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________________ हास्यव्यंग्य साझे की सुई 'सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों में जो काम होते हैं, वे सामूहिक जिम्मेवारी के आधार पर होते हैं। जैसे कि एक सुई खरीदनी है, तो चार कर्मचारी बाजार जाते हैं और सुई ठेले पर लाद कर ले आते हैं। कहा भी है कि साझे की सुई ठेले पर लदकर जाती है। पर यदि उद्योग का प्रबन्ध निजी हाथों में गया तो फिर ऐसा थोड़े ही हो पायेगा। वे तो सुई लेने एक आदमी भेजेंगे और कहेंगे कि जेब में रखकर लेते आना।' सार्वजनिक क्षेत्र और निजी क्षेत्र की व्यवस्थागत भिन्नता को अनावृत करता है यह मर्मस्पर्शी व्यंग्य । आदमी और शेर में फर्क होता है आदमी और हाथी में भी फर्क होता है। इसी तरह आदमी और घोड़े में भी फर्क होता है। इस धारणा के वशीभूत हो, वो लोग जो रिंग मास्टर के इशारे पर नाचते- करतब दिखाते शेर, हाथी व घोड़े को देखने सर्कस में जाते हैं, मेरे ख्याल से, व्यर्थ ही अपना समय और पैसा बर्बाद करते हैं। क्योंकि कोड़े के भय अथवा भोजन की लालच से किसी भी प्राणी से कोई भी काम करवा लेना कतई मुश्किल काम नहीं है, कोई जीवट का कार्य नहीं है। जबकि इसके विपरीत, किसी सरकारी अफसर का, प्यास लगने पर, अपने पक्की नौकरी वाले चपरासी से एक ग्लास पानी तुरंत प्राप्त कर लेना अथवा आवश्यक होने पर, संबंधित फाइल बड़े बाबू से तत्काल निकलवा लेना अथवा अन्य किसी मातहत से, जरूरत के मुताबिक फौरन काम करवा लेना, सचमुच ही दुष्कर कार्य है, जीवट का काम है। दरअसल ऐसा कोई करतब सर्कस में दिखाया जाना चाहिए। पर जो नहीं दिखाया जाता तो केवल इस कारण कि ऐसा कौशल दिखा सकने वाले अफसर अब दुर्लभ हैं। , कहते हैं कि मानव के स्वभाव को, चारित्र को व्यवहार को जानने-समझने का प्रयत्न सृष्टि के प्रारंभ से ही चल रहा है। और इस मामले में अब तक जो प्रगति हुई है उसमें एक बात तो यह तय पायी गई है कि मानवसमाज के आधे सदस्यों के चरित्र को देवता भी नहीं जान पाये हैं अतएव किसी व्यक्ति का अब इस दिशा में कोई भी अनुसंधान करना बेमतलब है। तथा दूसरी बात यह निश्चित पायी गई है कि मनुष्य मूलत: एक आलसी प्राणी है। अतः यदि वह अपने खाने-पीने का जुगाड़ बिना किसी परिश्रम के कर सके तो उसके लिये इससे अधिक स्वागतेय स्थिति अन्य कोई नहीं हो सकती। जाहिर है कि सारी 22 जून 2001 जिनभाषित Jain Education International मारा-मारी केवल इस बात को लेकर है कि कम से कम काम करके अधिक से अधिक सुख का उपभोग किस तरह किया जा सके। मानव स्वभाव के इस मूलगुण को जरा विस्तार से समझना समीचीन होगा। इतिहास बतलाता है कि प्राचीन काल से ही आदमी अपने हिस्से का काम, दूसरे से करवा लेने की जुगत में लगा रहा है और इस प्रयास में आंशिक सफलता प्राप्त करते हुए उसने बैल को नकेल, घोड़े को लगाम और हाथी को अंकुश के द्वारा वश में करते हुए अपना बहुत सारा काम उन पर लाद दिया जो कि अभी तक लदा हुआ है। लेकिन, इसके बाद भी जब काफी काम बचा रहा तो उसने अपने से के उद्देश्य से समाज की संरचना की, कमजोर व्यक्ति से वह काम करवा लेने जातियाँ ईजाद की बहुतेरे सिद्धांत प्रतिपादित किए बाहुबल में वृद्धि की और इन सबके सम्मिलित प्रयोग से अपना वर्चस्व स्थापित करने में सफलता प्राप्त की। शनैः-शनैः मानव समाज, स्पष्ट रूप से दो विभिन्न वर्गों में विभाजित हो गया। एक वर्ग में रहे वो जो काम करवाते थे और दूसरे में थे वो जिनकी नियति थी काम करना। संक्षेप में इन्हें, क्रमशः शासक और शासित वर्ग कहा गया ! आरम्भिक अवस्था में, For Private & Personal Use Only ● शिखरचन्द्र जैन शासक वर्ग में, लोगों की संख्या काफी कम थी। इसका कारण यह था कि उन दिनों संसार के सारे सुख केवल शासक वर्ग के लिए ही आरक्षित थे। अब जैसा कि शास्त्रों में कहा गया है, अव्वल तो संसार में सुख ही नहीं, पर अगर छोटे-मोटे मुश्किल से शहद की बूंद की माफिक हो भी तो उन्हें बहुत सारे लोगों में तो नहीं बाँटा जा सकता था न ! इसलिए शासक वर्ग तब राजा-महाराजा, शहंशाह बादशाह तक ही सीमित था। शेष सभी मनुष्य शासित वर्ग में हुआ करते थे जो कि बाकायदा शासकों की बेगारी करने को बाध्य थे। शासितों से काम लेने हेतु भी शासक तकरीबन वैसे ही हथकंडे अपनाते थे जैसे अन्य प्राणियों को वश में करने के लिए दासों को निरंतर कार्यरत रखने हेतु बेड़ियाँ और कोड़े सर्वथा प्रभावी उपकरण माने जाते थे। यह स्थिति सैकड़ों वर्षों तक रही। शासक निर्विघ्न सुख भोगते रहे और शासित दुखः शास्त्रों ने इसे पूर्वोपार्जित कर्मों का प्रतिफल बतलाते हुए आश्वस्त किया कि सत्कर्म करने से अगले जन्म में शासक वर्ग में जन्म लेना सुनिश्चित किया जा सकेगा। बहुतेरे शासितों ने दुःख भोगना अपनी नियति मानते हुए इस स्थिति से समझौता कर लिय । अन्यों ने प्रारब्ध को दोष दिया और चुप हो लिए। इस तरह बहुसंख्यक शासित, एक लम्बे समय तक यथास्थिति बनाए रखने में शासकों के सहायक बने रहे। लेकिन समय कितना भी लम्बा हो, गुजर ही जाता है। आदमी कितना ही संतोषी हो, सुख का लालच उसे व्याकुल कर ही देता है तथा पकड़ कितनी ही मजबूत हो देरसबेर, ढीली पड़ ही जाती है। इसलिये इन सिद्धांतों के अनुरूप, जब कालांतर में शासकों को यह महसूस हुआ कि शासितों पर उनका नियंत्रण कमजोर पड़ता जा रहा है तो www.jainelibrary.org
SR No.524253
Book TitleJinabhashita 2001 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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