Book Title: Jinabhashita 2001 06
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनभाषित जून 2001 युगसष्टा महर्षि का दैगम्बरी दीक्षा दिवस वीर नि.सं. 2527 आषाढ़ शुक्ल 5, वि.सं. 2058 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि. नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC जून 2001 जिनभाषित मासिक वर्ष 1 . सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जैन पृष्ठ . कार्यालय 137, आराधना नगर, भोपाल-462003 म.प्र. फोन 0755-776666 सहयोगी सम्पादक पं. मूलचन्द लुहाड़िया पं. रतनलाल बैनाडा डॉ. शीतलचन्द्र जैन डॉ. श्रेयांस कुमार जैन प्रो. वृषभ प्रसाद जैन शिरोमणि संरक्षक श्री रतनलाल कँवरीलाल पाटनी (मे, आर. के. मार्बल्स लि.) किशनगढ़ (राज.) श्री गणेश राणा, जयपुर अन्तस्तत्त्व सम्पादकीय : युगस्रष्टा महर्षि का दैगम्बरी दीक्षा दिवस आत्मोद्गार आत्मान्वेषी विद्याधर की दैगम्बरी दीक्षा : मुनि श्री क्षमासागर विद्याधर से विद्यासागर : युग परिवर्तन : मुनि श्री समता सागर श्रवण परम्परा के ज्योतिर्मय महाश्रमण : मुनि श्री अजित सागर 15 शोध आलेख संयम, तप, अपरिग्रह का मनोविज्ञान : प्रो. रतनचन्द्र जैन शंका समाधान : : पं. रतनलाल बैनाड़ा 20 व्यंग्यकथा : साझे की सुई : शिखर चन्द्र जैन नारीलोक/लेख नारी का सामाजिक मूल्यांकन आवश्यक : श्रीमती रजना पटोरिया बालवार्ता/कथा रात्रिभोजन त्यागी शृगाल : श्रीमती चमेली देवी जैन 27 लेख मध्यप्रदेश शासन द्वारा जैन समाज : सुरेश जैन, आई ए एस. 28 को अल्पसंख्यक दर्जा दिये जाने की अधिसूचना जारी कविताएँ समर्पण : मुनि श्री क्षमासागर 13 सिर्फ हाशिये पर जीने की दे : अशोक शर्मा हमको लाचारी बादल का मन : श्रीपाल जैन 'दिवा' सत्कारज और दान ही कीर्ति के संजोग : डॉ. विमला जैन विमल' 22 शिखर का स्पर्श कैसे? : आचार्य श्री विद्यासागर समता का संगीत : आचार्य श्री विद्यासागर आदर्श कथाएँ नाम में कुछ नहीं : डॉ. जगदीशचन्द्र जैन आदर्श शासक : यशपाल जैन प्रश्न और उत्तर : यशपाल जैन विशेष समाचार समाचार 26,30-32 आपके पत्र : धन्यवाद 5.6 द्रव्य-औदार्य श्री अशोक पाटनी (मे. आर.के. मार्बल्स लि.) किशनगढ़ (राज.) 20 प्रकाशक सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) फोन : 0562-351428,352278/ सदस्यता शुल्क शिरोमणि संरक्षक 5,00,000 रु. परम संरक्षक 51,000 रु संरक्षक 5,000 रु आजीवन 500 रु वार्षिक 100रु. एक प्रति 10 रु. सदस्यता शुल्क प्रकाशक को भेजें। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष समाचार महावीर जयन्ती पर अमेरिकी सीनेट में के सामने आ खड़ी हुई है, उसका पूरी ताक़त से सकारात्मक दोहन करना चाहिए। राज्यशः सर्वेक्षित करना चाहिए कि देश में कुल कितने विशेष प्रार्थना राजकीय अतिथि-गृह हैं अर्थात् लोक निर्माण विभाग के कितने, वन वाशिगटन। अमेरिकी कांग्रेस में बुधवार को कार्यवाही शुरू होने | विभाग के कितने, तथा अन्य परियोजनाओं के कितने? हमें यह भी से पहले भगवान् महावीर की 2600वीं जयन्ती के उपलक्ष्य में जैनधर्म जानकारी संकलित करनी चाहिए कि बड़े व्यापारिक खानदानों के अपने की प्रार्थना की गई। अमेरिकी कांग्रेस के 100 वर्षों के इतिहास में निजी गेस्टहाउसेज़ कितने हैं? क्या जैन उद्योगपतियों के गेस्टहाउसों यह पहला मौका है जब कांग्रेस में जैन प्रार्थना की गई। उस समय में मांसाहार वर्जित हैं, या चल रहा है? जहाँ तक हमारी जानकारी समूचे अमेरिका से जैन समुदाय के 100 से भी अधिक व्यक्ति | है कई ऐसे जैन उद्योगपति हैं, जिनके संस्थान-स्थित गेस्टहाउसों में उपस्थित थे। यह प्रार्थना अंग्रेजी में अनूदित कर पढ़ी गई। अमेरिकी मांसाहार परोसा जाता है, ऐसे में क्या हम उनकी एक बैठक ले कर कांग्रेस में अंग्रेजी भाषा के अलावा और किसी भी भाषा में प्रार्थना उनसे इसे बंद करने की अपील नहीं कर सकते? खयाल रहे कि जब नहीं की जा सकती। हम पूरे देश के राजकीय/निजी अतिथि-गृहों की सूची तैयार करेंगे - दैनिक भास्कर, भोपाल | | तब निश्चय ही हमारे सामने एक बहुत बड़ा कार्य-क्षेत्र खुल जाएगा, ___ 24 मई 2001 से साभार | जिसमें हम अहिंसा के व्यावहारिक रूप को तर्कसंगत तथा प्रभावी शाबाश गुजरात ढंग से प्रचारित कर सकेंगे। 'तीर्थंकर' मई 2001 से साभार छह अप्रैल दो हजार एक से भगवान महावीर के 2600) वें जन्मकल्याणक वर्ष की समारोह-शृंखला का श्रीगणेश हुआ है। राजधानी मांसयुक्त खाद्यपदार्थों को प्रतीक दिल्ली तथा अन्य राज्यों की राजधानियों/प्रमुख शहरों में महावीर जयन्ती के आयोजन हुए, कई औपचारिक ऐलान हुए, लेकिन ऐसा चिह्न द्वारा पहचानें कुछ नहीं हुआ जिसे देश का सांस्कृतिक इतिहास दर्ज कर सके। केन्द्र ___अहिंसक और शाकाहारी वर्ग की चिरप्रतीक्षित मांग को दृष्टि सरकार ने एक अरब रुपये खर्च करने की घोषणा तो बहुत पहले से में रखकर केन्द्रीय सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की है, लेकिन अभी तक उसे लेकर कोई स्पष्ट तजबीज़ सामने नहीं (स्वास्थ्य विभाग) नई दिल्ली ने 'भारत का राजपत्र असाधारण सं. आयी है। लगता है, वह एक तरह की निर्बल राजनैतिक गर्वोक्ति थी, 166, भाग-II, खण्ड-3, उपखण्ड (i), बुधवार, 4 अप्रैल 200। जिसका कोई ठोस नतीजा कभी सामने नहीं आयेगा। को एक अधिसूचना जारी की है। हाँ, सबसे बड़ी पहल गुजरात में हुई। राज्य के मुख्यमंत्री श्री इस अधिसूचना/सा.का. नि. 245 (अ) के अनुसार खाद्य केशुभाई पटेल ने दो प्रमुख ऐलान किये- 1. राज्य में 'अहिंसा अपमिश्रण निवारण नियम 1955 में संशोधन करके मांसाहार युक्त महाविद्यालय की स्थापना की जाएगी। 2. सरकारी अतिथि-गृहों पदार्थों के ऊपर एक प्रतीक चिन्ह बनाना अनिवार्य कर दिया है। राजपत्र (गेस्ट हाउसों) में न तो मांसाहार बनेगा और न ही परोसा जाएगा। में प्रकाशित तिथि से 6 मास के पश्चात् यानी 4 अक्टूबर 2001 उपर्युक्त दोनों निर्णय ऐतिहासिक हैं और राज्य के सकारात्मक सहयोग से प्रवृत्त होने वाले इस खाद्य अपमिश्रण निवारण (चौथा संशोधन) को परिभाषित करते हैं। ये वस्तुतः ऐसे फैसले हैं, जिनसे देश की नियम, 2000 में नियम 32-अ खण्ड-ख में संशोधन किया गया सास्कृतिक अस्मिता प्रभावित होगी और अहिंसा को मैदान में उतार कर जीने की संभावनाएँ शक्ल ग्रहण करेंगी। यद्यपि श्री पटेल के निर्णय इस संशोधन के पश्चात् अब 'जब भी किसी खाद्य पदार्थ में की कई लोगों ने आलोचना की है, लेकिन वे अविचल हैं और अहिंसा एक संघटक के रूप में पक्षियों, ताजे जल अथवा समुद्री जीवके प्रचार-प्रसार की दिशा में कुछ और कदम उठाने के लिए संकल्पित जन्तुओं, अण्डों अथवा किसी भी जीव-जन्तु के उत्पाद सहित कोई हैं। आश्चर्य, कि जैन समाज के किसी भी वर्ग ने श्री पटेल को उनके समग्र जीव-जन्तु अथवा उसका कोई भाग, परन्तु इसमें दूध या दूध इस साहस के लिए न तो कोई बधाई-तार भेजा है, न बधाई-खत से बने हुए पदार्थों को छोड़कर, अन्तर्विष्ट होने पर वह उत्पाद मांसाहारी ही लिखा है, जबकि इस संदर्भ में उनके पास करोड़ों संदेश पहुँचने | खाद्य पदार्थ है यह सूचित करना होगा। थे। क्या हम इतने कृपण/दरिद्र हैं कि उन्हें एक पोस्टकार्ड भी नहीं इस प्रयोजन के लिये निम्न अनुबंधित प्रतीक और रंग कोड लिख सकते? और तो और 'जिनेन्दु' (अहमदाबाद) को छोड़कर | के द्वारा इस आशय की एक घोषणा की जाएगी। इस प्रतीक में भरे किसी अन्य जैन पत्र पत्रिका ने इस ऐतिहासिक खबर को सुर्खियों रंग से भरा हुआ एक वृत्त होगा। यह मूल प्रदर्शन पैनल का क्षेत्र 100 में डालने की मिहरबानी भी नहीं को। क्या जैन समाज इसी तरह प्रमत्त/ से.मी. के वर्ग तक 3 मि.मी. न्यूनतम व्यासयुक्त, 100 से.मी. सुस्त रह कर भगवान् महावीर के छब्बीस सौवें जन्म कल्याणक वर्ग से ऊपर 500 से.मी. वर्ग तक 4 मि.मी. न्यूनतम व्यासयुक्त, महोत्सव को संपन्न करेगा? 500 से.मी. वर्ग से ऊपर 2500 से.मी. वर्ग तक 6 मि.मी. हमें जगना चाहिए और यह जो एक वृहद संभावना हमारी आँखों न्यूनतम व्यासयुक्त एवं 2500 से.मी. वर्ग से ऊपर 8 मि.मी. - जून 2001 जिनभाषित । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यूनतम व्यास आकार वाला वृत्त बनाना होगा। किन्तु उक्त विहित केन्द्र सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय न्यूनतम आकार से कम नहीं होगा। वृत्त के व्यास से दुगने किनारे वाली भूरी बाह्य रेखा वाले वर्ग के भीतर यह वृत होना चाहिए, को अनुरोध पत्र भेजें यथा देश के अहिंसक एवं शाकाहारी वर्ग की दीर्घकाल से की जा रही मांग को दृष्टिगत रखकर केन्द्रीय सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय (स्वास्थ्य विभाग) नई दिल्ली ने भारत का राजपत्रअसाधारण, 4 अप्रैल 2001 में एक अधिसूचना प्रकाशित कराई है। इसमें 'खाद्य अपमिश्रण निवारण अधिनियम, 1955 में चौथा संशोधन किया गया है, जो कि इसके नियम 32 (अ) खण्ड (ख) यह प्रतीक मूल प्रदर्शन पैनल पर विषम पृष्ठभूमि वाले पैकेज से संबंधित है। पर उत्पाद के नाम या ब्रांड नाम के बिलकुल नजदीक में बनाना होगा। इस संशोधन के अनुसार जो कि आगामी 4 अक्टूबर 2001 इसके अतिरिक्त लेबलों, आधानों (कंटेनर्स) पैम्फलेटों, इश्तहारों से प्रवृत्त/प्रभावी होगा, यदि किसी भी खाद्य पदार्थ में एक संघटक (लीफलीट्स) एवं किसी भी प्रकार के प्रचार माध्यम आदि के रूप के रूप में पक्षियों, ताजे जल अथवा समुद्री-जीव-जन्तुओं अथवा होने वाले विज्ञापनों पर भी प्रमुख रूप में से प्रदर्शित करना होगा। अण्डों सहित कोई समग्र जीव-जन्तु अथवा उसका कोई भाग पड़ा इतना ही नहीं, जहाँ किसी खाद्य पदार्थ में केवल अंडा एक हुआ हो, तो एक प्रतीक चिन्हा बनाना होगा, जो कि उत्पादक मांसाहारी संघटक के रूप में अन्तर्विष्ट होगा तो वहां विनिर्माता, के नाम या ब्राण्ड नाम के बिल्कुल नजदीक विषम पृष्ठभूमि वाले पैककर्ता अथवा विक्रेता को उक्त प्रतीक के अलावा इस आशय की पैकेज में भूरे रंग के वृत्त तथा भूरे रंग की बाह्य रेखाओं के बीच बना एक घोषणा भी करना होगी। होगा। उक्त अधिसूचना में उपभोक्ता वर्ग के व्यापक हितों को दृष्टि इस अधिसूचना के हिन्दी भाग एवं अंग्रेजी भाग में परस्पर में रखते हुए एक स्पष्टीकरण IX भी जोड़ा गया है, जिसमें 'मांसाहारी कुछ विसंगतियाँ हैं। यथा- (1) नियम में मांसाहारी खाद्य की परिभाषा खाद्य' को परिभाषित/व्याख्यायित करते हुए कहा गया है कि करते हुए अंग्रेजी भाग में 'किसी अन्य जीव-जन्तुओं के उत्पाद किन्तु "मांसाहारी खाद्य' से एक ऐसा खाद्य पदार्थ अभिप्रेत है जिसमें एक उसमें से दूध और दूध के उत्पाद को छोड़कर' लिखा है, जो कि संघटक के रूप में पक्षियों, ताजा जल अथवा समुद्री जीव-जन्तुओं, हिन्दी भाग में किन्हीं कारणों से छोड़ा/छूट गया है, (2) केवल अण्डे अण्डों अथवा किसी भी जीव-जन्तु के उत्पाद सहित कोई समग्र जीव का प्रयोग होने पर निर्माता, पैककर्ता अथवा विक्रेता को उक्त प्रतीक जन्तु अथवा उसका कोई भाग अन्तर्विष्ट किया गया हो। परन्तु इसके के अलावा एक घोषणा करने का नियम हिन्दी भाग में है तो अंग्रेजी अंतर्गत दूध या दूध से बना हुआ कोई भी उत्पाद शामिल नहीं किया/ भाग में प्रस्तुत भाषा में छूट की गुंजाइश-सी लग रही है, (3) अनुवाद माना जा सकेगा। में भाषा-व्याकरणगत भूलें हैं, (4) हिन्दी भाग में प्रदर्शित प्रतीक खाद्य अपमिश्रण निवारण (चौथा संशोधन) नियम 2000 के चिन्ह को असमान अनुपात में बनाया गया है, तथा (5) ताजा जल प्रारंभ से पूर्व में विनिर्मित और बिना प्रतीक पैक किए गए ऐसे किसी | की परिभाषा/लक्षण भी नहीं दिया गया है। भी मांसाहारी खाद्य के ऊपर उक्त नियम के उपबंध लागू नहीं होंगे। | इन सभी कारणों से उपभोक्ताओं के व्यापक हितों का संरक्षण अतः अहिंसा एवं शाकाहार में आस्था रखने वालों के साथ | होना कठिन होगा, क्योंकि जो व्यक्ति हिन्दी भाषा पर अवलंबित रहेगा ही सामान्य उपभोक्ता वर्ग से भी अपेक्षा है कि आगामी 4 अक्टूबर | उसे उक्त नियम की पूर्ण/उचित जानकारी नहीं हो सकेगी। अतएव 2001 के पश्चात् जो भी खाद्य पदार्थ खरीदें, उसमें कहीं, किसी भी अहिंसा, शाकाहार एवं जीवदया में आस्था रखने वालों से अपेक्षा प्रकार के मांसाहारी सामग्री का सम्मिश्रण तो नहीं हुआ है, यह देखने/ | है कि वे अपने-अपने अनुरोध केन्द्रीय सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय जानने हेतु उक्त प्रतीक चिन्ह को देखकर ही खरीदें। कदाचित् कहीं | को भेजें, ताकि उक्त बिन्दुओं पर 4 अक्टूबर 2001 के पहले सुधार संदेह हो तो सक्षम अधिकारी के पास अपनी शिकायत दर्ज कराएँ। | होकर राजपत्र में संशोधित रूप का पुनः प्रकाशन हो सके। जब से विद्यासागर जी के दर्शन किये मैंने इन जैसा किसी मुनि के मुख से उपदेश, प्रवचन नहीं सुना।एक-एक वाक्य में वैदुष्य झलकता है। अध्यात्मी कुंदकुंद और दार्शनिक समंतभद्र का समन्वय मैंने इन्हीं के प्रवचनों में सुना है। मैं पंच नमस्कार मंत्र का जाप त्रिकाल करता हूँ और णमो लोए सव्व साहूणं जपते समय ये मेरे मानस पटल पर विराजमान रहते हैं। आज के कतिपय साधुओं की विडम्बनाओं को देखकर मेरा यह मन बन गया था कि इस काल में सच्चा दिगम्बर जैन साधु होना संभव नहीं, किन्तु जब से विद्यासागर जी के दर्शन किये हैं, मेरे उक्त मत में परिवर्तन हो गया है। जिनका मत आज के कतिपय साधुओं की स्थिति से खिन्न होकर णमो लोए सव्व साहूणं पद से विरक्त हुआ, उनसे हमारा निवेदन है एक बार आचार्य विद्यासागर जी का सत्संग करें। हमें विश्वास है कि उनकी धारणा में निश्चित परिवर्तन होगा। स्व. पंडित कैलाशचंद्र सिद्धांतशास्त्री वाराणसी (उत्तर प्रदेश) 2 जून 2001 जिनभाषित Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'जिनभाषित' को सन्तों का आशीर्वाद पत्रिका का शुभारम्भ क्यों ? 'जिनभाषित' जिनवाणी माँ की चिट्ठी वर्णीभवन सागर (म.प्र.) में विराजमान परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी के सुयोग्य शिष्य पूज्य मुनि श्री समतासागर जी, मुनि श्री प्रमाणसागर जी और एलक श्री निश्चयसागर जी को दिनांक 10 जून 2001 को प्रातः कालीन सभा में नवप्रसूत मासिक पत्रिका 'जिनभाषित' का मई-2001 अंक समर्पित किया गया। तीनों सन्तों ने पत्रिका को शुभाशीष से कृतार्थ किया। इस अवसर पर पत्रिका के सम्पादक एवं 'दिगम्बर जैन साहित्य और यापनीय साहित्य ग्रंथ लिख रहे प्रो. रतनचन्द्र जी जैन को सागर जैन समाज ने सम्मानित किया। रतनचन्द्र जी को शुभाशीष प्रदान करते हुए पूज्य मुनि श्री समतासागर जी ने अपने वक्तव्य में कहा कि एक श्वेताम्बर विद्वान ने षट्खण्डागम आदि अनेक दिगम्बर ग्रन्थों को यापनीय सम्प्रदाय के आचार्यों द्वारा रचित सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। उसका सप्रमाण खण्डन करने के लिए प्रो. रतनचन्द्र जी जो महत्त्वपूर्ण प्रन्थ लिख रहे हैं वह सन्यमच ऐतिहासिक है और विजगत को भी चौकाने वाला है। ऐसे-ऐसे तथ्य निकालकर वे सामने रख रहे हैं जिन्हें सुनकर आचार्यत्री प्रसन्न होते है और आक्षर्षचकित होते हैं। कुण्डलपुर के भीड़ भरे समारोह में भी आचार्यश्री ने घंटों घंटों बैठकर इस ग्रन्थ के पृष्ठ सुने हैं। हम लोगों ने यह प्रत्यक्षरूप से देखा है कि कितने मनोयोग से आचार्यश्री सुनते थे हजारों श्रावक भी दर्शन करने आ रहे हैं तो आते रहें, लेकिन आचार्यश्री जब सुनते थे और निर्देश देते थे तब कोई व्यवधान उन्हें प्रभावित नहीं करता था। परम्परा की रक्षा के लिए आचार्यश्री की यह चिन्ता और तत्परता स्तुत्य है और उनकी आज्ञा के पालन में लेखक की निष्ठा सराहनीय है। बहुत बड़ा काम वह कर रहे हैं। ' 1 पूज्य मुनि श्री प्रमाणसागर जी ने अपने आशीर्वचन में कहा कि प्रो. रतनचन्द्र जी जिनवाणी और दिगम्बर जैन परम्परा की जो सेवा कर रहे हैं, जिस कार्य में वे अभी संलग्न हैं उसे शताब्दियाँ याद करेंगी। एक श्वेताम्बर विद्वान् ने जिस ग्रन्थ में हमारे धरसेन पुष्पदन्त, भूतबलि, गुणधर, शिवार्य, बड़केर आदि आचार्यों को यापनीय सम्प्रदाय का आचार्य बतलाया है वह ग्रन्थ पढ़कर आचार्यश्री का मन मर्माहत हो उठा था। उन्होंने अपनी प्रति मुझे पढ़ने को दी कि देखो इसमें क्या लिखा है? उन्होंने सैकड़ों जगह अण्डरलाइन कर रखे थे। आचार्यश्री ने रतनचन्द्र जी की योग्यता और प्रतिभा को समझते हुए उन्हें आदेश दिया कि इस पुस्तक का जवाब लिखना चाहिए। आज्ञा शिरोधार्य करके रतनचन्द्र जी ने उस पूरी की पूरी पुस्तक का श्वेताम्बर ग्रन्थों से उद्धरण दे-देकर सयुक्तिक, सप्रमाण जवाब दिया है और इनके इसी योगदान को ध्यान में रखते हुए सर्वोदय जैनविद्यापीठ ने कुण्डलपुर के महामहोत्सव में इनका सम्मान किया था। यह किसी व्यक्ति का सम्मान नहीं था, यह उनके द्वारा किये गये सत्प्रयासों का सम्मान था । इससे दिगम्बर परम्परा की बहुत बड़ी सेवा होगी। उन्होंने उसका अधिकांश भाग आचार्यश्री को अमरकण्टक में सुनाया था। अभी उसका कुछ भाग कुण्डलपुर के प्रवास में सुनाया। उसे मैंने भी सुना था। आचार्यश्री के उसमें काफी कुछ सुझाव रहे। रतनचन्द्र जी उन सारे सुझावों और संशोधनों को पूरा कर उसे प्रकाशित करनेवाले है। आचार्यश्री की भावना तो यह थी कि कुण्डलपुर के महोत्सव में उसका विमोचन कर दिया जाए, लेकिन बड़ा दुरूह कार्य है। बड़े कार्य श्रमसाध्य और समयसाध्य होते हैं। 'जिनभाषित' की उद्भवकथा मुनि श्री प्रमाणसागर जी ने आगे कहा'ऐसे ही विद्वानों के मन में यह चिन्ता उत्पन्न हुई कि दिगम्बर जैन संस्कृति के प्रवाह को निर्मल कैसे बना कर रखा जाए? आज हमारी जो संस्कृति की गंगोत्री से निकली हुई गंगा है. वह धीरे- धीरे मलिन होती जा रही है। गंगा और जमना की सफाई के लिए तो नेता लोग लगे हुए हैं, पर्यावरण के चिन्तक लगे हुए हैं, लेकिन जिनशासन की गंगा को मलिन होने से कैसे रोका जाए, उसके प्रदूषण को कैसे दूर किया जाय ? इस चिन्ता का ही परिणाम था कि एक दिन जब हम लोग में कुण्डलपुर थे, रतनलाल जी बैनाड़ा, मूलचन्द जी लुहाड़िया और अन्य लोगों ने आकर हम लोगों के बीच यह बात रखी कि महाराज जी ! हमें आज एक ऐसी पत्रिका का प्रकाशन करने की आवश्यकता है जिससे हम समाज को सही दिशा दे सकें, क्योंकि आज की अधिकतर पत्रपत्रिकाएं एक-दूसरे की निन्दा और आलोचनाओं से ही भरी रहती हैं। उनके पास तथ्यपरक सामग्री का अभाव होता है। हम अगर समाज को जाग्रत करना चाहें, उसे सही तत्त्व का बोध कराना चाहें तो तथ्यपरक सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के लिए हमारे पास एक पत्रिका होनी चाहिए। और सब लोगों ने मिलकर प्रो. रतनचन्द्र जी का नाम तय किया कि वे इस कार्य को बखूबी निभा सकते हैं।' 'आचार्यश्री के सामने जब यह बात रखी गई तो उन्होंने एक ही बात कही- 'क्या कोई श्रमण किसी पत्रिका का संचालक हो सकता है? क्या उसे किसी पत्रिका से जुड़ना चाहिए? हम लोगों ने भी कहा कि 'महाराज जी आपका कहना बिलकुल ठीक है, कोई श्रमण किसी पत्रिका का संचालक नहीं हो सकता, और उसे किसी पत्रिका से जुड़ना नहीं चाहिए, न ही हम ऐसा करने में कोई रुचि 'जून 2001 जिनभाषित 3 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्शकथा नाम में कुछ नहीं .डॉ. जगदीश चन्द्र जैन तक्षशिला में कोई आचार्य अपने पाँच सौ शिष्यों को मन्त्र पढ़ा रहे थे। एक शिष्य का नाम था पापक। पापक को सब 'पापक-पापक' कहकर बुलाते थे। एक दिन पापक ने सोचा- मेरा नाम अमंगलसूचक है, क्यों न मैं नाम बदलवा लूँ? रखते हैं। लेकिन यदि कोई सत्श्रावक इस प्रकार का भाव करता है, ऐसे कार्यक्रम को हाथ में लेता है तो उसे अपना आशीर्वाद तो दे सकते हैं? आचार्य श्री बोले 'जरूर दे सकते है। तो उन लोगों ने कहा कि महाराज! हम आपका वही आशीर्वाद चाहते हैं। और जब आचार्य महाराज का आशीर्वाद इन सबको मिल गया तो हम लोगों का हाथ कैसे पीछे रह सकता था? हम सबका आशीर्वाद तो ये अपने आप ही पा गये। ये कठिन परिश्रम करके 'जिनभाषित' को प्रकाशित कर रहे हैं। हमने उसे देखा है। उसमें काफी सामग्री है और मुझे आशा और विश्वास है कि यह पत्रिका सम्पूर्ण जैन समाज में अद्भुत प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकेगी और प्रचलित जन पत्रिकाओं में सर्वोच्च स्थान बना सकेगी।' जिनवाणी माता की चिट्ठी मुनिश्री प्रमाणसागर जी आगे बोले'सबसे मेरा यही कहना है कि पत्रिका अपने उद्देश्यों की पूर्ति में आगे बढ़ती रहे। हर व्यक्ति के घर में यह पत्रिका आनी चाहिए। पत्रिका को तुम और कुछ मत समझना। उसे तुम समझना कि यह जिनवाणी माता की चिट्ठी है। अगर महीने में एक अंक तुम्हारे घर में आता है तो यह मानना कि जिनवाणी माता की एक चिट्ठी तेरे घर आई है। वह देख, तेरे लिए क्या खबर भेज रही है। थोड़ा उसके सन्देशों को समझ और अपना सम्पर्क जिनवाणी माँ से बना, क्योंकि बेटा अगर माँ से ज्यादा समय तक बिछुड़ जाता है तो बेटे को जो दुःख होता है सो होता है, माँ को भी तकलीफ होती है। कम से कम हमारे निमित्त से जिनवाणी माँ को कोई तकलीफ न हो, ऐसा प्रयत्न आप सबको करना चाहिए। और प्रत्येक घर में जिनवाणी माँ की चिट्ठी आये ऐसा प्रयत्न तो आप सबको करना ही चाहिए। अन्त में मुनिश्री ने कहा- 'इस पत्रिका को और भी अधिक सुन्दर और लोकोपयोगी बनाने का प्रयत्न किया जाता रहेगा ऐसा मुझे पूरा विश्वास है।' पूज्य एलक श्री निश्चय सागर जी ने भी 'जिनभाषित' के अंक की प्रशंसा की और सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जी तथा सहयोगी सम्पादकों को सुभाशीष प्रदान किया। उसने आचार्य से जाकर कहा- 'आचार्य! मेरा नाम अच्छा नहीं। इसे बदल कर कोई दूसरा नाम रख दें।' आचार्य ने कहा- 'तात! जाओ देश-विदेश में घूमकर अपनी इच्छानुसार कोई अच्छा-सा नाम छाँट लो। मैं नाम बदल दूंगा।' पापक रास्ते के लिए कलेवा लेकर चल दिया। गाँव-गाँव घूमता हुआ वह एक नगर में पहुँचा। वहाँ जीवक नाम के किसी पुरुष की मृत्यु हो गयी थी। पापक ने देखा कि जीवक के रिश्तेदार उसे श्मशान लिये जा रहे हैं। उसने कहा- 'भई! इस आदमी का क्या नाम था?' 