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________________ उनसे सभी नफरत करते हैं। उनके हावभाव और मुद्राएँ अतीव औदात्त्य, | पीड़ादायी रोग हो जाने पर भी धैर्यपूर्वक उसे जिस आत्मा के मोहरागद्वेषविकार लालित्य, माधुर्य और गाम्भीर्य से मंडित है। | सहने की साधना की जा सकती है। विसर्जित हो जाते हैं उसकी क्षुद्र इच्छाएँ उनके हर परिष्पन्द में साहित्य है, काव्यात्मकता आचार्यश्री की इस आदर्श दिगम्बरचर्या विगलित हो जाती हैं। उसमें दीनवृत्ति और है संगीत है मंगल है। उनकी छबि में भावी | ने जैनेतर साधुओं को भी अन्तस्तल तक दासवृत्ति का संचार नहीं होता। उसमें तीर्थकरत्व अँगड़ाइयाँ लेता नजर आता है। प्रभावित किया है और उनके मन में जैनधर्म आत्मस्वातन्त्र्य का सूर्य उदित होता है। उसमें इसीलिए लोगों को उनके दर्शन प्रिय हैं,उनकी के प्रति आदर जगाया है। अमरकंटक में आत्मप्रभुता का मेरु विजृम्भित होता है। वह छबि सुखद लगती है, उनका सान्निध्य सनातनधर्मी साधुओं के आधुनिक सुविधासम्पन्न अलौकिक सम्पदा का स्वामी बन जाता है। अहोभाग्य की अनुभूति देता है। आचार्यश्री विशाल आश्रम हैं। उनमें रहने वाले साधु वेदभर्तृहरि अपनी पूर्वोक्त सूक्ति पूर्ण करते हुए दर्शनार्थियों से कुछ बोले या न बोलें, उनकी उपनिषद् गीता-रामायण, आदि में निष्णात हैं। कहते हैं - 'आशा येषां दासी तेषां दासायते तरफ देखें या न देखें, वे उन्हें घंटों एकटक धर्मप्रचार के लिए विदेश आते जाते रहते हैं। लोक: ' जो इच्छाओं को दास बना लेता है निहारते रहना चाहते हैं। फिर यदि उनकी तरफ जब आचार्यश्री का प्रथम विहार अमरकंटक सारी दुनिया उसकी दास बन जाती है। एक आचार्यश्री की आँखें उठ गई तो इतना की ओर हुआ और सनातनधर्मी साधुओं को हिन्दी-कवि ने भी कहा हैआह्लाद होता है जैसे देह को पुण्यों ने छू लिया पता चला कि विद्यासागर नाम के एक चाह गई चिन्ता मिटी मनवा बेपरवाह। । हो। और यदि उनसे कुछ बात कर ली तो दिगम्बराचार्य दिगम्बर साधुओं के विशाल जिनको कछु न चाहिए वे ही शाहंशाह।। लगता है जैसे अमृत की धाराओं में नहा लिया संघ के साथ कड़कती ठंड में अमरकंटक आ निर्विकार हो जाने से, इच्छाओं को हो। और कहीं उनकी तरफ हलकी सी मुस्कान रहे हैं तो वे उन्हें देखने के लिए पहुंचे और दास बना लेने से जो आत्मप्रभुता प्रकट होती बिखेर दी, तब तो कहना ही क्या है, वे अमरकंटक की जिस तीक्ष्ण ठंड में ये साधु है वही वह वैशिष्ट्य है जो आत्मा को उदात्त मालामाल हो जाते हैं। शरीर को कम्बलों से ढंके हुए रहते थे उसमें और लोकोत्तर बना देता है। क्योंकि दुनिया की सम्पूर्ण संघ को सर्वथा नग्न अवस्था में आगमसम्मत कठोरचर्या सारी आत्माएँ अनादिकाल से इस वैशिष्ट्य देखकर चकित रह गये। दिगम्बर साधुओं के से वंचित हैं और उसे पाना उन्हें अत्यंत दुष्कर ___ आचार्यश्री के प्रति दुर्निवार आकर्षण तप को देखकर उनके मन में सौहार्द उमड प्रतीत होता है। इसलिए जो इसे पा लेता है और भक्ति का दूसरा कारण है उनकी आया। आचार्यश्री को निकट से देखने के लिए वह अद्भुत लगने लगता है। लोग उसे अपने आगमसम्मत कठोरचर्या। वर्तमान में तो यह वे उनके पास आने लगे। धर्म, दर्शन, संयम, से बहुत ऊपर उठा हुआ महसूस करने लगते आकर्षण का महत्त्वपूर्ण केन्द्र इसलिए बन गई तप आदि पर गूढ चर्चाएँ करते थे और हर है। वे अपनी तुलना उसके चरणों की धूल से है