Book Title: Enjoy Jainism
Author(s): Kalyanbodhisuri
Publisher: K P Sanghvi Group
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jänisem Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ There are many paths to the of the mountain, but the view always the same. Jain Education Interation Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ parties Blessings Acharya Hemchandra Suriji Editor Acharya Kalyanbodhi Suriji Publisher K. P. Sanghvi Group For Private & Personal use only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्तिस्थान के. पी. संघवी एन्ड सन्स 1301, प्रसाद चेम्बर्स, ऑपेरा हाउस, मुंबई - 400004. फोन : 022-23630315 श्री चंद्रकुमारभाई जरीवाला दु.नं.6, बद्रिकेश्वर सोसायटी, नेताजी सुभाष मार्ग, मरीन ड्राईव इ रोड, मुंबई - 400002. फोन : 022-22818390/22624477 श्री अक्षयभाई शाह 506, पद्म एपार्ट., जैन मंदिर के सामने, सर्वोदयनगर, मुलुंड (प.), मुंबई-400080. फोन : 25674780 श्री चंद्रकांतभाई संघवी 6/बी, अशोका कोम्प्लेक्स, जनता अस्पताल के पास, पाटण-384265 (उ.गु.). मो.: 9909468572 श्री बाबुभाई बेडावाला सिद्धाचल बंग्लोज, सेन्ट एन. हाईस्कूल के पास, हीरा जैन सोसायटी, साबरमती, अहमदाबाद - 5. मो. : 9426585904 मल्टी ग्राफीक्स 18, खोताची वाडी, वर्धमान बिल्डींग, 3रा माला, प्रार्थना समाज, वी. पी. रोड, मुंबई - 400004. फोन : 23873222/23884222 E-mail: support@multygraphics.com | www.multygraphics.com सेवंतीलाल वी. जैन (अजयभाई) 52/डी, सर्वोदय नगर, 1 ली पांजरापोल गली नाका, मुंबई. फोन : 22404717/22412445 महावीर उपकरण भंडार सुभाष चौक, गोपीपुरा, सुरत. फोन : (0261) 2590265 महावीर उपकरण भंडार शंखेश्वर. फोन : 273306. मो. : 9427039631 सृजन 155/ वकील कॉलनी, भीलवाडा (राज.). मो. 09829047251 प्रथम आवृत्ति: 2011 • मूल्य : 150/ alibrary.org Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Just Enjoy जैन... यह केवल धर्म नही है... यह तो सुखमय जीवन जीने कि कला है, प्रेम, करुणा और प्रसन्नता का प्रसारण है, इस जनम और जनमो जनम को आनंदपूर्ण बनाने का एक मार्ग है। So, don't only learn Jainism, but enjoy Jainism.. Wish you all the best... Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ifuarga ateFEITA शीतल जल फूलवाय जिन मन्दिर-जल मन्दिर-जीव मन्दिर का पुण्य प्रयाग अर्थात् पावापुरी तीर्थ-जीवमैत्रीधाम K. P. SANGHVI GROUP K. P. Sanghvi & Sons Sumatinath Enterprises K. P. Sanghvi International Limited KP Jewels Private Limited Seratreak Investment Private Limited K. P. Sanghvi Capital Services Private Limited K. P. Sanghvi Infrastructure Private Limited KP Fabrics Fine Fabrics King Empex Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पावापुरी तीर्थ जीव मैत्रीधाम • एक मंदिर में अनेक मंदिरों का मेल अर्थात् पावापुरी तीर्थधाम..... एक स्वर्ग में अनेक स्वर्गों का मेल अर्थात् पावापुरी तीर्थधाम.... एक संकुल में अनेक साधना संकुलों का मेल अर्थात् पावापुरी तीर्थधाम..... देवलोक के टुकड़े जैसा भव्यातिभव्य जिन मंदिर (प्रभु भक्तों का स्वर्ग) कला और कारीगिरी का कमाल कसब, शुद्धि और स्वच्छता का संगीन समागम, दिव्यता और भव्यता की एक मिसाल, शंखेश्वर पार्श्वनाथ प्रभु की कामणगारी प्रतिमा और अजब सी प्रभावकता ! जिसके पवित्र और प्रभावक अणु-परमाणुओं के स्पर्श मात्र से रोम-रोम रोमांचित होता है ! आँखें ठहरसी जाती है ! दिल डोल उठता है, हृदय में हलचल मच जाती है और अशांत मन शांत-प्रशांत बनता है। For Private & Personal Use O Case & Four Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37 चतुर्मुख जल मंदिर (उपासकों का स्वर्ग) 北我我我現 FREE Jain Aducation Internationa यहाँ कदम रखते ही प्रभुवीर की अंतिम अवस्था की अनुभूति के एक अनुपम एहसास का अनुभव होता है। चार मुख से देशना देनेवाले देवाधिदेव की स्मृति जागृत होती है। RIGUEZANE लेता गौतम नाम सीझे हर काम, दुःखे लहे विसराम पाये अविचल धाम ! गुरु गौतम गणधर मंदिर (लब्धि साधकों का स्वर्ग) दुःख दारिद्र दूर करनेवाले अनंत लब्धि निधान का यह अलौकिक अवतरण है। गुरु गौतम मंदिर के साथ नव सुंदर गुरु मंदिर। कला-कारिगीरी के साथ विनय-भक्ति-समर्पणभाव का सुलभ समागम। Fo Private & Personal Use Only www.lib Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव मैत्री मंदिर (दयालुओं का स्वर्ग)... पांच हजार से अधिक अबोल पशु निर्भयता से किल्लोल कर रहे। हैं, उनकी नियत-नित्य चर्या देखकर लगता है कि, “यह प्राणी तो अपने से अधिक धार्मिक हैं!" उनकी मस्ती देखकर लगता है कि, "यह अपने से अधिक सुखी हैं ! घूमते-फिरते-खाते, मानव को दर्लभ ऐसी VIP ट्रीटमेंट की मौज माननेवाले जानवरों को देखकर विचार आता है कि, पशु होकर भी कितने पुण्यशाली! कितने निश्चिंत ! कितने तन्दुरुस्त ! दया और करुणा का भाव प्रगट करनेवाला यह पशुदर्शन जीवनदर्शन की एक नई राह दिखाता है। o विहार आतिथ्य मंदिर (अतिथिओं का स्वर्ग) आधुनिक और अनुकूल अतिथिभवन, यात्रिक भवन, शांति विश्राम गृह, कनीमा विश्राम गृह, श्रीमती आशा रमेश गोयंका विशिष्ट अतिथि गृह, शुद्ध और संतुष्टिजनक भोजन, स्वच्छता से शोभायमान संकुल, भावोल्लास उछालता कर्णप्रिय भक्ति गीत गुंजन, बाल वाटिकाएँ, दर्शनीय प्रदर्शन वगैरे सर्जन, वर्षों से लाखों अतिथिओं का आकर्षण बिन्दु है। शासन मंदिर (शासनप्रेमीयों का स्वर्ग) जिनमंदिरों, जीर्णोद्धारों, पूजनीय गुरुभगवंतों की अनेक प्रकार की वैयावच्च भक्ति-मूर्ति भंडार, चौदह स्वप्न भंडार, ज्ञान भंडार, उपकरण भंडार इत्यादि इस तीर्थधाम की शासन-शोभा है। साधना मंदिर (आत्मसाधकों का स्वर्ग) आत्मशुद्धि की अनुभूति करानेवाले अध्यात्मसंकुल, शांत-शुद्ध आलंबन से मन की स्थिरता का सर्जन कराते ध्यानसंकुल, चातुर्मास, उपधान, शिबिर, ओली, अट्ठम इत्यादि धर्मानुष्ठानों के द्वारा साधक की शुद्धि और पुण्य वृद्धि करते साधनासंकुल इस तीर्थभूमि की पावनता में प्राण डालते हैं। मानव मंदिर (करुणाप्रेमीयों का स्वर्ग) देढ़ सो गाँवों में हर दिन कुत्तों को रोटी, कबूतरों को चना, गाय को चारा, जैन बच्चों को मिड-डे मील, मोबाईल मेडीकल सेन्टर, अनेक पांजरापोल में योगदान, ३६ कोम को उचित सहाय्य, सिरोही में हॉस्पिटल आदि अनेक कार्यो द्वारा पावापुरी ने भारतभर में "मानवता की महेक' फैलाई है। Jad Education de national wwsianelibrary.one Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Enjoy alrism Jain Education Intemational For Private & PS Use Only W torary.org Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || धम्म सरणं पवज्जामि ।। मेरा धर्म प्रातःकाल उठते ही नवकार मंत्र गिनना। मां-बाप को हाथ जोड़ कर नमस्कार करना । प्रातः मन्दिर जाकर परमात्मा का दर्शन करना । नवकारसी का पच्चक्खाण करना। भगवान की पूजा करना। भोजन के बाद थाली-कटोरी धोकर पीना। रात्रिभोजन करना नहीं, आलू, शकरकंद आदि जमीनकंद खाना नहीं।। बासी रोटी रखनी नहीं एवं खानी नहीं। एक सामायिक करना | शाम का प्रतिक्रमण करना । किसी जीव को मारना नहीं । गुरु महाराज और मां बाप का विनय करना । ऐसा धर्म पालन करने वाला सद्गति में जाता है। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने नवरत्व जिसमें चैतन्य-ज्ञान हो उसे जीव कहते हैं । जिसमें चैतन्य-ज्ञान न हो उसे अजीव कहते हैं । जिससे सुख मिले उस कर्म को पुण्य कहते हैं। जिससे दुःख मिले उस कर्म को पाप कहते हैं | जिससे आत्मा कर्मों से बंधता है, उसे आश्रव कहते हैं। जिससे आत्मा में आते हुए कर्म रुके उसे संवर कहते हैं। जिससे आत्मा कर्मों से अलग होता है उसे निर्जरा कहते हैं। ग्रहण किये हुए कर्मों का आत्मा के साथ दूध-पानी की तरह एकाकार सम्बन्ध होना बंध कहा जाता है | आत्मा का कर्मों से सर्वथा छूट जाना मोक्ष कहा जाता है । || तत्त्वार्थश्रध्दानं सम्यग्दर्शनम् || O b lemational For Private Personal use only Wijaine Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || णाणं पयासगं ।। पाठशाला पाठशाला में रोज जाना चाहिए !!! पाठशाला में सच्चा ज्ञान मिलता है ! पाठशाला में अच्छे संस्कार मिलते हैं !!! पाठशाला में अच्छे मित्र मिलते हैं ! पाठशाला का ज्ञान विनय सिखाता है ! पाठशाला का ज्ञान अनुशासन सिखाता है ! पाठशाला का ज्ञान नम्रता सिखता है ! पाठशाला का ज्ञान धर्म सिखाता है ! पाठशाला में अच्छी-अच्छी कहानियाँ सुनने को मिलती हैं ! पाठशाला में अच्छे-अच्छे गीत गाने को मिलते हैं ! 3 Naiw edirem e personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। निर्मुक्तसङ्गनिकरं परमात्मतत्त्वम् ।। परमात्मा का उपकार न भूलो! picture.perfect.moments 99 LOV E. I S. MAGIC. जो सर्वथा दोषमुक्त हो, वह परमात्मा है। तुम जो सुख सुविधा भोगते हो वह इन परमात्मा की कृपा का ही फल समझना। परमात्मा ने हमें पुण्य का मार्ग बताया उससे हमने शुभ कर्म कर पुण्य का उपार्जन किया। शुभ कर्म के उदय से उत्तम मानव-जन्म, उत्तम कुल, पांच इन्द्रियां, विचारक मन, माता-पिता, घर, पैसा, आरोग्य, वस्त्र, भोजन के अतिरिक्त तारक देव-गुरु का योग आदि मिले। अतः यह सब उपकार परमात्मा का ही मानना चाहिये न ? अतः इन परमात्मा के अगणित उपकारों के कारण भी तुम प्रतिदिन मन्दिर में जाकर परमात्मा की मूर्ति के दर्शन-पूजन करो। परमात्मा की मूर्ति को देखकर सत्कार्य करने की प्रेरणा लो। परमात्मा कितने पवित्र हैं और मैं कैसा दुर्गुणों से अपवित्र हूँ ऐसा विचार करना। हे प्रभो ! मैं आप जैसा शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, निरंजन, निराकार कब बनूंगा? ऐसी प्रार्थना प्रतिदिन करना। उत्तम सुगंधित पुष्पों से, चन्दन से, धूप से प्रतिदिन परमात्मा का पूजन करना। सारे विश्व का कल्याण करने वाले श्रमवान में पूर्ण श्रद्धा रखना। प्रतिदिन भगवान के साथ का जाप करना और उनके बताये मार्ग पर चलने की भावना रखना। se Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। नमो लोए सव्वसाहूणं ।। precious BFLET.US Preo10 BSF ܘܘܣ ܘܗܘ । FEE *** ing & my heart साधु-संतों का विनय करो। साधु-संतों को देखते ही हाथ जोड़कर नमस्कार करो। उनकी त्याग वैराग्यमयी पवित्र वाणी सुनो। उनके गुणों की प्रशंसा और स्तुति करो। वे बहुत उपकारी हैं, ऐसा मानकर उन पर श्रद्धा रखो। उनको उत्तम भोजन-पानी-वस्त्र-पात्र से भक्ति करो। उनकी निन्दा या अवज्ञा कभी मत करो। उनके दोष मत देखो। उनका चित्त प्रसन्न रखो। Jain Education Interational Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुदेव को वन्दन गुरु भगवंत को विधिपूर्वक वन्दन करता हूँ.. नमस्कार करता हूँ... सत्कार करता हूँ... सम्मान करता हूँ... हे गुरुदेव ! आप ज्ञान, दर्शन और चारित्र के धारक हैं... आप कल्याणकारी हैं। आप मंगलकारी हैं... आप आनन्ददाता है। ऐसे गुरुदेव की मैं मन से, वचन से और काया से सेवा करना चाहता हूँ। जिसने मेरी हृदय गुफा में उजाला किया है.. जिसने मेरे संकल्प को पौलादी बनाया है.. जिसने मेरी चिन्ता को चिन्तन में बदला है.. जिसने मेरी आत्मा को उर्ध्वगामी बनाया है.. उनको मेरे कोटिशः वन्दन हे गुरुदेव ! आप महान् हैं। मुझे भी वह दृष्टि और शक्ति प्रदान कीजिए। जिससे मेरा कल्याण हो। scover the world Jain Educato International For Private on Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नया पाप न हो, इसका खयाल करता हूँ। जं जं मणेण बब्द जं जं वाएण भासिअंपावं | जं जं काएण कयं मिच्छामि दुक्कडं तस्स ।। जो जो पाप मन से किया हो, वचन से किया हो, काया से किया हो । तत्सम्बन्धी क्षमायाचना करता हूँ । मन से, वचन से, काया से नया पापबन्ध न हो इस लिये खयाल रखता हूँ और इसके लिये सदैव जागृत रहता हूँ । Hol Private & Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational हर-रोज माता-पिता के पैर छुना। = किसी भी जीव को मारना नहिं । ।। सन्मार्गेणैव गन्तव्यम्।। नवकार मंत्र कि माला गिनना। सिगरेट-तंबाखू पीना नहिं। कभी जुठ न बोलना। खराब द्रश्य कभी भी नहिं देखना। पान-गुटखा खाना नहि। बिमार-वृद्ध कि सेवा करना। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्मोत्सव || नित्योत्सवो धर्मरतस्य सत्यम्।। जब आपका जन्मदिन हो तब उपाश्रय जाना, गुरुदेव को मिलना, मांगलिक सुनना, एक अच्छे कार्य की प्रतिग्या करना, गरीबों को अच्छा खाना खिलाना, उनको कपडे इ. जरुरतों को पुरा करना, जीवों को छुडाना इत्यादि अनेक प्रकार के भलाई के कार्य करना । Good! Jain Education Intemational - Fot en alle sollalU666 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी बढाई करने से और दूसरों कि हलकाई से नीच गोत्र-कर्म बंधता हैं। इससे हजारों भव तक नीच कुल में जन्म लेना पडता हैं। सभी जीवों के प्रति समानभाव और समताभाव रखना। गुरु, देव व राजा - इन तीनों जगह दर्शनार्ये जाते समय खाली हाथ नहीं जाना चाहिये। सामर्थ्य के हिसाब से, अपने सेवको व जरुरतमंदो की अन्नवस्त्रादि से निरंतर सेवा करनी। माता-पिता, गुरु तथा रोगातुर इनकी सेवा, अपने सामर्थ्य के हिसाब से जीवनपर्यंत करना शिक्षा (ज्ञान) ही सारी समस्याओं का समाधान है। (10 For Private & Personal use only aamelorary.org Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानधर्म दूसरों को दान देते रोको नहिं । दूसरों के सुख की ईर्ष्या करो नहिं । दूसरों को ज्ञान का दान दिजीए । दूसरे जीवों को अभयदान दिजीए । इस प्रकार का दान धर्म करने से अंतराय कर्म कम होता हैं। शील धर्म शील मतलब स्वभाव... आप अपना स्वभाव कोमल और उदार बनाओ । शील मतलब सादगी... शरीर कि बहुत टापटीप मत करो । शील मतलब सभ्यता... सभ्यता से बोलो, चलो, बैठो और खडे रहो। शील मतलब सदाचार... परीक्षा में चोरी मत करो, किसी के वस्तुओं की चोरी मत करो, घर से पैसे चोरी मत करो, माता-पिता को दु:ख नहिं देना, उपकारीओं का उपकार मत भुलना, किसी से विश्वासघात मत करना, दु;खी जीवों प्रति दया भाव रखना, इस प्रकार शील धर्म की आराधना करने से शुभ नाम कर्म बंधते हैं। दूसरे जीवों को अभयदान दिजीए... Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ઉપવો . आबिले तपथम कमी उपवास कमी आंबिल कभी एकासणा कमी बियासणा करना चाहिए.... पूज्य पुरुषों को विनय करे, रोज धार्मिक अध्ययन करे, बिमार व्यक्ति की सेवा करे, श्री नवकार मंत्र का जाप करे | व्रत नियम ज्ञानपंचमी का व्रत, मौन एकादशी का व्रत, वरसी तप, नवपद की ओली, वर्षमान आंबिल तप, अट्ठम का तपा झूठ नहिं बोलना, बिडी-सिग्रेट नहिं पीना, तंबाकु-पान नहिं खाना लिप्स्टिक-पावडर नहिं लगाना, चोरी नहिं करना, सिनेमा नहिं देखना, गाली नहिं बोलना, एण्ट नवकार का जाप करना, परमात्मा का दर्शन पूजन करना, रोज माता-पिता को प्रणाम करना। 12 For Private & Personal use only rary.org Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ain Education International ज्ञानोपासना... ज्ञान दिव्य प्रकाश हैं, अज्ञान घोर अंधकार हैं। विनय, शांति और एकाग्रता से पढ़ना । पढ़ा हुआ भुलना नहिं, नया-नया पढ़ते रहना और ज्ञान बढ़ाना। शिक्षक का बहुमान करना, पाठशाला नियमित जाना। अगर आप विद्यार्थी हो तो ??? फैशन और व्यसन से दूर रहो ! शुद्ध उच्चारण करना, स्वच्छ अक्षर पढना और अच्छा व्यवहार करना। दर्शनोपासना.... वीतराग परमात्मा पर श्रद्धा रखो.. साधुपुरुषो के प्रति आदरभाव रखो... संघ शासन प्रति वफादारी रखो.. निंदा मत करो। मैं तीर्थयात्रा, रक्षा, वास करूंगा। मैं गुरुसेवा, भक्ति उपासना करूंगा। साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका इन चतुर्विघ संघ की सुखशांती के सदैव जागृत रहूंगा। इस प्रकार दर्शनोपासन करने से दर्शनावरण कर्म कम होता है। चारित्रोपासना... कोइ भले क्रोध करे, तुम क्षमा रखना, अभिमान करे, तुम नम्र रहना, कपट करे, तुम सरल रहना. लोभ करे, तुम उदार बनना । सामायिक करना, पौषध करना, श्रमणधर्म का स्वीकार करान । इस प्रकार चारित्रोपासना करने से मोहनीय कर्म कम होता हैं। For Priva 13 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसी को बुद्धि ज्यादा होती हैं, किमी को कम और कोई तो मूर्ख ही होता हैं, इन सबका कारण हैं ज्ञानावरण कर्म Gykarma 114 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनावरणीय कर्म 'आँखों से देखने की शक्ति कम करता हैं, कानों से सुनने की शक्ति कम करता हैं, नाक से सुंघने की शक्ति कम करता हैं, जीभ के स्वाद करने की शक्ति कम करता हैं, चमडि को स्पर्शकर पहचानने की शक्ति कम करता हैं। Darshanavaraniya Only 15 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 Vedan वेदनीय कर्म यह कर्म दो प्रकार के हैं; शातावेदनीय, अशातावेदनीय. शातावेदनीय सुख देता हैं। अशातावेदनीय दुःख देता हैं। सुखी बनना हैं ना ? दुसरो को सुख दोगे तो सुख मिलेगा । Jainelibrary.org Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Mohkarma मोहनीय कर्म किमी को हमाता हैं तो किसी को कलाता हैं, कभी लडाता हैं तो कभी मिलाता हैं, कभी डराता हैं तो कभी भटकाता हैं, किमी को खुश करता हैं तो किसी को नाखुश करता हैं, यह कर्म से धर्म, गरु और भगवान के विषय में शंका होती हैं। 17 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aayupharma आयुष्य कर्म १. देवगति के आयुष्य बांधनेवाले मरकर देव बनते हैं। २. मनुष्यगति के आयुष्य बांधनेवाले मरकर मनुष्य बनते हैं। ३. तिर्यंचगति के आयुष्य बांधनेवाले मरकर पशु-पक्षी बनते हैं। ४. नरकगति के आयुष्य बांधनेवाले मरकर नरक में जाते हैं। For Private & Resoral Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम-कर्म किसी को कपवान शीर होता है, किसी को कुरुप शरीर होता हैं, किमी को मजबूत शीर होता है, किमी को कमजोर शरीर होता हैं ! यह अब नाम-कर्म की करामत हैं ! कोड काला, कोइ गोरा, कोइ पीला, कोइ लाल, कोइ जाडा, कोइ पतला, कोई ऊँचा, कोइ निचा ! यह सब नाम-कर्म के खेल है ! Naom aine Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोत्रकर्म ऊच्च गोत्रकर्म से मनुष्य को मान, सत्ता और सन्मान मिलता हैं। नीच गोत्रकर्म से लोगों में अपमान और बदनामी मिलता हैं। karma 20 Janucation intemational For Private & Persona Use of jainelibral, Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tc! Chemi! Tona Aptarmia अंतराय कर्म तुम्हारे पास अच्छा भोजन हैं, फिर भी तुम खा नहिं सकते; तुम्हारे पास अच्छे कपडे हैं, फिर भी तुम पेहने नहिं सकते; तुम्हारे पास अच्छा घर हैं, फिर भी तुम रह नहिं सकते; तुम्हारे पास अच्छी माँ हैं, फिर भी तुम उसके पास रह नहिं सकते; इसका कारण जानते हो ? इसका कारण अंतराय कर्म हैं ! यह कर्म तप नहिं करने देता, सेवा नहिं करने देता; आलसी बनाता हैं, कंजुस बनाता हैं। Personal 21 400 akalibran.org Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म के मुख्य सिद्धान्त माइस Siddhant || इह खलु अणाइ जीवे अणाइ जीवरस भवे अणाइ कम्मसंजोगणिव्वत्तिए || १) लोक अनादि और अनन्त है। २) आत्मा अजर, अमर, अनन्त व चैतन्य स्वरूप है। ३) आत्मा अपने कृत कर्मों के अनुसार जन्म-मरण करता है। ४) आत्मा विकारमुक्त होकर परमात्मा बन सकता है। ५) आत्मा की अशुद्ध स्थिति संसार और शुद्ध स्थिति मोक्ष है। ६) आत्मा की अशुभ प्रवृत्ति पाप और शुभ प्रवृत्ति पुण्य है। ७) जैन धर्म साधना में जाति-पाँति, लिंग आदि का भेद नहीं रखता। ८) जैन धर्म अनेकान्तवाद की दृष्टि से ___अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णुता रखता है। ९) जैन धर्म गुणपूजक है, व्यक्तिपूजक नहीं है। १०) ईश्वर सृष्टि का कर्ता नहीं है। 22 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || अहिंसा णिठणा दिट्ठा सव्वभूएसु संजमो || महावीर के सिद्धान्त अहिंसा shers there where there is love, there is LIFE. अहिंसा का निरूपण जैन धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्मों में भी मिलता है, पर अहिंसा का जितना सूक्ष्म विश्लेषण जैन धर्म में किया गया है उतना विश्व के किसी भी धर्म में नहीं। पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय आदि किसी भी प्राणी की मन, वचन और काया से हिंसा न करना, व करवाना, न अनुमोदना करना-जैन धर्म की अपनी विशेषता है। उसका एक ही नारा है - जीओ और जीने दो। तुम स्वयं जीना चाहते हो तो दूसरों को भी जीने दो। तुम स्वयं सुखी रहो इसमें किसी को आपत्ति नहीं परन्तु दूसरे को भी सुखी रहने दो। क्योंकि सुख पाना हर व्यक्ति का, हर प्राणी का जन्मसिद्ध अधिकार है। तुम उसके बाधक मन बनो। यदि तुम किसी को सुख नहीं पहुंचा सकते तो दुःख पहुंचाने का भी प्रयत्न मत करो। महापुरुषों ने दुःख देने की भावना एवं दुःख पहुंचाने की प्रवृत्ति को हिंसा एवं पाप कहा है। अतः किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं देना चाहिये । अहिंसा को केन्द्र में रखकर ही सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का निरूपण हुआ है। अहिंसा मानव मन की एक वृत्ति है, भावना है। अहिंसा मानव जीवन की महाशक्ति है। समस्त आतंकों को दूर करने वाली रामबाण औषध है। - 23 nelibrary.org Edition Internationala or Private & Personal NE Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 ।। तरस भुवणिक्कगुरुणो णमोऽणेगंतवायरस ।। please अनेकान्तवाद This is bow-you-say if this up how you say the word "please you how this cause taught you how अनेकान्तवाद सर्व लोक व्यवहार का आधार है। जैन तत्त्व ज्ञान का भव्य भवन इसकी नींव पर प्रतिष्ठित है। जैन धर्म ने जिस किसी भी वस्तु के सम्बन्ध में चिन्तन किया है, तो अनेकान्तवादी दृष्टि से ही किया है। अनेकान्तवाद का अर्थ है वस्तु पर विभिन्न दृष्टियों से चिन्तन करना। एक ही दृष्टि से किसी वस्तु पर चिन्तन करना अपूर्ण है, क्योंकि प्रत्येक पदार्थ चाहे वह छोटा हो - चाहे बड़ा, उसमें अनन्त धर्म रहे हुए हैं। धर्म का अर्थ है - गुण और विशेषता । जैसे एक फल है। उसमें रूप भी है, रस भी है, स्पर्श भी है, आकार भी है, क्षुधा शान्ति करने की शक्ति भी है। अनेक रोगों को मिटाने की शक्ति भी है, अनेक रोगों को बढ़ाने की भी शक्ति है। इस प्रकार उसमें अनन्त धर्म हैं। प्रत्येक पदार्थ को द्रव्य एवं पर्याय - स्थिर स्वरूप और अस्थिर अवस्था दोनों दृष्टियों से समझना अनेकान्त है। अनेकान्तवाद में भी का प्रयोग होता है तो एकान्तवाद में ही का प्रयोग होता है। जैसे फल में रूप भी है, यह अनेकान्तवाद है। फल में रूप ही है, यह एकान्तवाद है। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रह hello there!!! eno there || मुच्छा परिठगहो वुत्तो ।। किसी भी वस्तु के प्रति मूर्छा का भाव ही परिग्रह है। मूर्छा परिग्रह है। परिग्रह का अर्थ है संग्रह और अपरिग्रह का अर्थ है त्याग। किसी वस्तु का अनावश्यक संग्रह न करके उसका जन-कल्याण हेतु वितरण कर देना। परिग्रह मनुष्य को अहंकार एवं मोहरूपी अँधेरे के अथाह भंवर में डुबो देने वाला होता है। धन की परिग्रहवृत्ति काम, क्रोध, मान और लोभ की उद्भाविका है। धर्मरूपी कल्पवृक्ष को जला देने वाली है। न्याय, क्षमा, सन्तोष, नम्रता आदि सद्गुणों को खा जाने वाला कीड़ा है। परिग्रह बोधिबीज (सम्यक्त्व) का विनाशक है और संयम, संवर और ब्रह्मचर्य का घातक है। चिन्ता और शोक को बढ़ाने वाला, तृष्णा रूपी विषबेल को सींचने वाला, कूड-कपट का भण्डार और कलह का आगार है। अतः अपरिग्रह एक महान व्रत है। जिसका आज के युग में जनकल्याण की दृष्टि से और भी अधिक महत्त्व है। क्योंकि वर्तमान युग में परिग्रह लालसा बहुत बढ़ रही है। भगवान महावीर ने अपरिग्रह के बारे में एक बहत बड़ी बात कही है कि अपरिग्रह किसी वस्तु के त्याग का नाम नहीं, अपितु वस्तु में निहित ममत्व-मूर्छा के त्याग को अपरिग्रह कहा है। जड़-चेतन, दृष्ट-अदृष्ट वस्तु के प्रति लालसा, तृष्णा, ममता, कामना बनी रहती है तब तक बाह्य त्याग वस्तुतः त्याग नहीं कहा जा सकता। क्योंकि परिस्थितिवश विवश होकर भी किसी वस्तु का त्याग किया जा सकता है। किन्तु उसके प्रति रहे हुए ममत्व का त्याग नहीं हो पाता, यही ममत्व संत्रास का कारण है। यदि वस्तु के अनावश्यक संग्रह को रोकना है, उसका उन्मूलन करना है तो वस्तु के त्याग से पूर्व वस्तु में निहित ममत्व के त्याग को अपनाना होगा और ऐसा किये बिना अपरिग्रह का पालन नहीं हो पायेगा। इसी कारण भगवान महावीर ने संयमी साधकों के लिये परिग्रह का सर्वथा त्याग एवं गृहस्थ साधकों (श्रावकों) के लिये परिग्रह परिमाण व्रत बताया है जिससे विश्व के बहुसंख्यक अभावग्रस्त प्राणी त्राण पा सकते हैं। || परिग्रहो ग्रहः कोऽयं विऽम्बितजगत्त्रयः || Jain Education Internation For Private Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26. श्रमण की साधना उत्कृष्ट साधना होती है। उसके जीवन में निरहंकार, निर्ममत्व, नम्रता और प्राणी मात्र के प्रति समभाव की भावनाएँ अंगड़ाइयाँ लेती हैं। वह लाभ-हानि, सुख-दुःख, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा, प्रतिक्षण-प्रतिपल राग-द्वेष से दूर रहकर आत्मभाव की साधना करता है। जैन श्रमण के लिये पंच महाव्रत का विधान है। महाव्रत-अर्थात् महान व्रत । अहिंसा-जैसा तुम्हें जीवन प्रिय है, सबको भी उसी प्रकार प्रिय है। सब अपने जीवन से प्यार करते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। अतः किसी से द्वेष-घृणा मत करो, किसी को सताओ मत, किसी को परिताप मत दो। सत्य-जीवन का मूल केन्द्र है। सत्य साक्षात् भगवान है। सत्य का अनादर करना, आत्मा का अनादर करना है। अस्तेय-जो वस्तु उसके स्वामी ने नही दी है, उस वस्तु का ग्रहण मत करो। ब्रह्मचर्य-वासनाओं पर संयम करना ब्रह्मचर्य है। आत्मा की शुद्ध परिणति का नाम ब्रह्मचर्य है। मन, वचन एवं काया से वासना का उन्मूलन करना ही ब्रह्मचर्य है। अपरिग्रह-ममत्व का विसर्जन एवं समत्व की साधना का नाम अपरिग्रह है। श्रमण पांच महाव्रतों के साथ ही रात्रि भोजन का भी पूर्ण रूप से त्याग करता है। क्योंकि रात्रि भोजन हिंसादि दोषों का जनक है। श्रमण के लिये पांच समिति और तीन गुप्ति का पालन करना भी अनिवार्य है। समिति का अर्थ सम्यक् प्रवृत्ति है। गुप्ति का अर्थ है मन, वचन, काया का गोपन । अपने विशुद्ध आत्म तत्त्व की रक्षा के लिये अशुभ योगों को रोकना गुप्ति है। श्रमण धर्म इन्द्रभूति गौतम, you take special place HO my heart you take a special place in my heart ।। इच्चेइयाइं पंचमहव्वयाइं राइभोअणवेरमणछट्ठाई....... ।। brary.org. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साधु के विशिष्ट नियम ou are my Puspiration १) भयंकर गर्मी की ऋतु में प्यास लगने पर भी रात्रि में पानी नहीं पीते । २) वे काष्ट, लकड़ी, मिट्टी के पात्र ही उपयोग में लेते हैं। स्टील या अन्य धातु के बर्तन काम में नहीं लेते। ३) वे चार महीने तक, वर्षावास में एक स्थान पर स्थिर रहते हैं और शेष समय जिनाज्ञा अनुसार परिभ्रमण करते हैं। ४) जैन मुनि कुए, तालाब, नदी आदि का कच्चा पानी उपयोग में नहीं लेते, वे सिर्फ गरम पानी या विधि से बनाये हुए अचित्त (निर्जीव) पानी का ही उपयोग करते हैं । ५) जैन मुनि वाहन का उपयोग नहीं करते। ६) जैन मुनि कैंची, उस्तरे आदि से बाल नहीं कटवाते। वे अपने हाथ से बाल निकालते हैं, जिसे जैन परिभाषा में लोच कहते हैं । ७) जैन मुनि जीवों की रक्षा के लिए रजोहरण एवं मुहपत्ति रखते हैं। * 1999) ८) जैन मुनि गृहस्थों के घरों से निर्दोष भिक्षा लेते है, जिसे गोचरी अथवा मधुकरी कहते हैं । ९) जैन मुनि का अपना कोई मठ नहीं होता । 5) www.ainelibrary.org 27 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य जैनों का प्राचीनतम साहित्य प्राकृत भाषा में है। भगवान महावीर के पावन उपदेशों को गणधरों ने सूत्र रूप में रचा जो द्वादशांगी के नाम से विश्रुत हुआ। उस के अंतर्गत ४५ आगम हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं - ग्यारहअंग-१) आचारांग,२) सूत्रकृतांग,३) स्थानांग,४)समवायांग, ५) भगवती, ६) ज्ञाताधर्मकथा, ७) उपासकदशांग, ८) अन्तकृतदशांग, ९) अनुत्तरोपपातिकदशा, १०) प्रश्नव्याकरण, ११) विपाकसूत्र। दसपयन्ना - १) आतुर प्रत्याख्यान, २) गच्छाचार, ३) गणिविद्या, ४) चतुःशरण, ५) चन्द्रवेध्यक, ६) तंदूलवैचारिक, ७) देवेन्द्रस्तव, ८) भक्तपरिज्ञा, ९) महाप्रत्याख्यान, १०) मरणसमाधि । बारह उपांग- १) औपपातिक, २) राजप्रश्नीय, ३) जीवाभिगम, ४) प्रज्ञापना, ५) जन्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ६) सूर्यप्रज्ञप्ति, ७) चन्द्रप्रज्ञप्ति, ८) निरयावलिया, ९) कप्पवडंसिया, १०) पुप्फिया, ११) पुप्फ चूलिया, १२) वण्हिदशा। छेद सूत्र - १) निशीथ, २) व्यवहार, ३) बृहत्कल्प, ४) दशाश्रुतस्कंध, ५) महानिशीथ, ६) पंचकल्प। मूल सूत्र - १) दशवैकालिक, २) उत्तराध्ययन, ३) अनुयोगद्वार, ४) नन्दीसूत्र । सम्यग्दर्शन सम्यक चारित्र 28 सम्यग् शान For private 8- Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WH हम क्या हैं? AM ।। सागरे इव गंभीरे सूरे इव दित्ततेए ..... ।। हम गुलाब के सुमन महकत कांटों वाले कैक्टस नहीं हैं। राम कृष्ण जिन वीर बुद्ध के हम सत्पुत्र कपूत नहीं हैं । हम सागर हैं; ऐश्वर्यों की क्षुद्र तलैया नहीं; तनिक सी - कोटि कोटि नदियां पी जाएँ ! वर्षा से जो इतरा जाएँ ।। हम न दीप हैं, जो हल्के से Isually starts with Are fos Nants and wo until you see you with decent people and Maun & Spelman To पवन-स्पर्श से झट बुझ जायें । हम सूरज हैं; स्वयं ज्योति हैं अन्धड़ से भी बुझ ना पाएं ।। हम धरती के अमृत कलश हैं, सबको प्रेमामृत देते हैं। शापित, ताड़ित, मूर्च्छित, मृत को, नव जीवन से भर देते हैं ।। हम मिट्टी के ढेल हैं क्या ? जो ठोकर से खण्ड खण्ड हों । हम हैं चट्टानें, हिम गिरि की, वज्रपात से भी न मग्न हों ।। हम दावानल हैं धरती के, विकृति वनों को भस्म करेंगे। अमृत मेघ हैं हम, हम से ही, नित नभ नन्दन वन जन्मेंगे ।। ve stiled wit over you are me 29 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || सुदेव सुगुरु सुधर्म आदरु ।। रत्नत्रय 730 daineducation International जैन धर्म में देव, गुरु, धर्म का बड़ा ही महत्त्व है। देव वे होते हैं जो वीतराग बन चुके हैं। गुरु वे हैं जो वीतराग बनने की साधना करते हैं और आत्मा को वीतराग मार्ग पर ले जाने वाली साधना को धर्म कहते हैं। इन तीनों को रत्नत्रय कहते हैं । देव ... जैन धर्म ने राग द्वेष युक्त आत्मा को अपना देव नहीं माना है। राग का अर्थ है-अपने मन के अनुकूल लगने वाली वस्तु पर मोह और द्वेष का मतलब है - नापसन्द चीज पर घृणा । इन राग द्वेष पर विजय प्राप्त करने वाला ही जिन है। वही वीतराग है, उसे अरिहन्त भी कहते हैं । वही देव है । I गुरु. ... जैन धर्म ने गुरु उसे माना जिसका आध्यात्मिक उत्कर्ष हो, जिसके जीवन में संयम एवं सद्गुणों का प्राधान्य हो और जो साम्य भाव के द्वारा वीतरागता को प्रकाशित करता है। धर्म ... धर्म जीवन का मधुर संगीत है। जीवन में समरसता, सरसता और मधुरता का संचार कर वह मन और मस्तिष्क को परिमार्जित करता है। धर्म आत्मा को महात्मा और परमात्मा तक ले जाने वाला गुरु मन्त्र है। धर्म आत्मा का दिव्य प्रकाश है। वह बाहर नहीं अन्दर है । जो दुःख से, दुर्गति से, पापाचार और पतन से बचाकर आत्मा को ऊँचा उठाता है। 1 . Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन एक युद्ध है, और उसमें विजयी बनने के लिए साहस एक अमोघ अस्त्र है। दुर्बल और भीरु मानव कभी भी प्रगति के द्वार नहीं छू सकता। जीवन की उन्नति, प्रगति और उच्चतम विकास के लिए साहस मूल आधार है। ___राजकुमार वर्धमान में बचपन से ही दृढ़ साहस की अद्भुत स्फुरणा जगती हुई प्रतीत होती है। भय की कल्पना शायद उनके मानस में कभी नहीं उठी। यह सदा सभय और साहसी बालक के रूप में अपने साथियों में सबसे आगे रहे। ____एक बार कुमार वर्धमान अपने हम उम्र साथियों के साथ खेल रहे थे। अचानक वृक्षों के झुरमुट में से एक भयंकर नाग फुकारता हुआ दिखलाई पड़ा। सभी साथी डरकर इधर-उधर भागने लगे। वर्धमान ने ललकारा - क्या हुआ? भाग क्यों रहे हो? साँप है... साँप... बालकों ने दबी आवाज में कहा । है तो क्या... वह अपने रास्ते जा रहा है, तुम अपना काम करो। तुम उसे तकलीफ नहीं दोगे, तो वह तुम्हें व्यर्थ ही क्यों काटेगा? - कुमार वर्धमान ने सांत्वना दी। तब तक फुकारता हुआ नाग वर्धमान के काफी पास आ चुका था, साथी दूर-दूर भाग गए। पर साहसी कुमार वर्धमान न डरा, न भागा। उसने बड़ी स्फूर्ति के साथ नाग को पकड़ा और एक रस्सी की तरह घुमाकर दूर फेंक दिया। वर्धमान के साहस पर सभी साथी चकित थे। इस तरह दिव्य परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर इन्द्र ने प्रसन्न मन से प्रभु का दुसरा नाम रखा महावीर। साहस जीवन का मूल गुण loving every day Jain Education Intemational 31 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational मेरे भगवान संस्कार धन ।। अरिहंतो मह देवो || inemisp l ansserspnaser.only CONndapiyserenc.DASS Bipisodpyrls मेरे भगवान का नाम अरिहंत परमात्मा है। मेरे भगवान को सारी दुनिया का ज्ञान होता है। मेरे भगवान समस्त दोषों से मुक्त होते हैं। मेरे भगवान में अनन्त गुण होते हैं। मेरे भगवान की सेवा देवलोक के इन्द्र भी करते हैं। मेरे भगवान दान, शील, तप और भाव धर्म लोगों को बताते हैं। मेरे भगवान लोगों को मोक्ष का रास्ता बताते हैं। मेरे भगवान दुःखमय संसार को बनाते नहीं हैं। मेरे भगवान परम दयालु होते हैं। मेरे भगवान जन्म जरा मरण रोग शोकादि दुःखों से मुक्त होकर मोक्ष में गये हैं। मेरे भगवान सब जीवों का कल्याण करते हैं। ऐसे परम उपकारी, परम दयालु, अनन्त गुणमय भगवान का प्रतिदिन दर्शन, पूजन, स्मरण और आज्ञापालन करने से हम सब दुःखों से मुक्त हो सकते हैं। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणे ।। मेरे गुरू महाराज मेरे गुरू महाराज संसार के त्यागी हैं। मेरे गुरू महाराज कोई भी पाप नहीं करते हैं। मेरे गुरू महाराज पैसा नहीं रखते हैं। मेरे गुरू महाराज स्त्री को नहीं छूते हैं। मेरे गुरू महाराज पांच महाव्रतों का पालन करते हैं। मेरे गुरू महाराज रेलगाड़ी, मोटर आदि में नहीं बैठते हैं। मेरे गुरू महाराज चारपाई एवं गद्दी पर कभी नहीं सोते हैं। मेरे गुरू महाराज सिर के बाल स्वयं उखाड़ते हैं। मेरे गुरू महाराज को किसी प्रकार के बीड़ी, गांजा आदिका व्यसन नहीं होता है। मेरे गुरू महाराज सारा दिन ज्ञान, ध्यान, धर्म क्रिया, गुरु सेवा, परमात्म-जाप आदि में बिताते हैं। मेरे गुरू महाराज लोगों को धर्म का उपदेश देते हैं। मेरे गुरू महाराज गोचरी (भिक्षाचरी) से निर्वाह करते हैं। मेरे गुरू महाराज रात को कुछ भी नहीं खाते-पीते हैं। मेरे गुरू महाराज को प्रतिदिन वंदन, सेवा भक्ति करने से सच्चा ज्ञान मिलता है। 33 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह पुण्य से मिला है. woo000000000 NO BERRIMENT THE SOUND OF BERRIMENTUL GAUGHTER [audiblo Joy: the act of laughing JOY AUDIOLE JOY AUDIBLE LU - . उत्तम कुल में जन्म पुण्य से मिला है। उत्तम मां-बाप पुण्य से मिले हैं। मानव का देह पुण्य से मिला है। पांचो इन्द्रियां पुण्य से मिली हैं उत्तम देव पुण्य से मिले हैं। उत्तम गुरु पुण्य से मिले हैं। उत्तम धर्म पुण्य से मिला है। पवित्र बुद्धि पुण्य से मिली है। अच्छा खाना-पीना पुण्य से मिला है। रहने का घर पुण्य से मिला है। अच्छे कपड़े, गहने पुण्य से मिले हैं। अच्छे मित्र पुण्य से मिले हैं। अच्छा पड़ौसी पुण्य से मिला है। नीरोगी शरीर पुण्य से मिला है। दीर्घ आयु पुण्य से मिली है। अतः पुण्य के कार्य अधिक से अधिक करने चाहिये। || शुभानुबन्ध्यतः पुण्यं कर्त्तव्यं सर्वथा नरैः ।। in Education International www.jainelibrary om Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख धर्म से मिलता है। दुःख पाप से मिलता है। भगवान जगत को बनाते नहीं हैं। भगवान जगत को दिखाते हैं। आत्मा अनादिकाल से है। आत्मा अनादिकाल से कर्मबद्ध है। संसार अनादिकाल से है। कर्म से संसार है। कर्म से ही जन्म-मरण है। भगवान मोक्ष में से वापिस संसार में नहीं आते हैं। सिद्धान्त || एगो मे सासओ अप्पा नाणदंसणसंजुओ ।। आत्मा अविनाशी है। सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र से ही मोक्ष मिलता है। हरेक भव्य आत्मा परमात्मा हो सकती है। मोक्ष में आत्मा को अनन्त सुख और आनन्द होता है। - मोक्ष में किसी भी प्रकार का दुःख नहीं है। Jain Education Interational 3: Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 ।। दुःखं पापात् ।। मां बाप का अविनय करने से दुःखी होता है। गालियां बोलने से दुःखी होता है। गुस्सा करने से दुःखी होता है। अभिमान करने से दुःखी होता है। मांसाहार करने से और शराब पीने से दुःखी होता है। मक्खन, शहद खाने से दुःखी होता है। जुआ खेलने से दुःखी होता है। दूसरे लड़कों के साथ लड़ने से दुःखी होता है। दूसरों की निन्दा करने से दुःखी होता है I दूसरों का दोष देखने से दुःखी होता है। बासी खाने से दुःखी होता है। दूसरों पर दोषारोपण करने से दुःखी होता है । दूसरे मनुष्यों की ईर्ष्या करने से दुःखी होता है। दूसरों को लड़ाने से दुःखी होता है। पाप करने से दुःखी होता है। xxxxx You at two दुःखी होता है... ******* bergauself Ar www. Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिनेमा-नाटक न देखने से सुखी होता है। होटल में न खाने से सुखी होता है। आईस्क्रीम, शरबत, बरफ आदि न खाने से सुखी होता है। नमकीन, पकोड़ी, पूरी वगैरह न खाने से सुखी होता है। चाय, बीड़ी, पान न खाने से सुखी होता है। खटमल, चींटी, मकोड़ा, जूं, मच्छर आदि को न मारने से सुखी होता है। सत्य बोलने से सुखी होता है। दान देने से सुखी होता है। शील पालने से सुखी होता है। तप करने से सुखी होता है । पवित्र विचार रखने से सुखी होता है। बिना गरम किये दूध, दहीं, छास के साथ मूंग, उड़द, तूवर की दाल, चना की दाल आदि न खाने से सुखी होता है। बीमार साधु की सेवा करने से सुखी होता है। प्रतिदिन धर्म कथा सुनने से सुखी होता है। प्रिय मधुर वाणी बोलने वाला सुखी होता है। सुखी होता है... ।। सुखं धर्मात् ।। www.jainelibrary.o 37 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार असार है. दुःखों से भरा हुआ होने से संसार असार है। कर्म की पराधीनता होने से संसार असार है। शरीर की गुलामी होने से संसार असार है। सब सगे-सम्बंधी स्वार्थी होने से संसार असार है। जन्म, जरा, मरण रोगादि होने से संसार असार है। सच्चा सुखी नहीं होने से संसार असार है। सब चीजें अनित्य होने से संसार असार है। सच्चा कोई शरण न होने से संसार असार है। यह शरीर रोगों से एवं अपवित्र वस्तुओं से भरा हुआ है इसलिए संसार असार है। जीवन का निर्वाह करने में पाप करना पड़ता है इसलिए संसार असार है। सिर्फ पेट भरने में भी असंख्य जीवों का नाश करना पड़ता है इसलिये संसार असार हैं। माता मर के पत्नी होती है और पत्नी मर के माता होती है इसलिये संसार असार है। राग-द्वेष, असन्तोष, झगड़ा, क्लेश होने से संसार असार है। FOlivate &Personal use only ।। असारः खलु संसारः ।। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष सार है.. मोक्ष में केवल सुख ही सुख है। मोक्ष में कर्म की गुलामी नहीं है। मोक्ष में शरीर की पराधीनता नहीं है। मोक्ष में भूख, प्यास, रोग, पीड़ा नहीं है। मोक्ष में जन्म, बुढ़ापा, मृत्यु का दुःख नहीं है। मोक्ष में वापस लौटना नहीं होता । मोक्ष में अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख होता है। मोक्ष में किसी प्रकार की इच्छा नहीं होती। मोक्ष सर्वथा सदा दोष रहित है। मोक्ष में सदा पूर्ण आनन्द होता है। शुद्ध चारित्र पालन से अनन्त सुखमय मोक्ष मिलता है। सिर्फ मनुष्यजीवन से ही मोक्ष मिलता है। 03 || मोक्खे सोक्खं अणाबाहं ।। wa count 567 10 11 12 13 14 15 16 17 19 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 39 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DOC श्री श्रमण भगवान महावीर आप चैत्र सुदी १३ के दिन जन्मे थे। आपकी जन्म भूमि क्षत्रिय कुण्ड नगर था। आपका जन्म राजवंशी क्षत्रिय कुल में हुआ था। आपके पिताजी का शुभ नाम सिद्धार्थ था। आपकी माताजी का शुभ नाम त्रिशलादेवी था। आप जन्म से ही बड़े पराक्रमी, तेजस्वी एवं परम ज्ञानी थे। जन्म से ही आप देव-देवेन्द्रों से पूजित थे। जन्म से ही आप बड़े वैरागी, निःस्पृह एवं गंभीर थे। आपने ३० साल की जवान वय में ही संसार त्याग किया था। आपने दीक्षा लेकर साडे बारह वर्ष तक कड़ी तपश्चर्या की थी। आप शत्रु-मित्र, मान-अपमान, लाभ-अलाभ, सुख-दुःख से समभाव वाले थे। आपका हृदय और मंत्र करुणा से भरा हुआ था। आपको केवल ज्ञान हुआ था। (केवलज्ञान-पूर्णज्ञान) आपने संसार के प्राणियों को धर्म का सच्चा स्वरूप समझाया। आपका प्रधान सिद्धान्त स्याद्वाद और अहिंसा का है। आपका निर्वाण दिवाली के दिन हुआ था। जय हो ! त्रिशला नन्दन महावीर देव की। -40 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतः फूल नहीं तो फूल की पांखुड़ी भी जरूर देना चाहिये | तुम्हारे आंगन या घर में आया हुआ कोई व्यक्ति खाली हाथ नहीं जाना चाहिये । you || दीयतां दीयतां नित्यम् ।। दान दो दान देना धर्म महल का पहला पंगतिया है । धर्म का आरम्भ दान से होता है। व्यापार का फल धन है और धन का फल दान है। दान से मानव उदार बनता है। दान से उत्तमता और मानवता खिलती है। दान से दरिद्रता का नाश होता है। दान से सुख, सौभाग्य और स्वर्ग मिलता है। दान से व्यक्ति लोकप्रिय बनता है। दान से प्राणियों का कल्याण होता है। दान से धन की ममता घटती है। दान से पुण्य बढ़ता है और पापों का नाश होता है। प्रायः मनुष्य-भव में ही दान देने का अवसर मिलता है। • अतः दान देने के भव में कंजूस मत बनो। गरीबों को अन्न दान, वस्त्र दान दो। साधु पुरुषों को सुपात्र दान दो। मूक प्राणियों को अभयदान दो । अशिक्षित को सम्यग् ज्ञान का दान दो। 41 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप करो तप शील का परम मित्र है। तप करने से शील का ठीक ठीक रक्षण होता है। तप तन, मन और आत्मा के रोगों की परम औषधि है। तप को भुला देने से आज रोगों का भयंकर प्रकोप हो रहा है। तप को भुला देने से आज विषय वासनाएं उद्दाम बनी हैं। तप को भुला देने से आज मनुष्य जिह्वालोलुप बन गया है। तप को भुला देने से आज मनुष्य ने अभक्ष्य का भान भी गंवा दिया है। तप से पापों और वासनाओं का शोषण होता है। तप से चित्त स्वस्थ, स्वच्छ और शांत बनता है। तप से योग और ध्यान-साधना सरल बनती हैं। तप भवसागर तैरने का जहाज है। तप करने वाले के लिये स्वर्ग और मोक्ष दूर नहीं। तप से देव भी दास बन ते हैं। तप से सब इच्छाएं पूरी होती है। तप से कुछ भी अशक्य नहीं है। तप करने से मानव-देह सार्थक होती है। तप शीलयुक्त होकर करना श्रेष्ठ है। 30, lle is beautiful, ।। सर्वं हि तपसा साध्यम् ।। अतः प्रतिदिन विवेकपूर्वक थोड़ा भी तप करते रहो। 42 cation International Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ This is me उत्तम भाव दान-शील-तप का प्राण है। उत्तम भाव भाव रहित दान-शील-तप सफल नहीं होते। रखो __नमक रहित भोजन, सुगन्ध रहित पुष्प, ___पानी रहित सरोवर की तरह... भाव रहित दान-शील-तप सार्थक नहीं होते। ___ भाव से ही परम ज्ञान मिलता है। भाव से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है। __ भाव से ही भव का नाश होता है। दान के पीछे धन की ममता हटाने का भाव रखो। शील के पीछे विषय-वासना घटाने का भाव रखो। तप के पीछे खाने की लोलुपता मिटाने का भाव रखो। धर्म के पीछे जन्म-मरण से छूटने का भाव रखो। मरुदेवी माता ने भाव से ही केवलज्ञान और मोक्ष पाया। 'भरत चक्रवर्ती ने भाव से ही कांच के महल में केवलज्ञान पाया। इलाचीकुमार भावना भाते-भाते केवलज्ञानी बन गये। प्रत्येक धर्मक्रिया करते हुए उत्तम भाव रखना चाहिये। भाव रहित क्रियाएं अंक रहित शून्य के समान हैं। अतः उत्तम भावरूपी अमोघ शस्त्र लेकर मोह की विराट और बलवान सेना का सफाया करना चालू रखोगे तो अंत में विजय तुम्हारी ही होगी। ain Education International Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 क्रोध से दूर रहीं क्रोध अग्नि है, यदि उसे छुओगे तो दुःख से अवश्य जलोगे । क्रोध से करोड़ों वर्षों का तप-संयम जल जाता है। क्रोध से मित्र भी शत्रु बन जाते हैं। क्रोध से स्नेहीजन भी विरोधी बन जाते हैं। क्रोध से पाचन-शक्ति पर बुरा प्रभाव पड़ता है। क्रोध से चित्त चंचल और गरम रहता है। क्रोध से दिमाग की शक्ति क्षीण हो जाती है। यदि अच्छा स्वास्थ्य चाहते हो तो क्रोध न करो। Copyr ।। उवसमेण हणे कोहं ।। 11g serendipity so vsipity serendipl nipive derendipity city serendipity Caspi Mencipity spite serendipity in rendipity sereneig dpis serendipity partipy serendipity serenity serendipitys dpt sercalipity t ty adipity stre Spy serendipity 245ty trendipity a poy carer city Sky Boudip fe or dipity aureati rand अतः क्रोध रूपी शत्रु को जीतने के लिये क्षमा का शस्त्र धारण करो । कम खाना और गम खाना इस सूत्र के अनुसार चलोगे तो तुम जीवन में कभी ठोकर नहीं खाओगे | क्रोध से लाभ कुछ नहीं होता, हानि ही हानि होती है। क्रोध से क्लेश, झगड़ा और वैर-विरोध बढ़ता है। YOU ad Syuly (arvadal pity on sky wrendipit (pisy berudipity tipity 20y perso C ONETYCE always at the with aide you discove nday sy aptytty dentipsy by astardly for y ajdy nevad Aurea ip or permesil Brera por serendipity ceadiyty ponds Cr unre 1pS Giat by M odze vipily spisy berta eshitya क्रोधी मनुष्य किसी को प्रिय नहीं लगता। क्रोधी किसी बात का स्थिर और गंभीर विचार नहीं कर सकता। O dipiky neceD rendipite 93 sezn ply Mat 21 DATE dipity MAT Piya 5 Dec dipity Diy 110 SAPAL 40 C 1200p Berend ealistic Our were 1pit digiy candy PALPA Here as valpity pity cerend walinity of cology pii cesend reipity I serend ant Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45 माया त्यागी i an original मान रखने के लिये मनुष्य माया का सहारा लेता है। माया सकल दुर्गुणों की जननी है। माया सब गुणों को निगल जाने वाली राक्षसी है। माया अध्यात्म मार्ग पर आगे बढ़ते हुए को रोकने वाली खाई है। माया-दंभकपट पूर्वक किये हुए दान-शील-तप-प्रभु-भक्ति आदि निष्फल होते हैं। मायावी मनुष्यों का कोई विश्वास नहीं करता। माया को अपने भाई झूठ का सहारा लेना पड़ता है। मायावी के चित्त में तनिक भी शान्ति नहीं होती। माया अर्थात् मन में कुछ और हो और बोले-चाले कुछ और। माया अर्थात् हृदय के भाव को छिपा कर बोलना-चालना। माया रूपी राक्षसी को सरलता रूपी बी से भेद डालो। जैसा मन में हो वैसा बोलना और वैसा ही व्यवहार करना। सरलता के बिना साधना की बाते बेकार है अतः किसी के साथ कपट मत करो। किसी को ठगना, झूठी सलाह देना, जानते हुए भी सत्य छिपाना आदि बातों को छोड़ो। सियार और कौए के भव में बहुत माया की अब इस उत्तम मानव भव में माया मत करो। || मायं चऽज्जवभावेण || Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 १. त्रिसंध्या माता -पिता को नमस्कार करो । २. माता पिता के बाहर से आने पर खड़े हो जाओ | ३. उनको बैठने के लिये उचित आसन प्रदान करो। ४. आसन पर बैठे हुए माता-पिता की उचित सेवा करो। ५. उनके पास नीचे आसन पर नम्रता पूर्वक बैठो। ६. टट्टी-पेशाब के अपवित्र स्थान पर उनका नाम न बोलो। ७. उनकी निन्दा न करो और न सुनो। ८. उनकी यथाशक्ति उत्तम वस्त्र, भोजन और अलंकारों से भक्ति करो। उनके हाथों से कराओ। ९. पारलौकिक पुण्यकार्य १५. १४. १३. उनका उपकार कभी मत भूलो। उनका अपमान या तिरस्कार तो कभी भूल कर भी न करो। १६. उनकी मृत्यु के बाद उनकी मालिकी की चीजों का या सम्पत्ति का धर्ममार्ग में व्यय करो। वृद्ध और बीमार माता-पिता की विशेष सेवा करो । σ dain Education International ११. १२. उनके आसन, शयन, वस्त्र, अलंकार का स्वयं उपयोग न करो। उन्हें जो पसन्द हो वह करो। १०. जो उन्हें पसन्द न हो वह न करो। σα इस प्रकार बर्ताव करने की प्रतिज्ञा करके माता-पिता के सच्चे पूजक (भक्त) बनो । माता-पिता का पूजन कॅरोट des Rock-a-tge aby os the tres tep will rock. When the box becake the cradle will fall & dows will baby, cradle & all. Baby is dressing cery & fair, mercer in her king their Forward & lack the crece she wings Astophely steeps, he hears what the sing Tellshy, ether asks TU sleepy head ।। दुष्प्रतिकारौ मातापितरौ ।। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ f ।। अलं प्रसन्ना हि सुखाय सन्तः ।। साधु-संतों का विनय करो साधु-र - संतों को देखते ही हाथ जोड़कर नमस्कार करो । साधु-संतों को आते हुए देखकर खड़े होकर विनय करो। वे जाते हों तो उन्हें पहुँचाने जाओ। उनकी त्याग वैराग्यमयी पवित्र वाणी सुनो। उनके गुणों की प्रशंसा और स्तुति करो। ये बहुत उपकारी हैं, ऐसा मानकर उन पर श्रद्धा रखो । cover the world उनके साथ सभ्यता से बातचीत करो । पवित्र त्यागी साधु-सन्त विश्व के श्रृंगार हैं। ये त्याग और अहिंसक जीवन के आदर्श हैं। उनकी सेवा से बहुत पुण्य बढ़ता है, पाप भाग जाते हैं उनका चित्त प्रसन्न रखो। उनको उत्तम भोजन - पानी-वस्त्र- पात्र से भक्ति करो। उनकी निन्दा या अवज्ञा कभी मत करो । उनके दोष मत देखो। उन्हें कोई असुविधा हो तो उसे दूर करो। प्रतिदिन ऐसे साधु-संतों के दर्शन-वन्दन का अवसर न चूको । पवित्र ज्ञानी साधु-संत प्रजा को सच्चा ज्ञान देने वाले हैं। Qaw सिधहम् व्या Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || विश्व उपकार जे जिन करे ।। परमात्मा का उपकार न भूलो जो सर्वथा दोषमुक्त हो, वह परमात्मा है। तुम जो सुख सुविधा भोगते हो वह इन परमात्मा की कृपा का ही फल समज़ना। परमात्मा ने हमें पुण्य का मार्ग बताया । उससे हमने शुभ कर्म कर पुण्य का उपार्जन किया । शुभ कर्म के उदय से उत्तम मानव-जन्म, उत्तम कुल, पांच इन्द्रियां, विचारक मन, माता-पिता, घर, पैसा, आरोग्य, वस्त्र, भोजन के अतिरिक्त तारक देव-गुरु का योग आदि मिले। अतः यह सब उपकार परमात्मा का ही मानना चाहिये न? अतः इन परमात्मा के अगणित उपकारों के कारण भी तुम प्रतिदिन मन्दिर में जाकर परमात्मा की मूर्ति के दर्शन-पूजन करो। परमात्मा की मूर्ति को देखकर सत्कार्य करने की प्रेरणा लो। परमात्मा कितने पवित्र हैं और मैं कैसा दुर्गुणों से अपवित्र हूँ ऐसा विचार करना। हे प्रभो ! मैं आप जैसा शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, निरंजन, निराकार कब बनूंगा, ऐसी प्रार्थना प्रतिदिन करना। उत्तम सुगंधित पुष्पों से, चन्दन से, धूप से प्रतिदिन परमात्मा का पूजन करना। सारे विश्व का कल्याण करने वाले भगवान में पूर्ण श्रद्धा रखना। प्रतिदिन भगवान के नाम का जाप करना और उनके बताये मार्ग पर चलने की भावना रखना। -484 Site Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || उचियपवत्तगे सिया ।। এনেলে विचारो... १. दुःख आने पर रोना नहीं। २. सुख आने पर हंसना नहीं। ३. आत्म-प्रशंसा करना नहीं। ४. दूसरों की निन्दा करना नहीं। ५. मान सत्कार से फूलना नहीं। ६. अपमान-तिरस्कार से घबराना नहीं। ७. किसी का सुख देखकर हृदय में जलना नहीं। ८. किसी का दुःख देखकर हंसना नहीं। ९. सुख में राग और दुःख में द्वेष करना नहीं। १०. किसी की गुप्त बात प्रकट करना नहीं। ११. किसी की माता, पुत्री, बहन की तरफ कुदृष्टि डालना नहीं। १२. मांस, मछली, अंडा और शराब का सेवन प्राणान्त की नौबत आने पर भी करना नहीं। १३. सबके साथ प्रेम पूर्ण व्यवहार करना। १४. दीन-दुःखी को देखकर दया करना। १५. किसी का तिरस्कार मत करो। १६. सबके साथ मिल-जुल कर रहो। १७. तुम्हारा बुरा करने वाले के साथ भी भलाई करो। १८. सदा सत्य के पक्ष में रहो। 49 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 इतना याद रखो moments.i.live.for You have recently gotten very interested in More than angthing el flowers rather than legs. and you love to spend time untering and tending One flower in particular Sam and share at it for can sit long periods of time. as if wasting for it to beem warms my heart to see how you tend to your flower and your dedication day after I hope this tenderness and empathy you have for other things and other people ।। इदमेव किल सुखरहस्यम् II उदार बनो किन्तु अपव्ययी नहीं। मितव्ययी बनो किन्तु कंजूस नहीं। आय के अनुसार खर्च करो। ज्ञानवृद्ध और अनुभवो की सलाह के अनुसार चलो। तोल-मोल कर निर्दोष वचन बोलो। बहुत बोलने की आदत छोड़ो। दुःख और निराशा के विचार कभी मत आने दो। सदा आनन्दी और आशास्पद विचार करो । न्याय और नीति के मार्ग पर चलने में अन्ततः कल्याण है, ऐसा निश्चित समझो। प्रतिदिन एक घण्टा धार्मिक साहित्य अवश्य पढ़ो। केवल अपना ही सुख-दुःख सोचने वाले स्वार्थी मत बनो । तुम्हारे जीवन की प्रगति में सहायता करने वालों को कभी मत भूलो। अपनी इन्द्रियों की उच्छृंखल मत होने दो। आर्य संस्कृति ही सच्ची संस्कृति है अतः उसमें पूर्ण श्रद्धा रखो । आत्म कल्याण के लिये सदा जागृत रहो। तुम केवल पैसा या मौज-शोक के लिये पैदा नहीं हुए हो । परन्तु आत्मा की उन्नति के लिए पैदा हुए हो, यह कभी मत भूलो। ऐसी शिक्षा ग्रहण करो जिससे तुम्हारे जीवन में 2 सदाचार, संस्कार और समभाव आवे । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परोपकार करो MO|| परत्थकरणंच ।। discover the world परोपकार के समान इस जगत में कोई बड़ा पुण्य नहीं हैं। परोपकार करने से ही मानव-जीवन सफल होता है।। परोपकार से मनुष्य श्रेष्ठ बनता है। तुम्हारे पास शरीर, बुद्धि, धन, सत्ता और ज्ञान की शक्ति हो तो उसके द्वारा पर-हित का कार्य करो। दूसरे का अहित करने वाले तो बहुत हैं। परन्तु प्रत्युपकार की आशा के बिना निस्वार्थ भाव से। दूसरे का भला करने वाला कोई विरला ही होता है। जड़ जैसे गिने जाने वाले वृक्ष और नदियाँ तथा सूर्य-चन्द्र भी जीवों पर उपकार करते हैं तो जो मानव होकर भी परोपकार न करे वह मानव कैसा? दूसरों की सेवा लेने की आदत को छोड़ो। अपना काम स्वयं करना सीखो।। गुरुजनों से अपना काम न कराओ।। उपकारियों के उपकार का बदला चुकाने का प्रयत्न करते रहो।। जिस दिन परोपकार का अवसर न मिले उस दिन को निष्फल मानो। परोपकार का व्यसन रखो।। परोपकार करते हुए यदि कोई निन्दा करे तो उसकी चिन्ता न करो,nel परोपकार व Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 52 जगडुशाह जैसे दानवीर बनो । विजय सेठ जैसे ब्रह्मचारी बनो । धन्ना अनगार जैसे तपस्वी बनो। जीरण सेठ जैसे भाव रखो। खंधक मुनि जैसी क्षमा रखो। कुरगडु ऋषि जैसी नम्रता रखो। मासतुष मुनि जैसी सरलता रखो। पुणिया श्रावक जैसा संतोष रखो। गौतम गणधर जैसा विनय रखो। धर्म रुचि अनगार जैसी दया रखो। लक्ष्मणजी जैसे सदाचारी बनो। पेथडशाह मंत्री जैसी साधर्मिक भक्ति रखो । एकलव्य जैसे गुरुभक्त बनो । श्रवणकुमार जैसे माता-पिता के भक्त बनो । हरिश्चन्द्र जैसे सत्यवादी बनो । युधिष्ठिर जैसे न्यायी बनो । दशरथ जैसे प्रतिज्ञापालक बनो । शालिभद्र जैसे त्यागी बनो । भरत जैसे वैरागी बनो । Today 1 amb Intern ऐसे बनो.. am happy today. || असतो मा सद् गमय । I am happy today. to be it is I am SITES kandadayy Lism bETTY You Sy life make Siplere. dream I am It is n to be an it is 7017 org Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I'll go to the temple every day, prostrate before God and say a prayer and then do pradakshina. I'll always be ready for service, Whether it be at the temple or at home. I'll serve the saints, elders and my parents. I'll never be lazy or feel bored while doing seva. I'll do some seva every day. I'll always be honest I'll never steal anything. I'll never copy in exams. Never will I speak a lie or think spitefully of anyone. I'll always be humble, speak politely with my elders, my parents and all others. I'll never swear, shout or talk back to anyone. humble I am happy. temple Qohonest ARE YOU HAD movice ♡ ♡ WOW!! daus Edu Rion International For Private & Personal lo ww.jainenbrary.org Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 What was I? What am I? What am I going to be? What I can be ? You could be reborn any day! Want to to? Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WORSHIP OF KNOWLEDGE Knowledge is very important in our life. We need to gather as much knowledge as possible. We should not let go any chance to learn more. There are few things we should remembers as we study, like... Study with humbleness... Do not be proud of your studies... Study silently... Study with full attention and concentration... Learn new lessons every day... Do not forget what you have studied... Always remember that try to Increase - your knowledge. LOOK N LEARN Do not fold your books & note books or spoil them... Do not sit on your books and note books... Respect your Teachers... While studying keep all the things properly... Go to religious school regularly... Do not get bored while studying... Do not throw your books and note books carelessly... Knowledge helps us to be free from the sufferings of the worldly life. diration Intemational For private & cons Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i will be kind & gentle to all animals, birds, bugs etc. i will avoid walking on grass. i will look at plants and flowers, but will not pick them. i will not fight with anybody. i will be nice to my brothers and sisters. i will respect them. i will help my grandparents and other elders. i will help my parents now & when they will become old. i will speak the truth. in Education International ivate & Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Attitudes Towards Parents Your Parents Are : Your best friends, discuss with them. They know you best; get their help. They understand you best; get their guidance. They want you most; give them your company. They dream about you most; share their dreams. They worry about you most; keep them relaxed. They love you most; don't refuse their love. They pray for you; use the power of their prayers. They trust you most; take them into confidence. They have sacrificed their best for you; respect them for it. They are eager to give you the best; acknowledge it. Jain Education Interation de Ileration They know the world; use their guidance. Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FOLLOWERS TRUEPATH Prosperity gained by fair means Fear of Sin (earning honestly) Praising merits of those observing morality in conduct. Marriage in a family having common code of conduct. Following prevalent rules of ethical conduct of the Society. Avoid activities that would be censured by others. Good neighbourhood. (Choice of residence) Avoid Slandering others. Friendship with persons of good conduct. Devotion to parents and elders. Abandon the place where troubles arise. Conquering inner enemies. To discern the difference between the good and the bad. Control over the senses. To be far-sighted. To win the love of people. To cut your coat according to your cloth (thrift). To feel grateful. To be modest (sense of shame). Peaceful nature. Generosity. Compassion. Dressing oneself according to one's means. Acquiring eight qualities of intellect. Listening to religious sermons constantly. Avoiding food when there is indigestion. Taking wholesome food as suited to one's health. To attain Artha Kama in life in confirmity with religion. Serving a sadhu, a guest or the poor and the suffering. To avoid obstinacy (Kadagrah). To look after the dependents the deserving ones. To serve the Vrat-holders and learned. To favour the meritorious ones. To work, according to one's capacity. Avoid bad places and improper times. MULTY GRAPHICS 0907990097