'जीवक।' 'ऐं, जीवक! जीवक भी मरता है?' 'हाँ जीवक भी मरता है, अजीवक भी। नाम तो केवल व्यवहार के लिए रखा जाता है। क्या तू इतनी-सी बात भी नहीं जानता?' पापक आगे बढ़ा। जब वह नगर के अन्दर गया तो उसने एक दासी को देखा। दासी का मालिक उसे दरवाजे पर बैठाकर रस्सी से पीट रहा था। पापक ने मालिक से पूछा - 'भई! इसे क्यों पीटते हो?' मालूम हुआ कि उसने मजदूरी नहीं दी। पापक ने पूछा - 'दासी का क्या नाम है?' 'धनपाली।' पापक ने कहा- 'धनपाली होकर भी यह मजदूरी लाकर नहीं देती?' इस पर लोगों ने कहा - 'धनपाली-अधनपाली दोनों दरिद्र हो सकती हैं। नाम तो केवल व्यवहार के लिए होता है। क्या तुम इतना भी नहीं जानते?' आगे चलकर पापक ने एक मार्गभ्रष्ट पथिक को देखा। उसे इधर-उधर घूमते-फिरते देख कर उसने पूछा- 'भई! क्या बात है?' 'मार्ग भूल गया हूँ। 'तुम्हारा नाम क्या है?' 'पन्थक।' 'ऐं, पन्थक भी रास्ता भूल जाते हैं?' 'इसमें कौन बड़ी बात है! पन्थक-अपन्थक, दोनों रास्ता भूलते हैं। नाम तो केवल व्यवहार के लिये रखा जाता है। तुम इतना भी नहीं जानते?' __ पापक लौटकर आचार्य के पास आया। आचार्य ने पूछा- 'कहो वत्स! कौन-सा नाम पसन्द किया?' पापक ने उत्तर दिया- 'आचार्य! जीवक-अजीवक दोनों मरते हैं। धनपालीअधनपाली दोनों दरिद्र होते हैं। पन्थक-अपन्थक दोनों रास्ता भूल सकते हैं। नाम तो केवल व्यवहार के लिये रखा जाता है। नाम से सिद्धि नहीं होती, सिद्धि कर्म से होती है। आचार्य मैं नाम नहीं बदलवाना चाहता।' 4 जन 2001 जिनभाषित Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपके पत्र : धन्यवाद, सुझाव शिरोधार्य "जिनभाषित' पत्रिका 'जिनभाषित' का मई 'जिनभाषित' का अप्रैल माह का अंक प्राप्त हुआ। चूँकि । का अप्रैल 2001 का अंक 2001 का अंक प्राप्त हुआ। 'जिनभाषित' पहली बार देखा, इसके पूर्व नहीं, अतः शायद यही प्रथम प्राप्त हुआ। धन्यवाद! हालाँकि अंक (प्रवेशाक) होगा। देखते ही और पढ़ने के बाद बहुत प्रसन्नता हुई। सज्जा नयनाभिराम है और यह पत्रिका से स्पष्ट नहीं हो बधाइयाँ। इस प्रथम अंक ने ही मन मोह लिया। ऐसा लगा बहुत बड़ी कमी सामग्री उच्च स्तरीय एवं पठपाया कि यह कौन से नम्बर की पूर्ति हुई है। सामग्री की गुणवत्ता से ही इसके चयन में विशेष सावधानी नीय। आध्यात्मिकता के विवेका अक है। सम्भवतः यह झलकती है। आपकी विद्वत्ता, लेखनी और प्रतिभाचातर्य का लाभ इस | कपूर्ण प्रचार-प्रसार एवं जैन प्रवेशाक ही होना चाहिए। यह | माध्यम से साहित्य और समाज को बहुत पहले ही प्राप्ति का प्रारंभ होना | सांस्कृतिक अस्मिता के संरक्षण जानकार बहुत प्रसन्नता हुई चाहिए था। पर 'देर आयद दुरुस्त आयद' कहावत चरितार्थ हो रही है। की चिन्ता पर आधारित आपका कि इस पत्रिका के सम्पादक | मेरी शभकामनाएँ हैं। यह दीर्घायुष्क हो 'तथा यथा नाम तथा' बना रहे।। साहसिक, सामयिक एवं मार्मिक तथा सभी सहयोगी सम्पादक | अन्य की तरह 'नाम बड़े और दर्शन छोटे न हों और किसी या किन्हीं सम्पादकीय 'श्रुतपञ्चमीः श्रुत बहुत ही विद्वान है। अतः यह | विवादों में कभी न उलझें। सभी को सदा-सर्वदा यह पत्रिका अपना नाम की निश्चय पूजा आवश्यक' अपेक्षा तो सदा रहेगी कि | सार्थक करने वाली लगती रहे। मंगल कामनाएँ। आँखे खोलने वाला है। मुझे पत्रिका श्रेष्ठतम रूप धारण डॉ. फुलचन्द्र जैन 'प्रेमी विश्वास है कि आपके कुशल एवं करे। अनेकान्तभवनम्, बी-23/45, पी-6, शारदा नगर, नवाबगंज मार्ग, वाराणसी-221010 सक्षम संपादकत्व में प्रकाशित जैसा कि आप स्वयं 'जिनभाषित' आधुनिक विज्ञान भी जानते हैं कि आज जैन पूर्व में 'जिनभाषित' का प्रवेशांक देखा था। इस बार मई-2001 और विवेक को ध्यान में रखते समाज में पत्र-पत्रिकाओं की | श्रुतपंचमी का अंक पढ़ने को मिला। दिगम्बर जैन समाज में 'जिनभाषित' | बाढ़ सी आ गई है। नित नयी | एक विशाल रिक्तता की पूर्ति करेगा। आज की पत्र-पत्रिकाएँ तत्त्वज्ञान, हुए जैन-संस्कृति और अध्यात्म पत्रिका उदय में आती है। ऐसी | प्रबल बौद्धिकता तथा वैचारिकता प्रदान करने की बजाय निषेधात्मक के प्रचार-प्रसार में अपनी प्रभावी स्थिति में पत्रिका का स्तर | आलोचना की शिकार हैं। समालोचना तो आवश्यक है किन्त सर्जनात्मक | भूमिका निभायेगा। | आलोचना (Creative criticism) का मार्ग अपनाना सरल कार्य नहीं, बनाये रखना एक बड़ी चुनौती | आलोचना (Creative criticism) का माग 3 श्रीमती विमला जैन, शायद इसीलिए लोग इसे अपना नहीं पाते। 'जिनभाषित' से मुझमें उम्मीद जिला एवं सत्र न्यायाधीश, 30, है। आपने भी नयी पत्रिका निशात कालोनी, भोपाल-403 प्रारंभ की है। आपकी यह जागी है। इसका स्वाध्याय करने से लगा कि अवश्य ही यह पत्रिका न 'जिनभाषित' का अंक पत्रिका अन्य पत्रिकाओं से तो समस्या से मुँह फेरेगी और न ही मात्र किसी भी स्थिति की आलोचना पाया। आनन्दम्। उसे देख किस प्रकार हटकर होगी? इस करेगी। बल्कि एक तीसरी दृष्टि देगी जो हमें समाधान देगी। आदरणीय अप्रैल अंक न मिलने का विषाद पत्रिका का उद्देश्य क्या है? रतनलाल जी बैनाड़ा का तत्त्वप्रेम और उससे संपोषित शंका-समाधान उभरा। "जिनभाषित' परिवार आदि बातों का प्रवेशाक में समाज में तत्त्वज्ञान को जीवन्त रखेगा। आप इसी प्रकार स्तरीय आलेख को नमन। तो स्पष्टीकरण होना ही चाहिए, तथा अन्य स्तंभ प्रकाशित करते रहें। इन्हीं शुभकामनाओं के साथ। प्रा. डॉ. विश्वास पाटील, साथ ही आने वाले अकों में कुमार अनेकान्त जैन 34, कृष्णाम्बरी, वैसा झलकना भी चाहिए। सरस्वती कालोनी, आखिर नयी पत्रिका प्रकाशित करने की 'जिनभाषित' सबसे कुछ अलग सा लगा।। शहादा (नंदुरबार)-425409 आवश्यकता क्यों हुई, इसका खुलासा होना आपके द्वारा प्रेषित और सुसम्पादित इसमें सब कुछ है और सभी के लिए है। मध्यप्रदेश से और भी जैन पत्रिकाएँ निकलती 'जिनभाषित' का मई 2001 का अंक मिला। चाहिए। आभारी हूँ। आपका 2/5 को गंजबासौदा में होंगी, पर आप अपनी पत्रिका के माध्यम से डॉ. अनिल कुमार जैन, बी-26, सूर्यनारायण सोसायटी, विसत पेट्रोल जैन समाज और बुद्धिजीवी वर्ग की जो सेवा श्री गीता-ज्ञान-आराधना-स्वतंत्र पारमार्थिक पम्प के सामने, साबरमती, अहमदाबाद कर रहे हैं वह प्रशंसनीय है। सभी लेख, न्यास की ओर से सार्वजनिक सम्मान किये 380005 कविता और संस्मरण पढ़ने योग्य हैं, जिनसे जाने का समाचार विशेष आह्लादकारी रहा। हम कुछ न कुछ सीख सकते हैं। बधाई। अभिनन्दन, बधाई, हार्दिक शुभकामना कृपया "जिनभाषित' (2001 अप्रैल) का डॉ. विनोद कुमार तिवारी स्वीकार करें। अंक पहली बार मुझे प्राप्त हुआ और इसे रीडर व अध्यक्ष- इतिहास विभाग डॉ. शशिकान्त जैन एवं रमाकांत जैन देखने-पढ़ने का मौका मिला। यूँ तो पत्रिकाएँ यू.आर. कालेज, रोसड़ा-848210, (समस्तीपुर) बिहार सम्पादक- शोधादर्श, ज्योति निकुंज, और जर्नल्स निकलते ही रहते हैं, पर चारबाग, लखनऊ-226004 -जून 2001 जिनभाषित 5 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'जिनभाषित' का मई 2001 का अंक अन्तःकरण जाग्रत हुआ। 'ऋद्धि और सिद्धि' | अनुपमेय, सातिशय कलाकृति ने पत्रिका में मिला। इस सौजन्य हेतु धन्यवाद। यदि इस | से धर्म के प्रति सम्यक श्रद्धा में दृढ़ता आई। चार चाँद लगा दिये हैं। छपाई, सफाई, अंक को आधार माने तो संयोजना बहुत अन्य लेख भी ज्ञानवर्धक तथा संस्कृति एवं | गेटअप आदि तो अतिसुन्दर हैं ही, पर सबसे सुन्दर एवं सौम्य है। साज-सज्जा नयनाभि नैतिकता के संरक्षण हेतु प्रेरणा स्रोत हैं। आप | महत्त्वपूर्ण हैं अच्छे-अच्छे मनीषियों की राम है। कटिंग में प्रेस की थोड़ी असावधानी अपनी पत्रिका के माध्यम से जैन समाज और कृतियाँ। बुद्धिजीवी वर्ग की जो सेवा कर रहे हैं, वह | रह गई है, वह आपके दृष्टिपथ में होगी। अगले सम्पादकीय पढ़कर तो अति प्रसन्नता स्तुत्य है। आपको व समस्त लेखकों को । हुई। श्रुत पंचमी के माध्यम से श्रुतावतार के अक में सुधर जावेगी। वर्ष तथा अक संख्या साधुवाद। इतिहास के साथ द्रव्यश्रुत-भावश्रुत की भी डालनी चाहिए। आचार्यश्री का मोरा जी डॉ. विमला जैन,1344, सुहाग नगर, प्रकृष्टता का दिग्दर्शन करते हुए जिनवाणी के भवन में हुई प्रथम वाचना के परिसमापन पर फीरोजाबाद-283203 उ.प्र. साथ मनमानी करने वालों के मुखौटों का प्रदत्त प्रवचन आज भी स्मृतियों में मन को उद्घाटन कर स्याद्वाद-अनेकान्त का अच्छा गुदागुदा जाता है। आचार्यश्री आचार्यश्री ही हैं। 'जिनभाषित' के अप्रैल एवं मई विवेचन किया है। मैं उन सभी विज्ञजनों की, गुलाबचन्द्र आदित्य, 2001 के अंक प्राप्त हुए। हार्दिक धन्यवाद। जो सम्पादक मंडल में हैं, भूरि-भूरि प्रशंसा आदित्य भवन, जैन मंदिर रोड, पत्रिका तो अपने-आप में अद्भुत है। पत्रिका करते हुए पत्रिका के उत्तरोत्तर उत्तुंग शिखर शाहजहांनाबाद, बजरिया, | के लेख असाधारण है। यहा इसका विशषता | की ओर बढ़ने की मंगल कामना करता हूँ। भोपाल-462001 | है। मई 2001 के अंक में श्रुतपञ्चमी से पं. पूर्णचन्द्र' 'सुमन' शास्त्री, सम्बन्धित लेख पढ़कर अत्यंत खुशी हुई। Received the copy of काव्यतीर्थ, सुमन कुटीर, लेखों का चयन एवं प्रस्तुतीकरण बहुत ही जैन मंदिर मार्ग, "JINABHASHITA" May 2001. अच्छा है। पत्रिका के उज्ज्वल भविष्य की दुर्ग-491001 (छ.ग.) The articles are selective, attrac कामना करती हूँ। tive and deal with important top कु. बबीता जैन (शोध छात्रा), 'जिनभाषित' का मई 2001 का श्रुत ics. The presentation is neat and पुत्री- डा. आर.एस. जैन, मामा का बाजार, पञ्चमी अंक पढ़ा तो प्रथमतः यह विचार मन impressive. It will certainly serve जैन मंदिर के पास, हैदरगंज लश्कर, में आया कि इतना उत्कृष्ट साहित्य जो the needs of the Jaina society. ग्वालियर-949001 अध्यात्म से परिपूर्ण है, पत्रिका में देकर आपने समाज का बड़ा उपकार किया है। 'जैन Dr. S.P. Patil, Vaishali, 5 Ghevare 'जिनभाषित' पत्रिका प्राप्त हुई। सामग्री आचार में इन्द्रिय दमन का मनोविज्ञान' plots Samarth Chowk, South पठनीय है। आचार्य श्री विद्यासागर जी के मनोविश्लेषक फ्रायड की खोखली अवधारणा Shivaji nagar, प्रवचनों के समावेश से पत्रिका का गौरव बढ़ Sangli-416416 का सुन्दर, सारगर्भित एवं सटीक जवाब है। गया है। बालवार्ता और हास्य व्यंग्य रोचक आचार्यश्री के युगान्तरकारी महाकाव्य 'मूक तथा शिक्षाप्रद हैं। बधाई और मंगल कामना __ जिनभाषित का मई 2001 अंक माटी' के प्रशासन और न्याय के संदर्भ में स्वीकारें। भेजने की कृपा की, धन्यवाद। अंक में दी हुई उद्घाटित सूत्रों को टिप्पणी के साथ सहज ताराचन्द जैन अग्रवाल सामग्री पठनीय ही नहीं, प्रशंसनीय भी है। पचेवर (टोंक)-304509 राजस्थान ग्राह्य बना दिया गया है। 'सफेद शेर की पत्रिका का आकार, रूपसज्जा, संयोजन नस्ल' व्यंग्यकथा हृदय को गुदगुदाने के साथ कलात्मक तथा आकर्षक है। विशेष समाचार आपके सम्पादकत्व में प्रकाशित मन को झकझोरती भी है। श्री अशोक शर्मा में 'गोरक्षा का स्तुत्य प्रयास' पढ़कर प्रेरणा 'जिनभाषित' पत्रिका का मई माह का अंक द्वारा रचित गीत के सभी पद हदय को छू मिली। वास्तव में व्यावहारिक कार्य ही प्राप्त हुआ। इस अंक का महान आकर्षण श्री लेने वाले हैं। आपको कोटिशः बधाई। जैनधर्म की अहिंसा के प्रचार का सही प्रयास गोम्मट स्वामी के अद्वितीय मनोहारी जिन अरविन्द फुसकेले, राजस्व निरीक्षक, है। सम्पादकीय में श्रुतपंचमी पर सारगर्भित | बिम्ब का छाया प्रतिबिम्ब है जो अनायास ही ई.डब्ल्यू.एस. 541, कोटरा, भोपाल-462003 विचार मिले। 'ज्ञान की अनुभूति' से | मुग्ध कर देता है। उस महान् कलाकार की लोकदृष्टि आचार्य श्री विद्यासागर जी एक उत्कृष्ट संत तो हैं ही, एक कुशल कवि, वक्ता और विचारक भी हैं। काव्यरुचि और साहित्यानुराग उन्हें विरासत में मिला है। उनके दीक्षागुरु स्वयं आचार्य ज्ञानसागर जी मेधावी कवि थे, जिन्होंने संस्कृत साहित्य को अनेक महाकाव्यों के द्वारा समृद्ध किया। आचार्यश्री के कंठ में भी अपने गुरु के समान ही सरस्वती का निवास है। इसे गुरु का वरदान कहें या पूर्व पुण्योदय कि जिससे उनके बोलने, गुनगुनाने तथा यहाँ तक कि चलने उठने-बैठने में भी एक लय अनस्यूत है। प्राचार्य नरेन्द्रप्रकाश जैन, फीरोजाबाद (उ.प्र.) 6 जून 2001 जिनभाषित Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय युगस्रष्टा महर्षि का दैगम्बरी-दीक्षा-दिवस आषाढ शुक्ला पञ्चमी ने बड़े पुण्य । एलकों और क्षुल्लकों की संख्या दो सौ को | करता है, हृदय को खींचता है, मस्तक को कमाये हैं। उसे परमपूज्य आचार्य श्री पार कर गई है, जो सभी बालब्रह्मचारी, दृढ़ | झुका देता है, रोम-रोम को आह्लादित कर देता वद्यासागर जी का मुनि-दीक्षादिवस देखने संयमी, कठोरतपस्वी और अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी को मिला है। विक्रम संवत् 2025 (सन् किन्तु यह न समझ पाया कि वह 1968) में इसी दिन संस्कृत के महान् कवि आचार्यश्री ने धर्म को जीवन्त बनाया लोकोत्तर वैभव है क्या, जिसके कारण और यशस्वी दिगम्बराचार्य परमपूज्य ज्ञान- है। उनके द्वारा जैन शासन की जो प्रभावना आचार्य श्री विद्यासागर जी के सामने बड़ेसागर जी महाराज ने उन्हें अजमेर (राज.) हो रही है वह अभूतपूर्व है। आचार्य श्री के तप बड़े धनपति अपने को दरिद्र महसूस करने में मुनिपद का महामहिम उपहार प्रदान किया एवं साधुत्व जितने प्रखर हैं उतना ही गम्भीर लगते हैं, दिग्गज पण्डित अपने को पहली था। इस पद को जितनी पूज्यता, श्रद्धास्पदता है उनका आगमज्ञान। उन्होंने अपने स्वर्गीय कक्षा में बैठा हुआ पाते हैं, सत्ताधीश उनके और प्रामाणिकता आचार्य श्री विद्यासागर जी | गुरु आचार्य श्री ज्ञानसागर जी से संस्कृत, चरणों की सेवा के लिए उतावले हो जाते हैं? ने इस युग में प्रदान की है उसकी चर्चा एक | प्राकृत, न्याय, व्याकरण, साहित्य, आगम मैंने खूब ऊहापोह किया, चिन्तनमनन किया, किंवदन्ती की तरह भारतीय इतिहास में युगों | तथा अध्यात्म का अगाध वैदुष्य प्राप्त किया छानबीन की, जाँच पड़ताल की। एक ही उत्तर तक होती रहेगी। है और जब से उन्हें अपने गुरु का आशीर्वाद पाया कि निर्विकारता या वीतरागता ही वह बाल, युवा, वृद्ध सभी को उनके | मिला है तभी से निरन्तर स्वाध्याय में लीन लोकोत्तर वैभव है जिसे पाकर आत्मा अभूतपूर्व व्यक्तित्व ने सम्मोहित किया है। रहते हैं। वे लगभग सभी महत्त्वपूर्ण सैद्धान्तिक लोकोत्तर बन जाती है, अद्भुत बन जाती है। उनकी निर्विकार, आत्मप्रभुत्वमयी, अपराजेय | एवं आध्यात्मिक ग्रन्थों का गहन अनुशीलन निर्विकारता से ही आत्मा में औदात्त्य आता छबि का प्रभाव ऐसा आकर्षक है कि जो भी | कर चुके हैं। उनका अध्ययन पाण्डित्यप्रधान है, प्रभुता आती है, दैन्यभाव और पारतन्त्र्य उसकी झलक पाता है, उसके अन्तस् में धर्म | नहीं, अपितु गवेषणात्मक है। एक शोधार्थी का विनाश होता है। यह औदात्त्य यह के प्रति श्रद्धा उमड़ पड़ती है, आत्मा के | की सूक्ष्म दृष्टि से वे स्वाध्याय करते हैं और आत्मप्रभुता, यह अदैन्य, यह आत्मस्वातन्त्र्य अस्तित्व में विश्वास पैदा हो जाता है, मोक्ष | आगम के अनावृत, अनुन्मीलित तथ्यों को ही आत्मा को लोकोत्तर बनाता है, अद्भुत मार्ग सारभूत प्रतीत होने लगता है, अनेक | प्रकाशित करते हैं। उनकी प्रवचन शैली बड़ी बनाता है, आकर्षक बनाता है, आह्लादक लोगों क मन की विषयवासनाएँ विगलित हो | रोचक है। बनाता है। यह लोकोत्तर सम्पदा ही लोगों के जाती हैं और वैराग्य की गंगा प्रवाहित होने निर्विकारताप्रसूत आकर्षण मस्तक को श्रद्धा से अवनत कर देती हैलगती है। 'एयत्तणिच्छयगओ समओ सव्वत्थ सुंदरो क्या यह अद्भुत नहीं है कि इस पहले मुझे साधु-संन्यासियों में आस्था वैज्ञानिक चमत्कारों के युग में जब चारों तरफ नहीं थी। सोचता था कि ये सांसारिक वैभव मोहरागद्वेषविकार आत्मा में क्षुद्रता, को पाने में असफल रहने के कारण साधु बन भोगविलास का वातावरण उत्कर्ष पर हो, तुच्छता, दीनता, दासता, अश्लीलता, भोग की एक से एक मादक उत्तेजक और गये हैं। इन का ज्ञान और प्रवचन खोखला बीभत्सता, नृशंसता और लम्पटता का इन्द्रियाह्लादक सामग्री आँखों के सामने आ है। ऊपर से संसार के निस्सार होने की बात संचार करते हैं। वे क्षुद्र इच्छाओं को जन्म देते रही हो. इन्द्रियसुख को ही सारभूत सिद्ध करने करते हैं, किन्तु भीतर इन्हें संसार ही सारभूत हैं, जिन्हें पूर्ण करने के लिए मनुष्य नीच से वाली विचारधारा चारों तरफ प्रभावी हो, दिखाई देता है। ये लोकैषणा के मारे हैं, ख्याति नीच प्रवृत्ति करने पर उतर आता है, विषयभोग करते-करते जराग्रस्त हो जाने और पूजा के भूखे हैं। किसी-किसी में दिखाई आत्मस्वातन्त्र्य, आत्मप्रभुता, आत्मसम्मान वाले तत्त्वज्ञानी भी जब विषयवासनाओं से देनेवाला शिथिलाचार ऐसा सोचने पर मजबूर खोने के लिए राजी हो जाता है। दीनवृत्ति, मुक्ति प्राप्त न कर पा रहे हों, तब अपार करता था। किन्तु जिस दिन विद्यासागर जी दासवृत्ति स्वीकार करने के लिए तैयार हो वैभव के बीच में जनमे, आधुनिक वातावरण के प्रथम दर्शन किये, मेरी धारणा पर जबर्दस्त जाता है। भर्तृहरि ने कहा है- 'आशाया ये में पले, उच्चतम आधुनिक शिक्षाप्राप्त, कुठाराघात हुआ। सब कुछ उलट-पलट गया। दासास्ते दासा सर्वलोकस्य' जो इच्छाओं के यौवन के देहली पर पहुँचे युवागण आचार्यश्री प्रतीत हुआ कि जो मैं सोचता था वह सर्वथा दास होते हैं वे सारी दुनिया के दास बन जाते के दर्शन पाते ही वैराग्य से भर जाते हैं और सत्य नहीं था। साधुओं के पास तो ऐसा वैभव हैं। और दासता की वृत्ति, दीनता की वृत्ति सहज उपलब्ध विषयभोगों का परित्याग कर होता है, जिसके सामने संसार का वैभव कुछ अर्थात् आत्मस्वातन्त्र्य और आत्मप्रभुता की मोक्षमार्ग ग्रहण कर लेते हैं। इस समय भी मूल्य नहीं रखता। वह तृण के समान तुच्छ शून्यता वे वृत्तियाँ हैं जो सभी को अत्यन्त आचार्यश्री के संघ में मुनियों, आर्यिकाओं, होता है। साधुओं का वैभव लोकोत्तर होता है। । बीमत्स और लज्जास्पद लगती हैं। अतः वह दिखाई नहीं देता, लेकिन मन को चकित -जून 2001 जिनभाषित 7 लोए।' Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनसे सभी नफरत करते हैं। उनके हावभाव और मुद्राएँ अतीव औदात्त्य, | पीड़ादायी रोग हो जाने पर भी धैर्यपूर्वक उसे जिस आत्मा के मोहरागद्वेषविकार लालित्य, माधुर्य और गाम्भीर्य से मंडित है। | सहने की साधना की जा सकती है। विसर्जित हो जाते हैं उसकी क्षुद्र इच्छाएँ उनके हर परिष्पन्द में साहित्य है, काव्यात्मकता आचार्यश्री की इस आदर्श दिगम्बरचर्या विगलित हो जाती हैं। उसमें दीनवृत्ति और है संगीत है मंगल है। उनकी छबि में भावी | ने जैनेतर साधुओं को भी अन्तस्तल तक दासवृत्ति का संचार नहीं होता। उसमें तीर्थकरत्व अँगड़ाइयाँ लेता नजर आता है। प्रभावित किया है और उनके मन में जैनधर्म आत्मस्वातन्त्र्य का सूर्य उदित होता है। उसमें इसीलिए लोगों को उनके दर्शन प्रिय हैं,उनकी के प्रति आदर जगाया है। अमरकंटक में आत्मप्रभुता का मेरु विजृम्भित होता है। वह छबि सुखद लगती है, उनका सान्निध्य सनातनधर्मी साधुओं के आधुनिक सुविधासम्पन्न अलौकिक सम्पदा का स्वामी बन जाता है। अहोभाग्य की अनुभूति देता है। आचार्यश्री विशाल आश्रम हैं। उनमें रहने वाले साधु वेदभर्तृहरि अपनी पूर्वोक्त सूक्ति पूर्ण करते हुए दर्शनार्थियों से कुछ बोले या न बोलें, उनकी उपनिषद् गीता-रामायण, आदि में निष्णात हैं। कहते हैं - 'आशा येषां दासी तेषां दासायते तरफ देखें या न देखें, वे उन्हें घंटों एकटक धर्मप्रचार के लिए विदेश आते जाते रहते हैं। लोक: ' जो इच्छाओं को दास बना लेता है निहारते रहना चाहते हैं। फिर यदि उनकी तरफ जब आचार्यश्री का प्रथम विहार अमरकंटक सारी दुनिया उसकी दास बन जाती है। एक आचार्यश्री की आँखें उठ गई तो इतना की ओर हुआ और सनातनधर्मी साधुओं को हिन्दी-कवि ने भी कहा हैआह्लाद होता है जैसे देह को पुण्यों ने छू लिया पता चला कि विद्यासागर नाम के एक चाह गई चिन्ता मिटी मनवा बेपरवाह। । हो। और यदि उनसे कुछ बात कर ली तो दिगम्बराचार्य दिगम्बर साधुओं के विशाल जिनको कछु न चाहिए वे ही शाहंशाह।। लगता है जैसे अमृत की धाराओं में नहा लिया संघ के साथ कड़कती ठंड में अमरकंटक आ निर्विकार हो जाने से, इच्छाओं को हो। और कहीं उनकी तरफ हलकी सी मुस्कान रहे हैं तो वे उन्हें देखने के लिए पहुंचे और दास बना लेने से जो आत्मप्रभुता प्रकट होती बिखेर दी, तब तो कहना ही क्या है, वे अमरकंटक की जिस तीक्ष्ण ठंड में ये साधु है वही वह वैशिष्ट्य है जो आत्मा को उदात्त मालामाल हो जाते हैं। शरीर को कम्बलों से ढंके हुए रहते थे उसमें और लोकोत्तर बना देता है। क्योंकि दुनिया की सम्पूर्ण संघ को सर्वथा नग्न अवस्था में आगमसम्मत कठोरचर्या सारी आत्माएँ अनादिकाल से इस वैशिष्ट्य देखकर चकित रह गये। दिगम्बर साधुओं के से वंचित हैं और उसे पाना उन्हें अत्यंत दुष्कर ___ आचार्यश्री के प्रति दुर्निवार आकर्षण तप को देखकर उनके मन में सौहार्द उमड प्रतीत होता है। इसलिए जो इसे पा लेता है और भक्ति का दूसरा कारण है उनकी आया। आचार्यश्री को निकट से देखने के लिए वह अद्भुत लगने लगता है। लोग उसे अपने आगमसम्मत कठोरचर्या। वर्तमान में तो यह वे उनके पास आने लगे। धर्म, दर्शन, संयम, से बहुत ऊपर उठा हुआ महसूस करने लगते आकर्षण का महत्त्वपूर्ण केन्द्र इसलिए बन गई तप आदि पर गूढ चर्चाएँ करते थे और हर है। वे अपनी तुलना उसके चरणों की धूल से है कि चारों तरफ दिखलाई देने वाले बार प्रसन्न होकर जाते थे। किन्तु उनके मन भी नहीं कर पाते। इसीलिए वह आकर्षक शिथिलाचार ने जिनधर्मानुरागियों को बड़ी में एक शंका थी कि कहीं ये दिगम्बर मुनि लगता है, प्रिय लगता है, उसके दर्शन की निराशा और वितृष्णा से भर दिया है। ऐसे ठंड से बचने के लिए रात में कम्बल, रजाई वितृष्णाजनक वातावरण में आचार्यश्री का