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________________ नारीलोक नारी का सामाजिक मूल्यांकन आवश्यक • श्रीमती रंजना पटोरिया एक हजार वर्षों का भी विकास के लिये पूर्ण नारी ज्ञान, शक्ति और ऐश्वर्य इन तीनों रूपों की समन्वित इतिहास संजोए एक युग स्वतंत्रता मिलनी चाहिए, नारी कृति है। नारी सृष्टि, समाज और मानव जीवन तीनों की बीत गया, अब आया को पुरुष से हेय समझना, 21वीं सदी का युग, सारी आधारशिला है। वह न केवल जननी है, अपितु शिक्षक, अज्ञान, अधर्म व अतार्किक है। संभावनाओं से भरा हुआ प्रशिक्षक, निर्देशक, पोषक व रक्षक भी है। पाश्चात्य संस्कृति जैनागमों में पत्नी को 'धम्मऔर यही समय आकलन में नारी भोग्या है, किन्तु भारतीय संस्कृति में नारी को माता सहाया' अर्थात् धर्म की सहाकरने का भी है, विशेषकर के रूप में उपस्थित कर इस रहस्य को उद्घाटित किया गया यिका माना है। 'नारी की स्थिति का। अब | है कि वह विलासिता की सामग्री न होकर वन्दनीय व नारी शक्ति, ज्ञान और संदर्भ विश्व की नारी हो या | पूजनीय है। ऐश्वर्य इन तीनों रूपों की भारत की। नारी सबल हुई समन्वित कृति है, नारी सृष्टि, या दुर्बल। उसका सम्मान हुआ या मान घटा। | धुरी है। इस कुञ्जी को कायम रखने व समाज और मानव जीवन तीनों की आधाआत्मनिर्भर हुई या उसकी निर्भरता में वृद्धि इक्कीसवीं सदी की शांति व समृद्धि के लिये रशिला है। वह न केवल जननी है अपितु हुई। नारी के व्यक्तित्व में निखार आया या नारी के सम्मान व स्वाभिमान की रक्षा अत्यंत शिक्षक, प्रशिक्षक, निर्देशक, पोषक व रक्षक और भी दबाई-कुचली गई। उपलब्धियों के | आवश्यक है। यह तभी संभव है जब नारी भी है। पाश्चात्य संस्कृति में नारी भोग्या है कीर्तिमान हासिल किये या घर की चारदिवारी स्वयं का सर्वांगीण शिक्षा द्वारा विकास करे किन्तु भारतीय संस्कृति में नारी को माता के में चूल्हे-चौके तक सिमट कर रह गई। जब वह भी मानसिक व बौद्धिक दोनों तरह से। रूप में उपस्थित कर इस रहस्य को उद्घाटित बात भारत की होगी तो ईसा की सहस्राब्दी और यह शिक्षा तभी सार्थक होगी जब मेधा किया गया है कि वह विलासिता की सामग्री तक नहीं, वह तो युगाब्दियों तक चलेगी। व प्रतिभा का सही दिशा में समुचित उपयोग न होकर वंदनीय व पूजनीय है। किया जावे। वर्षों की दासता के कारण नारी सृष्टि की निर्मात्री, धात्री 'माँ' की अज्ञान के अंधेरे में, कुरीतियों, अंधविश्वासों आज 21वीं सदी के आरंभ में नारीश्रेष्ठता की भारतीय मूल्यों में सहज स्वीकृति में जकड़ गई है। और वंचित है, उस सम्मान जागरण की बातें प्रायः सुनने मिलती हैं। यह थी, किन्तु जब-जब इसकी उपेक्षा हुई तब से जिसकी वह अधिकारिणी है। हिन्दू धर्मग्रन्थों ठीक भी है क्योंकि समाज व राष्ट्र की उन्नति तब अन्याय हुआ। समाज में विकृति आई में तो यहाँ तक लिखा है कि 'कहीं धर्म की व अवनति दोनों ही नारी पर निर्भर है। नारी और देश पतन के गर्त में गया। आज न तो जागरण हेतु 'महिला सम्मेलन' कर लेना या समाज में शांति है, और न ही समृद्धि, किसी व्याख्या करनी है तो शास्त्रों में देखें। शास्त्रों में न मिले तो संतों से पूछे। संतों से न मिले कानून बना देना ही पर्याप्त नहीं है, भी राष्ट्र की शांति. सुख-समृद्धि के लिये तो माता से पूछे। माँ ही धर्म की अधिकृत आवश्यकता है मानसिकता बदलने की। इस आवश्यक है कि उस राष्ट्र की नारी का व्याख्याता है।' यहाँ धर्म का अर्थ कर्तव्य से | हेतु महिलाएँ शिक्षा भी प्राप्त करने लगी हैं सामाजिक सम्मान की दृष्टि से मूल्यांकन हो। है, और निश्चय ही संतान का कल्याण चाहने किन्तु शिक्षा का जो सकारात्मक प्रभाव उन अहिल्या का शिलावत् जीवन जीना, वाली माता उसे करणीय और अकरणीय का पर पड़ना चाहिए, जो कर्त्तव्यपरायणता आनी सीता के सतीत्व की अग्नि परीक्षा, व सही ज्ञान देती है। परिवार समाज व | चाहिए, उसमें कमी है। इस हेतु उन्हें उत्साहित परित्याग स्वाभाविक नहीं अस्वाभाविक व विश्वशांति की कामना करती है। करना है। वे अपनी शक्ति पहचानें। धैर्य, असामान्य घटनाएँ थीं जिनकी जनमानस में ममता, त्याग और शौर्य की प्रतिमूर्ति बनें। कभी स्वीकृति नहीं हुई। अन्याय के उदाहरण भगवान महावीर की दृष्टि में नागरिक के रूप में राष्ट्र निर्माण के कार्य में पहले भी थे, आज भी हैं, आगे भी रहेंगे। जुट जावें। महिलाओं पर जितना अपने जीवन किन्तु न ही यह भारतीय अवधारणा है और युगपुरुष महावीर की दृष्टि में नारी का का दायित्व है, उतना ही परिवार, समाज और न ही आदर्श। महत्त्वपूर्ण स्थान था। महावीर के द्वारा नारी को राष्ट्र का भी है। अतः राष्ट्र की समस्याओं का नारी के हाथ में राष्ट्र के विकास की | खोया सम्मान दिलाना एक क्रांतिकारी कदम चिंतन करें व समाधान में भागीदारी निभावें। कुञ्जी है। विश्वशांति स्थापना की वही एक | था। उन्होंने समझाया, पुरुष की तरह स्त्री को हमारी अस्मिता व सम्मान की सुरक्षा इसी में नारी -जून 2001 जिनभाषित 25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524253
Book TitleJinabhashita 2001 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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