कि चारों तरफ दिखलाई देने वाले बार प्रसन्न होकर जाते थे। किन्तु उनके मन भी नहीं कर पाते। इसीलिए वह आकर्षक शिथिलाचार ने जिनधर्मानुरागियों को बड़ी में एक शंका थी कि कहीं ये दिगम्बर मुनि लगता है, प्रिय लगता है, उसके दर्शन की निराशा और वितृष्णा से भर दिया है। ऐसे ठंड से बचने के लिए रात में कम्बल, रजाई वितृष्णाजनक वातावरण में आचार्यश्री का लालसा उत्पन्न होती है। आदि तो नहीं ओढ़ लेते? इस बात की परीक्षा कठोर संयम-तप, मूलगुणों का निरतिचारपालन यह निर्विकारता, निःस्पृहता या के लिए कछ साध एक दिन दस-ग्यारह बजे आत्मप्रभुता ही वह वैभव है जो आचार्य श्री लोगों को बड़ी राहत प्रदान करता है। वे रात को वसतिका में आये और जब उन्होंने विद्यासागर जी के पास है। इस लोकोत्तर आश्वस्त हो जाते हैं कि जिनतीर्थ को पतन देखा कि आचार्यश्री नग्न तख्त पर बिलकुल वैभव के ही कारण बड़े-बड़े करोड़पति उनके से बचाने के लिए एक मेरु उसे अपनी बाहों नग्न सो रहे हैं, वस्त्र का नामोनिशाँ भी वहाँ सामने अपने को भिखारी सा महसूस करने में थामे खड़ा हुआ है। उन्हें इस बात का एक नहीं है, केवल वे ही नहीं, उनके समस्त शिष्य लगते हैं, बड़े-बड़े विद्वान बालकों के समान दृष्टांत सामने मौजूद दिखाई देता है कि भी उसी अवस्था में सोये हुए हैं तब उनका तुतलाने लगते हैं और मुख्यमंत्री-प्रधानमंत्री जिनप्रणीत मोक्षमार्ग का यथावत् आचरण हृदय आचार्यश्री और उनके संघ की निर्व्याज उनका कोई आदेश और आशीर्वाद पाने के आज भी संभव है। आज भी कुमार रहते हुए तपश्चर्या से और भी अभिभूत हो गया। लिए नतमस्तक हो जाते हैं। भरपूर तारुण्य में दुर्निवार काम को जीतना आचार्यश्री के प्रति उनका मानस बहुत ही आचार्य श्री विद्यासागर जी में जो मुमकिन है। नग्न रहकर मन और तन को विनयशील था। मैंने स्वयं अपनी आँखों से आकर्षण है, उनके दर्शन में जो आह्लादकता निर्विकार रखने की साधना आज भी की जा देखा है। गतवर्ष अक्टूबर माह में मैं है, उन्हें देखकर लोगों में जो अपार श्रद्धा और सकती है। अंगों को ठिठुरा देने वाली ठंड में अमरकंटक में था। रात्रि को लगभग सात बजे भक्ति उमड़ पड़ती है उसका यही रहस्य है। बिना रजाई ओढ़े, बिना अग्नि या हीटर आचार्यश्री के चरणों में बैठा था। उसी समय दुर्लभ निर्विकारता ने उनके योगों को, जलाये नग्न तख्त पर नग्न शरीर सोकर तीन-चार वृद्ध एवं युवा सनातनधर्मी साधु मनवचनकाय की प्रवृत्तियों को सरल, स्वच्छ आवश्यक निद्रा ली जा सकती है। इसी प्रकार आये और 'नमो दिगम्बराय' कहकर नीचे और रमणीय बना दिया है। उनके चलने का देह को झुलसाने वाली गर्मी में पंखा-कूलर बिछी चटाई पर बैठ गये। बड़े ही सौमनस्य ढंग, उनके बोलने की शैली, उनके देखने आदि के बिना दुपहरियाँ और रात्रियाँ गुजारी से दार्शनिक चर्चाएँ हुईं। पश्चात् जब वे जाने और सुनने का तरीका, उनके हसने और जा सकती हैं। गर्मी के मौसम में भी दिन में लगे तब पुनः मस्तक झुकाकर उन्होंने 'नमो मुस्कराने का अंदाज, उनके प्रवचन की कला, केवल एक बार आहार और जल लेकर तथा दिगम्बराय' कहकर विनय प्रदर्शित की। मैंने बिना नहाये रहा जा सकता है। अत्यन्त ४ जून 2001 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524253
Book TitleJinabhashita 2001 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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