लालसा उत्पन्न होती है। आदि तो नहीं ओढ़ लेते? इस बात की परीक्षा कठोर संयम-तप, मूलगुणों का निरतिचारपालन यह निर्विकारता, निःस्पृहता या के लिए कछ साध एक दिन दस-ग्यारह बजे आत्मप्रभुता ही वह वैभव है जो आचार्य श्री लोगों को बड़ी राहत प्रदान करता है। वे रात को वसतिका में आये और जब उन्होंने विद्यासागर जी के पास है। इस लोकोत्तर आश्वस्त हो जाते हैं कि जिनतीर्थ को पतन देखा कि आचार्यश्री नग्न तख्त पर बिलकुल वैभव के ही कारण बड़े-बड़े करोड़पति उनके से बचाने के लिए एक मेरु उसे अपनी बाहों नग्न सो रहे हैं, वस्त्र का नामोनिशाँ भी वहाँ सामने अपने को भिखारी सा महसूस करने में थामे खड़ा हुआ है। उन्हें इस बात का एक नहीं है, केवल वे ही नहीं, उनके समस्त शिष्य लगते हैं, बड़े-बड़े विद्वान बालकों के समान दृष्टांत सामने मौजूद दिखाई देता है कि भी उसी अवस्था में सोये हुए हैं तब उनका तुतलाने लगते हैं और मुख्यमंत्री-प्रधानमंत्री जिनप्रणीत मोक्षमार्ग का यथावत् आचरण हृदय आचार्यश्री और उनके संघ की निर्व्याज उनका कोई आदेश और आशीर्वाद पाने के आज भी संभव है। आज भी कुमार रहते हुए तपश्चर्या से और भी अभिभूत हो गया। लिए नतमस्तक हो जाते हैं। भरपूर तारुण्य में दुर्निवार काम को जीतना आचार्यश्री के प्रति उनका मानस बहुत ही आचार्य श्री विद्यासागर जी में जो मुमकिन है। नग्न रहकर मन और तन को विनयशील था। मैंने स्वयं अपनी आँखों से आकर्षण है, उनके दर्शन में जो आह्लादकता निर्विकार रखने की साधना आज भी की जा देखा है। गतवर्ष अक्टूबर माह में मैं है, उन्हें देखकर लोगों में जो अपार श्रद्धा और सकती है। अंगों को ठिठुरा देने वाली ठंड में अमरकंटक में था। रात्रि को लगभग सात बजे भक्ति उमड़ पड़ती है उसका यही रहस्य है। बिना रजाई ओढ़े, बिना अग्नि या हीटर आचार्यश्री के चरणों में बैठा था। उसी समय दुर्लभ निर्विकारता ने उनके योगों को, जलाये नग्न तख्त पर नग्न शरीर सोकर तीन-चार वृद्ध एवं युवा सनातनधर्मी साधु मनवचनकाय की प्रवृत्तियों को सरल, स्वच्छ आवश्यक निद्रा ली जा सकती है। इसी प्रकार आये और 'नमो दिगम्बराय' कहकर नीचे और रमणीय बना दिया है। उनके चलने का देह को झुलसाने वाली गर्मी में पंखा-कूलर बिछी चटाई पर बैठ गये। बड़े ही सौमनस्य ढंग, उनके बोलने की शैली, उनके देखने आदि के बिना दुपहरियाँ और रात्रियाँ गुजारी से दार्शनिक चर्चाएँ हुईं। पश्चात् जब वे जाने और सुनने का तरीका, उनके हसने और जा सकती हैं। गर्मी के मौसम में भी दिन में लगे तब पुनः मस्तक झुकाकर उन्होंने 'नमो मुस्कराने का अंदाज, उनके प्रवचन की कला, केवल एक बार आहार और जल लेकर तथा दिगम्बराय' कहकर विनय प्रदर्शित की। मैंने बिना नहाये रहा जा सकता है। अत्यन्त ४ जून 2001 जिनभाषित Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभव किया कि आचार्यश्री की जिनागमसम्मत | उनके महावरे मधुर व्यंग्य और हास्य से या आक्रोश की छाया नहीं रह सकती। उसका निव्याज दिगम्बरचया जनतरा का भा आकृष्ट | परिपूर्ण होते हैं जिससे श्रोता आनन्द का मुख-मंडल सदा मधुर मुस्कान से ही करती है। अनुभव करते हुए उनके उपदेश के रहस्य को अभिमंडित रह सकता है। कुछ साधुओं के चामत्कारिक प्रयोगों से विरक्ति | हसते-हसते ग्रहण कर लेते हैं। आगम में इसे चेहरे देखकर तो डर लगता है, उनके पास आचार्यश्री चामत्कारिक प्रयोगों में रुचि वक्ता का एक महत्त्वपूर्ण गुण माना गया है। | जाने की इच्छा नहीं होती। वे मुँह को ऐसा बनाकर बैठते हैं जैसे किसी का मातम मना एक बार व्यक्तिगत चर्चा में किसी ने कहा नहीं रखते। जहाँ कतिपय आधुनिक जैनसाधुओं कि आचार्य जयसेन ने तो शुभोपयोग को रहे हों अथवा मुनिचर्या उनके लिए एक बोझ में मन्त्रतन्त्र के द्वारा मनोकामनाएँ पूर्ण करने परम्परया मोक्ष का हेतु बतलाया है, किन्तु बन गई हो या वे जीवन में विकट समस्याओं का प्रलोभन देकर भीड़ जोड़ने की प्रवृत्ति बढ़ रही है, वहाँ आचार्यश्री इसे मुनिधर्म के सर्वथा अमृतचन्द्र ने नहीं बतलाया। आचार्यश्री का सामना कर रहे हों। वे सोचते हैं कि मुख विरुद्ध बतलाते हैं और इसका सख्ती से सुहासपूर्वक बोले- 'वे जनता पार्टी और पर प्रसन्नता रहना सराग होने का लक्षण है। निषेध करते हैं। उनका कहना है कि सांसारिक कांग्रेस के समान परस्पर विरोधी दलों के इसलिए वे मुख को मुरझाया हुआ रखते हैं, अनुकूलताओं और प्रतिकूलताओं के लिए सदस्य थोड़े ही हैं जो एक-दूसरे के विरुद्ध उदास बनाकर रखते हैं, ताकि वीतरागता या अपने ही शुभाशुभ भावों से अर्जित कर्म बात करेंगे। आचार्य अमृतचन्द्र ने भी उदासीनता झलके। किन्तु यह बिलकुल उल्टा उत्तरदायी हैं। अतः प्रतिकूलताओं का विनाश शुभोपयोग को परम्परया मोक्ष का हेतु कहा है। इससे तो यही सूचित होता है कि अन्तस् करने के लिए शुभ और शुद्ध भावों का पौरुष में वीतरागता या उदासीनता का अभाव है। एक बार मैंने प्रसंगवश आचार्यश्री से | इसी कारण मन को आत्मानंद की अनुभूति करना चाहिए। वे अपने साथ चामत्कारिक अफवाहें कहा कि भर्तृहरि ने ठीक ही कहा है - 'सर्वे | न होकर पीड़ा की अनुभूति हो रही है, उसी जोड़े जाने को भी पसन्द नहीं करते। प्रायः गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ते' (धन होने पर आदमी | के कारण मुख म्लान, उदास और अप्रसन्न में सभी गुण दिखाई देने लगते हैं)। आचार्यश्री है। जिसके अन्तस् में वीतरागता या अतिश्रद्धालु भक्त अपने गुरु की महिमा बढ़ाने के लिए उनके साथ चामत्कारिक तुरन्त बोले उमास्वामी जी ने भी कहा है - उदासीनता होती है, वही तो आत्मानन्द की अफवाहें जोड़ देते हैं। लगभग बीस साल 'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः।' इस सूत्र के शब्दों अनुभूति करता है और उसी के मुख पर पहले की बात है। नैनागिरि के चातुमसि के से आचार्यश्री यह अर्थ व्यक्त करना चाहते प्रसन्नता की झलक रह सकती है। समय जंगल के बीच स्थित मन्दिर में थे कि 'द्रव्य अर्थात् धन का आश्रय पाकर एक मनोवैज्ञानिक ने कहा हैआचार्यश्री का प्रवचन होता था। वहाँ दो सर्प गुणहीन भी गुणवान बन जाते हैं।' यद्यपि यह 'Smiling is the first fundamental एक बिल में बैठे हुए दिखाई देते थे। यह सूत्र का मुख्य अर्थ नहीं है, किन्तु आचार्यश्री principle of human behaviour' देखकर लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि ने शब्दों की अनेकार्थकता के आधार पर अर्थात् मुस्कराना मानवीय आचरण का पहला इन सर्पो का आचार्यश्री से कोई पूर्वजन्म का इससे एक लौकिक सत्य की भी व्यंजना कर मौलिक सिद्धान्त है। तब साधु का तो यह और सम्बन्ध है। वे भी उनका प्रवचन सुनने आते डाली। यह उनकी तीक्ष्ण साहित्यिक प्रतिभा | भी प्रमुख गुण बन जाता है। क्योंकि मुस्कान हैं। यह बात मेरे गले नहीं उतरी। मैंने सोचा पर आश्रित सुहासशीलता का उदाहरण है। अभय, आश्वासन (सान्त्वना), वात्सल्य, यह बात आचार्यश्री से ही स्पष्ट कर लेनी स्मित मुखमुद्रा क्षमा और मार्दव की अभिव्यक्ति का चाहिए। एक दिन मैंने उनसे विनयपूर्वक पूछा सर्वाधिक शक्तिशाली मनोवैज्ञानिक साधन मुस्कानयुक्त मुखमुद्रा आचार्यश्री का - ‘महाराज जी, लोग कहते हैं कि आप जहाँ है। यह अहिंसा की सबसे सरल और प्राथमिक एक अन्य आकर्षक और आह्लादक गुण है। प्रवचन करते हैं वहाँ दो सर्प भी प्रतिदिन आते अभिव्यक्ति है। इसलिए आचार्यश्री के मुखपर ओशो रजनीश जो मूलतः जैन थे, उनकी हैं, क्या यह सच है? महाराज जी मुस्कुराये प्रकट मुस्कान उनकी अन्तरंग वीतरागता कुछ बातें युक्तिसंगत भी होती थीं। उन्होंने और बोले- 'मैं जहाँ रहता हूँ वहाँ सर्प नहीं और तज्जन्य आत्मानन्दानुभूति का स्वाभाविक | एक जगह लिखा है कि तीर्थंकर प्रतिमाओं की आते, जहाँ सर्प रहते हैं वहाँ मैं पहुँच जाता परिणाम है। उसमें सांसारिक दुःखदर्दो से सबसे बड़ी विशेषता है उनकी प्रसन्न मुद्रा, हूँ। कितनी बेलाग बात थी। कोई दूसरा साधु पीड़ित दर्शनार्थियों के पीड़ाहरण की अद्भुत | क्योंकि जिनके भीतर आत्मिक आनंद छलक होता तो लोगों के द्वारा फैलायी इस अफवाह शक्ति है। रहा हो उनके मुख पर विषाद, शोक, उदासी का अपना प्रभाव बढ़ाने में उपयोग कर या खिन्नता की छाया रह ही नहीं सकती। जिनागम का अवर्णवाद असह्य सकता था। किन्तु आचार्यश्री की वीतरागता आत्मिक आनंद का आवेग मुख को प्रसन्न आचार्यश्री को जिनागम का अवर्णवाद को ऐसा करना गवारा नहीं हुआ। बना देगा। इस आत्मिक आनंद की अभिव्यक्ति असह्य है। एक श्वेताम्बर विद्वान ने 'जैन धर्म सुहासशीलता ही तीर्थकर प्रतिमाओं की प्रसन्न मुखमुद्रा का का यापनीय सम्प्रदाय' नामक ग्रन्थ हाल में ____ आचार्यश्री की एक बहुत बड़ी विशेषता रहस्य है। ओशो रजनीश की यह बात मुझे ही लिखा है। उसमें उक्त विद्वान् ने है सुहासशीलता। उनके वार्तालाप और ग्राह्य प्रतीत हुई। मैं भी मानता हूँ कि जो साधु षट्खण्डागम, कसायपाहुड, मूलाचार, भगवती प्रवचन में सुहास का प्रचुर पुट रहता है। उनकी कठोर तप करते हुए, परीषहों को सहते हुए आराधना, आदि सभी प्रमुख दिगम्बर ग्रन्थों उपमाएँ, उनके दृष्टान्त, उनकी लोकोक्तियाँ, भी आत्मानन्द की अनुभूति में डूबा हुआ है | को यापनीय आचार्यों द्वारा रचित तथा उसके मुख पर कभी पीड़ा, उदासी, चिन्ता | दिगम्बर आम्नाय को आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा - जून 2001 जिनभाषित " Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शताब्दी ई. में प्रवर्तित सिद्ध करने की थी। इस अवसर पर मैंने आचार्यश्री के चेष्टा की है। इससे आचार्यश्री के हृदय को अनिर्वचनीय वात्सल्य और मृदुता का जो अत्यंत पीड़ा पहुँची। उनकी इच्छा हुई कि कोई आस्वादन किया वह मेरी वर्तमान मानवपर्याय दिगम्बर विद्वान् इसका सटीक जवाब दे। यह की दुर्लभतम उपलब्धि है। कार्य उन्होंने मुझे सौंपा। लगभग उसी समय जैन संस्कृति की प्रभावना पूज्य उपाध्याय ज्ञानसागर जी महाराज और अखिल भारतवर्षीय दि. जैन शास्त्रिपरिषद् ने इसके अतिरिक्त 'आचार्या जिनशासभी मुझसे यह कार्य करने का आग्रह किया नोन्नतिकराः' इस आचार्यधर्म का पालन था। आचार्यश्री का आदेश पाकर मैं इस कार्य करने में भी आचार्यश्री विद्यासागर जी निरन्तर में जुट गया और लगभग तीनवर्ष के निरन्तर तत्पर रहते हैं। उन्होंने इस विषय में अत्यन्त परिश्रम से 700 पृष्ठ लिख डाले। मैंने मनोवैज्ञानिक या व्यावहारिक उपाय का आचार्यश्री से प्रकाशन के पूर्व पाण्डुलिपि अवलम्बन किया है। उनका मत है कि जैनधर्म सुनने का अनुरोध किया। आचार्यश्री ने सहर्ष की प्रभावना तभी हो सकती है जब जैन धर्म अनुमति दे दी और गतवर्ष अक्टूबर माह में, के महान सिद्धान्त अहिंसा और दया का मैं अपनी पाण्डुलिपि लेकर अमरकंटक पहुँचा। आस्वादन उन्हें भी करने को मिले जो जैन वहाँ आचार्यश्री ने षडावश्यकों के अतिरिक्त नहीं हैं। इसके लिए उन्होंने सागर (म.प्र.) में अन्य कार्य छोड़कर प्रतिदिन चार-चार घंटे भाग्योदय तीर्थ जैसा विशाल चिकित्सालय समय देकर पन्द्रह दिन तक मेरे ग्रन्थ का पूज्य खोलने की प्रेरणा श्रावकों को दी जिसमें जैनों मुनिधी अभयसागर जी के साथ श्रवण किया के साथ जैनेतरों की भी चिकित्सा अच्छी तरह और अत्यन्त संतुष्ट हुए। अनेक जगह की जाती है। गोशालाएँ निर्मितकर और मांस संशोधन और परिवर्धन भी कराये जिससे निर्यात-प्रतिबन्ध का सत्याग्रह कर अहिंसाधर्मके ग्रन्थ निर्दोष और परिपूर्ण बन गया। इसके पालन की प्रेरणा देना भी जैनधर्म की प्रभावना पश्चात् फरवरी 2001 के कुण्डलपुर महोत्सव के लिए आचार्यश्री द्वारा फूंका गया सामयिक में अत्यंत व्यस्त रहते हुए भी एक सप्ताह मन्त्र है। तक दो-दो घंटे समय देकर ग्रन्थ के नये उनके आशीर्वाद से विद्यासागर प्रबन्ध अध्याय सुनें। इस वाचना में मुनि श्री विज्ञान संस्थान भोपाल, प्रशासनिक प्रशिक्षण प्रमाणसागर जी और अभयसागर जी भी संस्थान जबलपुर जैसे आधुनिक शिक्षा बैठते थे। इससे ज्ञात होता है कि आचार्यश्री संस्थानों की शुरुआत भी हुई है जो जैनों और का हृदय जिनागम के अवर्णवाद का निराकरण जैनेतरों को जैनत्व के संस्कारों के साथ करने के लिए कितना चिन्तित है। घंटों बैठकर आधुनिक शिक्षा प्रदान कर रहे हैं। आचार्यश्री ग्रन्थ सुनने से जो मानसिक और शारीरिक की प्रेरणा से जैनविश्वकोश का निर्माण कार्य थकावट होती थी उसकी उन्हें कोई परवाह नहीं | भी प्रगति पर है। यह देश-विदेश में रहने वाले जैन बालकों और युवकों को दिगम्बर जैनधर्म के सिद्धान्तों, जैन इतिहास, संस्कृति और कला से परिचित कराने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायेगा। अमरकंटक और नेमावर में विशाल मंदिरों का निर्माण जिन-शासनोन्नति का ही एक अंग है। सैकड़ों वर्षों के बाद हमारी पीढ़ियाँ जब देखेंगी तो उनकी छाती फूल उठेगी कि इक्कीसवीं सदी में भी जैनधर्म बहुत उन्नति पर था, जैसे हम आज देश के कोने-कोने में स्थित प्राचीन जैनमन्दिरों और गुफाओं को देखकर हर्ष से फूले नहीं समाते। इसी श्रृंखला का अंग कुण्डलपुर के बड़े बाबा का प्रस्तावित नया मंदिर भी है, जो पन्द्रह सौ वर्ष पुरानी आदिनाथ की अतिशयकारी प्रतिमा को भूकम्पजन्य क्षति से बचाने के लिए आवश्यक है। इन सब गुणों ने आचार्यश्री के व्यक्तित्व को लोकोत्तर आकर्षण से मण्डित कर दिया है, किन्तु इन सब में प्रधान है निर्विकारता या वीतरागता। इसके बिना शेष गुण अनाकर्षक ही रहते। इन असाधारण गुणों से आचार्यश्री ने दिगम्बर जैन संस्कृति का आगमसम्मत शुद्ध स्वरूप प्रदर्शित किया है और उसके बहुमुखी प्रचार प्रसार में चतुर्विध संघ को प्रवर्तित कर एक नये युग की सृष्टि की है। इस युगस्रष्टा महर्षि के दैगम्बरी-दीक्षा दिवस का हम सब अभिनन्दन करते हैं, क्योंकि यह हमारे लिये मंगल संदेश का वाहक और प्रेरणा का स्रोत है। रतनचन्द्र जैन किं मरणं मूर्खत्वं किं चानयं यदवसरे दत्तम्। काहर्निशमनुचिन्त्या संसारासारता न च प्रमदा। आमरणात्विं शल्यं प्रच्छन्नं यत्कृतमकार्यम्।। का प्रेयसी विधेया करुणादाक्षिण्यमपि मैत्री।। मरण क्या है? मूर्खता। अमूल्य क्या है? मौके पर दिया गया रात-दिन किसका चिन्तन करना चाहिए? संसार की असारता दान। मृत्युपर्यन्त कौन सी चीज शल्य के समान चुभती रहती है? | का,न कि प्रेयसी का। प्रियतमा किसे बनाना चाहिए? करुणा, उदारता छिपकर किया गया पाप। और मित्रता को। कुत्र विधेयो यत्नो विद्याभ्यासे सदौषधेर्दाने। कण्ठगतैरप्यसुभिः कस्यात्मा नो समर्प्यते जातु। अवधीरणा क्व कार्या खलपरयोषित्परधनेषु।। मूर्खस्य विषादस्य च गर्वस्य तथा कृतघ्नस्य।। प्रयत्न किस चीज के लिये करना चाहिए? विद्याभ्यास और मृत्यु की नौबत आ जाने पर भी किसकी अधीनता स्वीकार अच्छी औषधि का दान करने के लिए। अवहेलना किसकी करनी | नहीं करनी चाहिए? मूर्ख की, विषाद की, अभिमान की और कृतघ्न चाहिए? खल, परस्त्री और परधन की। की। - 10 जून 2001 जिनभाषित Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मान्वेषी विद्याधर की दैगम्बरी दीक्षा .मुनि श्री क्षमासागर आचार्य ज्ञानसागर जी स्वरूप में निरन्तर सजग 'आत्मान्वेषी' एक कथा है, एक उपन्यास है, आचार्य श्री महाराज खूब सधे हुए साधक और सावधान गुरु को पाकर थे। उन्होंने अपना सारा जीवन विद्यासागर जी की मातृश्री के मुख से आत्मकथात्मक शैली में तुम्हारा जीवन धन्य हो गया। जैनागम के गहन अध्ययन, कहलवाया गया, मुनि श्री क्षमासागर जी के भीतर बैठे रससिद्ध, साँझ के समय तुम चिन्तन और मनन में ही कविहृदय, भावुक शब्द-शिल्पी के द्वारा। कथनशैली भावुकता से गुरु महाराज की सेवा में लगे बिताया। ब्रह्मचारी, विद्वान, | इतनी भीगी है कि लगता है कथाकार का हृदय ही पिघल कर | थे। तभी अध्ययन की चर्चा भूरामल के नाम से विभिन्न | शब्दधाराओं के रूप में बह गया है। चली। महाराज बोले- 'पढ़ आचार्यसंघों में वे साधुजनों आचार्य श्री विद्यासागर की मंगल अवतारकथा और लोकोत्तर लेना, तुम भी पढ़ लेना। को स्वाध्याय भी कराते रहे। प्रवृत्तियों का ऐसा रससिक्त मर्मस्पर्शी चित्रण साहित्य सर्जना की अभी तक पढ़ने वाले तुम्हारे मैंने सुना है कि उनके अद्भुत प्रतिभा का उद्घाटन करता है। आचार्यश्री की मुनिदीक्षा | जैसे कई ब्रह्मचारी मेरे पास पिता उन्हें बचपन में ही और भी आए हैं, लेकिन सब के प्रस्तुत हृदयद्रावक दृश्य इसी के अंश हैं। पढ़ते समय पाठकों के छोड़कर चल बसे थे। अध्य पढ़कर चले गए। रुका कोई यन का साधन न होने से वे | नेत्र आनन्दाश्रुप्लावित हुए बिना नहीं रहेंगे। भी नहीं।' तुम्हें लगा कि कहीं अपने बड़े भाई के साथ महाराज जी औरों की तरह 'गया' चले गए। एक जैन व्यवसायी के यहाँ । आत्मानुभूति में तत्पर है। तत्त्वज्ञ तो कोई भी | थोड़ा बहुत यूं ही पढ़ाकर मना न कर दें। काम करने लगे, पर मन तो ज्ञान के लिए | हो सकता है, पर वे तत्त्वद्रष्टा थे। वे शरीर तुम गहरे सोच में डूब गए। बड़ी प्यासा था। सो एक दिन वहाँ से चलकर | और आत्मा के पृथक्करण की साधना में मेहनत और लगन से तुम अध्ययन करने स्याद्वाद महाविद्यालय, बनारस पहुंच गए। तत्पर निःस्पृह साधक और सच्चे भेद- महाराज के चरणों में पहँचे थे। सो झट से दिन-रात ग्रंथों का अध्ययन करते-करते | विज्ञानी थे। अपना माथा महाराज जी के चरणों में रख स्वल्पकाल में ही न्याय, व्याकरण और | अपनी आत्मा को साधने में निरन्तर दिया और गद्गद कंठ से टूटी-फूटी हिन्दी में साहित्य के विद्वान बन गए। लगे रहने वाले वे अनोखे साधु थे। उन्होंने कहा कि महाराज जी, आपके चरणों में मेरे तब कौन जानता था कि बनारस की तनिक भी, कहीं, कुछ भी छुपाने की गुंजाइश लिए जगह बनी रहे। मैं आज से जीवन-पर्यन्त सड़कों पर अपनी पढ़ाई के लिए हर शाम घंटे नहीं रखी। जो जैसा था, उसे उसी रूप में वाहन-यान आदि सभी आवागमन के साधनों भर गमछे बेचकर चार पैसे कमानेवाला यह प्रकट कर दिया, इसलिये वे यथाजात नग्न का त्याग करता हूँ। जितना चलूँगा अब युवक संस्कृत-साहित्य का ही नहीं, वरन् दिगम्बर थे। मैं बड़ा हूँ या कोई छोटा है, इस आपकी आज्ञा से आपके पीछे-पीछे ही समूचे जैनागम का मर्मज्ञ हो जाएगा। तरह की ग्रंथि उनके मन में नहीं थी। उच्चता चलूँगा। अपनी कृपा बनाए रखिए। सचमुच, जिसका श्रम हर रात दीये में स्नेह और हीनता की ग्रंथियों से परे वे निर्ग्रन्थ थे। महाराज जी की आँखें विस्मय और हर्ष बनकर जला हो, उसे ज्ञान और वैराग्य का ग्रन्थ के हर गूढ़ रहस्य को, हर गुत्थी | से चमक उठीं। एक वृद्धा माँ की तरह स्नेह प्रकाश-स्तम्भ बनने से कोई रोक भी तो नहीं | को सहज ही सुलझा देना और अपने जीवन से भरकर उन्होंने तुम्हारे सिर पर हाथ रखा, सकता। प्रकाण्ड विद्वान होकर भी उन्होंने | को जीवन्त-ग्रन्थ बना लेना, यह उनकी खूब आशीर्वाद दिया और बोले- 'विद्याधर, आचार्य शिवसागर महाराज के श्री-चरणों में | निम्रन्थता की शान थी। अपने जीवन में उन्होंने बहुत देर से आए।' उनके वरदहस्त के स्पर्श समर्पित होकर मुनि-दीक्षा अंगीकार कर ली | जो भी लिखा वह अहिंसा, सत्य, अस्तेय, से अभिभूत होकर और प्रेमसनी वाणी सुनकर और एक दिन तुम्हें अपना शिष्य बनाकर अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य की रोशनाई से लिखा, | तुम्हारी आँखे भर आईं। हृदय का द्वार कृतार्थ कर दिया। उनकी अनेकों कृतियों के तब जो भी उनके समीप आया वह निम्रन्थ | खोलकर मानो ज्ञान-सूर्य तुम्हारे भीतर प्रविष्ट बीच तुम पहली जीवन्त कृति थे। होने के लिये आतुर हो उठा। हो गया। मैंने उनकी साधुता देखी है। वे उन मैंने देखा है कि संसार के मार्ग पर, महाराज के चरणों में बैठकर तुमने अर्थों में साधु थे, जिन अर्थों में कोई सचमुच जहां लोग निरन्तर विषय-सामग्री पाने दौड़ | विधिवत् अध्ययन प्रारंभ कर दिया। सतत साधु होता है। भेद-विज्ञानी होना साधुता की रहे हैं, वे अविचल खड़े हैं। और मोक्षमार्ग | चिन्तन-मनन और भक्ति-भाव में खोया कसौटी है। वे भेद-विज्ञानी थे। भेद-विज्ञानी पर, जहाँ कि लोगों के पैर आगे बढ़ नहीं पाते, तुम्हारा मन बाहर की दुनिया को भूलता चला का अर्थ शरीर और आत्मा के भेद का मात्र वे निरन्तर आगे बढ़ रहे हैं। अतीत की स्मृति गया। गहन समर्पण ने तुम्हारे भीतर अदृश्य जानकार होना नहीं है। सच्चा भेद-विज्ञानी वह | और अनागत की आकांक्षा जिन्हें पल भर भी जगत को देखने की दृष्टि पैदा कर दी। दृश्य है जो समस्त परिग्रह से मुक्त होकर | भ्रमित नहीं कर पाती, ऐसे अपने आत्म- जगत् के पीछे छिपे अदृश्य-द्रष्टा को देखना जून 2001 जिनभाषित 11 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही अब तुम्हारा ध्येय हो गया। इस बीच जो भी आया उसने तुम्हें निरन्तर ज्ञान की आराधना में लीन पाया। खूब सबेरे उठकर अपना पिछला पाठ याद करना, नहा धोकर भगवान के अभिषेक पूजन में लग जाना और वहाँ से आकर अत्यंत विनत भाव से नया पाठ पढ़ने के लिए महाराज के चरणों में बैठ जाना, यह रोज सुबह का क्रम था । महाराज के आहार हो जाने के बाद जो भी श्रावक तुम्हें आहार के लिए लिवाने आता था, तुम चुपचाप सिर झुकाए उसके साथ चले जाते थे। आहार के विषय में ज्यादा मीनमेख करना, बचपन से ही तुम्हारे स्वभाव में नहीं था । आहार के प्रति तुम्हारी यह निःस्पृहता ज्यादा दिन छिपी न रह सकी। महाराज को भी मालूम पड़ गया, सो एक दिन धीरे से पूछ लिया वि. विद्याधर ! साधना ठीक चल रही है? तुम सहज भाव से 'हाँ' कहकर चुप हो गए। महाराज के लिए इतना ही पर्याप्त था। वे समझ गए कि अब तुमने आत्म-विकास को अपना साध्य बना लिया है और साध्य की प्राप्ति में देह को सहायक साधन मानकर चल रहे हो । ज्ञान और साधना की यही सही शुरुआत है। आहार के उपरान्त आचार्य महाराज, मन को थकाने वाले काम करने का निषेध करते थे। कहते थे कि विद्याधर, आहार से निवृत्त होकर मन को सजग और शान्त रखना चाहिए, ताकि सामायिक उत्साहपूर्वक हो सके। सामायिक साधना की कसौटी है। सामायिक में एकाग्रता जितनी सधेगी, साधना का आनंद भी उतना ही अधिक होगा। साधना का यही आनन्द