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शताब्दी ई. में प्रवर्तित सिद्ध करने की
थी। इस अवसर पर मैंने आचार्यश्री के चेष्टा की है। इससे आचार्यश्री के हृदय को अनिर्वचनीय वात्सल्य और मृदुता का जो अत्यंत पीड़ा पहुँची। उनकी इच्छा हुई कि कोई आस्वादन किया वह मेरी वर्तमान मानवपर्याय दिगम्बर विद्वान् इसका सटीक जवाब दे। यह की दुर्लभतम उपलब्धि है। कार्य उन्होंने मुझे सौंपा। लगभग उसी समय
जैन संस्कृति की प्रभावना पूज्य उपाध्याय ज्ञानसागर जी महाराज और अखिल भारतवर्षीय दि. जैन शास्त्रिपरिषद् ने
इसके अतिरिक्त 'आचार्या जिनशासभी मुझसे यह कार्य करने का आग्रह किया
नोन्नतिकराः' इस आचार्यधर्म का पालन था। आचार्यश्री का आदेश पाकर मैं इस कार्य
करने में भी आचार्यश्री विद्यासागर जी निरन्तर में जुट गया और लगभग तीनवर्ष के निरन्तर
तत्पर रहते हैं। उन्होंने इस विषय में अत्यन्त परिश्रम से 700 पृष्ठ लिख डाले। मैंने
मनोवैज्ञानिक या व्यावहारिक उपाय का आचार्यश्री से प्रकाशन के पूर्व पाण्डुलिपि
अवलम्बन किया है। उनका मत है कि जैनधर्म सुनने का अनुरोध किया। आचार्यश्री ने सहर्ष
की प्रभावना तभी हो सकती है जब जैन धर्म अनुमति दे दी और गतवर्ष अक्टूबर माह में,
के महान सिद्धान्त अहिंसा और दया का मैं अपनी पाण्डुलिपि लेकर अमरकंटक पहुँचा।
आस्वादन उन्हें भी करने को मिले जो जैन वहाँ आचार्यश्री ने षडावश्यकों के अतिरिक्त
नहीं हैं। इसके लिए उन्होंने सागर (म.प्र.) में अन्य कार्य छोड़कर प्रतिदिन चार-चार घंटे
भाग्योदय तीर्थ जैसा विशाल चिकित्सालय समय देकर पन्द्रह दिन तक मेरे ग्रन्थ का पूज्य
खोलने की प्रेरणा श्रावकों को दी जिसमें जैनों मुनिधी अभयसागर जी के साथ श्रवण किया
के साथ जैनेतरों की भी चिकित्सा अच्छी तरह और अत्यन्त संतुष्ट हुए। अनेक जगह
की जाती है। गोशालाएँ निर्मितकर और मांस संशोधन और परिवर्धन भी कराये जिससे
निर्यात-प्रतिबन्ध का सत्याग्रह कर अहिंसाधर्मके ग्रन्थ निर्दोष और परिपूर्ण बन गया। इसके
पालन की प्रेरणा देना भी जैनधर्म की प्रभावना पश्चात् फरवरी 2001 के कुण्डलपुर महोत्सव
के लिए आचार्यश्री द्वारा फूंका गया सामयिक में अत्यंत व्यस्त रहते हुए भी एक सप्ताह
मन्त्र है। तक दो-दो घंटे समय देकर ग्रन्थ के नये
उनके आशीर्वाद से विद्यासागर प्रबन्ध अध्याय सुनें। इस वाचना में मुनि श्री विज्ञान संस्थान भोपाल, प्रशासनिक प्रशिक्षण प्रमाणसागर जी और अभयसागर जी भी
संस्थान जबलपुर जैसे आधुनिक शिक्षा बैठते थे। इससे ज्ञात होता है कि आचार्यश्री
संस्थानों की शुरुआत भी हुई है जो जैनों और का हृदय जिनागम के अवर्णवाद का निराकरण
जैनेतरों को जैनत्व के संस्कारों के साथ करने के लिए कितना चिन्तित है। घंटों बैठकर
