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________________ श्रमण परम्परा के ज्योतिर्मय महाश्रमण आचार्य श्री विद्यासागर .मुनि श्री अजितसागर जीवन का रहस्य क्या है, इसमें रहस्यकी बात है, जिसका कोई | बढ़ाते रहे। आज उन्हीं के प्रथम शिष्य जिन्होंने अनुपम इतिहास रचा कोई उत्तर ही नहीं, उसे तो बस खोजते चले जाओ जिसे खोजते- | है, जिन्होंने इस 20वीं एवं 21वीं शताब्दी में इतने सारे बालयति खोजते तुम स्वयं में खो जाओगे और खोज जारी रहेगी। जो इस | साधकों को मोक्षमार्ग पर लगाया है, जो जिनशासन की शान हैं और खोज में डूब गया वही स्वयं के परमात्मा को पा गया। ऐसा परमात्मा वर्तमान युग में मूलाचार की जीवित पहचान हैं, जिनकी आशीषभरी जिसका कोई अन्त न हो। अन्त-अनंत की गहराई को लिये ऐसा । छाँव में आज हजारों साधक मोक्ष मार्ग पर अग्रसर है, उन महाश्रमण परमात्म होता है। इसी परमात्मा की गहराई में डुबकी लगाने वाले | आचार्य श्री का मुनिदीक्षा दिवस है। और वर्तमान में श्रमण परम्परा को ज्योतिर्मय बनाने एवं परमागम जो फरिश्ते कर सकते हैं कर सकता इंसान भी। के रहस्य को समझने और समझाने वाले एवं एक नाव की तरह कार्य जो फरिश्ते से न हो वह काम है इंसान का। करने वाले जैसे नाव कभी भी नदी वह काम जो देव भी चाहते हुए के उस पार अकेली नहीं जाती अपनी नहीं कर सकता है वह काम इंसान कर पीठ पर बैठा कर अनेकों व्यक्तियों को सकता है। इस मनुष्य पर्याय की उस पार पहुँचाती है, वैसे अनेकों दुर्लभता वह देवेन्द्र ही समझता है। वह व्यक्तियों को संसार-सागर से निकाल भी तरसता है कि कुछ क्षण के लिये कर मोक्ष का मार्ग प्रदान करने वाले हमें यह मनुष्य पर्याय मिल जाये। इस अपने अहर्निश साधना के माध्यम से मनुष्य पर्याय की दुर्लभता को एक युवा स्वकल्याण के साथ परकल्याण की हृदय ने आज से 33 वर्ष पूर्व 21 भावना रखने वाले। जो स्वयं चलते वर्षीय ब्रह्मचारी विद्याधर जी अष्टगे ने हुए भव्य जीवों को चलाने वाले ऐसे धन्य किया था। जिसे घर के लोग प्यार आचार्य परमेष्ठी आचार्य प्रवर संत से पीलू, गिन्नी, मरी आदि नाम से शिरोमणि श्री विद्यासागर जी महाराज बचपन में पुकारा करते थे। कर्नाटक के जो एक प्रकाशमान दीप की तरह दक्षिण भारत में बेलगाँव जिले के सबको प्रकाश देने महान योगी ज्योति अन्तर्गत सदलगा ग्राम में आश्विनी र्मय महाश्रमण का मुनि दीक्षा दिवस हम शुक्ला पूर्णिमा (शरद पूर्णिमा) 10 सबके लिये पावन पर्व के समान है। अक्टूबर 1946 के दिन श्रेष्ठीवर श्री जैनाचार्यों ने जिनागम में आचार्य मल्लप्पाजी अष्टगे मातु श्रीमती जी परमेष्ठी का लक्षण कहा है- जो अष्टगे की कुक्षी से आपका जन्म हुआ मोक्षमार्ग पर स्वयं चलते हुए दूसरे था। आप अपने गृह की द्वितीय संतान भव्य जीवों को चलाता है। इसलिये होकर भी अद्वितीय व्यक्तित्व के धनी पूज्यपाद स्वामी ने आचार्य भक्ति में थे। आपका बाल्यकाल खेलकूद और लिखा है अध्ययन के साथ सन्तदर्शन की भावना से ओतप्रोत रहता था। बालक 'सिस्सामुग्गहकुसले धम्माइरिए सदा वंदे' विद्याधर प्रत्येक कार्य में निपुण था। कृषि कार्य में कुशलता छोटी सी जो शिष्य के अनुग्रह करने में कुशल होता है उस धर्माचार्य | उम्र में प्राप्त हो गई थी। खेल में शतरंज और केरम में आप मास्टर की सदा वन्दना करता हूँ। माने जाते थे। छोटी-सी उम्र में बड़ों-बड़ों को पराजित कर देते थे। भारतीय संस्कृति में जिनशासन की गौरव गाथा गानेवाले उसके | शिक्षा के क्षेत्र में हमेशा आगे रहने वाले और प्रथम स्थान प्राप्त करना रहस्यों को बताने महान-महान आचार्य हुए जिन्होंने संयम का स्वरूप | तो सहज काम था। एवं यथाजात-निर्यन्थ स्वरूप को धारण करके भटके-अटके अज्ञानी बाल्यकाल व्यतीत होते ही जवानी की ओर कदम बढ़े। उस भव्य जीवों के लिये सही दिशाबोध देकर श्रमण परम्परा की अखण्ड | भरी जवानी में जीवन के रहस्यों को जानने की जिज्ञासा युवा मन धारा को भारत भूमि पर प्रवाहित किया। उसी परम्परा को बीसवीं में समाई। एक दिन शेडवाल ग्राम में आचार्य श्री शान्तिसागर जी शताब्दी में महान आचार्य श्री शातिसागर जी आगे बढ़ाया और । का ससंघ आगमन हुआ। पहुंच गये उनके वचनामृत को सुनने के क्रमशः आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज ने उसी परम्परा को आगे | लिये। मिल गया वह सूत्र जीवन के रहस्य दर्शन कराने वाला, उपजा -जून 2001 जिनभाषित 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524253
Book TitleJinabhashita 2001 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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