ज्ञान में निखार लाएगा। ज्ञान की आराधना, सामायिक की साधना के बिना अधूरी है। इस तरह गुरु कृपा से तुमने अक्षरअक्षर करके हिन्दी भाषा की पूरी वर्णमाला सीखी संस्कृत सीखी। प्राकृत की गाथाएँ 12 जून 2001 जिनभाषित दुहरायीं और निरन्तर सीखते चले गए। जब तुम बोलते-बोलते किसी कठिन शब्द के आ जाने पर चुप रह जाते थे तब महाराज कहते थे कि बोलो, विद्याधर बोलो। चुप क्यों हो गए? तुम महाराज के द्वारा कहे गए एक-एक शब्द का पुनः उच्चारण करने लगते थे। तुमने जो भी सीखा, जितना भी सीखा पूरी लगन, निष्ठा और उत्साह से सीखा। आत्म-हित और लोक-कल्याण की भावना से सीखा। तभी तो आज तुम संस्कृत के मर्मज्ञ और प्राकृत के ज्ञाता हो । हिन्दी भी खूब अच्छी जानते हो। कन्नड़ भाषा तो मातृभाषा के रूप में तुम्हें विरासत में मिली। तुम बहुभाषाविद् हो । मुझे लगता है कि इससे भी कहीं अधिक तुम आत्मविद् हो । कहा जाता है कि जो स्वरूप का निर्माण करती है वह कला है। एक कला वह है जो पाषाण में छिपे भगवान को प्रकट कर देती है। एक कला वह है जो शब्द में छिपे छन्द को मुक्त कर देती है। वीणा में सोए संगीत को जगाने वाली भी एक कला है, पर जगत् में सर्वश्रेष्ठ कला तो वह है जो आत्मा में सोये ब्रह्म को जगाती है। तुम ऐसे ही कलाविद् हो गए हो। मैंने सुना है, वर्षाऋतु में लोगों ने अपनी-अपनी छतरियाँ खोल ली और भीगने से बचने की कोशिश की, तब तुम अपने गुरु के वचनामृत से बाहर-भीतर सब ओर से भीगते चले गए। शीत ऋतु का संदेशा सुनने से पहले ही लोगों ने अपने कान बैंक लिए और मोटे लिहाफ में दुबक कर सो गए, लेकिन तुम आत्म-संदेश सुनने सारे आवरण हटाकर अपने गुरु के अत्यंत समीप आते गए। ग्रीष्म ऋतु की तप्त ऊर्मियों से व्याकुल होकर लोगों ने रास्ते पर चलने से इनकार कर दिया, लेकिन तुम तपस्तेज में स्वयं को तपाकर अपने गुरु के बताए मोक्षमार्ग पर चलने के लिए सहर्ष तैयार हो गए। उनकी चरण-शरण में बैठकर दिन-रात अन्तर्यात्रा में लग गए। ऋतुचक्र पूरा होते न होते तुमने अपने जीवन-चक्र को अद्भुत गति दे दी। शरीर की परिधि पर घूमती चेतना की धारा को आत्म- केन्द्र की ओर प्रवहमान कर दिया। अभीक्षण ज्ञान और , ध्यान तुम्हारे नित्य नियम बन गए। महाराज की दृष्टि तुम्हारे भीतर होने वाले इन सारे परिवर्तनों की साक्षी रही। वे चुपचाप सब देखते रहे। एक दिन मुस्कराकर उन्होंने कहा कि 'विद्याधर, तैयारी पूरी हो गई। तुम मोक्षमार्ग पर चलने में सक्षम हो।' और हवाओं की तरह यह खबर सब ओर फैल गई कि एक और दिगम्बर श्रमण शीघ्र ही अपनी पगचाप से इस धरती को धन्य करेगा। दीक्षा होने से दो दिन पहले, वहाँ के लोगों ने तुम्हें खूब सजाया था और सारे शहर में घर-घर ले जाकर तुम्हारी आरती उतारी थी। तुम्हारी झोली मंगल कामनाओं से भर गयी थी। लोगों के बीच हाथी पर बैठे भीड़ से घिरे होकर भी लगता था मानो तुम एकदम अकेले हो। तुम्हारी इसी भोली-भाली वीतराग चितवन ने सबका मन मोह लिया था। दीक्षा के दिन अपार जनसमूह के बीच, तुमने अपने कोमल हाथों से देखते-देखते केशलुंचन कर लिये और हवा में लहराता एक उत्तरीय कंधे पर डाले, खड़े होकर अपनी विभोर और चकित कर दिया। ओजस्वी वाणी से सारे जनसमूह को भाव Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि दीक्षा से पहले जो एक प्रश्न लोगों के मन में सहज ही उठा था कि इतने सुकुमार बाईस वर्षीय युवा को सीधे मुनि दीक्षा देना कहाँ तक उचित है, इसका समाधान तुम्हारी सम्यक् श्रद्धा, प्रखर- प्रज्ञा और अपार चारित्रिक दृढ़ता को देखकर आपोआप मिल गया। उन क्षणों में सभी ने ऐसा अनुभव किया कि तुम जो भी करोगे वह इस युग के लिये अद्भुत और परम उपकारी होगा। महाराज के चरणों में तुमने विनम्र निवेदन किया- 'मैं सकल चराचर जीवों को क्षमा करता हूँ, सभी मुझे क्षमा करें। मैं अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी के द्वारा प्ररूपित अनादिकालीन श्रमण-धर्म की शरण को स्वीकार करता हूँ। मैं समस्त पूर्वाचार्यों की शरण को स्वीकार करता हूँ। मैं दिगम्बर जैनाचार्य श्री शान्तिसागर जी आचार्य श्री वीरसागर जी, आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज की परम्परा में अपने साक्षात् गुरु श्री ज्ञानसागर जी महाराज की चरण-शरण को स्वीकार करता हूँ। पूज्य महाराज मुझे जैनेश्वरी दीक्षा देकर अनुगृहीत करें।' दीक्षाविधि प्रारंभ हुई तुमने एक-एक करके सभी महान प्रतिज्ञाएँ दुहराई कि मैं पाँच पापों को त्यागकर पाँच महाव्रतों को स्वीकार करता हूँ। मैं पाँच असमीचीन प्रवृत्तियों को छोड़कर पाँच समितियों को ग्रहण करता हूँ। मैं पाँच इन्द्रिय-विषयों में आसक्ति छोड़कर पाँच इन्द्रिय-निरोधों को अंगीकार करता हूँ। मैं आगमोक्त षट्आवश्यक क्रियाओं, सामायिक, स्तुति, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग को स्वीकार करता हूँ। मैं समस्त प्रकार के स्नानों का परित्याग कर अस्नान व्रत को अंगीकार करता हूँ। मैं समस्त वस्त्राभूषणों का त्यागकर यथाजातरूप, अचेलकव्रत को स्वीकार करता हूँ। मैं रागयुक्त शय्यादि का परित्याग कर भूमि-शयन व्रत को अंगीकार करता हूँ। मैं दन्त- परिष्कार से मुक्त होकर आत्म-परिष्कार के लिए अदन्तधावन व्रत को स्वीकार करता हूँ। मैं संसार में प्रचलित सभी भोजन प्रणालियों से विमुख होकर एक अतिथि की तरह अपने पाणिपात्र में खड़े होकर भोजन ग्रहण करने रूप स्थिति भोजन व्रत को अंगीकार करता हूँ। मैं कई बार भोजन और रात्रिभोजन से विमुख होकर दिन में एक बार, प्रामुक, निर्दोष भोजन, ग्रहण करने रूप एक भक्त व्रत को स्वीकार करता हूँ। मैं अब स्वाश्रित होने के लिए अपने हाथों केशलुंचन के लिए संकल्पित होता हुआ लोचव्रत रूप मूलगुण को अंगीकार करता हूँ।' दीक्षा के उन पावन क्षणों में हजारों आँखें तुम्हारी ओर अपलक देख रही थीं सब प्रतीक्षारत थे। इतने में ही अचानक हवाएं थम गई और बादलों का एक नन्हा सा टुकड़ा उस तपती दुपहरी में जाने कहाँ से आकर वहाँ बरस गया। सब ओर जय-जयकार होने लगी। मानो उत्सव की खुशियों में गलकर श्रद्धा सजल हो गई तुम्हारे जीवन में वीतरागता के बादल उमड़े और तुम आत्मानुभूति में भीगते चले गए। क्षणभर में तुम्हारी देह अनावरित हो गई हजारों आंखों में प्रतिबिम्बित हुआ आगामी श्रमण-धारा को दिशाबोध देनेवाला एक युवा श्रमण 'मुनि विद्यासागर' । अपने इस नव दीक्षित शिष्य को गुरु ने उद्बोधन दिया- 'अब तुम्हें आत्म-कल्याण के लिए निरन्तर आगे बढ़ते रहना है। जो जीवन बीत चुका उसके बारे में क्षण मात्र भी विचार नहीं करना है। मुनि का लक्ष्य है ऊँचाइयाँ छूने का मोक्ष प्राप्त करने का । गृहस्थ ने अगर अपने से बड़ों को देखकर ईर्ष्या की और नीचे वालों से घृणा की, तो वह आत्म-कल्याण नहीं कर सकेगा और यदि साधु ने नीचे की ओर देखकर अपने को ऊँचा मानकर संतोष कर लिया या ऊँचाइयों का ध्यान भुला दिया तो उसका भी कल्याण नहीं।' उपदेश प्रेरणादायी था तुमने ध्यान से और मन ही मन संकल्प कर लिया कि मैं साधु के योग्य निर्दोष आचरण करूँगा और ऊंचाइयों को छूने का प्रयास करूंगा।' सुना उस दिन अपने गुरु के साथ जब तुमने मोक्षमार्ग पर पहला कदम बढ़ाया तब लगा मानो अचला कहलाने वाली धरा ने स्वयं चलकर तुम्हारे पग थाम लिए और कहा 'हे श्रमण ! यह रहे तुम्हारी विजय यात्रा के प्रथम चरण, जाओ, और आत्म- आकाश में अनन्त ऊंचाइयों पर अबाध विचरण करो।' समर्पण जो ज्योति-सा मेरे हृदय में रोशनी भरता रहा वह देवता जो साँस बन इस देह में आता रहा जाता रहा वह देवता दूर रह कर भी सदा से साथ मेरे है यही अहसास देता रहा वह देवता मैं जागता हूँ या नहीं यह देखने द्वार पर मेरे मुनि श्री क्षमासागर दस्तक सदा देता रहा वह देवता जो गति मेरी नियति था ठीक मुझ सा ही मुझे करता रहा वह देवता समर्पण दीप उनका रोशनी उनकी मैं जल रहा हूँ रास्ते उनके सहारा भी उन्हीं का मैं चल रहा हूँ प्राण उनके हर साँस उनकी मैं जी रहा हूँ। 'जून 2001 जिनभाषित 13 . Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्याधर से विद्यासागर : युग परिवर्तन . मुनि श्री समतासागर प्यासे को जितनी पानी की जरूरत थी, | लम्बी यात्रा की कहानी भी बड़ी संघर्षपूर्ण रही | जा रहा हूं- 'बस संघ को गुरुकुल बनाना' और उतनी ही जरूरत पानी को प्यासे की थी। है। अजमेर नगर में जब पारखी ज्ञानसागर ने | जब ये आँखें गुरुवर के विस्तार को देखती प्यासा पानी की तलाश में था तो पानी भी यह घोषणा कर दी कि विद्याधर की दीक्षा | हैं, तो सहज ही कृतज्ञता से झुक जाती हैं। प्यासे की प्रतीक्षा में था। आज की तिथि में होगी, तब समाचार सुनकर सारे नगर में उनका सारा संघ आज तपोवन के गुरुकुलों प्यासे को पानी और पानी को प्यासा मिला हलचल-सी पैदा हो गई। उस समय की की याद दिलाता है, वह आज सिर्फ गुरुकुल था। 80 वर्ष के वयोवृद्ध तपस्वी साधक | परिस्थितियों में किसी युवा व्यक्ति का | | के जनक ही नहीं है, हम सबके कुलगुरु भी ज्ञानसागर ने 21 वर्ष के युवा ब्रह्मचारी | एकदम मुनि बनना समाज का प्रबुद्ध वर्ग | हैं। आज उनका निर्मल चरित्र करुणामय वाणी विद्याधर के लिये मुनि दीक्षा प्रदान की। पचा नहीं पा रहा था। बात फैली और मुनि और 'सब जन हिताय सब जन सुखाय', कहने को तो आज की इस अषाढ़ सुदी | दीक्षा न हो, इसकी अगुवाई करते हुए समाज | चर्चा उन्हें उनके यश को सात समुंदर पार पंचमी (सन् 1968) की तिथि में ब्र. | के प्रमुख सरसेठ भागचंद सोनी ज्ञानसागर ले जा रही है। विद्याधर की मुनि दीक्षा सुना गया है कि कृष्ण हुई. पर सिर्फ यह दीक्षा ही की वंशी की तान सुनकर, नहीं थी, था युग को गोपियाँ उनके पीछे लग जाती परिवर्तित करने का स्वर्णिम थीं, पर वह सतयुग था और अवसर। जीर्ण-जर्जरित राग की वंशी थी, पर यह तो श्रमण परंपरा को जीवंत, कलयुग है और है विराग की जयवंत करने का इतिहास वंशी। जिसे सुनकर लाखों इसी अवसर की लेखनी जन पीछे लगे हुए हैं। उनका से रचा गया। अध्यात्मिक यही व्यक्तित्व उनको असानायक आचार्य कुंद-कुंद धारणता दिला रहा है, अपने की वह पावन गाथा ब्र. लक्ष्य की ओर निरंतर गतिविद्याधर के मानस पटल मान करना और धैर्य से काम पर तैर रही थी कि 'पडि लेना, यह आपकी विशेषता वज्जदु सामण्णं जदि इच्छदि दुःख परि- महाराज के पास पहुंचे और कहा कि महाराज है। आप कथनी में कम किन्तु करनी में, मोक्खं' यदि आप दुःख से छुटकारा चाहते आप ब्रह्मचारी को सीधे मुनि दीक्षा न दें, आचरण में विश्वास रखते हैं। हों तो श्रामण्य को अंगीकार करो। तन-मन को क्योंकि इनकी उम्र अभी कम है, मुनि बनना परम तपस्वी साधक, चितन व चेतना दिगंबर कर 28 मूल गुणों में अपनी तो ढलती उम्र का काम है। ज्ञानसागर ने बात के धनी इस धरती पर वरदान हैं, इन्हें देखकर जीवनचर्या को निरुद्ध करना ही श्रामण्य सुनी और पूरे विश्वास के साथ कहा- दीक्षा लगता है कि जैसे कभी महावीर को शिष्य (समता) है। तीर्थंकर महावीर और गौतम तो होगी, क्योंकि मुहूर्त निकल गया है अब इंद्रभूति, गौतम स्वामी और आचार्य धरसेन गणधर की परंपरा में अनेकानेक आचार्यगण यदि कम उम्र वाले को दीक्षा नहीं दें तो को शिष्य पुष्पदंत-भूतबलि मिले थे, ठीक हुए हैं। इसी सदी में विलुप्त होती निग्रंथ श्रमण आपकी उम्र ज्यादा है, आप तैयार हो जायें। वैसे ही गुरु आचार्य ज्ञानसागर को ब्र. परंपरा का प्रवाह आचार्य श्री शांतिसागर ने सोनी जी सुनकर अवाक् रह गये। तब विद्याधर मिले, जो निग्रंथ विद्यासागर बनकर किया। राजमार्ग खोला, जिनके शिष्य आचार्य ज्ञानसागर महाराज ने सभी की शंकाओं का आज समूची जैन समाज के शिरोमणि वीरसागर, आचार्य शिव सागर, तत्पश्चात् समाधान करते हुए कहा कि मैं इन्हें ऐसे ही आचार्य बने हुए हैं। उनके आचार्यत्व की आचार्यश्री ज्ञानसागर और इन्हीं ज्ञानसागर दीक्षा नहीं दे रहा हूँ। मैंने ग्यारह माह की इनकी मंगलयात्रा में जो कुछ घट रहा है वह स्वयं ऋषिराज के प्रथम शिष्य आचार्य श्री साधना को परख लिया है। ये जिन शासन अतिशय चमत्कार बना हुआ है। आज अपने विद्यासागर आज सिर्फ जैनों के ही नहीं, की निर्मल श्रमण परंपरा के सही प्रभावनापथ- गुरुवर के 32वें दीक्षा दिवस की पावन बेला बल्कि जन-जन के संत हैं। उनका परिचय संवाहक रहेंगे। में हम अकिंचन अन्तेवासी कामना करते हैं खुद सूरज का प्रकाश है, जिसे देखने किसी गुरुवर आचार्य ज्ञानसागर ने अपनी कि इसी तरह गुरुवर अपने विशाल संघ के दूसरे प्रकाश की जरूरत नहीं पड़ती। समाधिबेला में अपने होनहार शिष्य को | साथ धर्म प्रभावना करते रहें। उनका तपोमय स्वयं अपना परिचय बनाने की इस आचार्य पद देकर इतना ही कहा था मैं तो | जीवन यशस्वी और चिरंजीवी रहे। LT लादला रह 14 जून 2001 जिनभाषित Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण परम्परा के ज्योतिर्मय महाश्रमण आचार्य श्री विद्यासागर .मुनि श्री अजितसागर जीवन का रहस्य क्या है, इसमें रहस्यकी बात है, जिसका कोई | बढ़ाते रहे। आज उन्हीं के प्रथम शिष्य जिन्होंने अनुपम इतिहास रचा कोई उत्तर ही नहीं, उसे तो बस खोजते चले जाओ जिसे खोजते- | है, जिन्होंने इस 20वीं एवं 21वीं शताब्दी में इतने सारे बालयति खोजते तुम स्वयं में खो जाओगे और खोज जारी रहेगी। जो इस | साधकों को मोक्षमार्ग पर लगाया है, जो जिनशासन की शान हैं और खोज में डूब गया वही स्वयं के परमात्मा को पा गया। ऐसा परमात्मा वर्तमान युग में मूलाचार की जीवित पहचान हैं, जिनकी आशीषभरी जिसका कोई अन्त न हो। अन्त-अनंत की गहराई को लिये ऐसा । छाँव में आज हजारों साधक मोक्ष मार्ग पर अग्रसर है, उन महाश्रमण परमात्म होता है। इसी परमात्मा की गहराई में डुबकी लगाने वाले | आचार्य श्री का मुनिदीक्षा दिवस है। और वर्तमान में श्रमण परम्परा को ज्योतिर्मय बनाने एवं परमागम जो फरिश्ते कर सकते हैं कर सकता इंसान भी। के रहस्य को समझने और समझाने वाले एवं एक नाव की तरह कार्य जो फरिश्ते से न हो वह काम है इंसान का। करने वाले जैसे नाव कभी भी नदी वह काम जो देव भी चाहते हुए के उस पार अकेली नहीं जाती अपनी नहीं कर सकता है वह काम इंसान कर पीठ पर बैठा कर अनेकों व्यक्तियों को सकता है। इस मनुष्य पर्याय की उस पार पहुँचाती है, वैसे अनेकों दुर्लभता वह देवेन्द्र ही समझता है। वह व्यक्तियों को संसार-सागर से निकाल भी तरसता है कि कुछ क्षण के लिये कर मोक्ष का मार्ग प्रदान करने वाले हमें यह मनुष्य पर्याय मिल जाये। इस अपने अहर्निश साधना के माध्यम से मनुष्य पर्याय की दुर्लभता को एक युवा स्वकल्याण के साथ परकल्याण की हृदय ने आज से 33 वर्ष पूर्व 21 भावना रखने वाले। जो स्वयं चलते वर्षीय ब्रह्मचारी विद्याधर जी अष्टगे ने हुए भव्य जीवों को चलाने वाले ऐसे धन्य किया था। जिसे घर के लोग प्यार आचार्य परमेष्ठी आचार्य प्रवर संत से पीलू, गिन्नी, मरी आदि नाम से शिरोमणि श्री विद्यासागर जी महाराज बचपन में पुकारा करते थे। कर्नाटक के जो एक प्रकाशमान दीप की तरह दक्षिण भारत में बेलगाँव जिले के सबको प्रकाश देने महान योगी ज्योति अन्तर्गत सदलगा ग्राम में आश्विनी र्मय महाश्रमण का मुनि दीक्षा दिवस हम शुक्ला पूर्णिमा (शरद पूर्णिमा) 10 सबके लिये पावन पर्व के समान है। अक्टूबर 1946 के दिन श्रेष्ठीवर श्री जैनाचार्यों ने जिनागम में आचार्य मल्लप्पाजी अष्टगे मातु श्रीमती जी परमेष्ठी का लक्षण कहा है- जो अष्टगे की कुक्षी से आपका जन्म हुआ मोक्षमार्ग पर स्वयं चलते हुए दूसरे था। आप अपने गृह की द्वितीय संतान भव्य जीवों को चलाता है। इसलिये होकर भी अद्वितीय व्यक्तित्व के धनी पूज्यपाद स्वामी ने आचार्य भक्ति में थे। आपका बाल्यकाल खेलकूद और लिखा है अध्ययन के साथ सन्तदर्शन की भावना से ओतप्रोत रहता था। बालक 'सिस्सामुग्गहकुसले धम्माइरिए सदा वंदे' विद्याधर प्रत्येक कार्य में निपुण था। कृषि कार्य में कुशलता छोटी सी जो शिष्य के अनुग्रह करने में कुशल होता है उस धर्माचार्य | उम्र में प्राप्त हो गई थी। खेल में शतरंज और केरम में आप मास्टर की सदा वन्दना करता हूँ। माने जाते थे। छोटी-सी उम्र में बड़ों-बड़ों को पराजित कर देते थे। भारतीय संस्कृति में जिनशासन की गौरव गाथा गानेवाले उसके | शिक्षा के क्षेत्र में हमेशा आगे रहने वाले और प्रथम स्थान प्राप्त करना रहस्यों को बताने महान-महान आचार्य हुए जिन्होंने संयम का स्वरूप | तो सहज काम था। एवं यथाजात-निर्यन्थ स्वरूप को धारण करके भटके-अटके अज्ञानी बाल्यकाल व्यतीत होते ही जवानी की ओर कदम बढ़े। उस भव्य जीवों के लिये सही दिशाबोध देकर श्रमण परम्परा की अखण्ड | भरी जवानी में जीवन के रहस्यों को जानने की जिज्ञासा युवा मन धारा को भारत भूमि पर प्रवाहित किया। उसी परम्परा को बीसवीं में समाई। एक दिन शेडवाल ग्राम में आचार्य श्री शान्तिसागर जी शताब्दी में महान आचार्य श्री शातिसागर जी आगे बढ़ाया और । का ससंघ आगमन हुआ। पहुंच गये उनके वचनामृत को सुनने के क्रमशः आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज ने उसी परम्परा को आगे | लिये। मिल गया वह सूत्र जीवन के रहस्य दर्शन कराने वाला, उपजा -जून 2001 जिनभाषित 15 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हृदय में वैराग्य, छूटने लगा संसार का राग और चिन्तन चलने लगा | ही ब्रह्मचारी श्री विद्याधर जी ने वस्त्रों का त्याग कर निर्ग्रन्थ स्वरूप जिन्दगी का सही राज पाने के लिये। जीवन का रहस्य कैसे पाया जाता धारण किया, देवों ने भी इस महोत्सव को मनाया और भीषण गरमी है? किसी ने कहा है के समय वर्षा होने लगी। श्री ज्ञानसागर जी ने ब्रह्मचारी श्री विद्याधर जिन्दगी का राज वह इंसान पा सकता है। जी को मुनि विद्यासागर नामकरण करके सुशोभित किया। उनके द्वारा जो रंज में भी खुशियों के गीत गाता है। प्रथम दीक्षित मुनि श्री विद्यासागर जी संयम साधना के साथ स्वाध्याय जीवन के रहस्य की खोज के लिए 20 वर्ष की अल्प आयु ध्यान करने लगे। इसके बाद आचार्य श्री ज्ञानसागर जी अपने प्रथम में बढ़ चले कदम संयम पक्ष की ओर। आचार्य श्री देशभूषण जी से योग्य शिष्य को अपना आचार्य पद भी मार्गशीर्ष कृष्ण द्वितीया वि.सं. आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत लेकर कछ समय उनके पास रहे बाद में 2029 दिनांक 22 नवम्बर 1972 को नसीराबाद जिला- अजमेर राजस्थान की ओर आ गये। वयोवृद्ध तपोनिधि श्री ज्ञानसागर जी (राज.) में देकर आचार्य विद्यासागर बना दिया। अपने ही शिष्य को महाराज जी के पास रहकर जैनदर्शन, न्याय, अध्यात्म, ग्रन्थों का निर्यापकाचार्य बनाकर समाधिमरण किया। ऐसे महान योगी साधक अध्ययन किया। इतनी वृद्धावस्था में श्री ज्ञानसागर जी महाराज ने का यह 34वां मुनि दीक्षा दिवस हम सबके लिए वैराग्य का मार्ग योग्य पात्र को पाकर अपना सारा ज्ञान का भंडार दे दिया। एक दिन दिखाने वाला है और संयम की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा देने वाला वह भी आ गया जो ज्ञान दान के साथ संयम का दान भी ज्ञानसागर है। इस पावन दिवस पर हम सब की मंगलमयी कामना है कि जी महाराज ने ब्रह्मचर्य श्री विद्याधर जी को दिया। वह पावन दिन जिनशासन के महानतम आचार्य गुरुवर श्री विद्यासागर जी महाराज था आषाढ़ शुक्ला पंचमी वि.सं. 2025 दिनांक 30 जून 19681 शतायु हों और हमें कल्याण का मार्ग बताते रहें, हम उनके अनुसार इस दिन राजस्थान अजमेर में निर्ग्रन्थ यथाजात रूप मुनि दीक्षा के चलकर अपना कल्याण करें। संस्कार भरी सभा के सामने आचार्यश्री ज्ञानसागर जी ने किये। जैसे आदर्शकथा _ आदर्श शासक प्रश्न और उत्तर .यशपाल जैन यशपाल जैन नौशेरवा ईरान का बड़ा न्यायप्रिय बादशाह था। छोटी-से-छोटी। एक दिन एक विद्वान् संत कबीर के पास आये। बोले, 'मुझे चीजों में भी न्याय की तुला उसके हाथों में रहती थी। सबसे अधिक | यह बताइये कि मैं गृहस्थ बनूँ या साधु?' ध्यान वह अपने आचरण का रखता था। ___कबीर ने इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया और अपनी स्त्री एक बार बादशाह जंगल की सैर करने गया। उसके साथ | से कहा, 'दीपक जलाकर ले आओ।' स्त्री गई और दीपक जलाकर कुछ नौकर-चाकर भी थे। घूमते-घूमते वे शहर से काफी दूर निकल ले आई। गये। बहुत देर हो गई। बादशाह को भूख लग आई। उसने नौकरों इसके बाद कबीर उस विद्वान् को लेकर एक वृद्ध साधु के से वहीं भोजन की व्यवस्था करने को कहा। खाना तैयार किया गया। पास गए। उनके घर पर पहुँचकर आवाज दी, 'मेहरबानी करके जरा जब बादशाह खाने बैठा तो उसे साग-सब्जियों में नमक कम लगा। नीचे आ जाइये। दर्शन करना है।' बेचारे साधु ऊपर से उतरकर उसने नौकरों से कहा, 'जाओ, गाँव से नमक ले आओ।' नीचे आये और दर्शन देकर चले गये। ऊपर पहुँचे ही थे कि कबीर दो कदम पर गाँव था। एक नौकर जाने को हुआ तो बादशाह ने फिर पुकारा, 'एक काम है। नीचे आ जाइये।' बिना हिचक के ने कहा, 'देखो, जितना नमक लाओ, उसके पैसे दे आना।' वह फिर नीचे आ गए। बोले, 'बताओ,क्या काम है?' नौकर ने यह सुना तो उसने बादशाह की ओर देखा। बोला, 'सरकार, नमक जैसी मामूली चीज के लिए कौन पैसा लेगा? आप कबीर ने कहा, “एक सवाल पूछना था, पर भूल गया।' उसकी क्यों फिक्र करते हैं? साधु मुस्कराकर बोले, 'कोई बात नहीं है। याद कर लो।' बादशाह ने कहा, 'नहीं, उसे पैसे देकर आना।' इतना कहकर साधु ऊपर चले गए। कबीर ने फिर पुकारा वह नौकर बड़े आदर से बोला, 'हुजूर, जो नमक देगा, उसके फिर आ गए। इस प्रकार कबीर ने कई बार उन्हें नीचे बुलाया और लिए कोई फर्क नहीं पड़ेगा, उल्टे उसे खुशी होगी कि उसको अपने | वह आये। पर उनके माथे पर शिकन तक नहीं आई। बादशाह की सेवा करने का अवसर मिला।' बादशाह गम्भीर हो आया। तेज आवाज में उसने कहा, 'यह तब कबीर ने विद्वान् को संबोधित करके कहा, 'देखो, यदि मत भूलो की छोटी चीजों से ही बड़ी चीजें बनती हैं। छोटी बुराई तुम इन साधु जैसी क्षमा रख सको तो साधु बन जाओ और अगर बड़ी बुराई के लिए रास्ता खोलती है। अगर मैं किसी पेड़ से एक मेरी जैसी विनीत स्त्री मिल जाए, जो दिन के उजाले में दीपक जलाने फल तोड़ता हूँ तो मेरे सिपाही उस पेड़ पर एक भी फल नहीं छोड़ेंगे। की कहने पर बिना तर्क किये कि दीपक की क्या जरूरत है, जलाकर मुमकिन है, ईधन के लिए पेड़ को ही काटकर ले जायँ। ठीक है | ले आए, तो गृहस्थ जीवन अच्छा है।' कि एक फल की कोई कीमत नहीं है, लेकिन बादशाह की जरा-सी अपने प्रश्न का समुचित उत्तर पाकर विद्वान् चले गए। बात से कितना बड़ा अन्याय हो सकता है। जो हुकूमत की गद्दी पर बैठता है, उसे हर घड़ी चौकन्ना और चौकस रहना चाहिए।' 