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मुनि दीक्षा से पहले जो एक प्रश्न लोगों के मन में सहज ही उठा था कि इतने सुकुमार बाईस वर्षीय युवा को सीधे मुनि दीक्षा देना कहाँ तक उचित है, इसका समाधान तुम्हारी सम्यक् श्रद्धा, प्रखर- प्रज्ञा और अपार चारित्रिक दृढ़ता को देखकर आपोआप मिल गया। उन क्षणों में सभी ने ऐसा अनुभव किया कि तुम जो भी करोगे वह इस युग के लिये अद्भुत और परम उपकारी होगा।
महाराज के चरणों में तुमने विनम्र निवेदन किया- 'मैं सकल चराचर जीवों को क्षमा करता हूँ, सभी मुझे क्षमा करें। मैं अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी के द्वारा प्ररूपित अनादिकालीन श्रमण-धर्म की शरण को स्वीकार करता हूँ। मैं समस्त पूर्वाचार्यों की शरण को स्वीकार करता हूँ। मैं दिगम्बर जैनाचार्य श्री शान्तिसागर जी आचार्य श्री वीरसागर जी, आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज की परम्परा में अपने साक्षात् गुरु श्री ज्ञानसागर जी महाराज की चरण-शरण को स्वीकार करता हूँ। पूज्य महाराज मुझे जैनेश्वरी दीक्षा देकर अनुगृहीत करें।'
दीक्षाविधि प्रारंभ हुई तुमने एक-एक करके सभी महान प्रतिज्ञाएँ दुहराई कि मैं पाँच पापों को त्यागकर पाँच महाव्रतों को स्वीकार करता हूँ। मैं पाँच असमीचीन प्रवृत्तियों को छोड़कर पाँच समितियों को ग्रहण करता हूँ। मैं पाँच इन्द्रिय-विषयों में आसक्ति छोड़कर पाँच इन्द्रिय-निरोधों को अंगीकार करता हूँ। मैं आगमोक्त षट्आवश्यक क्रियाओं, सामायिक, स्तुति, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग को स्वीकार करता हूँ। मैं समस्त प्रकार के स्नानों का परित्याग कर अस्नान व्रत को अंगीकार करता हूँ। मैं समस्त वस्त्राभूषणों का त्यागकर यथाजातरूप, अचेलकव्रत को स्वीकार करता हूँ। मैं रागयुक्त शय्यादि का परित्याग कर भूमि-शयन व्रत को अंगीकार करता हूँ। मैं दन्त- परिष्कार से मुक्त होकर आत्म-परिष्कार के लिए अदन्तधावन व्रत को स्वीकार करता हूँ। मैं संसार में प्रचलित सभी भोजन प्रणालियों से विमुख होकर एक अतिथि की तरह अपने पाणिपात्र में खड़े होकर भोजन ग्रहण करने रूप स्थिति भोजन व्रत को अंगीकार करता हूँ। मैं कई बार भोजन
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और रात्रिभोजन से विमुख होकर दिन में एक बार, प्रामुक, निर्दोष भोजन, ग्रहण करने रूप एक भक्त व्रत को स्वीकार करता हूँ। मैं अब स्वाश्रित होने के लिए अपने हाथों केशलुंचन के लिए संकल्पित होता हुआ लोचव्रत रूप मूलगुण को अंगीकार करता हूँ।'
दीक्षा के उन पावन क्षणों में हजारों आँखें तुम्हारी ओर अपलक देख रही थीं सब प्रतीक्षारत थे। इतने में ही अचानक हवाएं थम गई और बादलों का एक नन्हा सा टुकड़ा उस तपती दुपहरी में जाने कहाँ से आकर वहाँ बरस गया। सब ओर जय-जयकार होने लगी। मानो उत्सव की खुशियों में गलकर श्रद्धा सजल हो गई तुम्हारे जीवन में वीतरागता के बादल उमड़े और तुम आत्मानुभूति में भीगते चले गए।
क्षणभर में तुम्हारी देह अनावरित हो गई हजारों आंखों में प्रतिबिम्बित हुआ आगामी श्रमण-धारा को दिशाबोध देनेवाला एक युवा श्रमण 'मुनि विद्यासागर' ।
अपने इस नव दीक्षित शिष्य को गुरु ने उद्बोधन दिया- 'अब तुम्हें आत्म-कल्याण के लिए निरन्तर आगे बढ़ते रहना है। जो जीवन बीत चुका उसके बारे में क्षण मात्र भी विचार नहीं करना है। मुनि का लक्ष्य है ऊँचाइयाँ छूने का मोक्ष प्राप्त करने का । गृहस्थ ने अगर अपने से बड़ों को देखकर ईर्ष्या की और नीचे वालों से घृणा की, तो वह आत्म-कल्याण नहीं कर सकेगा और यदि साधु ने नीचे की ओर देखकर अपने को ऊँचा मानकर संतोष कर लिया या ऊँचाइयों का ध्यान भुला दिया तो उसका भी कल्याण नहीं।'
उपदेश प्रेरणादायी था तुमने ध्यान से और मन ही मन संकल्प कर लिया कि मैं साधु के योग्य निर्दोष आचरण करूँगा और ऊंचाइयों को छूने का प्रयास करूंगा।'
सुना
उस दिन अपने गुरु के साथ जब तुमने मोक्षमार्ग पर पहला कदम बढ़ाया तब लगा मानो अचला कहलाने वाली धरा ने स्वयं चलकर तुम्हारे पग थाम लिए और कहा 'हे श्रमण ! यह रहे तुम्हारी विजय यात्रा के प्रथम चरण, जाओ, और आत्म- आकाश में अनन्त ऊंचाइयों पर अबाध विचरण करो।'
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समर्पण
जो ज्योति-सा मेरे हृदय में रोशनी भरता रहा वह देवता
जो साँस बन
इस देह में
आता रहा जाता रहा
वह देवता
दूर रह कर भी सदा से साथ मेरे है यही अहसास देता रहा
वह देवता
मैं जागता हूँ
या नहीं
यह देखने
द्वार पर मेरे
मुनि श्री क्षमासागर
दस्तक सदा देता रहा
वह देवता
जो गति
मेरी नियति था
ठीक मुझ सा ही मुझे करता रहा वह देवता
समर्पण
दीप उनका रोशनी उनकी मैं जल रहा हूँ
रास्ते उनके
सहारा भी उन्हीं का मैं चल रहा हूँ
प्राण उनके
हर साँस उनकी मैं जी रहा हूँ।
'जून 2001 जिनभाषित 13
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