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________________ 'जिनभाषित' को सन्तों का आशीर्वाद पत्रिका का शुभारम्भ क्यों ? 'जिनभाषित' जिनवाणी माँ की चिट्ठी वर्णीभवन सागर (म.प्र.) में विराजमान परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी के सुयोग्य शिष्य पूज्य मुनि श्री समतासागर जी, मुनि श्री प्रमाणसागर जी और एलक श्री निश्चयसागर जी को दिनांक 10 जून 2001 को प्रातः कालीन सभा में नवप्रसूत मासिक पत्रिका 'जिनभाषित' का मई-2001 अंक समर्पित किया गया। तीनों सन्तों ने पत्रिका को शुभाशीष से कृतार्थ किया। इस अवसर पर पत्रिका के सम्पादक एवं 'दिगम्बर जैन साहित्य और यापनीय साहित्य ग्रंथ लिख रहे प्रो. रतनचन्द्र जी जैन को सागर जैन समाज ने सम्मानित किया। रतनचन्द्र जी को शुभाशीष प्रदान करते हुए पूज्य मुनि श्री समतासागर जी ने अपने वक्तव्य में कहा कि एक श्वेताम्बर विद्वान ने षट्खण्डागम आदि अनेक दिगम्बर ग्रन्थों को यापनीय सम्प्रदाय के आचार्यों द्वारा रचित सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। उसका सप्रमाण खण्डन करने के लिए प्रो. रतनचन्द्र जी जो महत्त्वपूर्ण प्रन्थ लिख रहे हैं वह सन्यमच ऐतिहासिक है और विजगत को भी चौकाने वाला है। ऐसे-ऐसे तथ्य निकालकर वे सामने रख रहे हैं जिन्हें सुनकर आचार्यत्री प्रसन्न होते है और आक्षर्षचकित होते हैं। कुण्डलपुर के भीड़ भरे समारोह में भी आचार्यश्री ने घंटों घंटों बैठकर इस ग्रन्थ के पृष्ठ सुने हैं। हम लोगों ने यह प्रत्यक्षरूप से देखा है कि कितने मनोयोग से आचार्यश्री सुनते थे हजारों श्रावक भी दर्शन करने आ रहे हैं तो आते रहें, लेकिन आचार्यश्री जब सुनते थे और निर्देश देते थे तब कोई व्यवधान उन्हें प्रभावित नहीं करता था। परम्परा की रक्षा के लिए आचार्यश्री की यह चिन्ता और तत्परता स्तुत्य है और उनकी आज्ञा के पालन में लेखक की निष्ठा सराहनीय है। बहुत बड़ा काम वह कर रहे हैं। ' Jain Education International 1 पूज्य मुनि श्री प्रमाणसागर जी ने अपने आशीर्वचन में कहा कि प्रो. रतनचन्द्र जी जिनवाणी और दिगम्बर जैन परम्परा की जो सेवा कर रहे हैं, जिस कार्य में वे अभी संलग्न हैं उसे शताब्दियाँ याद करेंगी। एक श्वेताम्बर विद्वान् ने जिस ग्रन्थ में हमारे धरसेन पुष्पदन्त, भूतबलि, गुणधर, शिवार्य, बड़केर आदि आचार्यों को यापनीय सम्प्रदाय का आचार्य बतलाया है वह ग्रन्थ पढ़कर आचार्यश्री का मन मर्माहत हो उठा था। उन्होंने अपनी प्रति मुझे पढ़ने को दी कि देखो इसमें क्या लिखा है? उन्होंने सैकड़ों जगह अण्डरलाइन कर रखे थे। आचार्यश्री ने रतनचन्द्र जी की योग्यता और प्रतिभा को समझते हुए उन्हें आदेश दिया कि इस पुस्तक का जवाब लिखना चाहिए। आज्ञा शिरोधार्य करके रतनचन्द्र जी ने उस पूरी की पूरी पुस्तक का श्वेताम्बर ग्रन्थों से उद्धरण दे-देकर सयुक्तिक, सप्रमाण जवाब दिया है और इनके इसी योगदान को ध्यान में रखते हुए सर्वोदय जैनविद्यापीठ ने कुण्डलपुर के महामहोत्सव में इनका सम्मान किया था। यह किसी व्यक्ति का सम्मान नहीं था, यह उनके द्वारा किये गये सत्प्रयासों का सम्मान था । इससे दिगम्बर परम्परा की बहुत बड़ी सेवा होगी। उन्होंने उसका अधिकांश भाग आचार्यश्री को अमरकण्टक में सुनाया था। अभी उसका कुछ भाग कुण्डलपुर के प्रवास में सुनाया। उसे मैंने भी सुना था। आचार्यश्री के उसमें काफी कुछ सुझाव रहे। रतनचन्द्र जी उन सारे सुझावों और संशोधनों को पूरा कर उसे प्रकाशित करनेवाले है। आचार्यश्री की भावना तो यह थी कि कुण्डलपुर के महोत्सव में उसका विमोचन कर दिया जाए, लेकिन बड़ा दुरूह कार्य है। बड़े कार्य श्रमसाध्य और समयसाध्य होते हैं। For Private & Personal Use Only 'जिनभाषित' की उद्भवकथा मुनि श्री प्रमाणसागर जी ने आगे कहा'ऐसे ही विद्वानों के मन में यह चिन्ता उत्पन्न हुई कि दिगम्बर जैन संस्कृति के प्रवाह को निर्मल कैसे बना कर रखा जाए? आज हमारी जो संस्कृति की गंगोत्री से निकली हुई गंगा है. वह धीरे- धीरे मलिन होती जा रही है। गंगा और जमना की सफाई के लिए तो नेता लोग लगे हुए हैं, पर्यावरण के चिन्तक लगे हुए हैं, लेकिन जिनशासन की गंगा को मलिन होने से कैसे रोका जाए, उसके प्रदूषण को कैसे दूर किया जाय ? इस चिन्ता का ही परिणाम था कि एक दिन जब हम लोग में कुण्डलपुर थे, रतनलाल जी बैनाड़ा, मूलचन्द जी लुहाड़िया और अन्य लोगों ने आकर हम लोगों के बीच यह बात रखी कि महाराज जी ! हमें आज एक ऐसी पत्रिका का प्रकाशन करने की आवश्यकता है जिससे हम समाज को सही दिशा दे सकें, क्योंकि आज की अधिकतर पत्रपत्रिकाएं एक-दूसरे की निन्दा और आलोचनाओं से ही भरी रहती हैं। उनके पास तथ्यपरक सामग्री का अभाव होता है। हम अगर समाज को जाग्रत करना चाहें, उसे सही तत्त्व का बोध कराना चाहें तो तथ्यपरक सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के लिए हमारे पास एक पत्रिका होनी चाहिए। और सब लोगों ने मिलकर प्रो. रतनचन्द्र जी का नाम तय किया कि वे इस कार्य को बखूबी निभा सकते हैं।' 'आचार्यश्री के सामने जब यह बात रखी गई तो उन्होंने एक ही बात कही- 'क्या कोई श्रमण किसी पत्रिका का संचालक हो सकता है? क्या उसे किसी पत्रिका से जुड़ना चाहिए? हम लोगों ने भी कहा कि 'महाराज जी आपका कहना बिलकुल ठीक है, कोई श्रमण किसी पत्रिका का संचालक नहीं हो सकता, और उसे किसी पत्रिका से जुड़ना नहीं चाहिए, न ही हम ऐसा करने में कोई रुचि 'जून 2001 जिनभाषित 3 www.jainelibrary.org
SR No.524253
Book TitleJinabhashita 2001 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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