16 जून 2001 जिनभाषित Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयम, तप, अपरिग्रह का मनोविज्ञान • प्रो. रतनचन्द्र जैन कर्मों का उदय और के निषेक उदययोग्य होते उदीरणा द्रव्य, क्षेत्र, काल, मन्दकषाय-परिणाम को विशुद्धता कहते हैं। इससे अशुभकर्मों हैं। किन्तु इनमें से जिसके भव और भाव के निमित्त से का संवर और निर्जरा तथा शुभकर्मों का आस्रव-बन्ध होता है। उदय के अनुकूल अन्य होती है। जैसे स्वर्णादि द्रव्य या विशुद्धता के विकास में संयम, तप, अपरिग्रह, भक्ति, स्वाध्याय निमित्त होंगे उसी का स्वमुख सांसारिक सुख की वस्तुएँ | और सत्संग मनोवैज्ञानिक भूमिका निभाते हैं। प्रस्तुत आलेख में | से उदय होगा, दूसरी का दिखने पर मोही जीव के लोभ | प्रथम तीन साधनों की मनोवैज्ञानिक भूमिका का उद्घाटन किया | स्तिबुक-संक्रमण के द्वारा का उदय हो जाता है। स्त्री के गया है। परमुख से उदय होगा। (पं. सान्निध्य से पुरुष के मन में, रतनचन्द्र जैन मुख्तार : पुरुष के सम्पर्क से स्त्री के मन में कामवासना (वेदकषाय) की उत्पत्ति | व्यक्तित्व और कृतित्व, भाग 1, पृ. 446) होती है। शत्रु का सामना होने पर क्रोध उदित हो जाता है। सुन्दर दृश्य, जिस समय क्रोध का उदय है उस समय उदय में आने वाले मधुर संगीत या मादक सुगन्ध की अनुभूति सातावेदनीय के उदय मान, माया, लोभ (उस समय से) एक समय पूर्व ही स्तिबुकसंक्रमण का कारण बन जाती है। ये द्रव्य के निमित्त से क्रोधादि कर्मों के उदय | द्वारा क्रोधरूप परिणत हो जाते हैं। अतः क्रोधोदय के समय उदय के उदाहरण हैं। को प्राप्त मान, माया, लोभरूप कर्म स्वमुख से उदित न होकर कुछ कर्मप्रकृतियों का उदय नरक-स्वर्ग आदि विशिष्ट क्षेत्रों में | क्रोधरूप में परमुख से उदित होते हैं। (पं. रतनचन्द्र जैन मुख्तार : ही होता है। हिमालय आदि अत्यंत शीतल क्षेत्र में या किसी अत्यंत | व्यक्तित्व और कृतित्व, भाग-1,पृष्ठ 455) उष्ण प्रदेश में जाने से शीत और उष्णता की पीड़ा अनुभव कराने पंडित फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री लिखते हैं - 'अध्रुवोदयरूप वाले असातावेदनीय का उदय होता है। कभी-कभी निर्जन वन में भय | कर्मप्रकृतियों में हास्य और रति का उत्कृष्ट उदय-उदीरणा काल की उत्पत्ति होती है। यह क्षेत्रनिमित्तक कर्मोदय है। सामान्यतः छह माह है। इसके बाद इनकी उदय-उदीरणा न होकर उदयकाल आने पर जो कर्मोदय होता है वह कालनिमित्तक है। | अरति और शोक की उदय-उदीरणा होने लगती है। किन्तु छह माह शीत, ग्रीष्म आदि देहप्रतिकूल ऋतुओं (काल) के निमित्त से भी | के भीतर यदि हास्य और रति के विरुद्ध निमित्त मिलता है तो बीच असातावेदनीय का उदय होता है। वृद्धावस्था भी असातावेदनीय के | में ही इनकी उदय-उदीरणा बदल जाती है। (सर्वार्थसिद्धि 9/36/ उदय का निमित्त बन जाती है। यह कालनिमित्तक कर्मोदय है। विशेषार्थ) मनुष्यादि भवों (पर्यायों) के निमित्त से मनुष्यगति, मनुष्यायु स्वर्ग में प्रायः साता की ही सामग्री उपस्थित रहती है और आदि का उदय होता है। देव और नारक भव के निमित्त से वैक्रियिक नरक में असाता की ही। अतः स्वर्ग में सातावेदनीय का ही उदय शरीर का उदय होता है। बना रहता है, असाता का उदयकाल आने पर साता के रूप में जीव के अपने भावों के निमित्त से भी कर्मों का उदय होता | परिणमित होकर उदित होता है। इसी प्रकार नरक में असाता का ही है। जैसे किसी वस्तु के प्रति लोभ का उदय हो और उसकी प्राप्ति उदय रहता है और सातावेदनीय असाता के रूप में परिवर्तित होकर सरल मार्ग से होती हुई दिखाई न दे, तो माया (छलकपट-भाव) का फल देता है। (जैनदर्शन/महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य/पृ. 102) उदय हो जाता है। माया सफल न होने पर हिंसाभाव (क्रोध) जन्म इससे स्पष्ट होता है कि उदयकाल रूप निमित्त की अपेक्षा द्रव्य, लेता है। मिथ्यात्व के निमित्त से संसार के पदार्थों में रागद्वेष की उत्पत्ति | क्षेत्र, भव, भाव तथा शिशिर-वसन्त, रात्रि, वार्धक्य आदि कालहोती है। मानकषाय के निमित्त से अपना सम्मान करनेवालों के प्रति रूप निमित्त अधिक बलवान् होते हैं। प्रीति (रति) एवं उपेक्षा करने वालों के प्रति द्वेष (अरति) का उदय निमित्त-परिवर्तन से कर्मोदय में परिवर्तन होता है। इस प्रकार कर्मों का विपाक (फल देने की अवस्था को प्राप्त चूँकि कर्मों का उदय द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव के होना), द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव का निमित्त होने पर ही होता निमित्त से होता है, अतः निमित्तों में परिवर्तन कर कर्मोदय में परिवर्तन है, उसके बिना नहीं। किन्तु काल की अपेक्षा अन्य निमित्त प्रायः किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, लोभ उत्पन्न करने वाली सामग्री बलवान होते हैं, क्योंकि भले ही किसी कर्म का उदयकाल हो, यदि का सान्निध्य टालकर और निर्लोभ की प्रेरणा देने वाले निमित्तों का किसी अन्य कर्म के उदययोग्य अन्य निमित्त उपस्थिति हो गया है, आश्रय लेकर लोभ के उदय को रोका जा सकता है। कोई हमारा अपमान तो उसका उदय हो जायेगा और जिसका उदयकाल है वह स्वमुख करता है और उसके निमित्त से क्रोध उत्पन्न हो सकता है तो हम से उदित न होकर उसी अन्य कर्म के मुख से (उसी के रूप में परिणत क्षमाभाव द्वारा अपमानबोध को निष्प्रभावी कर क्रोध के उदय को रोक होकर) उदित होगा। (सर्वार्थसिद्धि 8/21) जैसे साता और असाता सकते हैं। इस प्रकार क्षमादिभाव, संयम-तप-अपरिग्रह, भक्ति, दोनों का अबाधाकाल समाप्त हो जाने पर एक साथ दोनों ही प्रकृतियों स्वाध्याय आदि वे निमित्त हैं जो क्रोधादि के उदय के निमित्तों को अशक्त कर देते हैं, जिसके परिणामस्वरूप क्रोधादि का उदय नहीं -जून 2001 जिनभाषित 17 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो पाता, अर्थात् उनका तीव्रोदय असम्भव हो जाता है। इससे संक्लेश | समझता है, तो भी चारित्रमोहोदयरूप कोतवाल के वश में होकर या कालुष्य की उत्पत्ति नहीं होती और विशुद्धता का विकास होता | विषयसुख का भोग करता है।' (समयसार/तात्पर्यवृत्ति/गाथा 194) है। उस विशुद्धता से कोई-कोई अशुभ कर्म शुभ में बदल जाते हैं, विषयसुख को हेय समझने पर भी उसे भोगने के लिए विवश किन्हीं अशुभ कर्मों की स्थिति और अनुभाग का ह्रास हो जाता है करने वाला यह चारित्रमोह का उदय इन्द्रियों की भोगवासना के निमित्त तथा शुभकर्मों की स्थिति घट जाती है और अनुभाग बढ़ जाता है। | से ही होता है, जैसे आहार को हेय समझने पर भी मुनि में आहार इस रीति से विशुद्धता का निरन्तर विकास होता रहता है। इसका की इच्छा पैदा करनेवाला चारित्रमोहोदय शरीर की आहारवृत्ति के विस्तृत विवेचन आगे किया जा रहा है। निमित्त से होता है। संयम, तप और अपरिग्रह के द्वारा शरीर को परद्रव्यों की इस प्रकार इन्द्रियों की भोगवासना संक्लेश का प्रबलतम कारण अधीनता से यथासम्भव मुक्त कर ऐसा स्वस्थ और संयत बनाया है। इन्द्रियसंयम से संक्लेशपरिणाम का यह महान् स्रोत अवरुद्ध हो जाता है कि वह परद्रव्येच्छारूप तीव्रकषाय के उदय का निमित्त नहीं जाता है। इन्द्रियों को अनावश्यक विषयसेवन से क्रमशः निवृत्त करने बन पाता, न ही परद्रव्य के अभाव में असातावेदनीय के उदय का पर उनका भोगाभ्यास छूट जाता है और उनमें विषयभोग के लिए हेतु बनने में समर्थ होता है। पीड़ाकारक उद्दीपन नहीं होता। फलस्वरूप वे असातावेदनीय एवं संयम का मनोविज्ञान तीव्रकषाय (विषयाकांक्षा) के उदय का निमित्त नहीं बन पाती। पूज्यपाद स्वामी कहते हैं- 'रसपरित्याग आदि तप के द्वारा इंद्रियों में स्वभावतः विषयसेवन की रुचि होती है इंद्रियों के मद का निग्रह होता है।' (सर्वार्थसिद्धि 9/19) आचार्य (दग्धेन्द्रियाणां रुचिवशेन... रुचितारुचितेषु रागद्वेषावुपश्लिष्य नितरां जयसेन का कथन है- 'शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श, ये क्षोभमुपैति। प्रवचनसार, तत्त्वदीपिकावृत्ति 1/83) और अनियंत्रित इन्द्रियविषय रागादि भावों की उत्पत्ति के बहिरंग कारण हैं, अतः इनका विषयभोग द्वारा उनमें विषयसेवन का व्यसन भी उत्पन्न हो जाता त्याग करना चाहिए। (शब्दादयो रागादीनां बहिरंगकारणास्त्याज्याः । है। इससे उन्हें जिस समय, जिस वस्तु के भोग की आदत पड़ जाती समयसार/तात्पर्यवृत्ति 366-371) उन्होंने बतलाया है कि इन्द्रियहै, उस समय उस वस्तु के भोग के लिये उनमें अत्यंत पीड़ाकारक विषयों के त्याग से चित्त क्षोभरहित (संक्लेशरहित) हो जाता है। उद्दीपन होता है, अर्थात् असाताववेदनीय का उदय होता है। उससे (बहिरङ्गपञ्चेन्द्रियविषयत्यागसहकारित्वेनाविक्षिप्तचित्तभावनोत्पन्ननिर्विसंक्लेशपरिणाम की उत्पत्ति होती है। उसके निमित्त से विषयों को भोगने कारसुखामृतरसबलेन...। वही/उत्थानिका) कषायों के तीव्रोदय में ही की आकांक्षा के रूप में तीव्र राग का उदय होता है। इस तथ्य पर चित्त क्षुब्ध होता है, (पञ्चास्तिकाय/तत्त्वदीपिका/गाथा 138) अतः आचार्य शुभचन्द्र ने निम्नलिखित शब्दों में प्रकाश डाला है स्पष्ट है कि संयम तीव्रकषायोदय के निरोध का निमित्त है। इदमक्षकुलं धत्ते मदोद्रेकं यथा यथा। पंडित टोडरमल जी का कथन है- 'बाह्य पदार्थ का आश्रय लेकर कषायदहनः पुंसां विसर्पति तथा तथा।। रागादि परिणाम हो सकते हैं। इसलिये परिणाम मिटाने हेतु बाह्य वस्तु (ज्ञानार्णव 20/3) के निषेध का कथन समयसारादि में है। यह नियम है कि बाह्य संयम - इंद्रियों का समूह जैसे-जैसे मद की उत्कटता धारण करता साधे बिना परिणाम निर्मल नहीं हो सकते। अतः बाह्य साधन का विधान है, वैसे-वैसे मनुष्य में कषायरूप अग्नि भड़कती है। जानने के लिए चरणानुयोग का अभ्यास करना चाहिए। (मोक्षमार्गश्रीमद्भगवद्गीता में भी कहा गया है प्रकाशक/.292) यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः। तप का मनोविज्ञान इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।। (2/60) - हे कुन्तिपुत्र! मनुष्य कितना ही ज्ञानी हो, यदि उसकी इन्द्रियाँ अनशन, अवमौदर्य, रसपरित्याग, कायक्लेश आदि बाह्य तपों असंयत हैं तो वे मन को बलात् विषयों की ओर खींच ले जाती हैं। | के द्वारा भी शरीर को परद्रव्य की अधीनता से अधिकाधिक मुक्त करने उद्दीप्त इन्द्रियों के निमित्त से असातावेदनीयजनित संक्लेश- का अभ्यास किया जाता है, जिससे शरीर परद्रव्यजन्य सुख का परिणाम द्वारा विषयेच्छा उत्पन्न होने पर जीव विषय प्राप्ति का प्रयत्न अभ्यस्त नहीं होता। फलस्वरूप परदव्य का सेवन न करने पर करता है। उसमें कोई बाधक बनता है, तो उसके निमित्त से क्रोध और असातावेदनीय का उदय नहीं होता तथा असातावेदनीयजन्य पीड़ा मान उदित हो जाते हैं, जिनके कारण जीव हिंसादि पाप भी कर डालता के अभाव में परद्रव्येच्छारूप तीव्रकषाय का उदय नहीं होता। तप है। इच्छित वस्तु की उपलब्धि यदि ऋजुमार्ग से सम्भव नहीं होती, से शरीर स्वस्थ भी रहता है, प्रमादग्रस्त नहीं होता। (तत्त्वार्थवृत्ति 9/ तो अनेक जीवों में माया कषाय का प्रादुर्भाव हो जाता है। इस प्रकार 19) अतः रोग, आलस्य आदि से मुक्त रहने के कारण भी इन्द्रियों की भोगप्रवृत्ति तीव्रकषाय का निमित्त है। संक्लेशोत्पादक असातावेदनीय के उदय का निरोध होता है। विषयों में इष्टानिष्टबुद्धि के निमित्त से तो तीव्रकषाय का उदय अपरिग्रह का मनोविज्ञान केवल मिथ्यादृष्टियों में ही होता है, किन्तु इन्द्रियों के भोगव्यसन के बाह्य वस्तुओं के सम्पर्क से उनके संरक्षण, संवर्धन, परिष्करण निमित्त से असंयत तथा संयतासंयत सम्यग्दृष्टियों में भी होता है। आदि की चिन्ता उत्पन्न होती है। उनकी रक्षा के प्रयत्न में दूसरों के आचार्य जयसेन का कथन है साथ संघर्ष होता है। हिंसा के प्रसंग उपस्थित हो जाते हैं। अतः परिग्रह 'जैसे कोई चोर मरना नहीं चाहता, तो भी कोतवाल के द्वारा असाता और क्रोधादि के उदय का निमित्त होता है। जितनी ज्यादा पकड़े जाने पर उसे विवश होकर मरना पड़ता है, वैसे ही सम्यग्दृष्टि वस्तुओं से सम्पर्क छूटता है उनके संरक्षणादि की चिन्ता से हम उतने जीव, यद्यपि आत्मोत्पन्न सुख को उपादेय तथा विषयसुख हो हेय 18 जून 2001 जिनभाषित Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही अधिक मुक्त हो जाते हैं। अतः अपरिग्रह के निमित्त से | स्वभाव में लीन होते जायेंगे, प्रवृत्तिरूप व्रतनियमादि स्वतः छूटते असातावेदनीय एवं तीव्रकषाय के उदय का निरोध होता है, जिससे | जायेंगे। (द्रव्यस्वभाव प्रकाशकनयचक्र/ विशेषार्थ/गाथा 342) विशुद्धता का विकास निर्बाध चलता रहता है। संक्लेशपरिणामों का निरोध भक्ति एवं स्वाध्याय से भी होता आचार्य अमृतचन्द्रजी ने कहा है- 'यद्यपि रागादिभावरूप हिंसा | है, किन्तु उनमें चित्त की एकाग्रता तब तक सम्भव नहीं है, जब तक की उत्पत्ति में बाह्य वस्तु कारण नहीं है (चारित्रमोह का उदय कारण इन्द्रियों की भोगवृत्ति नियंत्रित नहीं हो जाती। इन्द्रियों के निरन्तर है), तथापि रागादिपरिणाम परिग्रहादि के निमित्त से ही होते हैं, इस उद्दीपन से पीड़ित चित्त, विषयों की ओर ही बार-बार जाता है। ऐसे कारण परिणामों की विशुद्धि के लिए हिंसा के निमित्तभूत परिग्रहादि चित्त का भक्ति में एकाग्र होना दुष्कर है। इस अवस्था में स्वाध्याय का त्याग करना चाहिए। (पुरुषार्थसिद्धयुपाय/ कारिका 49) तो और भी असम्भव है, क्योंकि भक्ति में तो संगीतादिजन्य कुछ वे आगे कहते हैं- 'मूर्छा (ममत्वपरिणाम) को आभ्यन्तर सरसता भी होती है, किन्तु स्वाध्याय तो इस प्रकार की सरसता से परिग्रह कहते हैं, वह बाह्य परिग्रह के निमित्त से भी उत्पन्न होती है। रहित शुद्ध बौद्धिक कार्य है। इसीलिए आगम में इन्द्रियों का भोगव्यसन अतः दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग करना चाहिए।(पुरुषार्थसिद्ध- श्रुतज्ञानावरण का नोकर्म अर्थात् बाह्य निमित्त कहा गया है। जो विषयों युपाय/ कारिका 113, 118) में लीन रहता है उसकी रुचि तत्त्वचिन्तन की ओर उन्मुख नहीं होती। सिद्धान्ताचार्य पंडित कैलाशचन्द्र जी शास्त्री लिखते हैं- इसलिए श्रुतज्ञान न होने देने में इन्द्रियों का भोगव्यसन प्रबल बाह्य 'रागद्वेष दूर करने के लिए या कम करने के लिए बाह्य पदार्थों का | निमित्त है। (गोम्मटसारकर्मकाण्ड/गाथा 70) भी त्याग किया जाता है। स्वभाव में लीन होने के लिए क्रम से बाह्य | इस प्रकार संयम, तप और अपरिग्रह विशुद्धता की उत्पत्ति प्रवृत्ति को रोकना होता है और बाह्य प्रवृत्ति को रोकने के लिए प्रवृत्ति और वृद्धि के लिए महत्त्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक साधन है। के विषयों को त्यागना होता है। अतः स्वभाव में लीन होने के लिए 137, आराधनानगर, यह आवश्यक है कि हम अव्रत से व्रत की ओर आयें। ज्यों-ज्यों हम भोपाल-462003 सिर्फ हाशिये पर जीने की दे हमको लाचारी गीत बादल का मन श्रीपाल जैन 'दिवा' बादल का भी मन करता है चल कर बरसूं गाँव में, . अशोक शर्मा तपा हुआ मन शीतल होले मानवता की छाँव में। सिर्फ हाशिये पर जीने की दे हमको लाचारी सावन की रिम-झिम रिम-झिम में धरती प्यास बुझाती है. तुमने अपने लिखे कथानक आकर बारी-बारी। भादौं की झर झम-झम करती नदिया बेबस गाती हैं। ऐसा नहीं कि तुम ही केवल रङ्गमंच पर खेले ताल-तलैयों का मन भरता, झींगुर तान सुनाती है, हमने भी तो साथ तुम्हारे मिल कर मौसम झेले तुम पर्दो के पीछे खेले हम पर्यों के आगे दादुर का संगीत सुनावे ठुमकी केकी पाँव में। बादल का भी..... हमने हर आगत स्वीकारा तुम ही डरकर भागे यहाँ रास्ते टेढ़े-मेढ़े दिल के सीधे रस्ते हैं, अपने नाम लिखा ली तुमने वह पूरी फुलवारी यहाँ मनुज अब भी मानव हैं भाव सुमन भी सस्ते हैं। जिसकी हमने लहू पिलाकर सींची क्यारी-क्यारी।।। यहाँ प्राण की ऊषा चुनरी रँगी हुई सब लाल हैं ऐसा नहीं कि तुम ही केवल पीड़ा गाँव दिखे हमने भी जलते अलाव पर अपने पाँव रखे मन के मोती पिरे हुए हैं अमराई की छाँव में। बादल का भी... हमने वार सहे सीनों पर तुमने देह चुराई खंजन सी आँखों वाली जब शरद यहाँ भी आ जाती, देह हमारी रक्त-नदी में मल-मल अंग नहाई पीहू-पीहू की पुकार सुन हरियाली फिर मस्ताती। पटी हुई लाशों पर तुमने भर-भर कर किलकारी धरती की चूनर पर लौटे श्रम के देवी-देव नए दिवस की सुबह दूधिया थाल सजा सत्कारी।2। ऐसा नहीं कि तुम ही केवल आँख भिगो कर रोये नभ के तन से मोती झरते वह पावस है गाँव में। बादल का... हमने भी कुछ मुर्दा सपने इन आँखों में ढोये यहाँ बीज बोते हैं गाकर, धोली रात उगाते हैं इतिहासकार ने लिखा तुम्हारा सोने का इतिहास सूरज रोज उगाने वाले, जीवन गीत सुनाते हैं। उत्सर्गों की कथा हमारी महज़ हास-परिहास! आँखें मलते अंकुर फूटे, तारे प्रीत बहाते हैं। ताज पहन सिंहासन बैठे तुम लगते सरकारी धरती सब मखमली हो गई, स्वेद गगन की छाँव में। बादल का... वन्दनगीत तुम्हारे गाते हम लगते दरबारी।3। 36/बी, मैत्री विहार, सुपेला, शाकाहार सदन, भिलाई (दुर्ग) छत्तीसगढ़ एल.-75, केशर कुंज, हर्षवर्धन नगर, भोपाल-3 -जून 2001 जिनभाषित 19 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका - समाधान .पं. रतनलाल बैनाड़ा 1. अविपाक निर्जरा का प्रारंभ अधिकांश विद्वान चतुर्थ शंका- असंख्यात गुणश्रेणी निर्जरा कब-कब होती है? गुणस्थान से मानते हैं, जो उचित नहीं है। धवल पुस्तक 12, पृष्ठ समाधान- तत्वार्थसूत्र अध्याय-9, सूत्र-45 'सम्यग्दृष्टि 468 के अनुसार करणलब्धि प्राप्त मिथ्यादृष्टि के अविपाक निर्जरा श्रावक ......... निर्जरा' सूत्र में जो सम्यक्दृष्टि, श्रावक को आदि होती है। ले निर्जरा के 10 स्थान बताए हैं, उन सभी स्थानों में 2. तथा तीनों में से किसी भी अविरत सम्यग्दृष्टि के प्रतिसमय असंख्यातगुणश्रेणी निर्जरा होती है। निरंतर गुणश्रेणी निर्जरा नहीं होती। प्रतिसमय असंख्यातगुणश्रेणी निर्जरा होने वाले स्थानों को इस शंका - क्या भोगभूमि में विकलेन्द्रिय तथा असैनी पंचेन्द्रिय प्रकार समझना चाहिए जीव पाये जाते हैं? कोई भव्य पंचेन्द्रिय सैनी पर्याप्तक सातिशय मिथ्यादृष्टि जीव समाधानकरण लब्धि के काल में अनिवृत्तिकरण के अंतिम समय में संखपिपीललय-मक्कुण-गोमच्छी-दंसमसय किमि पहुदी। जितने कर्मों की निर्जरा करने वाला होता है, वह जब वियलिंदिया ण होंति हु, णियमेणं पढम कालम्मि।। प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त होता है तो प्रतिसमय (तिल्लोयपण्णत्ति 335) असंख्यातगुणश्रेणी निर्जरा वाला होता है। अर्थ - प्रथम (सुषमासुषमा) काल में नियम से शंख, चीटी, वही जीव जब देशव्रत नामक पंचम गुणस्थान को प्राप्त होता खटमल, गोमक्षिका, डाँस, मच्छर और कृमि आदिक विकलेन्द्रिय है तब बढ़ती हुई विशुद्धि के अंतर्मुहूर्त काल तक। जीव नहीं होते। वही जीव जब अप्रमत्तविरत गुणस्थान को प्राप्त कर बढ़ती णत्थि असण्णी जीवो, णत्थि तहा सामिभिच्च भेदो य। हुई विशुद्धि वाला होता है, उतने अन्तर्मुहूर्त काल तक। कलह-महाजुद्धादी, ईसा-रोगादि ण हु होति।। कोई क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि चौथे से सप्तम गुणस्थान वाला __ (तिल्लोयपण्णत्ति 336) जीव जब अनंतानुबंधी की विसंयोजना करता है तब। अर्थ- इस काल में असंज्ञी जीव नहीं होते, स्वामी और भृत्य कोई क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव (चौथे से सातवें गुणस्थान का भेद भी नहीं होता, कलह एवं भीषण युद्ध आदि तथा ईर्ष्या और वाला) जब दर्शन मोह की क्षपणा करता है तब अन्तर्मुहूर्त काल | रोग आदि भी नहीं होते हैं। तक। श्री धवलपुस्तक 4 पृष्ठ 33 पर भी इस प्रकार कथन हैकोई उपशमश्रेणी चढ़ने वाले मुनिराज। भोगभूमिसु पुण विगलिंदिया णत्थि। पंचिदिया वि तत्थ सुट्ठ उपशांत मोह नामक ||वें गुणस्थान वाले मुनिराज, विशुद्धि | थोवा, सुहकम्माइ जीवाणं बहुणाम संभवादो। के बढ़ने वाले काल में। अर्थ- भोगभूमि में तो विकलत्रय जीव नहीं होते हैं और वहाँ क्षपकश्रेणी चढ़ने वाले मुनिराज। पर पंचेन्द्रिय जीव भी स्वल्प होते हैं, क्योंकि शुभकर्म की अधिकता 9. क्षपकश्रेणी वाले क्षीणमोह गुणस्थान स्थित मुनिराज। वाले बहुत जीवों का होना असंभव है। 10. समुद्घातगत सयोगकेवली एवं चौदहवें गुणस्थान स्थित उपर्युक्त प्रमाणों से सिद्ध है कि भोगभूमि में विकलेन्द्रिय और अयोगकेवली महाराज। असैनी पंचेन्द्रिय जीव नहीं होते हैं। विशेष यह है कि चतुर्थ गुणस्थान में प्रतिसमय निर्जरा नहीं शंका- भगवान सुपार्श्वनाथ की मूर्ति पर भी सर्प का फण कहींहोती। केवल उपर्युक्त स्थान नं. । एवं स्थान नं. 4,5 में अंतर्मुहूर्त कहीं बनाया जाता है। क्या इनके ऊपर भी उपसर्ग हुआ था? काल तक तो प्रतिसमय असंख्यातगुणी निर्जरा होती है। शेष कालों समाधान- तिल्लोयपण्णत्ति चतुर्थ अधिकार में इस प्रकार में कभी भी निर्जरा तो संभव है पर प्रतिसमय असंख्यातगुणी निर्जरा कथन पाया जाता हैसंभव नहीं। एक्करस होति रुद्रा, कलहपिया णारदाय णव-संखा। इसी तरह उपर्युक्त स्थान नं. 2 में पंचम गुणस्थानवी जीव सत्तम-तेवीसंतिम-तित्थयराणं च उवसग्गो॥ 