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________________ आत्मान्वेषी विद्याधर की दैगम्बरी दीक्षा .मुनि श्री क्षमासागर आचार्य ज्ञानसागर जी स्वरूप में निरन्तर सजग 'आत्मान्वेषी' एक कथा है, एक उपन्यास है, आचार्य श्री महाराज खूब सधे हुए साधक और सावधान गुरु को पाकर थे। उन्होंने अपना सारा जीवन विद्यासागर जी की मातृश्री के मुख से आत्मकथात्मक शैली में तुम्हारा जीवन धन्य हो गया। जैनागम के गहन अध्ययन, कहलवाया गया, मुनि श्री क्षमासागर जी के भीतर बैठे रससिद्ध, साँझ के समय तुम चिन्तन और मनन में ही कविहृदय, भावुक शब्द-शिल्पी के द्वारा। कथनशैली भावुकता से गुरु महाराज की सेवा में लगे बिताया। ब्रह्मचारी, विद्वान, | इतनी भीगी है कि लगता है कथाकार का हृदय ही पिघल कर | थे। तभी अध्ययन की चर्चा भूरामल के नाम से विभिन्न | शब्दधाराओं के रूप में बह गया है। चली। महाराज बोले- 'पढ़ आचार्यसंघों में वे साधुजनों आचार्य श्री विद्यासागर की मंगल अवतारकथा और लोकोत्तर लेना, तुम भी पढ़ लेना। को स्वाध्याय भी कराते रहे। प्रवृत्तियों का ऐसा रससिक्त मर्मस्पर्शी चित्रण साहित्य सर्जना की अभी तक पढ़ने वाले तुम्हारे मैंने सुना है कि उनके अद्भुत प्रतिभा का उद्घाटन करता है। आचार्यश्री की मुनिदीक्षा | जैसे कई ब्रह्मचारी मेरे पास पिता उन्हें बचपन में ही और भी आए हैं, लेकिन सब के प्रस्तुत हृदयद्रावक दृश्य इसी के अंश हैं। पढ़ते समय पाठकों के छोड़कर चल बसे थे। अध्य पढ़कर चले गए। रुका कोई यन का साधन न होने से वे | नेत्र आनन्दाश्रुप्लावित हुए बिना नहीं रहेंगे। भी नहीं।' तुम्हें लगा कि कहीं अपने बड़े भाई के साथ महाराज जी औरों की तरह 'गया' चले गए। एक जैन व्यवसायी के यहाँ । आत्मानुभूति में तत्पर है। तत्त्वज्ञ तो कोई भी | थोड़ा बहुत यूं ही पढ़ाकर मना न कर दें। काम करने लगे, पर मन तो ज्ञान के लिए | हो सकता है, पर वे तत्त्वद्रष्टा थे। वे शरीर तुम गहरे सोच में डूब गए। बड़ी प्यासा था। सो एक दिन वहाँ से चलकर | और आत्मा के पृथक्करण की साधना में मेहनत और लगन से तुम अध्ययन करने स्याद्वाद महाविद्यालय, बनारस पहुंच गए। तत्पर निःस्पृह साधक और सच्चे भेद- महाराज के चरणों में पहँचे थे। सो झट से दिन-रात ग्रंथों का अध्ययन करते-करते | विज्ञानी थे। अपना माथा महाराज जी के चरणों में रख स्वल्पकाल में ही न्याय, व्याकरण और | अपनी आत्मा को साधने में निरन्तर दिया और गद्गद कंठ से टूटी-फूटी हिन्दी में साहित्य के विद्वान बन गए। लगे रहने वाले वे अनोखे साधु थे। उन्होंने कहा कि महाराज जी, आपके चरणों में मेरे तब कौन जानता था कि बनारस की तनिक भी, कहीं, कुछ भी छुपाने की गुंजाइश लिए जगह बनी रहे। मैं आज से जीवन-पर्यन्त सड़कों पर अपनी पढ़ाई के लिए हर शाम घंटे नहीं रखी। जो जैसा था, उसे उसी रूप में वाहन-यान आदि सभी आवागमन के साधनों भर गमछे बेचकर चार पैसे कमानेवाला यह प्रकट कर दिया, इसलिये वे यथाजात नग्न का त्याग करता हूँ। जितना चलूँगा अब युवक संस्कृत-साहित्य का ही नहीं, वरन् दिगम्बर थे। मैं बड़ा हूँ या कोई छोटा है, इस आपकी आज्ञा से आपके पीछे-पीछे ही समूचे जैनागम का मर्मज्ञ हो जाएगा। तरह की ग्रंथि उनके मन में नहीं थी। उच्चता चलूँगा। अपनी कृपा बनाए रखिए। सचमुच, जिसका श्रम हर रात दीये में स्नेह और हीनता की ग्रंथियों से परे वे निर्ग्रन्थ थे। महाराज जी की आँखें विस्मय और हर्ष बनकर जला हो, उसे ज्ञान और वैराग्य का ग्रन्थ के हर गूढ़ रहस्य को, हर गुत्थी | से चमक उठीं। एक वृद्धा माँ की तरह स्नेह प्रकाश-स्तम्भ बनने से कोई रोक भी तो नहीं | को सहज ही सुलझा देना और अपने जीवन से भरकर उन्होंने तुम्हारे सिर पर हाथ रखा, सकता। प्रकाण्ड विद्वान होकर भी उन्होंने | को जीवन्त-ग्रन्थ बना लेना, यह उनकी खूब आशीर्वाद दिया और बोले- 'विद्याधर, आचार्य शिवसागर महाराज के श्री-चरणों में | निम्रन्थता की शान थी। अपने जीवन में उन्होंने बहुत देर से आए।' उनके वरदहस्त के स्पर्श समर्पित होकर मुनि-दीक्षा अंगीकार कर ली | जो भी लिखा वह अहिंसा, सत्य, अस्तेय, से अभिभूत होकर और प्रेमसनी वाणी सुनकर और एक दिन तुम्हें अपना शिष्य बनाकर अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य की रोशनाई से लिखा, | तुम्हारी आँखे भर आईं। हृदय का द्वार कृतार्थ कर दिया। उनकी अनेकों कृतियों के तब जो भी उनके समीप आया वह निम्रन्थ | खोलकर मानो ज्ञान-सूर्य तुम्हारे भीतर प्रविष्ट बीच तुम पहली जीवन्त कृति थे। होने के लिये आतुर हो उठा। हो गया। मैंने उनकी साधुता देखी है। वे उन मैंने देखा है कि संसार के मार्ग पर, महाराज के चरणों में बैठकर तुमने अर्थों में साधु थे, जिन अर्थों में कोई सचमुच जहां लोग निरन्तर विषय-सामग्री पाने दौड़ | विधिवत् अध्ययन प्रारंभ कर दिया। सतत साधु होता है। भेद-विज्ञानी होना साधुता की रहे हैं, वे अविचल खड़े हैं। और मोक्षमार्ग | चिन्तन-मनन और भक्ति-भाव में खोया कसौटी है। वे भेद-विज्ञानी थे। भेद-विज्ञानी पर, जहाँ कि लोगों के पैर आगे बढ़ नहीं पाते, तुम्हारा मन बाहर की दुनिया को भूलता चला का अर्थ शरीर और आत्मा के भेद का मात्र वे निरन्तर आगे बढ़ रहे हैं। अतीत की स्मृति गया। गहन समर्पण ने तुम्हारे भीतर अदृश्य जानकार होना नहीं है। सच्चा भेद-विज्ञानी वह | और अनागत की आकांक्षा जिन्हें पल भर भी जगत को देखने की दृष्टि पैदा कर दी। दृश्य है जो समस्त परिग्रह से मुक्त होकर | भ्रमित नहीं कर पाती, ऐसे अपने आत्म- जगत् के पीछे छिपे अदृश्य-द्रष्टा को देखना जून 2001 जिनभाषित 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524253
Book TitleJinabhashita 2001 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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