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________________ आदर्शकथा नाम में कुछ नहीं .डॉ. जगदीश चन्द्र जैन तक्षशिला में कोई आचार्य अपने पाँच सौ शिष्यों को मन्त्र पढ़ा रहे थे। एक शिष्य का नाम था पापक। पापक को सब 'पापक-पापक' कहकर बुलाते थे। एक दिन पापक ने सोचा- मेरा नाम अमंगलसूचक है, क्यों न मैं नाम बदलवा लूँ? रखते हैं। लेकिन यदि कोई सत्श्रावक इस प्रकार का भाव करता है, ऐसे कार्यक्रम को हाथ में लेता है तो उसे अपना आशीर्वाद तो दे सकते हैं? आचार्य श्री बोले 'जरूर दे सकते है। तो उन लोगों ने कहा कि महाराज! हम आपका वही आशीर्वाद चाहते हैं। और जब आचार्य महाराज का आशीर्वाद इन सबको मिल गया तो हम लोगों का हाथ कैसे पीछे रह सकता था? हम सबका आशीर्वाद तो ये अपने आप ही पा गये। ये कठिन परिश्रम करके 'जिनभाषित' को प्रकाशित कर रहे हैं। हमने उसे देखा है। उसमें काफी सामग्री है और मुझे आशा और विश्वास है कि यह पत्रिका सम्पूर्ण जैन समाज में अद्भुत प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकेगी और प्रचलित जन पत्रिकाओं में सर्वोच्च स्थान बना सकेगी।' जिनवाणी माता की चिट्ठी मुनिश्री प्रमाणसागर जी आगे बोले'सबसे मेरा यही कहना है कि पत्रिका अपने उद्देश्यों की पूर्ति में आगे बढ़ती रहे। हर व्यक्ति के घर में यह पत्रिका आनी चाहिए। पत्रिका को तुम और कुछ मत समझना। उसे तुम समझना कि यह जिनवाणी माता की चिट्ठी है। अगर महीने में एक अंक तुम्हारे घर में आता है तो यह मानना कि जिनवाणी माता की एक चिट्ठी तेरे घर आई है। वह देख, तेरे लिए क्या खबर भेज रही है। थोड़ा उसके सन्देशों को समझ और अपना सम्पर्क जिनवाणी माँ से बना, क्योंकि बेटा अगर माँ से ज्यादा समय तक बिछुड़ जाता है तो बेटे को जो दुःख होता है सो होता है, माँ को भी तकलीफ होती है। कम से कम हमारे निमित्त से जिनवाणी माँ को कोई तकलीफ न हो, ऐसा प्रयत्न आप सबको करना चाहिए। और प्रत्येक घर में जिनवाणी माँ की चिट्ठी आये ऐसा प्रयत्न तो आप सबको करना ही चाहिए। अन्त में मुनिश्री ने कहा- 'इस पत्रिका को और भी अधिक सुन्दर और लोकोपयोगी बनाने का प्रयत्न किया जाता रहेगा ऐसा मुझे पूरा विश्वास है।' पूज्य एलक श्री निश्चय सागर जी ने भी 'जिनभाषित' के अंक की प्रशंसा की और सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जी तथा सहयोगी सम्पादकों को सुभाशीष प्रदान किया। उसने आचार्य से जाकर कहा- 'आचार्य! मेरा नाम अच्छा नहीं। इसे बदल कर कोई दूसरा नाम रख दें।' आचार्य ने कहा- 'तात! जाओ देश-विदेश में घूमकर अपनी इच्छानुसार कोई अच्छा-सा नाम छाँट लो। मैं नाम बदल दूंगा।' पापक रास्ते के लिए कलेवा लेकर चल दिया। गाँव-गाँव घूमता हुआ वह एक नगर में पहुँचा। वहाँ जीवक नाम के किसी पुरुष की मृत्यु हो गयी थी। पापक ने देखा कि जीवक के रिश्तेदार उसे श्मशान लिये जा रहे हैं। उसने कहा- 'भई! इस आदमी का क्या नाम था?' 'जीवक।' 'ऐं, जीवक! जीवक भी मरता है?' 'हाँ जीवक भी मरता है, अजीवक भी। नाम तो केवल व्यवहार के लिए रखा जाता है। क्या तू इतनी-सी बात भी नहीं जानता?' पापक आगे बढ़ा। जब वह नगर के अन्दर गया तो उसने एक दासी को देखा। दासी का मालिक उसे दरवाजे पर बैठाकर रस्सी से पीट रहा था। पापक ने मालिक से पूछा - 'भई! इसे क्यों पीटते हो?' मालूम हुआ कि उसने मजदूरी नहीं दी। पापक ने पूछा - 'दासी का क्या नाम है?' 'धनपाली।' पापक ने कहा- 'धनपाली होकर भी यह मजदूरी लाकर नहीं देती?' इस पर लोगों ने कहा - 'धनपाली-अधनपाली दोनों दरिद्र हो सकती हैं। नाम तो केवल व्यवहार के लिए होता है। क्या तुम इतना भी नहीं जानते?' आगे चलकर पापक ने एक मार्गभ्रष्ट पथिक को देखा। उसे इधर-उधर घूमते-फिरते देख कर उसने पूछा- 'भई! क्या बात है?' 'मार्ग भूल गया हूँ। 'तुम्हारा नाम क्या है?' 'पन्थक।' 'ऐं, पन्थक भी रास्ता भूल जाते हैं?' 'इसमें कौन बड़ी बात है! पन्थक-अपन्थक, दोनों रास्ता भूलते हैं। नाम तो केवल व्यवहार के लिये रखा जाता है। तुम इतना भी नहीं जानते?' __ पापक लौटकर आचार्य के पास आया। आचार्य ने पूछा- 'कहो वत्स! कौन-सा नाम पसन्द किया?' पापक ने उत्तर दिया- 'आचार्य! जीवक-अजीवक दोनों मरते हैं। धनपालीअधनपाली दोनों दरिद्र होते हैं। पन्थक-अपन्थक दोनों रास्ता भूल सकते हैं। नाम तो केवल व्यवहार के लिये रखा जाता है। नाम से सिद्धि नहीं होती, सिद्धि कर्म से होती है। आचार्य मैं नाम नहीं बदलवाना चाहता।' 4 जन 2001 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524253
Book TitleJinabhashita 2001 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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