1642।। के प्रवेश के अन्तर्मुहूर्त काल तक, विशुद्धि बढ़ने के काल में, उपर्युक्त अर्थ- ग्यारह रुद्र और कलहप्रिय नौ नारद होते हैं तथा सातवें, निर्जरा है, शेष कालों में प्रतिसमय चतुर्थ गुणस्थानवर्ती से असंख्यात तेईसवें और अंतिम तीर्थकर पर उपसर्ग भी होता है। गुणी निर्जरा तो है पर गुणश्रेणी निर्जरा नहीं। उपर्युक्त प्रमाण से यह स्पष्ट है कि भगवान् सुपार्श्वनाथ पर भी इन सभी दश स्थानों में उत्तरोत्तर गुणश्रेणी निर्जरा के लिए उपसर्ग हुआ था। तीर्थंकरों के जीवन चरित्र के सर्वप्रथम वर्णन करने असंख्यात गुणा द्रव्य प्राप्त होता है किन्तु आगे-आगे गुणश्रेणी का वाले शास्त्र आदिपुराण एवं उत्तरपुराण ही हैं। इनमें जब हम भगवान् काल संख्यातगुणा हीन-हीन है। अर्थात् चतुर्थ गुणस्थानवर्ती के सुपार्श्वनाथ का जीवन चरित्र पढ़ते हैं तब उसमें कहीं भी उनके ऊपर गुणश्रेणी निर्जरा के अन्तर्मुहूर्त काल से श्रावक का काल संख्यातगुणा उपसर्ग होने का प्रमाण नहीं मिलता। हीन है पर श्रावक की निर्जरा सम्यग्दृष्टि से असंख्यातगुणी अधिक अतः भगवान सुपार्श्वनाथ की मूर्ति पर सर्प का फण क्यों बनाया है। ऐसे ही आगे जानना चाहिए। यह भी जानना चाहिए कि 8. 20 जून 2001 जिनभाषित Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाता है, इसका कोई आगम प्रमाण नहीं है। प्रसिद्ध पुरातत्त्वविद् डॉ. | गोदावरी के उस पार तक ले गये थे। पीछे से गोदावरी में भयंकर मारुतिनंदन तिवारी ने कहा है कि ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान | बाढ़ आ गयी। डर यह था कि शत्रु को यदि बाढ़ का पता लग गया पार्श्वनाथ एवं सुपार्श्वनाथ का नाम लगभग एक सा होने से ऐसी मूर्ति | तो वह नागदेव को पीछे खदेड़ देगा और सब नदी में डूबकर मरण बनना प्रारंभ हुआ। को प्राप्त हो जायेंगे। यह भी समाचार आया कि नागदेव जीत तो शंका- क्रोधादि कषाय और हास्यादि नौ नोकषायों में क्या अंतर | गये हैं पर अर्द्धमृत से हो गये हैं। सती अत्तीमव्वे उनको अपने खेमे में लाना चाहती थी। नदी के उफान के कारण मजबूर थी। वह अचानक समाधान- नोकषाय का अर्थ किंचित कषाय है। अर्थात ये | तेजी से निकली और नदी के किनारे खड़े होकर कहने लगी कि यदि कषाय तो हैं पर क्रोध, मान आदि कषायों की तरह नहीं। जिस प्रकार मैं पक्की जिनभक्त और अखण्ड पतिव्रता होऊँ तो हे गोदावरी नदी, स्थिति और अनुभाग डालने में चार कषायें समर्थ होती हैं उस तरह | मैं तुझे आज्ञा देती हूँ कि तेरा प्रवाह उतने समय के लिए रुक जाए ये नोकषायें स्थिति और अनुभाग डालने में समर्थ नहीं हैं। ये भी जब जब तक हमारे परिवारी जन इस पार नहीं आ जाते। तुरंत ही नदी तक चार कषायें हैं तभी तक पायी जाती हैं। कषायों के पूर्णतः नष्ट | का प्रवाह घट गया और स्थिर हो गया। वह गई और अपने पति को होने के पहले ही नष्ट हो जाती हैं तथा कषायों के साथ ही उदय में | ले तो आई पर बचा न सकी। शेष जीवन उसने उदासीन धर्मात्मा आतीं हैं अलग से उदय में नहीं आती। इसलिए कषाय होते हुए भी | श्राविका के रूप में घर में बिताया। उसने स्वर्ण एवं रत्नों की 1500 किचित् कषाय हैं। जैसे कोई छोटा बच्चा पिताजी के साथ उनकी जिन प्रतिमाएँ बनवाकर विभिन्न मंदिरों में विराजमान की। महाकवि ऊँगली पकड़कर मेला देखने जाता है उसी तरह ये नोकषाय भी कषायों | पोन्न के शांतिपुराण की कन्नड़ भाषा में 1000 प्रतियाँ लिखाकर के सान्निध्य में कार्य करती हैं। शास्त्र भण्डारों में वितरित की। निरंतर दान देने के कारण उसे 'दान शंका- तीर्थकरों के एक से अधिक गणधरों का होना शास्त्रों । | चिंतामणि' कहा जाता था। उपर्युक्त कथा शिलालेख से प्रमाणित है। में लिखा है। परन्तु भगवान महावीर के काल में केवल श्री गौतम गणधर ही सभी प्रश्नों का उत्तर देते थे। तो क्या अन्य गणधर कुछ नहीं करते? सत्कारज और दान ही, कीर्ति के संजोग समाधान- श्री उत्तरपुराण पृष्ठ 123 पर श्लोक नं. 37 में इस प्रकार कथन है .डॉ. विमला जैन 'विमल' जयाख्यमुख्यपञ्चाशद्गणभृवृंहितात्मवाक्। दान की महिमा अगम है, शारद सकहि न गाय, अर्थ - जय आदि पचास गणधरों के द्वारा उनकी दिव्य ध्वनि मेघ न देता दान जो, पृथ्वी बाँझ रहाय। का विस्तार होता था। सागर लेता जल रहे, सब नदियन से माँगे, श्री उत्तरपुराण पृ. 494 में इस प्रकार लिखा है मीठा जल खारी बने, प्राणी करहि न राग। सकौतुकः समभ्येत्य सुधर्मगणनायकम्। जलनिधि नीचा ही रहे, लेता रहता दान, भक्तिकोऽभ्यर्च्य वन्दित्वा यथास्थानं निविश्य तम्।। जलद सदा उत्कृष्ट बन, जीवन देता दान। प्राञ्जलिर्भगवन्नेष यतीन्द्रः सर्वकर्मणा। मेघ समान है सम्पदा, कबहूँ थिर न रहाय, मुक्तो वाद्यैव को वेति पप्रच्छ प्रश्रयाश्रयः।। __ना बरसहिं यदि पयद तो, मारुति देत उड़ाय। अर्थ- कोतुक के साथ भीतर जाकर श्रेणिक राजा ने सुधर्म गणधर दान भोगकर सम्पदा, नतरु धरी रह जाय, देव की बड़ी भक्ति से पूजा-वंदना की तथा यथायोग्य स्थान पर बैठ जैसे काया मनुज की, मिट्टी में मिल जाय। हाथ जोड़कर बड़ी विनय से उनसे पूछा कि हे भगवन्, जो मानो आज लक्ष्मी चपला चंचला, पकड़ सके ना हाथ, ही समस्त कर्मों से मुक्त हो जायेंगे ऐसे ये मुनिराज कौन हैं? दान दिये चेरी भयी, भव-भव देगी साथ। इससे स्पष्ट होता है कि मुख्य गणधर के अलावा अन्य गणधर अवसर पाये दान कर, अवसर चूको नाय, भी प्रश्नों का उत्तर देते हैं। समय चूक पछताय मत, गयी घड़ी ना आय। शंका- आयुकर्म के अनुभाग में क्या अंतर होता है समझाइये? दान से बढ़कर नाहि है, कोई उत्तम कर्म, समाधान- इन्द्र और सामानिक, दोनों जाति के देवों की आयु, पर देता सत्पात्र को, देखि समय का मर्म। भोग सामग्री, परिवार, शक्ति, स्थान आदि समान होते हैं। परन्तु लेना दान बुरा नहीं, बढ़कर दे लौटाय, इन्द्र की आज्ञा और ऐश्वर्य में विशेषता होती है। इन्द्र की आज्ञा चलती भूमि बीज ले अङ्क में, अनगिन बीज उगाय। है सामानिक की नहीं। इन्द्र बंधन रहित होते हैं जबकि सामानिक देवों ___ दान दिये यश पाओगे, लाभ मिले तत्काल, के ऊपर, इन्द्र होने से, वे बंधनसहित होते हैं। यहाँ आयु की स्थिति कीर्ति अमर संसार में, मिटा सकहि ना काल। तो समान है पर अनुभाग भिन्न। जैसे कोई दो व्यक्ति जेल में हैं परन्तु कीर्ति रहित जीवन सदा, व्यर्थ मानते लोग, कोई ए श्रेणी में है और कोई बी श्रेणी में। इसी प्रकार आयुकर्म के विपाक सत्कारज और दान ही कीर्ति के संजोग। में अंतर समझना चाहिए। आयु वायु सम अथिर है, चंचल तड़ित समान, शंका- महासती अत्तीमव्वे कौन थी? 'विमल' शान्ति-सुख चाहना, दे निज कर से दान। समाधान- चालुक्य वंश के महादण्डनायक वीर नागदेव की 1/344 सुहाग नगर, पत्नी थी। एक बार नागदेव युद्ध करते हुए शत्रु को खदेड़ते हुए उसे फिरोजाबाद-283203 -जून 2001 जिनभाषित 21 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हास्यव्यंग्य साझे की सुई 'सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों में जो काम होते हैं, वे सामूहिक जिम्मेवारी के आधार पर होते हैं। जैसे कि एक सुई खरीदनी है, तो चार कर्मचारी बाजार जाते हैं और सुई ठेले पर लाद कर ले आते हैं। कहा भी है कि साझे की सुई ठेले पर लदकर जाती है। पर यदि उद्योग का प्रबन्ध निजी हाथों में गया तो फिर ऐसा थोड़े ही हो पायेगा। वे तो सुई लेने एक आदमी भेजेंगे और कहेंगे कि जेब में रखकर लेते आना।' सार्वजनिक क्षेत्र और निजी क्षेत्र की व्यवस्थागत भिन्नता को अनावृत करता है यह मर्मस्पर्शी व्यंग्य । आदमी और शेर में फर्क होता है आदमी और हाथी में भी फर्क होता है। इसी तरह आदमी और घोड़े में भी फर्क होता है। इस धारणा के वशीभूत हो, वो लोग जो रिंग मास्टर के इशारे पर नाचते- करतब दिखाते शेर, हाथी व घोड़े को देखने सर्कस में जाते हैं, मेरे ख्याल से, व्यर्थ ही अपना समय और पैसा बर्बाद करते हैं। क्योंकि कोड़े के भय अथवा भोजन की लालच से किसी भी प्राणी से कोई भी काम करवा लेना कतई मुश्किल काम नहीं है, कोई जीवट का कार्य नहीं है। जबकि इसके विपरीत, किसी सरकारी अफसर का, प्यास लगने पर, अपने पक्की नौकरी वाले चपरासी से एक ग्लास पानी तुरंत प्राप्त कर लेना अथवा आवश्यक होने पर, संबंधित फाइल बड़े बाबू से तत्काल निकलवा लेना अथवा अन्य किसी मातहत से, जरूरत के मुताबिक फौरन काम करवा लेना, सचमुच ही दुष्कर कार्य है, जीवट का काम है। दरअसल ऐसा कोई करतब सर्कस में दिखाया जाना चाहिए। पर जो नहीं दिखाया जाता तो केवल इस कारण कि ऐसा कौशल दिखा सकने वाले अफसर अब दुर्लभ हैं। , कहते हैं कि मानव के स्वभाव को, चारित्र को व्यवहार को जानने-समझने का प्रयत्न सृष्टि के प्रारंभ से ही चल रहा है। और इस मामले में अब तक जो प्रगति हुई है उसमें एक बात तो यह तय पायी गई है कि मानवसमाज के आधे सदस्यों के चरित्र को देवता भी नहीं जान पाये हैं अतएव किसी व्यक्ति का अब इस दिशा में कोई भी अनुसंधान करना बेमतलब है। तथा दूसरी बात यह निश्चित पायी गई है कि मनुष्य मूलत: एक आलसी प्राणी है। अतः यदि वह अपने खाने-पीने का जुगाड़ बिना किसी परिश्रम के कर सके तो उसके लिये इससे अधिक स्वागतेय स्थिति अन्य कोई नहीं हो सकती। जाहिर है कि सारी 22 जून 2001 जिनभाषित मारा-मारी केवल इस बात को लेकर है कि कम से कम काम करके अधिक से अधिक सुख का उपभोग किस तरह किया जा सके। मानव स्वभाव के इस मूलगुण को जरा विस्तार से समझना समीचीन होगा। इतिहास बतलाता है कि प्राचीन काल से ही आदमी अपने हिस्से का काम, दूसरे से करवा लेने की जुगत में लगा रहा है और इस प्रयास में आंशिक सफलता प्राप्त करते हुए उसने बैल को नकेल, घोड़े को लगाम और हाथी को अंकुश के द्वारा वश में करते हुए अपना बहुत सारा काम उन पर लाद दिया जो कि अभी तक लदा हुआ है। लेकिन, इसके बाद भी जब काफी काम बचा रहा तो उसने अपने से के उद्देश्य से समाज की संरचना की, कमजोर व्यक्ति से वह काम करवा लेने जातियाँ ईजाद की बहुतेरे सिद्धांत प्रतिपादित किए बाहुबल में वृद्धि की और इन सबके सम्मिलित प्रयोग से अपना वर्चस्व स्थापित करने में सफलता प्राप्त की। शनैः-शनैः मानव समाज, स्पष्ट रूप से दो विभिन्न वर्गों में विभाजित हो गया। एक वर्ग में रहे वो जो काम करवाते थे और दूसरे में थे वो जिनकी नियति थी काम करना। संक्षेप में इन्हें, क्रमशः शासक और शासित वर्ग कहा गया ! आरम्भिक अवस्था में, ● शिखरचन्द्र जैन शासक वर्ग में, लोगों की संख्या काफी कम थी। इसका कारण यह था कि उन दिनों संसार के सारे सुख केवल शासक वर्ग के लिए ही आरक्षित थे। अब जैसा कि शास्त्रों में कहा गया है, अव्वल तो संसार में सुख ही नहीं, पर अगर छोटे-मोटे मुश्किल से शहद की बूंद की माफिक हो भी तो उन्हें बहुत सारे लोगों में तो नहीं बाँटा जा सकता था न ! इसलिए शासक वर्ग तब राजा-महाराजा, शहंशाह बादशाह तक ही सीमित था। शेष सभी मनुष्य शासित वर्ग में हुआ करते थे जो कि बाकायदा शासकों की बेगारी करने को बाध्य थे। शासितों से काम लेने हेतु भी शासक तकरीबन वैसे ही हथकंडे अपनाते थे जैसे अन्य प्राणियों को वश में करने के लिए दासों को निरंतर कार्यरत रखने हेतु बेड़ियाँ और कोड़े सर्वथा प्रभावी उपकरण माने जाते थे। यह स्थिति सैकड़ों वर्षों तक रही। शासक निर्विघ्न सुख भोगते रहे और शासित दुखः शास्त्रों ने इसे पूर्वोपार्जित कर्मों का प्रतिफल बतलाते हुए आश्वस्त किया कि सत्कर्म करने से अगले जन्म में शासक वर्ग में जन्म लेना सुनिश्चित किया जा सकेगा। बहुतेरे शासितों ने दुःख भोगना अपनी नियति मानते हुए इस स्थिति से समझौता कर लिय । अन्यों ने प्रारब्ध को दोष दिया और चुप हो लिए। इस तरह बहुसंख्यक शासित, एक लम्बे समय तक यथास्थिति बनाए रखने में शासकों के सहायक बने रहे। लेकिन समय कितना भी लम्बा हो, गुजर ही जाता है। आदमी कितना ही संतोषी हो, सुख का लालच उसे व्याकुल कर ही देता है तथा पकड़ कितनी ही मजबूत हो देरसबेर, ढीली पड़ ही जाती है। इसलिये इन सिद्धांतों के अनुरूप, जब कालांतर में शासकों को यह महसूस हुआ कि शासितों पर उनका नियंत्रण कमजोर पड़ता जा रहा है तो Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्होंने एक सूझी-बूझी रणनीति के अंतर्गत | बाकायदा इन वादों पर विश्वास करते हुए, | विकास की सही कुंजी हाथ लग गई है। मंतव्य शासित वर्ग की ऊपरी सतह से कुछ | कभी एक दल को तो कभी दूसरे को सत्ता बना कि अधिक से अधिक उद्योग सार्वजनिक बुद्धिजीवियों को अपने वर्ग में खींच लिया के आसन तक पहुँचाती रहती है। क्षेत्र में लाये जावें। चाहे वो डबल रोटी बनाने और उनकी मदद से शेष शासितों पर अपनी इस तरह, अनगिनत बाधाओं को पार के कारखाने हों, बैंक हों, कोयला खदाने हों, पकड़ मजबूत कर ली। इसके लिये तब, कर जब कोई राजनीतिक दल अथवा दलों खोखले हो गए निजी कपड़े के मिल हों अथवा बाहुबल के अलावा, साम, दाम और भेद का का समूह सत्ता पर काबिज़ होता है तो उस | घाटे में चल रहे निजी इस्पात कारखाने। और सहारा भी लिया जाने लगा और इस तरह एक पर अनेक जिम्मेवारियाँ आ पड़ती हैं। यह सब प्रजातंत्र की मूल भावना के अनुरूप बार फिर शासकों ने अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर मसलन, मंत्रीपरिषद् में स्थान न पा सकने ही था। जो लोग सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों दी। वाले सदस्यों के आक्रोश को झेलना। दल के में कार्यरत हुए वे कम से कम एक चौथाई यों करने को तो श्रेष्ठता सिद्ध कर दी उन महत्त्वपूर्ण नेताओं को जो चुन कर नहीं सरकारी कर्मचारी तो कहलाए ही। सरकारी शासकों ने, लेकिन एक बात शासितों की भी आ पाते हैं, निगमों के अध्यक्ष के पदों पर कर्मचारी कहलाए जाने की ललक किसे नहीं समझ में आ गई कि शासक वर्ग में स्थापित करना अथवा स्थापित करने हेतु नए होती? सत्ता का सुख चटनी के माफिक भी सम्मिलित होने के लिए, उन्हें, वस्तुतः, निगमों का गठन करना, आदि-आदि! मिले तो मुँह का जायका तो बदल ही जाता अगले जन्म तक प्रतीक्षा करना आवश्यक कहते हैं कि हमारे देश में, प्रजातंत्र के नहीं था। जो कुछ जरूरी था, वह था, शासकों आरम्भिक काल में, इस तरह की बाध्यताएँ सार्वजनिक क्षेत्र में स्थापित उद्योगों का की पकड़ ढीली कर देने के लिए जोरदार नहीं थीं। तब राजनीतिक दलों में कुछ हद तक महिमागान कई वर्षों तक चला। इस दौरान प्रयास! इस अद्भुत रहस्य के उजागर होते ही अनुशासन भी पाया जाता था। सत्तारूढ़ दल अधिक से अधिक लोगों को नौकरी मुहैय्या शासितों ने, सामूहिक रूप से, शासकों की सहसा ही विघटित नहीं हो जाया करते थे। कराने का उत्तरदायित्त्व इन उद्योगों ने बखूबी श्रेणी में घुस-बैठने के लिए, भागीरथ प्रयत्न आयाराम-गयाराम का प्रचलन प्रारंभ नहीं निभाया। तकनीक व मशीनों के आधुनिकीप्रारंभ कर दिए और फिर आविर्भाव हुआ एक हुआ था। छींक आते ही समर्थन वापिसी की करण में अरबों-खरबों रुपयों का निवेश किया क्रांति का जो अनवरत चलती हुई, काफी घोषणा भी तब नहीं हुआ करती थी। ऐसे और कहा गया कि बस अब उद्योगों की हालत उठा-पटक, झगड़ा-झंझट, मार-पीट और सौम्य, शांत और सर्वथा अनुकूल वातावरण सुधरने को ही है। लेकिन उद्योग का गणित अन्तराल के बाद प्रजातंत्र स्थापित करने में | में, जाहिर है कि, अन्य व्यस्तताओं के निराला ही होता है। इसमें उत्पादन करना होता सफल हुई। इस क्रांति ने, आदमी को संगठित बावजूद, सत्ताधारी लोग, जनता का जीवन है। उत्पाद की गुणवत्ता बनाए रखनी होती है। प्रयासों के चमत्कारिक परिणामों से अवगत भी सुखमय बनाने के विषय में चिंतन करने उत्पादन लागत कम रखनी होती है। उत्पाद कराया, संगठन के महत्त्व से परिचित | हेतु थोड़ा समय निकाल ही लेते थे तथा देश | की बिक्री लागत से अधिक मूल्य पर करनी कराया, सदा एक-जुट होकर ही काम करने के विकास की दिशा में, हल्के से ही सही, होती है। ऐसे तमाम काम करना होते हैं तब हेतु संकल्पित किया। एक-दो कदम बढ़ा ही लेते थे। ऐसे ही कहीं जाकर बेलेन्स-शीट धनात्मक बन पाती यहाँ प्रजातंत्र की प्रशस्ति में दो शब्द सद्प्रयत्नों के फलस्वरूप स्थापित हुए देश है। उद्योग चल पाता है। कह देना उपयुक्त होगा। प्रजातंत्र, शासन की | के सार्वजनिक क्षेत्र में अनेक उद्योग, जिनमें पर जहाँ काम करने की बात उठती है वह पद्धति है जिसमें कोई शासित नहीं होता। विदेशी सहायता से, जनता के कर्ज से तथा वहाँ मानव स्वभाव के मूलगुण का आड़े अर्थात् सभी शासक होते हैं और चूँकि | अन्य स्रोतों से प्राप्त राशि से किया गया भारी आना स्वाभाविक ही होता है। दरअसल जबसे प्रजातंत्र में केवल शासक ही होते हैं इसलिये | निवेश। साथ ही बने बहुतेरे मंत्रालय, आदमी ने, आदमी से, आदमी की तरह लोग आपस में एक-दूसरे पर ही शासन करने विभाग, अनुभाग, संचालनालय, नियंत्रणा- व्यवहार करना आरम्भ किया तब से आदमी हेतु उतारू रहते हैं। इसके लिये वो बाकायदा लय आदि, जिनका काम था इन उद्योगों पर से काम करवा लेना और भी चुनौती पूर्ण कार्य संगठन बनाते हैं जिसे राजनीतिक दल कहा निगरानी रखना, उन पर नियंत्रण रखना, उन्हें हो गया। विदेशों में इसे बहुत पहले ही भाँप जाता है। ये दल अनेक होते हैं तथा राष्ट्रीय, | जनता के प्रति उत्तरदायी बनाए रखना। लिया गया था। अतः वहाँ प्रबंधकों को प्रदेशीय, क्षेत्रीय या नगरीय, कुछ भी हो | सार्वजनिक क्षेत्र में स्थापित किए गए | मनोविज्ञान तथा मानव-व्यवहारविज्ञान जैसे सकते हैं। इन सभी राजनीतिक दलों का एक | उद्योगों का सभी ने स्वागत किया। जिन विषय पढ़ाए जाने लगे तथा मानव-प्रबंधन सूत्रीय कार्यक्रम होता है- येन केन प्रकारेण | विदेशियों ने कर्ज दिया, मशीनें दी, तकनीक में प्रशिक्षित किया जाने लगा। हालाँकि, सत्ता-सुख प्राप्त करना, जिसके लिए उन्हें | दी, जिन अफसरों की देख-रेख में उद्योग सार्वजनिक क्षेत्र के हमारे प्रबंधकों ने भी इनसे जनता का बहुमत प्राप्त करना आवश्यक | स्थापित हुए, जिन ठेकेदारों ने निर्माण कार्य सीख ली, पर वे बिना किसी दबाव के अथवा होता है। इस हेतु सभी दल, जनता को | किया, जिन लोगों को इन उद्योगों में नौकरी उद्योग पर बिना कोई आर्थिक बोझ डाले. प्रभावित कर रखने के सभी संभव हथकंडे | मिली तथा जिन कर्मचारी संघों को विस्तार | कर्मचारियों को काम करने हेतु, प्रेरित किए अपनाते हैं। लुभावने वादे करते हैं। जाति की, | का अवसर मिला, वे सभी अत्यंत प्रसन्न | रहने की कला में पारंगत नहीं हो सके। इसके धर्म की, क्षेत्र की, कर्म की दुहाई देते हैं। सभी | हुए। कुल मिलाकर यह एक ऐसा निर्णय था | फलस्वरूप, कालांतर में सार्वजनिक क्षेत्र के के हिस्से में सुख की बराबर मात्रा उपलब्ध जिसने सरकार और विपक्ष दोनों को समान | बहुतेरे उद्योग तो निरंतर घाटे में चलते हुए करा देने का संकल्प लेते हैं और जनता, | रूप से आह्लादित किया। लगा कि देश के | अपने मूल-निवेश को बचा सकने में भी जून 2001 जिनभाषित 23 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी उपलब्धि सक्षम नहीं रहे। शेष ने, यदा-कदा, लाभ | हैं। जैसे कि एक सुई खरीदनी है तो चार अर्जित किया जरूर, पर आधुनिकीकरण में कर्मचारी बाजार जाते हैं और सुई ठेले पर पुनर्निवेश के कारण इनकी हालत भी लाद कर ले आते हैं। कहा भी है कि साझे संतोषजनक न रह सकी। ऐसे में, सरकार ने, की सुई ठेले पर लद कर जाती है। पर यदि सार्वजनिक क्षेत्र के कुछ चुनिन्दा उद्योगों में, उद्योग का प्रबंध निजी हाथों में गया तो फिर निजी निवेशकों को सहभागी बनने का ऐसा थोड़े ही हो पायेगा। वे तो सुई लेने एक आमंत्रण देते हुए, विनिवेश की एक महती आदमी भेजेंगे और कहेंगे कि जेब में रख कर योजना की घोषणा कर दी। लेते आना। साथ ही दो चीजें और ले आना। जाहिर है कि ऐसा कर सरकार ने तो इसको एक कर्मचारी तो यही मानेगा कि मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डाल दिया। देश चार आदमियों का काम एक से करवाया भर में मजदूर संगठनों ने आसमान सिर पर जावेगा। उस पर बोझ बढ़ेगा। उसका शोषण उठा लिया। धरना, हड़ताल, घेराव, आत्म किया जाएगा।' दाह की धमकी दी। विपक्षी दलों ने सरकार तो उसे ऐसा क्यों नहीं मानना की इस नीति को घोर जनविरोधी निरूपित | चाहिए?' दूसरे विशेषज्ञ ने प्रति-प्रश्न करते करते हुए, खुलकर आलोचना की, निंदा की। हुए कहा,- 'आखिर उसे सरकारी संरक्षण की लाखों करोड़ों रुपयों के बहुमूल्य उद्योगों को सुखद छत्र-छाया से वंचित तो होना ही होगा। कोड़ी के भाव बेच देने की साजिश कहा। और रही बात काम की सो इसे यदि मानवउद्योगों के कर्मचारियों की रोजी-रोटी छीन कर स्वभाव के मूलगुण की पृष्ठभूमि में देखें तो उन्हें दर-दर का भिखारी बना देने की कोशिश सरकार और सरकारी विभागों के सभी कहा। विदेशी कंपनियों को देश में बुलाकर कर्मचारी एक ही नाव में सवार मिलेंगे। तब फिर से गुलाम बना लिए जाने का अवसर इनसे काम लेने के लिए क्या शासन को पुनः देने की बात कही। साथ ही, जैसी कि प्रथा पुरानी पद्धति अपनाना होगी? फिर प्रजातंत्र है, सत्तारूढ़ दल पर हजारों-करोड़ की राशि का क्या अर्थ होगा? मानव-अधिकारों का रिश्वत में लेने का आरोप लगाया तथा सरकार क्या मूल्य होगा?' से इस्तीफे की माँग की। 'अब काम न करने के लिये प्रजातंत्र यह प्रतिक्रिया आशा के बिल्कुल | और मानव अधिकारों की दुहाई तो बेमतलब अनुरूप थी। अतः सरकार ने इसके जवाब होगी।' पहले विशेषज्ञ ने उत्तर दिया, - में कुछ भी कहना आवश्यक नहीं समझा। 'अर्थशास्त्र जो कहेगा सो ठीक होगा। यदि लेकिन कर्मचारी संगठनों ने सार्वजनिक क्षेत्र निजीकरण से ही अर्थव्यवस्था का सुधार होना के उद्योगों का प्रबंध निजी हाथों में सौंपने का | है तो वही करना होगा। खूब करना होगा। उन जबरदस्त विरोध करते हुए निरंतर घेराव वा | सभी कामों का करना होगा जो किए जा सकते प्रदर्शन कर विषय को गर्माये रखा। मीडिया | ने भी समुचित सहयोग दिया। इंटरव्यू लिए पर इसके लिये पहले कुछ उद्योग ही और प्रसारित किए। विशेषज्ञों का पेनल बैठा | क्यों चुने गए?' कर चर्चा करवायी और इस सारी प्रक्रिया में 'इसे यों समझ लें कि जब किसी जो बात उजागर हुई वो ये कि देश की मशीन को ओवर-हालिंग के लिए खोला जाता अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने हेतु, पिछले है तो पहले एक पुर्जा खोलते हैं, फिर दूसरा दस वर्षों में, हर सरकार, कमोवेश यही कदम और उसके बाद तीसरा। पर पुर्जे एक एक कर उठाना चाहती थी और ये भी कि इस परिवर्तन सभी अलग करने होते हैं। तभी ठीक से में कर्मचारियों का हित सुरक्षित रखना, खुद ओवर-हालिंग हो पाती है। दरअसल हमारे सरकार के हित में था। देश की अर्थव्यवस्था की ओवर-हालिंग बहुत तो फिर कर्मचारियों के भय का कारण | जरूरी है। बहुत ही जरूरी।' क्या है?' चर्चा में प्रश्न उठा। 