आधुनिक शिक्षा प्रदान कर रहे हैं। आचार्यश्री ग्रन्थ सुनने से जो मानसिक और शारीरिक
की प्रेरणा से जैनविश्वकोश का निर्माण कार्य थकावट होती थी उसकी उन्हें कोई परवाह नहीं
| भी प्रगति पर है। यह देश-विदेश में रहने वाले
जैन बालकों और युवकों को दिगम्बर जैनधर्म के सिद्धान्तों, जैन इतिहास, संस्कृति और कला से परिचित कराने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायेगा।
अमरकंटक और नेमावर में विशाल मंदिरों का निर्माण जिन-शासनोन्नति का ही एक अंग है। सैकड़ों वर्षों के बाद हमारी पीढ़ियाँ जब देखेंगी तो उनकी छाती फूल उठेगी कि इक्कीसवीं सदी में भी जैनधर्म बहुत उन्नति पर था, जैसे हम आज देश के कोने-कोने में स्थित प्राचीन जैनमन्दिरों और गुफाओं को देखकर हर्ष से फूले नहीं समाते। इसी श्रृंखला का अंग कुण्डलपुर के बड़े बाबा का प्रस्तावित नया मंदिर भी है, जो पन्द्रह सौ वर्ष पुरानी आदिनाथ की अतिशयकारी प्रतिमा को भूकम्पजन्य क्षति से बचाने के लिए आवश्यक है।
इन सब गुणों ने आचार्यश्री के व्यक्तित्व को लोकोत्तर आकर्षण से मण्डित कर दिया है, किन्तु इन सब में प्रधान है निर्विकारता या वीतरागता। इसके बिना शेष गुण अनाकर्षक ही रहते। इन असाधारण गुणों से आचार्यश्री ने दिगम्बर जैन संस्कृति का आगमसम्मत शुद्ध स्वरूप प्रदर्शित किया है और उसके बहुमुखी प्रचार प्रसार में चतुर्विध संघ को प्रवर्तित कर एक नये युग की सृष्टि की है। इस युगस्रष्टा महर्षि के दैगम्बरी-दीक्षा दिवस का हम सब अभिनन्दन करते हैं, क्योंकि यह हमारे लिये मंगल संदेश का वाहक और प्रेरणा का स्रोत है।
रतनचन्द्र जैन
किं मरणं मूर्खत्वं किं चानयं यदवसरे दत्तम्। काहर्निशमनुचिन्त्या संसारासारता न च प्रमदा। आमरणात्विं शल्यं प्रच्छन्नं यत्कृतमकार्यम्।। का प्रेयसी विधेया करुणादाक्षिण्यमपि मैत्री।।
मरण क्या है? मूर्खता। अमूल्य क्या है? मौके पर दिया गया रात-दिन किसका चिन्तन करना चाहिए? संसार की असारता दान। मृत्युपर्यन्त कौन सी चीज शल्य के समान चुभती रहती है? | का,न कि प्रेयसी का। प्रियतमा किसे बनाना चाहिए? करुणा, उदारता छिपकर किया गया पाप।
और मित्रता को।
कुत्र विधेयो यत्नो विद्याभ्यासे सदौषधेर्दाने। कण्ठगतैरप्यसुभिः कस्यात्मा नो समर्प्यते जातु। अवधीरणा क्व कार्या खलपरयोषित्परधनेषु।। मूर्खस्य विषादस्य च गर्वस्य तथा कृतघ्नस्य।।
प्रयत्न किस चीज के लिये करना चाहिए? विद्याभ्यास और मृत्यु की नौबत आ जाने पर भी किसकी अधीनता स्वीकार अच्छी औषधि का दान करने के लिए। अवहेलना किसकी करनी | नहीं करनी चाहिए? मूर्ख की, विषाद की, अभिमान की और कृतघ्न चाहिए? खल, परस्त्री और परधन की।
की।
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10 जून 2001 जिनभाषित
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