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सम्पादकीय
युगस्रष्टा महर्षि का दैगम्बरी-दीक्षा-दिवस
आषाढ शुक्ला पञ्चमी ने बड़े पुण्य । एलकों और क्षुल्लकों की संख्या दो सौ को | करता है, हृदय को खींचता है, मस्तक को कमाये हैं। उसे परमपूज्य आचार्य श्री पार कर गई है, जो सभी बालब्रह्मचारी, दृढ़ | झुका देता है, रोम-रोम को आह्लादित कर देता वद्यासागर जी का मुनि-दीक्षादिवस देखने संयमी, कठोरतपस्वी और अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी को मिला है। विक्रम संवत् 2025 (सन्
किन्तु यह न समझ पाया कि वह 1968) में इसी दिन संस्कृत के महान् कवि आचार्यश्री ने धर्म को जीवन्त बनाया लोकोत्तर वैभव है क्या, जिसके कारण
और यशस्वी दिगम्बराचार्य परमपूज्य ज्ञान- है। उनके द्वारा जैन शासन की जो प्रभावना आचार्य श्री विद्यासागर जी के सामने बड़ेसागर जी महाराज ने उन्हें अजमेर (राज.) हो रही है वह अभूतपूर्व है। आचार्य श्री के तप बड़े धनपति अपने को दरिद्र महसूस करने में मुनिपद का महामहिम उपहार प्रदान किया एवं साधुत्व जितने प्रखर हैं उतना ही गम्भीर लगते हैं, दिग्गज पण्डित अपने को पहली था। इस पद को जितनी पूज्यता, श्रद्धास्पदता है उनका आगमज्ञान। उन्होंने अपने स्वर्गीय कक्षा में बैठा हुआ पाते हैं, सत्ताधीश उनके और प्रामाणिकता आचार्य श्री विद्यासागर जी | गुरु आचार्य श्री ज्ञानसागर जी से संस्कृत, चरणों की सेवा के लिए उतावले हो जाते हैं? ने इस युग में प्रदान की है उसकी चर्चा एक | प्राकृत, न्याय, व्याकरण, साहित्य, आगम
मैंने खूब ऊहापोह किया, चिन्तनमनन किया, किंवदन्ती की तरह भारतीय इतिहास में युगों | तथा अध्यात्म का अगाध वैदुष्य प्राप्त किया छानबीन की, जाँच पड़ताल की। एक ही उत्तर तक होती रहेगी।
है और जब से उन्हें अपने गुरु का आशीर्वाद पाया कि निर्विकारता या वीतरागता ही वह बाल, युवा, वृद्ध सभी को उनके | मिला है तभी से निरन्तर स्वाध्याय में लीन लोकोत्तर वैभव है जिसे पाकर आत्मा अभूतपूर्व व्यक्तित्व ने सम्मोहित किया है। रहते हैं। वे लगभग सभी महत्त्वपूर्ण सैद्धान्तिक लोकोत्तर बन जाती है, अद्भुत बन जाती है। उनकी निर्विकार, आत्मप्रभुत्वमयी, अपराजेय | एवं आध्यात्मिक ग्रन्थों का गहन अनुशीलन निर्विकारता से ही आत्मा में औदात्त्य आता छबि का प्रभाव ऐसा आकर्षक है कि जो भी | कर चुके हैं। उनका अध्ययन पाण्डित्यप्रधान है, प्रभुता आती है, दैन्यभाव और पारतन्त्र्य उसकी झलक पाता है, उसके अन्तस् में धर्म | नहीं, अपितु गवेषणात्मक है। एक शोधार्थी का विनाश होता है। यह औदात्त्य यह के प्रति श्रद्धा उमड़ पड़ती है, आत्मा के | की सूक्ष्म दृष्टि से वे स्वाध्याय करते हैं और आत्मप्रभुता, यह अदैन्य, यह आत्मस्वातन्त्र्य अस्तित्व में विश्वास पैदा हो जाता है, मोक्ष | आगम के अनावृत, अनुन्मीलित तथ्यों को ही आत्मा को लोकोत्तर बनाता है, अद्भुत मार्ग सारभूत प्रतीत होने लगता है, अनेक | प्रकाशित करते हैं। उनकी प्रवचन शैली बड़ी बनाता है, आकर्षक बनाता है, आह्लादक लोगों क मन की विषयवासनाएँ विगलित हो | रोचक है।
बनाता है। यह लोकोत्तर सम्पदा ही लोगों के जाती हैं और वैराग्य की गंगा प्रवाहित होने निर्विकारताप्रसूत आकर्षण
मस्तक को श्रद्धा से अवनत कर देती हैलगती है।
'एयत्तणिच्छयगओ समओ सव्वत्थ सुंदरो क्या यह अद्भुत नहीं है कि इस
पहले मुझे साधु-संन्यासियों में आस्था वैज्ञानिक चमत्कारों के युग में जब चारों तरफ नहीं थी। सोचता था कि ये सांसारिक वैभव
मोहरागद्वेषविकार आत्मा में क्षुद्रता, को पाने में असफल रहने के कारण साधु बन भोगविलास का वातावरण उत्कर्ष पर हो,
तुच्छता, दीनता, दासता, अश्लीलता, भोग की एक से एक मादक उत्तेजक और गये हैं। इन का ज्ञान और प्रवचन खोखला
बीभत्सता, नृशंसता और लम्पटता का इन्द्रियाह्लादक सामग्री आँखों के सामने आ है। ऊपर से संसार के निस्सार होने की बात
संचार करते हैं। वे क्षुद्र इच्छाओं को जन्म देते रही हो. इन्द्रियसुख को ही सारभूत सिद्ध करने करते हैं, किन्तु भीतर इन्हें संसार ही सारभूत
हैं, जिन्हें पूर्ण करने के लिए मनुष्य नीच से वाली विचारधारा चारों तरफ प्रभावी हो, दिखाई देता है। ये लोकैषणा के मारे हैं, ख्याति
नीच प्रवृत्ति करने पर उतर आता है, विषयभोग करते-करते जराग्रस्त हो जाने और पूजा के भूखे हैं। किसी-किसी में दिखाई
आत्मस्वातन्त्र्य, आत्मप्रभुता, आत्मसम्मान वाले तत्त्वज्ञानी भी जब विषयवासनाओं से देनेवाला शिथिलाचार ऐसा सोचने पर मजबूर
खोने के लिए राजी हो जाता है। दीनवृत्ति, मुक्ति प्राप्त न कर पा रहे हों, तब अपार करता था। किन्तु जिस दिन विद्यासागर जी
दासवृत्ति स्वीकार करने के लिए तैयार हो वैभव के बीच में जनमे, आधुनिक वातावरण के प्रथम दर्शन किये, मेरी धारणा पर जबर्दस्त
जाता है। भर्तृहरि ने कहा है- 'आशाया ये में पले, उच्चतम आधुनिक शिक्षाप्राप्त, कुठाराघात हुआ। सब कुछ उलट-पलट गया।
दासास्ते दासा सर्वलोकस्य' जो इच्छाओं के यौवन के देहली पर पहुँचे युवागण आचार्यश्री प्रतीत हुआ कि जो मैं सोचता था वह सर्वथा
दास होते हैं वे सारी दुनिया के दास बन जाते के दर्शन पाते ही वैराग्य से भर जाते हैं और सत्य नहीं था। साधुओं के पास तो ऐसा वैभव
हैं। और दासता की वृत्ति, दीनता की वृत्ति सहज उपलब्ध विषयभोगों का परित्याग कर होता है, जिसके सामने संसार का वैभव कुछ
अर्थात् आत्मस्वातन्त्र्य और आत्मप्रभुता की मोक्षमार्ग ग्रहण कर लेते हैं। इस समय
भी मूल्य नहीं रखता। वह तृण के समान तुच्छ शून्यता वे वृत्तियाँ हैं जो सभी को अत्यन्त आचार्यश्री के संघ में मुनियों, आर्यिकाओं, होता है। साधुओं का वैभव लोकोत्तर होता है। ।
बीमत्स और लज्जास्पद लगती हैं। अतः वह दिखाई नहीं देता, लेकिन मन को चकित
-जून 2001 जिनभाषित 7
लोए।'
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