आपसे सर्वदा भिन्न हैं। आपका आलंबन लेकर हम आपके समान बनना चाहते हैं। अरहंत तो निमित्त भाव हैं, कार्य के उपादान आप स्वयं हैं। अपनी शक्ति की ओर दृष्टिपात करो।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524264
Book TitleJinabhashita 2002 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy