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________________ ही अधिक मुक्त हो जाते हैं। अतः अपरिग्रह के निमित्त से | स्वभाव में लीन होते जायेंगे, प्रवृत्तिरूप व्रतनियमादि स्वतः छूटते असातावेदनीय एवं तीव्रकषाय के उदय का निरोध होता है, जिससे | जायेंगे। (द्रव्यस्वभाव प्रकाशकनयचक्र/ विशेषार्थ/गाथा 342) विशुद्धता का विकास निर्बाध चलता रहता है। संक्लेशपरिणामों का निरोध भक्ति एवं स्वाध्याय से भी होता आचार्य अमृतचन्द्रजी ने कहा है- 'यद्यपि रागादिभावरूप हिंसा | है, किन्तु उनमें चित्त की एकाग्रता तब तक सम्भव नहीं है, जब तक की उत्पत्ति में बाह्य वस्तु कारण नहीं है (चारित्रमोह का उदय कारण इन्द्रियों की भोगवृत्ति नियंत्रित नहीं हो जाती। इन्द्रियों के निरन्तर है), तथापि रागादिपरिणाम परिग्रहादि के निमित्त से ही होते हैं, इस उद्दीपन से पीड़ित चित्त, विषयों की ओर ही बार-बार जाता है। ऐसे कारण परिणामों की विशुद्धि के लिए हिंसा के निमित्तभूत परिग्रहादि चित्त का भक्ति में एकाग्र होना दुष्कर है। इस अवस्था में स्वाध्याय का त्याग करना चाहिए। (पुरुषार्थसिद्धयुपाय/ कारिका 49) तो और भी असम्भव है, क्योंकि भक्ति में तो संगीतादिजन्य कुछ वे आगे कहते हैं- 'मूर्छा (ममत्वपरिणाम) को आभ्यन्तर सरसता भी होती है, किन्तु स्वाध्याय तो इस प्रकार की सरसता से परिग्रह कहते हैं, वह बाह्य परिग्रह के निमित्त से भी उत्पन्न होती है। रहित शुद्ध बौद्धिक कार्य है। इसीलिए आगम में इन्द्रियों का भोगव्यसन अतः दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग करना चाहिए।(पुरुषार्थसिद्ध- श्रुतज्ञानावरण का नोकर्म अर्थात् बाह्य निमित्त कहा गया है। जो विषयों युपाय/ कारिका 113, 118) में लीन रहता है उसकी रुचि तत्त्वचिन्तन की ओर उन्मुख नहीं होती। सिद्धान्ताचार्य पंडित कैलाशचन्द्र जी शास्त्री लिखते हैं- इसलिए श्रुतज्ञान न होने देने में इन्द्रियों का भोगव्यसन प्रबल बाह्य 'रागद्वेष दूर करने के लिए या कम करने के लिए बाह्य पदार्थों का | निमित्त है। (गोम्मटसारकर्मकाण्ड/गाथा 70) भी त्याग किया जाता है। स्वभाव में लीन होने के लिए क्रम से बाह्य | इस प्रकार संयम, तप और अपरिग्रह विशुद्धता की उत्पत्ति प्रवृत्ति को रोकना होता है और बाह्य प्रवृत्ति को रोकने के लिए प्रवृत्ति और वृद्धि के लिए महत्त्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक साधन है। के विषयों को त्यागना होता है। अतः स्वभाव में लीन होने के लिए 137, आराधनानगर, यह आवश्यक है कि हम अव्रत से व्रत की ओर आयें। ज्यों-ज्यों हम भोपाल-462003 सिर्फ हाशिये पर जीने की दे हमको लाचारी गीत बादल का मन श्रीपाल जैन 'दिवा' बादल का भी मन करता है चल कर बरसूं गाँव में, . अशोक शर्मा तपा हुआ मन शीतल होले मानवता की छाँव में। सिर्फ हाशिये पर जीने की दे हमको लाचारी सावन की रिम-झिम रिम-झिम में धरती प्यास बुझाती है. तुमने अपने लिखे कथानक आकर बारी-बारी। भादौं की झर झम-झम करती नदिया बेबस गाती हैं। ऐसा नहीं कि तुम ही केवल रङ्गमंच पर खेले ताल-तलैयों का मन भरता, झींगुर तान सुनाती है, हमने भी तो साथ तुम्हारे मिल कर मौसम झेले तुम पर्दो के पीछे खेले हम पर्यों के आगे दादुर का संगीत सुनावे ठुमकी केकी पाँव में। बादल का भी..... हमने हर आगत स्वीकारा तुम ही डरकर भागे यहाँ रास्ते टेढ़े-मेढ़े दिल के सीधे रस्ते हैं, अपने नाम लिखा ली तुमने वह पूरी फुलवारी यहाँ मनुज अब भी मानव हैं भाव सुमन भी सस्ते हैं। जिसकी हमने लहू पिलाकर सींची क्यारी-क्यारी।।। यहाँ प्राण की ऊषा चुनरी रँगी हुई सब लाल हैं ऐसा नहीं कि तुम ही केवल पीड़ा गाँव दिखे हमने भी जलते अलाव पर अपने पाँव रखे मन के मोती पिरे हुए हैं अमराई की छाँव में। बादल का भी... हमने वार सहे सीनों पर तुमने देह चुराई खंजन सी आँखों वाली जब शरद यहाँ भी आ जाती, देह हमारी रक्त-नदी में मल-मल अंग नहाई पीहू-पीहू की पुकार सुन हरियाली फिर मस्ताती। पटी हुई लाशों पर तुमने भर-भर कर किलकारी धरती की चूनर पर लौटे श्रम के देवी-देव नए दिवस की सुबह दूधिया थाल सजा सत्कारी।2। ऐसा नहीं कि तुम ही केवल आँख भिगो कर रोये नभ के तन से मोती झरते वह पावस है गाँव में। बादल का... हमने भी कुछ मुर्दा सपने इन आँखों में ढोये यहाँ बीज बोते हैं गाकर, धोली रात उगाते हैं इतिहासकार ने लिखा तुम्हारा सोने का इतिहास सूरज रोज उगाने वाले, जीवन गीत सुनाते हैं। उत्सर्गों की कथा हमारी महज़ हास-परिहास! आँखें मलते अंकुर फूटे, तारे प्रीत बहाते हैं। ताज पहन सिंहासन बैठे तुम लगते सरकारी धरती सब मखमली हो गई, स्वेद गगन की छाँव में। बादल का... वन्दनगीत तुम्हारे गाते हम लगते दरबारी।3। 36/बी, मैत्री विहार, सुपेला, शाकाहार सदन, भिलाई (दुर्ग) छत्तीसगढ़ एल.-75, केशर कुंज, हर्षवर्धन नगर, भोपाल-3 -जून 2001 जिनभाषित 19 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524253
Book TitleJinabhashita 2001 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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