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________________ हो पाता, अर्थात् उनका तीव्रोदय असम्भव हो जाता है। इससे संक्लेश | समझता है, तो भी चारित्रमोहोदयरूप कोतवाल के वश में होकर या कालुष्य की उत्पत्ति नहीं होती और विशुद्धता का विकास होता | विषयसुख का भोग करता है।' (समयसार/तात्पर्यवृत्ति/गाथा 194) है। उस विशुद्धता से कोई-कोई अशुभ कर्म शुभ में बदल जाते हैं, विषयसुख को हेय समझने पर भी उसे भोगने के लिए विवश किन्हीं अशुभ कर्मों की स्थिति और अनुभाग का ह्रास हो जाता है करने वाला यह चारित्रमोह का उदय इन्द्रियों की भोगवासना के निमित्त तथा शुभकर्मों की स्थिति घट जाती है और अनुभाग बढ़ जाता है। | से ही होता है, जैसे आहार को हेय समझने पर भी मुनि में आहार इस रीति से विशुद्धता का निरन्तर विकास होता रहता है। इसका की इच्छा पैदा करनेवाला चारित्रमोहोदय शरीर की आहारवृत्ति के विस्तृत विवेचन आगे किया जा रहा है। निमित्त से होता है। संयम, तप और अपरिग्रह के द्वारा शरीर को परद्रव्यों की इस प्रकार इन्द्रियों की भोगवासना संक्लेश का प्रबलतम कारण अधीनता से यथासम्भव मुक्त कर ऐसा स्वस्थ और संयत बनाया है। इन्द्रियसंयम से संक्लेशपरिणाम का यह महान् स्रोत अवरुद्ध हो जाता है कि वह परद्रव्येच्छारूप तीव्रकषाय के उदय का निमित्त नहीं जाता है। इन्द्रियों को अनावश्यक विषयसेवन से क्रमशः निवृत्त करने बन पाता, न ही परद्रव्य के अभाव में असातावेदनीय के उदय का पर उनका भोगाभ्यास छूट जाता है और उनमें विषयभोग के लिए हेतु बनने में समर्थ होता है। पीड़ाकारक उद्दीपन नहीं होता। फलस्वरूप वे असातावेदनीय एवं संयम का मनोविज्ञान तीव्रकषाय (विषयाकांक्षा) के उदय का निमित्त नहीं बन पाती। पूज्यपाद स्वामी कहते हैं- 'रसपरित्याग आदि तप के द्वारा इंद्रियों में स्वभावतः विषयसेवन की रुचि होती है इंद्रियों के मद का निग्रह होता है।' (सर्वार्थसिद्धि 9/19) आचार्य (दग्धेन्द्रियाणां रुचिवशेन... रुचितारुचितेषु रागद्वेषावुपश्लिष्य नितरां जयसेन का कथन है- 'शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श, ये क्षोभमुपैति। प्रवचनसार, तत्त्वदीपिकावृत्ति 1/83) और अनियंत्रित इन्द्रियविषय रागादि भावों की उत्पत्ति के बहिरंग कारण हैं, अतः इनका विषयभोग द्वारा उनमें विषयसेवन का व्यसन भी उत्पन्न हो जाता त्याग करना चाहिए। (शब्दादयो रागादीनां बहिरंगकारणास्त्याज्याः । है। इससे उन्हें जिस समय, जिस वस्तु के भोग की आदत पड़ जाती समयसार/तात्पर्यवृत्ति 366-371) उन्होंने बतलाया है कि इन्द्रियहै, उस समय उस वस्तु के भोग के लिये उनमें अत्यंत पीड़ाकारक विषयों के त्याग से चित्त क्षोभरहित (संक्लेशरहित) हो जाता है। उद्दीपन होता है, अर्थात् असाताववेदनीय का उदय होता है। उससे (बहिरङ्गपञ्चेन्द्रियविषयत्यागसहकारित्वेनाविक्षिप्तचित्तभावनोत्पन्ननिर्विसंक्लेशपरिणाम की उत्पत्ति होती है। उसके निमित्त से विषयों को भोगने कारसुखामृतरसबलेन...। वही/उत्थानिका) कषायों के तीव्रोदय में ही की आकांक्षा के रूप में तीव्र राग का उदय होता है। इस तथ्य पर चित्त क्षुब्ध होता है, (पञ्चास्तिकाय/तत्त्वदीपिका/गाथा 138) अतः आचार्य शुभचन्द्र ने निम्नलिखित शब्दों में प्रकाश डाला है स्पष्ट है कि संयम तीव्रकषायोदय के निरोध का निमित्त है। इदमक्षकुलं धत्ते मदोद्रेकं यथा यथा। पंडित टोडरमल जी का कथन है- 'बाह्य पदार्थ का आश्रय लेकर कषायदहनः पुंसां विसर्पति तथा तथा।। रागादि परिणाम हो सकते हैं। इसलिये परिणाम मिटाने हेतु बाह्य वस्तु (ज्ञानार्णव 20/3) के निषेध का कथन समयसारादि में है। यह नियम है कि बाह्य संयम - इंद्रियों का समूह जैसे-जैसे मद की उत्कटता धारण करता साधे बिना परिणाम निर्मल नहीं हो सकते। अतः बाह्य साधन का विधान है, वैसे-वैसे मनुष्य में कषायरूप अग्नि भड़कती है। जानने के लिए चरणानुयोग का अभ्यास करना चाहिए। (मोक्षमार्गश्रीमद्भगवद्गीता में भी कहा गया है प्रकाशक/.292) यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः। तप का मनोविज्ञान इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।। (2/60) - हे कुन्तिपुत्र! मनुष्य कितना ही ज्ञानी हो, यदि उसकी इन्द्रियाँ अनशन, अवमौदर्य, रसपरित्याग, कायक्लेश आदि बाह्य तपों असंयत हैं तो वे मन को बलात् विषयों की ओर खींच ले जाती हैं। | के द्वारा भी शरीर को परद्रव्य की अधीनता से अधिकाधिक मुक्त करने उद्दीप्त इन्द्रियों के निमित्त से असातावेदनीयजनित संक्लेश- का अभ्यास किया जाता है, जिससे शरीर परद्रव्यजन्य सुख का परिणाम द्वारा विषयेच्छा उत्पन्न होने पर जीव विषय प्राप्ति का प्रयत्न अभ्यस्त नहीं होता। फलस्वरूप परदव्य का सेवन न करने पर करता है। उसमें कोई बाधक बनता है, तो उसके निमित्त से क्रोध और असातावेदनीय का उदय नहीं होता तथा असातावेदनीयजन्य पीड़ा मान उदित हो जाते हैं, जिनके कारण जीव हिंसादि पाप भी कर डालता के अभाव में परद्रव्येच्छारूप तीव्रकषाय का उदय नहीं होता। तप है। इच्छित वस्तु की उपलब्धि यदि ऋजुमार्ग से सम्भव नहीं होती, से शरीर स्वस्थ भी रहता है, प्रमादग्रस्त नहीं होता। (तत्त्वार्थवृत्ति 9/ तो अनेक जीवों में माया कषाय का प्रादुर्भाव हो जाता है। इस प्रकार 19) अतः रोग, आलस्य आदि से मुक्त रहने के कारण भी इन्द्रियों की भोगप्रवृत्ति तीव्रकषाय का निमित्त है। संक्लेशोत्पादक असातावेदनीय के उदय का निरोध होता है। विषयों में इष्टानिष्टबुद्धि के निमित्त से तो तीव्रकषाय का उदय अपरिग्रह का मनोविज्ञान केवल मिथ्यादृष्टियों में ही होता है, किन्तु इन्द्रियों के भोगव्यसन के बाह्य वस्तुओं के सम्पर्क से उनके संरक्षण, संवर्धन, परिष्करण निमित्त से असंयत तथा संयतासंयत सम्यग्दृष्टियों में भी होता है। आदि की चिन्ता उत्पन्न होती है। उनकी रक्षा के प्रयत्न में दूसरों के आचार्य जयसेन का कथन है साथ संघर्ष होता है। हिंसा के प्रसंग उपस्थित हो जाते हैं। अतः परिग्रह 'जैसे कोई चोर मरना नहीं चाहता, तो भी कोतवाल के द्वारा असाता और क्रोधादि के उदय का निमित्त होता है। जितनी ज्यादा पकड़े जाने पर उसे विवश होकर मरना पड़ता है, वैसे ही सम्यग्दृष्टि वस्तुओं से सम्पर्क छूटता है उनके संरक्षणादि की चिन्ता से हम उतने जीव, यद्यपि आत्मोत्पन्न सुख को उपादेय तथा विषयसुख हो हेय 18 जून 2001 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524253
Book TitleJinabhashita 2001 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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