7/56-ए, मोतीलाल नेहरु 'निजीकरण का भूत' एक विशेषज्ञ ने नगर (पश्चिम), भिलाई (दुर्ग) उत्तर दिया, 'दरअसल होता यों है कि (छ.ग.) 490020 सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों में जो काम होते हैं, वे सामूहिक जिम्मेवारी के आधार पर होते 24 जून 2001 जिनभाषित मेरी उपलब्धि है तरुण जैनाचार्य श्री विद्यासागर जी का सान्निध्य। एक ऐसे आचार्य से साक्षात्कार जो युवा है, जिनके मुख मंडल की मुस्कराहट और प्रवचन करने का ढंग सहसा चुम्बक सा खींच लेता है। प्रायः वे अपनी सरल, मृदु व सहजवाणी से शंकाओं का समाधान करते हैं। वस्तुतः तर्क से अतर्क में ले जाने का उनका दृष्टिकोण उत्कृष्ट है। तर्क को वे व्यर्थ का अवकाश नहीं देते. मात्र उतना हाशिया देते हैं, जहाँ तक कि वह तत्त्वज्ञान में उपकारक होता है, उसके लिए उनका आग्रह नहीं होता। शुद्ध, विशाल, व्यापक दृष्टि सम्पन्न ये आध्यात्मिक साधु बरबस अपनी ओर खींच लेते हैं। इनके दर्शन से वस्तुतः मैं बहुत ही कृतकृत्य हुआ हूँ। आचार्य विद्यासागर विलक्षण काव्यकार होने के साथ विलक्षण शब्दकार भी हैं। उनकी शब्दशास्त्रीय प्रतिभा निरुक्तिकार 'यास्क' की परम्परा का स्मरण दिलाती है। वर्ण-विपर्यय और सभंग-अभंग श्लेष द्वारा शब्दों की चमत्कार पूर्ण अर्थ योजना में आचार्य श्री की द्वितीयता नहीं। संस्कृत के ज्ञानोत्कर्ष की दृष्टि से उनकी मेधा एवं धारणाशक्ति विस्मयाभिभूत करनेवाली है। साहित्य और दर्शन का उनमें समाहार हुआ है। उनकी भक्ति और नीतिसमन्वित काव्यप्रतिभा ने संस्कृत साहित्य को मानो शंकराचार्य की द्वितीयता से विमडित किया है। उनकी काव्यकृतियाँ कोश का अनुकरण नहीं करतीं, वरन कोशकारों के लिए नई शब्दावली प्रस्तुत करती हैं। सचमुच वे अतुल और विस्मयकारी शब्द भंडार के अधिस्वामी है। __ डॉ. रंजनसूरि देव, पटना (बिहार) आचार्य श्री विद्यासागर, दिगम्बर जैन परम्परा के ख्यातिलब्ध आचार्य हैं। अल्पवय में ही आप में जो सारस्वत वैभव प्रकट हुआ है, वह आपकी उग्र तपस्या का परिणाम है। आपके व्यक्तित्व में तपस्या और काव्य का ऐसा अद्भुत समन्वय है कि आपकी तपस्या भी काव्यात्मक हो उठी है और काव्य भी तपस्यात्मका डॉ. आशा मलैया या | हैं।' Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारीलोक नारी का सामाजिक मूल्यांकन आवश्यक • श्रीमती रंजना पटोरिया एक हजार वर्षों का भी विकास के लिये पूर्ण नारी ज्ञान, शक्ति और ऐश्वर्य इन तीनों रूपों की समन्वित इतिहास संजोए एक युग स्वतंत्रता मिलनी चाहिए, नारी कृति है। नारी सृष्टि, समाज और मानव जीवन तीनों की बीत गया, अब आया को पुरुष से हेय समझना, 21वीं सदी का युग, सारी आधारशिला है। वह न केवल जननी है, अपितु शिक्षक, अज्ञान, अधर्म व अतार्किक है। संभावनाओं से भरा हुआ प्रशिक्षक, निर्देशक, पोषक व रक्षक भी है। पाश्चात्य संस्कृति जैनागमों में पत्नी को 'धम्मऔर यही समय आकलन में नारी भोग्या है, किन्तु भारतीय संस्कृति में नारी को माता सहाया' अर्थात् धर्म की सहाकरने का भी है, विशेषकर के रूप में उपस्थित कर इस रहस्य को उद्घाटित किया गया यिका माना है। 'नारी की स्थिति का। अब | है कि वह विलासिता की सामग्री न होकर वन्दनीय व नारी शक्ति, ज्ञान और संदर्भ विश्व की नारी हो या | पूजनीय है। ऐश्वर्य इन तीनों रूपों की भारत की। नारी सबल हुई समन्वित कृति है, नारी सृष्टि, या दुर्बल। उसका सम्मान हुआ या मान घटा। | धुरी है। इस कुञ्जी को कायम रखने व समाज और मानव जीवन तीनों की आधाआत्मनिर्भर हुई या उसकी निर्भरता में वृद्धि इक्कीसवीं सदी की शांति व समृद्धि के लिये रशिला है। वह न केवल जननी है अपितु हुई। नारी के व्यक्तित्व में निखार आया या नारी के सम्मान व स्वाभिमान की रक्षा अत्यंत शिक्षक, प्रशिक्षक, निर्देशक, पोषक व रक्षक और भी दबाई-कुचली गई। उपलब्धियों के | आवश्यक है। यह तभी संभव है जब नारी भी है। पाश्चात्य संस्कृति में नारी भोग्या है कीर्तिमान हासिल किये या घर की चारदिवारी स्वयं का सर्वांगीण शिक्षा द्वारा विकास करे किन्तु भारतीय संस्कृति में नारी को माता के में चूल्हे-चौके तक सिमट कर रह गई। जब वह भी मानसिक व बौद्धिक दोनों तरह से। रूप में उपस्थित कर इस रहस्य को उद्घाटित बात भारत की होगी तो ईसा की सहस्राब्दी और यह शिक्षा तभी सार्थक होगी जब मेधा किया गया है कि वह विलासिता की सामग्री तक नहीं, वह तो युगाब्दियों तक चलेगी। व प्रतिभा का सही दिशा में समुचित उपयोग न होकर वंदनीय व पूजनीय है। किया जावे। वर्षों की दासता के कारण नारी सृष्टि की निर्मात्री, धात्री 'माँ' की अज्ञान के अंधेरे में, कुरीतियों, अंधविश्वासों आज 21वीं सदी के आरंभ में नारीश्रेष्ठता की भारतीय मूल्यों में सहज स्वीकृति में जकड़ गई है। और वंचित है, उस सम्मान जागरण की बातें प्रायः सुनने मिलती हैं। यह थी, किन्तु जब-जब इसकी उपेक्षा हुई तब से जिसकी वह अधिकारिणी है। हिन्दू धर्मग्रन्थों ठीक भी है क्योंकि समाज व राष्ट्र की उन्नति तब अन्याय हुआ। समाज में विकृति आई में तो यहाँ तक लिखा है कि 'कहीं धर्म की व अवनति दोनों ही नारी पर निर्भर है। नारी और देश पतन के गर्त में गया। आज न तो जागरण हेतु 'महिला सम्मेलन' कर लेना या समाज में शांति है, और न ही समृद्धि, किसी व्याख्या करनी है तो शास्त्रों में देखें। शास्त्रों में न मिले तो संतों से पूछे। संतों से न मिले कानून बना देना ही पर्याप्त नहीं है, भी राष्ट्र की शांति. सुख-समृद्धि के लिये तो माता से पूछे। माँ ही धर्म की अधिकृत आवश्यकता है मानसिकता बदलने की। इस आवश्यक है कि उस राष्ट्र की नारी का व्याख्याता है।' यहाँ धर्म का अर्थ कर्तव्य से | हेतु महिलाएँ शिक्षा भी प्राप्त करने लगी हैं सामाजिक सम्मान की दृष्टि से मूल्यांकन हो। है, और निश्चय ही संतान का कल्याण चाहने किन्तु शिक्षा का जो सकारात्मक प्रभाव उन अहिल्या का शिलावत् जीवन जीना, वाली माता उसे करणीय और अकरणीय का पर पड़ना चाहिए, जो कर्त्तव्यपरायणता आनी सीता के सतीत्व की अग्नि परीक्षा, व सही ज्ञान देती है। परिवार समाज व | चाहिए, उसमें कमी है। इस हेतु उन्हें उत्साहित परित्याग स्वाभाविक नहीं अस्वाभाविक व विश्वशांति की कामना करती है। करना है। वे अपनी शक्ति पहचानें। धैर्य, असामान्य घटनाएँ थीं जिनकी जनमानस में ममता, त्याग और शौर्य की प्रतिमूर्ति बनें। कभी स्वीकृति नहीं हुई। अन्याय के उदाहरण भगवान महावीर की दृष्टि में नागरिक के रूप में राष्ट्र निर्माण के कार्य में पहले भी थे, आज भी हैं, आगे भी रहेंगे। जुट जावें। महिलाओं पर जितना अपने जीवन किन्तु न ही यह भारतीय अवधारणा है और युगपुरुष महावीर की दृष्टि में नारी का का दायित्व है, उतना ही परिवार, समाज और न ही आदर्श। महत्त्वपूर्ण स्थान था। महावीर के द्वारा नारी को राष्ट्र का भी है। अतः राष्ट्र की समस्याओं का नारी के हाथ में राष्ट्र के विकास की | खोया सम्मान दिलाना एक क्रांतिकारी कदम चिंतन करें व समाधान में भागीदारी निभावें। कुञ्जी है। विश्वशांति स्थापना की वही एक | था। उन्होंने समझाया, पुरुष की तरह स्त्री को हमारी अस्मिता व सम्मान की सुरक्षा इसी में नारी -जून 2001 जिनभाषित 25 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ्य पुस्तक से आपत्तिजनक पद्य निष्कासित है। हमें विश्वास है कि त्याग, बलिदान व अपने नैसर्गिक सुख का परित्याग कर समाज को अभ्युदय और निःश्रेयस की ओर ले जाने का आदर्श स्थापित करेगी, नारी ही। इन सब गुणों के बावजूद आज पाश्चात्य सभ्यता और पारम्परिक मूल्यों का टकराव भी हो रहा है। जिसमें भारत में हर साल 20 लाख मादा भ्रूणों की हत्या हो रही है। लिंगभेद पर आधारित हमारे समाज में पुरुषों का वर्चस्व है, इसलिये महिलाओं के खिलाफ किया गया कोई काम उसके पैदा होने के बाद से नहीं, बल्कि उसके पैदा होने के अंदेशे से ही शुरू हो जाता है। बीमार मानसिकता के लोगों को यह समझना होगा कि सृष्टि स्त्री व पुरुष दोनों के सहयोग से चलती है। अगर हम एक का अस्तित्व ही खत्म कर देंगे तो इस सृष्टि को आगे कैसे बढ़ाएँगे, इस तरह तो अनजाने में ही हम सृष्टि के विकास को रोक रहे हैं। वक्त रहते ही स्वयं को सुधारना होगा वरना दूसरों (औरत) को मिटाने के चक्कर में हम स्वयं ही मिट जाएँगे। यदि समाज इस समस्या पर यूँ ही आँखे मँदे रहा तो आने वाले समय में समाज का अस्तित्व या तो रहेगा ही नहीं, या गंभीर चिंतनीय विषय होगा। मादा भ्रूण हत्या द्वारा समाज न सिर्फ स्त्रीत्व का अपमान कर रहा है, बल्कि एक निर्दोष को अपने अधिकार से वंचित कर रहा है। भगवान महावीर ने घोषणा की थी कि विश्व के समस्त प्राणियों में एक सशक्त स्वभाव है - जीवन की आकांक्षा। इसलिये किसी को कष्ट न पहुँचाओ। जियो और जीने दो का नारा भी उन्हीं ने दिया था। आज जब देश-विदेश में महावीर स्वामी का 2600 वाँ जन्मोत्सव मनाया जा रहा है, तब यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि महावीर स्वामी के उन प्रवचनों का विशेष रूप से स्मरण हो जो पच्चीस सदियों पहले नारी जाति को पुरुष के समकक्ष खड़ा करने के प्रयास में उनके मुख से उच्चरित हुए थे। द्वारा- सन्दीप पटोरिया एसोसिएट्स, सिविल लाइन्स, कटनी-483501 (म.प्र.) 26 जून 2001 जिनभाषित श्री महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय, अजमेर द्वारा बी.ए. भाग एक में हिन्दी साहित्य के अध्यापन के लिय स्वीकृत पाठ्य पुस्तक राजस्थान प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित एवं डॉ. श्याम सुंदर दीक्षित द्वारा संपादित पुस्तक प्राचीन काव्य माधुरी के अध्याय 6 पृष्ठ सं. 50 पर छंद सं. || कविसुंदरदास का निम्न छंद है : 'तो अरहंत धर्मों भारी मर्मो, केश उपरर्मी बेशर्मी। जो भोजन नर्मी पावै सुरभी, मन मधुकरिणी अति डर्मी। अरु दृष्टि सुचर्मी अंतरि गरमी, नाहीं भामी गह ठेला। दादू का चेला मर्म पछेला, सुंदर न्यारा हवै खेला।' उक्त पद्य में साम्प्रदायिक विद्वेष से प्रेरित जैन साधुओं की चर्या के बारे में सर्वथा निराधार असत्य किंतु अत्यंत निन्दात्मक टिप्पणी की गई है। उक्त विषय की जानकारी प्राप्त होते ही अजमेर जिले के दि. जैन समाज में तीव्र रोष व्याप्त हुआ और श्री माणकचंद जैन एडवोकेट, अजमेर, श्री मूलचंद लुहाड़िया एवं श्री अशोक कुमार पाटनी, किशनगढ़ की ओर से विश्वविद्यालय के उपकुलपति महोदय को विरोध पत्र भेजे गए। अजमेर जिले की भगवान महावीर 2600वाँ जन्म जयती महोत्सव समिति की अजमेर में बैठक आयोजित हुई जिसमें उक्त पद्य को पाठ्य पुस्तक में से निष्कासित कराने के लिए वृहत् स्तर पर आदोलन प्रारंभ करने का निर्णय लिया गया। यह भी निर्णय लिया गया कि इससे पूर्व एक बार दि. जैन समाज का प्रतिनिधि मंडल वि.वि. के उपकुलपति जी से इस आपत्तिजनक पद्य को पाठ्यपुस्तक से निकाल देने के लिये निवेदन करे एवं ऐसा नहीं किए जाने पर तीव्र आन्दोलन प्रारंभ करने की चेतावनी दे दी जाए। महोत्सव समिति के मंत्री श्री कपूरचंद सेठी ने उपकुलपति जी को उक्त आशय का पत्र लिखा। प्रसन्नता का विषय है कि विश्वविद्यालय के उपकुलपति महोदय ने दि. जैन समाज के विरोध के औचित्य को समझकर तुरंत प्रभाव से यह आपत्तिजनक पद्य पाठ्यपुस्तक से निष्कासित किए जाने के निर्देश प्रदान कर दिए। उपकुलपति महोदय के इस उचित एवं प्रशंसनीय निर्णय के लिये दि.जैन समाज अपना आभार व्यक्त करता है। . मूलचंद लुहाड़िया आध्यात्मिक परितृप्ति खड़-खड़ काया ऐसी जैसे आग में विदग्ध स्वर्णलता। अभय की जीवंत प्रतिमूर्ति। रोम-रोम में आज भी जहाँ तहाँ बालक विद्याधर सा ही भोलापन, वैसी ही निरीह निष्काम मुद्रा। सात सुरों के लयपुरुष, संगीत में गहरी रुचि, कवि भाषाविद्, दुर्धर्ष साधक, तेजोमय तपस्वी। बोलने में मंत्र-मुग्धता, आचरण में स्पष्टता, कहीं कोई प्रचार-प्रसार की कामना नहीं। सर्वत्र सुख, शांति, महान मनीषी और तेजस्वी, तपोधन, जीवंत तीर्थ निर्ग्रन्थ दिगम्बर आचार्य। • डॉ. नेमीचंद्र जैन, इंदौर (म.प्र.) Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालवार्ता रात्रिभोजन-त्यागी शृगाल प्रस्तुति : श्रीमती चमेलीदेवी जैन बात बहुत पुरानी है। एक नगर में एक सुपात्र जानकर मुनि ने करुणापूर्वक अपना के पास गया और अपना मुँह पानी के पास दिगम्बर मुनि आये थे। वे नगर के बाहर एक मौन भंग किया और शृगाल को सम्बोधित | ले गया कि अंधेरा दिखाई दिया। अंधेरा बगीचे में रुके हुए थे। सागरसेन उनका नाम कर कहा - देखकर उसे रात होने का प्रतिभास हुआ।उसे था। वे महान् तपस्वी थे। उनके तप का हे शृगाल! इन्द्रियों के विषय बुरे हैं। वे | मुनिराज के निकट लिए अपने व्रत की याद महात्म्य सुनकर सभी नगरवासी उनके दर्शन भोगते समय ही अच्छे प्रतीत होते हैं। तू | आई। फलस्वरूप वह बिना पानी पिये ही करने के लिये लालायित थे। राजा के पास रसना के आधीन होकर इधर-उधर क्यों भटक | बावड़ी के बाहर आ गया। समाचार पहुँचने पर वह भी उनके दर्शन करने रहा है? अरे! यह रसना यहीं नहीं भटका रही बाहर आने पर उसे धूप दिखाई दी। को उत्कण्ठित हुआ। उसने नगर में ढिढोरा है, संसार में अनेक जगह भटकावेगी। मछली उसे लगा कि दिन शेष है। बढ़ती हुई प्यास पिटवाया। सभी नगरवासी स्त्री-पुरुष एकत्रित इस रसना के चक्कर में आकर अपने प्राण से आकुलित होकर वह झटपट फिर बावडी हो गये। राजा सभी को साथ लेकर गाजे-बाजे संकट में डाल देती है और तड़फ-तड़फकर के भीतर गया। जैसे ही वह बावड़ी में पानी और धूम-धाम से मुनि के दर्शन करने गया। मरती है। के पास पहुँचा कि फिर अंधेरा दिखाई दिया दर्शन कर सभी प्रसन्न हुए। मुनि से सभी ने हे शृगाल! क्या नहीं सुना? जो जैसा और नियम का आमरणान्त निर्वाह करने की धर्मोपदेश सुना और अपनी शक्ति के करता है उसका फल वह वैसा ही पाता है। दृष्टि से वह पुनः बिना पानी पिये बावड़ी से अनुसार व्रत धारण किये। अन्त में वन्दना कर काँटे देने वाले बबूल से क्या कभी आम का बहर आ गया। बाहर आने पर फिर से उसे सभी वहाँ से लौट आये। फल मिला है? तूने पूर्वजन्म में जो पाप किये दिन दिखाई दिया। वह पानी पीने बावड़ी में नगर के बाहर एक शृगाल रहता था। थे उन्हीं का परिणाम है जो कि तुम शृगाल गया और फिर बिना पानी पिये ही वापिस उसने ऐसी धूम-धाम, गाजे-बाजे और ऐसा हुए हो। शृगाल मुनिराज को एक टक निहारता आया। यह करते-करते उसे रात हो गई और समूह किसी के मरने पर उसे श्मसान ले जाते रहा। उसने मुनि को ज्ञानी समझकर मन ही वह पानी नहीं पी सका। परिणामस्वरूप प्यास हुए ही देखा था। अतः उसे आज परम हर्ष मन प्रणाम किया। सोचने लगा- मुनि का इसमें से उसके प्राण निकल गये। आमरणान्त था। वह ऐसा खुश था जैसे उसे चिन्तामणि क्या स्वार्थ है जो कि वे ऐसा कह रहे हैं। । भावपूर्वक व्रत के पालन करने से मरकर वह रत्न मिल गया हो। वह खुशी से फूला नहीं हितकारी बात सभी को अच्छी लगती है। उसे मगधदेश में सुप्रतिष्ठ नगर के सेठ सागरदत्त समा रहा था। उसका अनुमान था कि आज भी मुनिराज का उपदेश हितकर प्रतीत हुआ। और सेठानी धनमित्रा का प्रीतिंकर नामक पुत्र नगर का कोई बड़ा आदमी मरा है। नगर के आगे मुनिराज ने कहा- शृगाल! सब दुष्कर्म हुआ। व्रत के प्रभाव से मुक्त हो गया वह लोग उसे ही नगर के बाहर छोड़ने आये थे। छोड़कर व्रत धारण करो। इसी में जीवन का | तिर्यंच योनि से। निश्चित ही वे मृतक को नगर के बाहर छोड़ कल्याण है। रात्रि होने पर भोजन करना छोड़ महापुराण कथाकुञ्ज गये होंगे। दो। जो कुछ भी खाना-पीना हो दिन ही में (डॉ. कस्तूरचन्द्र 'सुमन') से साभार शृगाल खुशी-खुशी छिपता-छिपता खा-पी लेने में सार है। उस ओर दौड़ा जिस ओर से उसे बाजों की शृगाल चुपचाप सुनता रहा। उसे आवाज आई। उसने यहाँ आकर सारा प्रदेश मनिराज के हितकारी वचन अच्छे लगे। वह छान मारा। न तो कोई मृतक उसे भूमि के शिखर का स्पर्श कैसे? सोचने लगा- मुनिराज ठीक ही तो कह रहे भीतर गड़ा हुआ मिला और न कोई श्मसान हैं। उसने दुष्प्रवृत्तियों से मुख मोड़ लिया और • आचार्य श्री विद्यासागर में जलते हुए दिखा। वह विचारों में खो गया। जोड़ लिया अपने को नियमों से। निश्चय कर पर्वत की तलहटी से भी सोचने लगा- बाजे क्यों बजाये गये? और | लिया उसने रात से नहीं खाने-पीने का। इतना बड़ा समूह इस ओर क्यों आया था? अच्छे कार्य में विघ्न आते ही हैं। विघ्नों हम देखते हैं कि उसने पुनः खोज की किन्तु उसे कोई मृतक | में स्थिर बने रहने में ही सफलता प्राप्त होती उत्तुंग शिखर का दर्शन होता है नहीं मिला। है। शृगाल ने एक दिन रूखा-सूखा भोजन परन्तु बगीचे में बैठे सागरसेन मुनि राज | किया। रूखा-सूखा खाने से उसे पानी पीने मौनपूर्वक शृगाल को इधर-उधर भटकते देख की इच्छा हुई। वह एक बावड़ी में पानी पीने चरणों के प्रयोग के बिना रहे थे। वे दयार्द्र हो गये। दया से उनका हृदय गया। बावड़ी गहरी थी। सूर्य की किरणें बावड़ी शिखर का स्पर्श भर गया। वे अवधिज्ञानी थे। उन्होंने अवधि- के पानी तक नहीं पहुंच पा रही थीं बावड़ी सम्भव नहीं ज्ञान से जान लिया था कि शृगाल भव्य है। में दिन रहते हुए भी रात्रि जैसा अंधेरा छाया यह व्रत धारण कर मोक्ष प्राप्त करेगा। उसे | था। शृगाल जैसे ही बावड़ी में पानी पीने पानी 'मूकमाटी' जून 2001 जिनभाषित 27 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्यप्रदेश शासन द्वारा जैन समुदाय को अल्पसंख्यक दर्जा दिये जाने की अधिसूचना जारी • सुरेश जैन, आई.ए.एस. दिनांक 23 फरवरी 2001 को कुण्डलपुर में 2001 (क्र. || सन् 2001) श्री सुरेश जैन भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी | के द्वारा जो मध्यप्रदेश राजपत्र आचार्य श्री विद्यासागर जी एवं कुशल विधिवेत्ता हैं। मध्यप्रदेश शासन द्वारा जैन समुदाय को | | असाधारण क्र. 252 दिनांक के समक्ष मध्यप्रदेश के अल्पसंख्यक दर्जा देने की अधिसूचना जारी करने के तुरन्त बाद | 17 अप्रैल 2001 में प्रकायशस्वी मुख्यमंत्री श्री दिग्वि- श्री जैन ने विभिन्न शासकीय कार्यालयों में जाकर अल्पसंख्यक |शित किया गया है मूल जय सिंह जी ने प्रदेश के जैन आयोग तथा अल्पसंख्यक वर्ग को प्राप्त होने वाली सुविधाओं | अधिनियम की धारा 2 के समुदाय को अल्पसंख्यक से सम्बद्ध विभिन्न जानकारियाँ उपलब्ध की और परिश्रम पूर्वक खण्ड (ग) के स्थान पर दर्जा देने की घोषणा की थी। यह आलेख लिखा है। जैन समुदाय उन सुविधाओं से परिचित निम्नांकित नवीन खण्ड स्थापित उसे कार्यरूप में परिणित किया गया है :करते हुए मध्यप्रदेश शासन होकर उनका लाभ उठा सकता है। इस अधिनियम के प्रयोद्वारा दिनांक 29 मई 2001 जन के लिये 'अल्पसंख्यक को उक्त आशय की अधिसूचना जारी कर दी गई है। से अभिप्रेत है :भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 में प्रत्येक नागरिक | (एक) केन्द्रीय सरकार द्वारा राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम, को धार्मिक स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार प्राप्त है। संविधान के 1992 (1992 का सं. 19) के प्रयोजन के लिये इस रूप अनुच्छेद 29 द्वारा अल्पसंख्यक समुदाय के नागरिकों को यह में अधिसूचित किया गया समुदाय। अधिकार दिया गया है कि वे अपनी भाषा, लिपि एवं संस्कृति का | (दो) राज्य सरकार द्वारा इस रूप में अधिसूचित किया गया समुदाय। संरक्षण करें। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 30 में अल्पसंख्यक । | जैन समुदाय को अल्पसंख्यक समुदाय के रूप समुदाय को शैक्षणिक संस्थाओं की स्थापना एवं संचालन हेतु विशेष अधिकार दिये गये हैं। प्रत्येक अल्पसंख्यक समुदाय अपने धर्म एवं में घोषित करने की अधिसूचना भाषा के आधार पर अपनी रुचि के अनुसार शैक्षणिक संस्थानों की उपरिलिखित शक्तियों का प्रयोग करते हुए मध्यप्रदेश सरकार स्थापना एवं उनका संचालन करने हेतु सक्षम है। संविधान ने यह भी ने मध्यप्रदेश राज्य अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम, 1990 (क्र. प्रावधान किया है कि भारत सरकार तथा राज्य सरकार द्वारा अन्य | 15 सन् 1996) के अंतर्गत प्रसारित अधिसूचना क्र. एफ ||-18/ संस्थाओं की भाँति अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा संचालित शैक्षणिक 98/54-2 दिनांक 29 मई 2001 के द्वारा मध्यप्रदेश के मूल संस्थाओं को अनुदान एवं सहायता दी जाय। निवासी जैन समुदाय को अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में अधिसूचित केन्द्रीय सरकार ने अपनी अधिसूचना क्रमांक 816 (अ) दिनांक किया है। 23 अक्टूबर, 1993 के द्वारा जो भारत के राजपत्र भाग 2 खण्ड अल्पसंख्यक आयोग की स्थापना 3 के उपखण्ड (ii) में प्रकाशित की गई है, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम 1992 (क्र. 19 सन् 92) की धारा के खण्ड मध्यप्रदेश सरकार ने उपरिलिखित अधिनियम के अंतर्गत 2 (ग) द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए उक्त अधिसूचना प्रसारित अपनी अधिसूचना क्रमांक 1102/1985/54-2/96 के प्रयोजन के लिये मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध और पारसी समुदायों दिनांक 23 अक्टूबर, 1996 के द्वारा अल्पसंख्यक आयोग की को अल्पसंख्यक समुदायों के रूप में अधिसूचित किया है। इस स्थापना की है। आयोग की स्थापना के पीछे राज्य शासन की यह अधिसूचना में जैन समाज को अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में मंशा है कि धर्म या भाषा पर आधारित अल्पसंख्यक समुदायों के सम्मिलित नहीं किया गया था। हितोंकी इस आयोग द्वारा सुरक्षा की जावे। मध्यप्रदेश राज्य अल्पसंख्यक आयोग आयोग के कर्त्तव्य अधिनियम इस आयोग को इस अधिनियम की धारा ) (1) के द्वारा निम्नांकित कर्त्तव्य सौंपे गये हैं :मध्यप्रदेश राज्य में अल्पसंख्यक समुदायों के कल्याण हेतु (क) राज्य के अधीन अल्पसंख्यकों के विकास की प्रगति का मध्यप्रदेश राज्य अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम, 1996 (क्र. 15 मूल्यांकन करना, सन् 1996) प्रभावशील है। इस अधिनियम के अंतर्गत अल्पसंख्यक (ख) संविधान में और संसद तथा राज्य विधान मंडल द्वारा समुदाय घोषित करने की शक्तियाँ प्राप्त करने के लिये राज्य सरकार अधिनियमित विधियों में उपबंधित रक्षोपायों के कार्य को ने मध्यप्रदेश राज्य अल्पसंख्यक आयोग (संशोधन) अधिनियम, मानीटर करना। 28 जून 2001 जिनभाषित Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयोग को आवंटित राशि (ग) राज्य सरकार द्वारा अल्पसंख्यकों के हितों की संरक्षा के लिये रक्षोपायों के प्रभावी कार्यान्वयन के लिये सिफारिशें करना, (घ) अल्पसंख्यकों को उनके अधिकारों और रक्षोपायों से वंचित करने के बारे में विनिर्दिष्ट शिकायतों की जाँच पड़ताल करने और ऐसे मामलों को राज्य सरकार के नियंत्रणाधीन समुचित प्राधिकारियों के समक्ष प्रस्तुत करना, मध्यप्रदेश सरकार ने अल्पसंख्यक कल्याण विभाग से संबंधित व्यय के लिये वर्ष 2001-2002 में मांग संख्या 63 और लेखा शीर्ष 2225 के अंतर्गत बजट की पुस्तिका क्र. 37 में रु. 245 लाख का प्रावधान किया है। इस राशि में से अल्पसंख्यक कल्याण संचालनालय, अल्प संख्यक आयोग एवं वक्फ कमिश्नर के कार्यालय, (ङ) अल्पसंख्यकों के विरुद्ध किसी विभेद के कारण उत्पन्न होने उर्दू अकादमी को अनुदान, मध्यप्रदेश वक्फ बोर्ड को सहायक वाली समस्याओं का अध्ययन करवाना और उनको दूर करने के लिये अभ्युपायों की सिफारिश करना, (च) अल्पसंख्यकों के सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक विकास से संबंधित विषयों का अध्ययन, अनुसंधान और विश्लेषण करना, (छ) किसी अल्पसंख्यक समुदाय के संबंध में ऐसे समुचित अध्युपाय का सुझाव देना जो राज्य सरकार द्वारा किये जाने चाहिए, अनुदान, वक्फ न्यायाधिकरण मसजिद कमेटी को सहायक अनुदान, मध्यप्रदेश हज कमेटी को सहायक अनुदान तथा चर्च एवं दरगाह को अनुदान आदि शीर्षों पर व्यय किया जाता है। अल्पसंख्यक समुदाय को वित्तीय सहयोग (ज) अल्पसंख्यकों से संबंधित किसी विषय पर और विशिष्टतया उन कठिनाइयों पर जिनका उन्हें सामना करना पड़ता है राज्य सरकार को नियतकालिक या विशेष रिपोर्ट देना और (झ) कोई अन्य विषय जो राज्य सरकार द्वारा उसे निर्दिष्ट किया जाय, परन्तु यदि आयोग द्वारा की गई कोई सिफारिश राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग द्वारा मध्यप्रेदश राज्य से संबंधित किसी मामले पर की गई सिफारिश के विरुद्ध है तो उस दशा में राज्य आयोग द्वारा की गई सिफारिश अप्रभावी होगी। आयोग को जाँच हेतु प्रदत्त अधिकार आयोग द्वारा संविधान में और संसद तथा राज्य विधान मंडल द्वारा अधिनियमित विधियों में उपबंधित रक्षोपायों के कार्य को मानीटर करने एवं अल्पसंख्यकों को उनके अधिकारों और रक्षोपायों से वंचित करने के बारे में विनिर्दिष्ट शिकायतों की जाँच पड़ताल करने और ऐसे मामलों को राज्य सरकार के नियंत्रणाधीन समुचित प्राधिकारियों के समक्ष प्रस्तुत करने संबंधी कृत्यों का पालन करने के लिये आयोग को व्यवहार न्यायालय की निम्नांकित शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। (क) राज्य के किसी भी भाग से किसी व्यक्ति को समन करना और हाजिर कराना तथा शपथ पर उसकी परीक्षा करना, 1 (ख) किसी दस्तावेज को प्रकट और पेश करने की अपेक्षा करना, (ग) शपथपत्रों पर साक्ष्य ग्रहण करना, (घ) किसी कार्यालय से किसी लोक अभिलेख या उसकी प्रतिलिपि की अध्यपेक्षा करना, (ङ) साक्षियों और दस्तावेजों की परीक्षा के लिये कमीशन निकालना और (च) कोई अन्य विषय जो विहित किया जाए। आयोग के अध्यक्ष राज्य शासन के पिछड़ा वर्ग एवं अल्पसंख्यक कल्याण विभाग ने अपने आदेश क्र. 1102/985/54-2/96 दिनांक 23.10.96 द्वारा मध्यप्रदेश राज्य अल्पसंख्यक आयोग का गठन 23 अक्टूबर 1996 से किया है और इसके अध्यक्ष के पद पर श्री इब्राहीम कुरैशी को नियुक्त किया है। मध्यप्रदेश पिछड़ा वर्ग तथा अल्पसंख्यक वित्त एवं विकास निगम भोपाल द्वारा अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों को स्वरोजगार स्थापित करने की दृष्टि से 95 प्रतिशत ऋण सस्ती ब्याज दरों पर प्रदान किया जाता है। हितग्राही को अपनी ओर से 5 प्रतिशत अंश जमा करना होता है। वित्तीय सहयोग निगम द्वारा स्वीकृत निम्नांकित योजनाओं को प्रदान किया जाता है (1) डेयरी (2) बेकरी (3) होटल / ढाबा (4) (5) (6) (7) (8) पान दुकान रेडीमेड गारमेंट किराना दुकान आटो स्पेयर पार्ट्स आटो रिपेयर (9) विद्युत मोटर रिवाइंडिंग (10) प्रिंटिंग प्रेस एवं (11) कार वर्कशाप आदि इन योजनाओं का लाभ अब जैन समुदाय भी उठा सकता है। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक विकास एवं वित्त निगम द्वारा वर्ष 19992000 हेतु मध्यप्रदेश के निगम को रु. 204 लाख का प्रावधान किया गया था। जिले स्तर पर इस योजना का कार्यान्वयन महाप्रबंधक, जिला व्यापार एवं उद्योग केन्द्र द्वारा किया जाता है। प्रायः प्रतिवर्ष मई माह में आवेदन पत्र प्राप्त किये जाते है। इच्छुक व्यक्ति महाप्रबंधक, जिला एवं व्यापार उद्योग केन्द्र से सम्पर्क करें। अल्पसंख्यक समुदाय के उन हितग्राहियों को जिनकी पारिवारिक वार्षिक आय गरीबी रेखा के नीचे शहरी क्षेत्रों में 21,206 तथा ग्रामीण क्षेत्रों में 15,976 एवं दोहरी गरीबी रेखा के नीचे शहरी क्षेत्रों में रु. 42, 412 तथा ग्रामीण क्षेत्रों में रु. 31,952 से कम हो एवं उनकी आयु 18 वर्ष या उससे अधिक हो, उन्हें ऋण लेने की पात्रता होगी। राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित राष्ट्रीय अल्पसंख्यक विकास एवं वित्त निगम द्वारा अशासकीय संस्थाओं के माध्यम से भी प्रति व्यक्ति रु. 10,000/- तक ऋण दिया जाता है। 'जून 2001 जिनभाषित 20 . Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शैक्षणिक लाभ अल्प संख्यक की मान्यता मिलने से जैन समाज को मुख्य लाभ यह है कि जैन समाज द्वारा मान्यता प्राप्त शिक्षण संस्थाओं की स्थापना एवं संचालन का उन्हें पूर्ण अधिकार होगा। परिणमतः हम इन संस्थाओं में अपने समाज के विद्यार्थियों को प्रवेश दे सकेंगे तथा अपने विवेक के आधार पर प्राचार्य/प्रधानाचार्य को नियुक्त कर सकेंगे। अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा स्थापित एवं संचालित तथा शासन से सहायता प्राप्त संस्थाओं में अल्प संख्यक समुदाय के 50 प्रतिशत छात्रों को प्रवेश दिया जा सकेगा। परिणामतः इन संस्थाओं का अल्पसंख्यक चरित्र बना रह सकेगा। प्रमुख शर्त यह है कि इन संस्थाओं द्वारा संबंधित विश्वविद्यालय द्वारा स्थापित मानदण्डों की पूर्ति की जाए। इन संस्थाओं में अन्य समुदाय के 50 प्रतिशत छात्रों को योग्यता के आधार पर प्रवेश दिया जा सकेगा। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि राज्य शासन के उच्च शिक्षा विभाग ने अपने ज्ञापन क्र. डी-2839/1152/97/सी-3/38 दिनांक 29.10.97 के द्वारा अल्पसंख्यक समदाय द्वारा स्थापित अशासकीय शैक्षणिक संस्थाओं की निम्नांकित व्याख्या की है "अल्पसंख्यक समुदायों की अशासकीय शैक्षणिक संस्थाओं से तात्पर्य ऐसी संस्थाओं से है जिनका संचालन/प्रबंधन मुख्यतः घोषित अल्पसंख्यक समुदाय के प्रतिनिधियों द्वारा कराया जाता हो और जो मुख्यतः अल्पसंख्यक समुदायों में शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिये चलाई जा रही हों।" जैन समाज के प्रत्येक व्यक्ति की जैन समाज के नेतृत्व से बलवती अपेक्षा है कि अब मध्यप्रदेश में उच्च शिक्षा के ऐसे उत्कृष्टतम केन्द्र स्थापित किये जायँ जहाँ जैन समुदाय एवं प्रदेश एवं समीपस्थ प्रदेशों के सभी समुदायों के प्रतिभाशाली युवक/युवतियाँ चिकित्सा, प्रबंध, व्यवसाय, अभियांत्रिकी, विधि एवं तकनीकी क्षेत्रों में अंतर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय स्तर की शिक्षा प्राप्त कर अपना चतुर्मुखी विकास कर सकें और सम्पूर्ण विश्व की सेवा कर सकें। 30, निशात कालोनी, भोपाल-462003 (म.प्र) 'कथा तीर्थंकरों की' का लोकार्पण रातिमा.मुनि आयोजक कसान दांत शिक्षण आचार्य विद्यासागर जी के प्रभावक शिष्य मुनि श्री | आदि 9 रचनाओं का प्रश्नोत्तरों के साथ दोहानुवाद पूर्व में प्रकाशित समतासागर जी द्वारा लिखित सरल एवं सुबोध पुस्तक 'कथा | हो चुका है। उनके द्वारा रचित ग्रन्थ 'सागर बूंद समाय', 'सर्वोदय तीर्थकरों की' सागर में 9 जून, 2001 को पंडित रतनलाल जी | सार', 'तेरा सो एक', 'स्तुतिनिकुंज', एवं 'श्रावकाचार कथाकुंज' बैनाड़ा, आगरा एवं सुरेश जैन, आई.ए.एस. भोपाल द्वारा | सम्पूर्ण जैन समाज के घर-घर में पढ़े जा रहे है। ‘दशलक्षण लोकार्पित की गई। इस पुस्तक में चौबीस तीर्थंकरों के जीवनचरित्र | सारसंचय', तथा 'पंचकल्याणक प्रतिष्ठा', भी उनकी महत्त्वपूर्ण का संक्षिप्त वर्णन है। मुनिसमता सागर जी ने इस लघु पुस्तिका | कृतियाँ हैं। उनके प्रवचनसंग्रह 'प्रवचन पथ' 'हरियाली हिरदय के माध्यम से आदिपुराण, उत्तरपुराण, हरिवंशपुराण एवं पद्मपुराण | बसी' 'चातुर्मास के चार चरण' पर्युषण के दस दिन' एवं आदि जैन पुराणों का सुस्वादु नवनीत उपलब्ध कराया है। 'अनुप्रेक्षा प्रवचन' प्रत्येक श्रावक के स्वाध्याय कक्ष के महत्त्वपूर्ण समता सागर जी द्वारा लिखित 5 काव्य संग्रह एवं भक्तामर | रत्न हैं। 30 जून 2001 जिनभाषित Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वोदय ज्ञानसंस्कार शिक्षण शिविर सम्पन्न कुंथलगिरि (महाराष्ट्र) भगवान | शिक्षा प्राप्त करने वालों ने संकल्प किया है । परम्परा को वर्तमान समय में अत्यत कुलभूषण एवं देशभूषण के परम पावन | कि वे अपने कस्बों या शहरों में वर्ष में 3- | आवश्यक बताते हुए स्वयं भी शिविर में निर्वाण क्षेत्र कुन्थलगिरि पर प्रतिवर्ष की भाँति | 4 शिविर आयोजित करेंगे। | पढ़ने की इच्छा व्यक्त की। इस वर्ष भी श्री सन्मति सेवा दल मध्यवर्ती आगरा सेक्टर-7, आवास विकास उद्घाटन के समय दीप प्रज्ज्वलन श्री समिति द्वारा सर्वोदय ज्ञान संस्कार प्रशिक्षण कालोनी में 12 मई से 19 मई तक एक अरविन्द भाई (अध्यक्ष- वेतालीस दशा हूमण शिविर का आयोजन श्रमण संस्कृति संस्थान | धार्मिक शिक्षण शिविर का आयोजन किया समाज) तथा श्री रतनलाल जी बैनाडा के द्वारा सागानेर के तत्त्वावधान में किया गया। इस | गया। श्रीमान निरंजन लाल जी बैनाडा, जो इस शिविर के कुलपति भी थे, किया वर्ष लगभग 200 शिक्षार्थियों ने शिविर में | (कुलपित श्री सर्वोदय ज्ञान संस्कार शिक्षण गया। तदुपरान्त स्वागत गान के पश्चात सभी भाग लिया। दिनांक 4.5.2001 को शिविर शिविर) की अध्यक्षता में इस शिविर का शिक्षक, विद्वानों एवं अतिथियों का सम्मान का उद्घाटन दीप प्रज्ज्वलन करके श्री उद्घाटन 12 मई को प्रातः 7.30 बजे श्री किया गया। इस शिक्षण शिविर का अर्थभार रतनलाल जी बैनाड़ा (अधिष्ठाता- श्रमण | दिगम्बर जैन मंदिर, सैक्टर-7 में हुआ। करीब श्री पोपट भाई शाह, जलगाँव द्वारा वहन संस्कृति संस्थान, साँगानेर) तथा मध्यवर्ती 100 शिक्षार्थियों ने शिविर में भाग लिया। किया गया। उनकी तरफ से उद्घाटन में समिति के अध्यक्ष श्री जीवन दादा पाटिल समापन समारोह एवं पुरस्कार वितरण 19 उपस्थित लगभग 1500 लोगों के भोजन की द्वारा किया गया। प्रशिक्षण शिविर में मई को हुआ। श्री दिगम्बर जैन मंदिर के व्यवस्था भी की गयी। शिविर में जैन धर्म अधिकांश शिक्षार्थी डॉक्टर, प्रोफेसर आदि अध्यक्ष श्री सतीश जैन एवं श्री जयन्ती प्रसाद शिक्षा भाग-1,2, छहढाला, तत्त्वार्थसूत्र की होते थे। प्रतिदिन सुबह दोपहर और शाम 2- जैन ने मंच पर उपस्थित श्री बैनाड़ा जी, श्री कक्षाएँ नियमित रूप से दिन में तीन बार 2 घंटे के तीन शिक्षणसत्र लगते थे जिनमें सुनील शास्त्री, श्री ए.के. जैन का माल्यार्पण चलती थीं, अर्थात् लगभग 5 घंटे प्रतिदिन जैन धर्म शिक्षा-भाग-1,2, छहढाला, कर स्वागत किया। शिक्षार्थियों को पुरस्कार इन ग्रन्थों का स्वाध्याय होता था। श्री तत्त्वार्थसूत्र और सर्वार्थसिद्धि का प्रशिक्षण वितरण श्री अरुण जैन की ओर से किया गया। रतनलाल जी बैनाड़ा तत्त्वार्थ सूत्र की कक्षा दिया जाता था। सर्वार्थसिद्धि का अध्यापन अन्त में जैन समाज सेक्टर-7 की ओर से लेते थे और रात्रि में सभी को सामूहिकरूप रतनलाल जी बैनाड़ा करते थे और रात्रि में सभी का आभार व्यक्त किया गया। से पूजन का अर्थ समझाते थे एवं खुली तत्त्व भी सभी शिक्षार्थियों को पौन घंटे रत्नकरण्डक तारंगा दिनांक 20 मई से 27 मई चर्चा करते थे। साथ में आये हुए अन्य विद्वान श्रावकार पढ़ाते थे। तदुपरान्त पौन घंटे तक 2001 तक गुजरात प्रांतीय वेतालीस दशा पंडित सुनील शास्त्री, आगरा, पं. सौरभ शंका समाधान होता था। तत्त्वार्थसूत्र का हूमण दिगम्बर जैन समाज द्वारा आयोजित श्री शास्त्री, सौ, अनीता जैन, आगरा पं. सुनील शिक्षण श्रीमती पुष्पा बैनाडा आगरा करती सर्वोदय ज्ञान संस्कार शिक्षण शिविर अत्यंत शास्त्र, समनापुर तथा सौ. मनोरमा सौगानी, थी। अन्य शिक्षक श्रीमती रचना जैन, आगरा, हर्ष उल्लास के साथ श्री श्रमण संस्कृति आगरा, श्री प्रकाशचन्द्र जी पहाड़िया, श्रीमती पुष्पलता जैन, आगरा, ब्र. अरुण संस्थान, साँगानेर के सानिध्य में तारंगाजी में ब्रह्मचारी अल्पेश जैन, डॉ. शैलेष भाई, ब्र. भैया सांगानेर आदि थे। सभी शिक्षार्थी कठिन सम्पन्न हुआ। वेतालीस दशा ह्मण समाज | चेतनजी आदि थे। परिश्रम करते थे। द्वारा शृंखलाबद्ध प्रतिवर्ष लगाया जाने वाला दिनांक 26 मई को अपराह्न में परीक्षाएँ दिनांक 17 मई को विधिवत् परीक्षा यह चौथा शिक्षण शिविर था। पिछले वर्ष सम्पन्न हुई और दिनांक 27 मई को प्रातः ली गयी और 18 को प्रातःकाल परीक्षा फल वृन्दावन (हिम्मतनगर) में लगभग 350 प्रमुदित वातावरण में परीक्षाफल घोषित किया की घोषणा एवं पुरस्कार वितरण किया गया। शिक्षार्थियों ने भाग लिया था जबकि इस वर्ष गया और पुरस्कार वितरण का कार्य सम्पन्न तत्पश्चात् सभी शिक्षार्थी परम पूज्य आचार्य 500 से भी अधिक विद्यार्थी शामिल हुए। श्री विद्यासागर जी महाराज के परम शिष्य दिनांक 20 मई को प्रातः 9.00 बजे सबसे अधिक प्रसन्नता की बात यह मुनिश्री 108 समाधि सागर जी के दर्शनार्थ शिविर का उद्घाटन श्री भारतवर्षीय दिगम्बर | रही कि सन् 2006 तक होने वाले शिविर गये तथा उनका मंगल आशीर्वाद प्राप्त जैन महासभा दक्षिण प्रकोष्ठ के अध्यक्ष का भार वहन करने वालों ने अपने नाम किया। लगातार 4 वर्षों से प्रशिक्षण शिविर माननीय श्री आर.के. जैन मुम्बई द्वारा किया अंकित कराये। तारंगा गुजरात का प्रसिद्ध का आयोजन करने का ही प्रतिफल है कि इस गया। आपने अपने अध्यक्षीय भाषण में दसा सिद्ध क्षेत्र है एवं भगवान वरदत्त एवं भगवान वर्ष लगभग 100 प्रशिक्षित विद्वान श्री हूमण समाज द्वारा एकत्रित विशाल ध्रुव फण्ड शायरदत्त आदि साढ़े तीन करोड़ मुनियों ने सन्मति सेवा दल द्वारा महाराष्ट्र के विभिन्न की प्रशंसा की और कहा कि इतना ध्रुव फण्ड | यहाँ से निर्वाण प्राप्त किया है। स्थानों पर पर्युषण पर्व में प्रवचनार्थ भेजे | किसी भी अच्छी संस्था में देखने में नहीं सुनील कुमार जैन 'शास्त्री' जायेंगे। सर्वार्थसिद्धि एवं तत्त्वार्थसूत्र की | आया। उन्होंने शिक्षण शिविर लगाने की 962 सेक्टर-7, बोदला आगरा -जून 2001 जिनभाषित 31 हुआ। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर- आचार्य श्री विद्यासागर जी | पंडित रतनलाल जी बैनाड़ा शिविर के | प्रमाणपत्र वितरित किये गये। सागर जैन महाराज के आशीर्वाद से पूज्य मुनिश्री | कुलपति थे और श्री संतोष कुमार जी पटना | समाज ने पंडित रतनलाल बैनाड़ा का मुकुट समतासागर जी मनि श्री प्रमाण सागर जी | वाले आयोजक। प्रतिदिन तीन पारियों में | बाँधकर सम्मान किया। इस अवसर पर पज्य एवं ऐलक श्री निश्चय सागर जी के सान्निध्य कक्षाएं लगाई गईं। अध्यापन कार्य 8 घंटे मुनि श्री समतासागर जी महाराज ने कहा कि में सागर (म.प्र.) में 3 से 14 जून 2001 चलता था। तत्त्वार्थसूत्र का अध्यापन पं. | पंडित जी ने सागर में इतिहास रच दिया है तक सर्वोदय ज्ञान संस्कार शिक्षण शिविर का रतनलाल जी बैनाड़ा करते थे। तत्त्वार्थ सूत्र | | जहाँ एक साथ इतनी संख्या में लोगों को जैन आयोजन किया गया। शिविर में 3 साल से की कक्षा में लगभग एक हजार विद्यार्थी | धर्म में शिक्षित किया गया। उन्होंने कहा कि 80 साल की उम्र के 3000 से अधिक लोगों शामिल होते थे। शिक्षण शिविर बहुत लगते हैं लेकिन सागर ने भाग लिया। जाने-माने विद्वान् पंडित मकरौनिया में 500 से अधिक का शिविर इतिहास बन गया है जो लम्बे रतनलाल जी बैनाड़ा के नेतृत्व में श्री गणेश शिक्षार्थी शिविर में शामिल हुए। यहाँ की समय तक याद किया जायेगा। मुनि श्री प्रमाण दि. जैन संस्कृत महाविद्यालय सागर (म.प्र.) शिक्षण व्यवस्था ब्रह्मचारी श्री प्रदीप शास्त्री सागर जी महाराज ने कहा कि पंडितजी ने तथा मकरौनिया के जैन मंदिर परिसरों में पीयूष के जिम्मे की गई थी। आगरा के श्री देशभर में जैन विद्वान तैयार करने का जो आयोजित इस शिविर में बालबोध, छहढाला, सुनील शास्त्री भी इस शिविर के लिये विशेष बीड़ा उठाया है वह समाज के लिये अनुपम, द्रव्य संग्रह तथा तत्त्वार्थ सूत्र पढ़ाया गया। रूप से सागर आये थे। अनुकरणीय है। उन्होंने कहा कि पंडित जी पर इस शिविर के माध्यम से जैनधर्म और 14 जून को शिविर का समापन हुआ आचार्यश्री की कृपा है इसलिये वे अपने जिनवाणी की अभूतपूर्व प्रभावना हुई है। इस अवसर पर मेधावी शिक्षणार्थियों को उद्देश्य में अवश्य ही सफल होंगे। • रवीन्द्र जैन अनावश्यक हिंसा से बचिये आजकल सौंदर्य प्रसाधनों में चर्बी आदि अशुद्ध पदार्थों का उपयोग बहुत किया जा रहा है। अतः इस अनावश्यक हिंसा से बचने के लिये निम्न वस्तुओं का प्रयोग करना चाहिए। क्र. वस्तु ब्रांड का नाम साबुन, मार्बल नीम, चन्द्रिका, गंगा, सिंथोल, मैसूर, सन्दल, मेडीमिक्स, शिकाकाई | टूथपेस्ट अमर, विकोवज्रदन्ती, बबूल, मिसवाक । 3. | टूथ पावडर प्रामीस, प्योरहन्स, अमर, वैद्यनाथ, विकोवज्रदन्ती, झंडू, भाग्योदय 4. | शेविंग क्रीम गोदरेज के सभी उत्पाद 5. शेम्पू आर्निका, ल्योर, सिल्केशा | 6. | टेलकम पावडर नाइसिल, निविया, लक्मे 7. नेल पालिश लक्मे, टीना, टिप्स एण्ड रोस 8. | क्रीम केलेमाइन (लक्मे), सन 9. | आइमेकप लक्मे आइ पेन्सिल 10. अगरबत्ती एलिफेन्टा, अल्फा 11.| एयर प्यूरीफायर आडोनिल 12. लिपिस्टिक लक्मे टिप्स एण्ड रोस 32 जून 2001 जिनभाषित Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समता का संगीत आचार्य श्री विद्यासागर सुख के बिन्दु से ऊब गया था यह दुःख के सिन्ध में डब गया था यह। कभी हार से सम्मान हुआ इसका कभी हार से अपमान हुआ इसका। कहीं कछ मिलने का लोभ मिला इसे कहीं कुछ मिटने का क्षोभ मिला इसे। कहीं सगा मिला, कहीं दगा भटकता रहा अभागा यह। परन्तु आज सब वैषम्य मिट गये हैं जब से मिला यह मेरा संगी संगीत। 'मूकमाटी' 'जिनभाषित' के सम्बन्ध में तथ्यविषयक घोषणा प्रकाशन-स्थान : 1/205, प्रोफेसर्स कालोनी, आगरा- 282002, उ.प्र. प्रकाशन-अवधि : मासिक मुद्रक-प्रकाशक : रतनलाल बैनाड़ा राष्ट्रीयता : भारतीय पता : 1/205, प्रोफेसर्स कालोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) सम्पादक : प्रो. रतनचन्द्र जैन पता : 137, आराधना नगर, भोपाल-462003 म.प्र. स्वामित्व : सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कालोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) मैं, रतनलाल बैनाड़ा, एतद् द्वारा घोषित करता हूँ कि मेरी अधिकतम जानकारी एवं विश्वास के अनुसार उपर्युक्त विवरण सत्य है। रतनलाल बैनाड़ा प्रकाशक Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्यासागर इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेन्ट भोपाल विश्वविद्यालय से संबद्ध एवं मध्य प्रदेश शासन उच्चशिक्षा विभाग, तकनीकी शिक्षा विभाग एवं ए.आई.सी.टी.ई नई दिल्ली से मान्यता प्राप्त। वल्लभ नगर भेल, भोपाल, 462021,दूरभाष 621723, 621718, वस 621723 VIDYASAGAR INSTITUTE OF MANAGEMENT में सत्र 2001-2002 के लिए प्रवेश प्रारम्भ M.B.A B.Com. (General) B.COM. (Computer Application) B.C.A विशेषताएं राष्ट्रीय कम्पनियों से प्लेसमेन्ट। योग्य एवं अनुभवी प्रोफेसरों द्वारा अंग्रेगी एवं हिन्दी माध्यम से अध्यापन। गत 5 वर्षों का शत प्रतिशत परीक्षा परिणाम। अनेक छात्र विश्व विद्यालय की मेरिट सूची में। सभी छात्रों पाण्यक्रम के अतिरि अंग्रेजी,गणित एवं कमयूटर का प्रशिक्षण निर्धन मेधावी छात्रों को छात्रवृत्ति फुल टाईम इण्टरनेट सुविधा। आधुनिक कमयूटर लैब,पालात रुम, लाइब्रेरी एवं होटल। क्रिकेट मैदान,बेडमिन्टन कोर्ट, टी.टी रुम। विद्यासागर संस्थान, विद्यासागर इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट, ज्ञानोदय विद्यापीठ एवं ज्ञानोदय लिम्ब्स्की विभिन्न योजनाओं के कार्यान्वयन हेतु, कूपया अपना अमूल्य सहयोग प्रदान करें। भवदीय मदनलाल बैनाड़ा,अध्यक्ष 1/205,प्रोफेसर्स कॉलोनी, हरी पर्वत, आगरा (उ.प्र) स्वामी. प्रकाशक एवं मुद्रक रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य आफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित. जोन-1. महाराणा प्रताप नगर, भोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं सर्वोदय जैन विद्यापीठ 17205, प्रोफेसर्स कॉलोनी आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित।