SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शंका - समाधान .पं. रतनलाल बैनाड़ा 1. अविपाक निर्जरा का प्रारंभ अधिकांश विद्वान चतुर्थ शंका- असंख्यात गुणश्रेणी निर्जरा कब-कब होती है? गुणस्थान से मानते हैं, जो उचित नहीं है। धवल पुस्तक 12, पृष्ठ समाधान- तत्वार्थसूत्र अध्याय-9, सूत्र-45 'सम्यग्दृष्टि 468 के अनुसार करणलब्धि प्राप्त मिथ्यादृष्टि के अविपाक निर्जरा श्रावक ......... निर्जरा' सूत्र में जो सम्यक्दृष्टि, श्रावक को आदि होती है। ले निर्जरा के 10 स्थान बताए हैं, उन सभी स्थानों में 2. तथा तीनों में से किसी भी अविरत सम्यग्दृष्टि के प्रतिसमय असंख्यातगुणश्रेणी निर्जरा होती है। निरंतर गुणश्रेणी निर्जरा नहीं होती। प्रतिसमय असंख्यातगुणश्रेणी निर्जरा होने वाले स्थानों को इस शंका - क्या भोगभूमि में विकलेन्द्रिय तथा असैनी पंचेन्द्रिय प्रकार समझना चाहिए जीव पाये जाते हैं? कोई भव्य पंचेन्द्रिय सैनी पर्याप्तक सातिशय मिथ्यादृष्टि जीव समाधानकरण लब्धि के काल में अनिवृत्तिकरण के अंतिम समय में संखपिपीललय-मक्कुण-गोमच्छी-दंसमसय किमि पहुदी। जितने कर्मों की निर्जरा करने वाला होता है, वह जब वियलिंदिया ण होंति हु, णियमेणं पढम कालम्मि।। प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त होता है तो प्रतिसमय (तिल्लोयपण्णत्ति 335) असंख्यातगुणश्रेणी निर्जरा वाला होता है। अर्थ - प्रथम (सुषमासुषमा) काल में नियम से शंख, चीटी, वही जीव जब देशव्रत नामक पंचम गुणस्थान को प्राप्त होता खटमल, गोमक्षिका, डाँस, मच्छर और कृमि आदिक विकलेन्द्रिय है तब बढ़ती हुई विशुद्धि के अंतर्मुहूर्त काल तक। जीव नहीं होते। वही जीव जब अप्रमत्तविरत गुणस्थान को प्राप्त कर बढ़ती णत्थि असण्णी जीवो, णत्थि तहा सामिभिच्च भेदो य। हुई विशुद्धि वाला होता है, उतने अन्तर्मुहूर्त काल तक। कलह-महाजुद्धादी, ईसा-रोगादि ण हु होति।। कोई क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि चौथे से सप्तम गुणस्थान वाला __ (तिल्लोयपण्णत्ति 336) जीव जब अनंतानुबंधी की विसंयोजना करता है तब। अर्थ- इस काल में असंज्ञी जीव नहीं होते, स्वामी और भृत्य कोई क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव (चौथे से सातवें गुणस्थान का भेद भी नहीं होता, कलह एवं भीषण युद्ध आदि तथा ईर्ष्या और वाला) जब दर्शन मोह की क्षपणा करता है तब अन्तर्मुहूर्त काल | रोग आदि भी नहीं होते हैं। तक। श्री धवलपुस्तक 4 पृष्ठ 33 पर भी इस प्रकार कथन हैकोई उपशमश्रेणी चढ़ने वाले मुनिराज। भोगभूमिसु पुण विगलिंदिया णत्थि। पंचिदिया वि तत्थ सुट्ठ उपशांत मोह नामक ||वें गुणस्थान वाले मुनिराज, विशुद्धि | थोवा, सुहकम्माइ जीवाणं बहुणाम संभवादो। के बढ़ने वाले काल में। अर्थ- भोगभूमि में तो विकलत्रय जीव नहीं होते हैं और वहाँ क्षपकश्रेणी चढ़ने वाले मुनिराज। पर पंचेन्द्रिय जीव भी स्वल्प होते हैं, क्योंकि शुभकर्म की अधिकता 9. क्षपकश्रेणी वाले क्षीणमोह गुणस्थान स्थित मुनिराज। वाले बहुत जीवों का होना असंभव है। 10. समुद्घातगत सयोगकेवली एवं चौदहवें गुणस्थान स्थित उपर्युक्त प्रमाणों से सिद्ध है कि भोगभूमि में विकलेन्द्रिय और अयोगकेवली महाराज। असैनी पंचेन्द्रिय जीव नहीं होते हैं। विशेष यह है कि चतुर्थ गुणस्थान में प्रतिसमय निर्जरा नहीं शंका- भगवान सुपार्श्वनाथ की मूर्ति पर भी सर्प का फण कहींहोती। केवल उपर्युक्त स्थान नं. । एवं स्थान नं. 4,5 में अंतर्मुहूर्त कहीं बनाया जाता है। क्या इनके ऊपर भी उपसर्ग हुआ था? काल तक तो प्रतिसमय असंख्यातगुणी निर्जरा होती है। शेष कालों समाधान- तिल्लोयपण्णत्ति चतुर्थ अधिकार में इस प्रकार में कभी भी निर्जरा तो संभव है पर प्रतिसमय असंख्यातगुणी निर्जरा कथन पाया जाता हैसंभव नहीं। एक्करस होति रुद्रा, कलहपिया णारदाय णव-संखा। इसी तरह उपर्युक्त स्थान नं. 2 में पंचम गुणस्थानवी जीव सत्तम-तेवीसंतिम-तित्थयराणं च उवसग्गो॥ 1642।। के प्रवेश के अन्तर्मुहूर्त काल तक, विशुद्धि बढ़ने के काल में, उपर्युक्त अर्थ- ग्यारह रुद्र और कलहप्रिय नौ नारद होते हैं तथा सातवें, निर्जरा है, शेष कालों में प्रतिसमय चतुर्थ गुणस्थानवर्ती से असंख्यात तेईसवें और अंतिम तीर्थकर पर उपसर्ग भी होता है। गुणी निर्जरा तो है पर गुणश्रेणी निर्जरा नहीं। उपर्युक्त प्रमाण से यह स्पष्ट है कि भगवान् सुपार्श्वनाथ पर भी इन सभी दश स्थानों में उत्तरोत्तर गुणश्रेणी निर्जरा के लिए उपसर्ग हुआ था। तीर्थंकरों के जीवन चरित्र के सर्वप्रथम वर्णन करने असंख्यात गुणा द्रव्य प्राप्त होता है किन्तु आगे-आगे गुणश्रेणी का वाले शास्त्र आदिपुराण एवं उत्तरपुराण ही हैं। इनमें जब हम भगवान् काल संख्यातगुणा हीन-हीन है। अर्थात् चतुर्थ गुणस्थानवर्ती के सुपार्श्वनाथ का जीवन चरित्र पढ़ते हैं तब उसमें कहीं भी उनके ऊपर गुणश्रेणी निर्जरा के अन्तर्मुहूर्त काल से श्रावक का काल संख्यातगुणा उपसर्ग होने का प्रमाण नहीं मिलता। हीन है पर श्रावक की निर्जरा सम्यग्दृष्टि से असंख्यातगुणी अधिक अतः भगवान सुपार्श्वनाथ की मूर्ति पर सर्प का फण क्यों बनाया है। ऐसे ही आगे जानना चाहिए। यह भी जानना चाहिए कि 8. 20 जून 2001 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524253
Book TitleJinabhashita 2001 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy