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अपने नवरत्व
जिसमें चैतन्य-ज्ञान हो उसे जीव कहते हैं । जिसमें चैतन्य-ज्ञान न हो उसे अजीव कहते हैं । जिससे सुख मिले उस कर्म को पुण्य कहते हैं। जिससे दुःख मिले उस कर्म को पाप कहते हैं | जिससे आत्मा कर्मों से बंधता है, उसे आश्रव कहते हैं। जिससे आत्मा में आते हुए कर्म रुके उसे संवर कहते हैं। जिससे आत्मा कर्मों से अलग होता है उसे निर्जरा कहते हैं। ग्रहण किये हुए कर्मों का आत्मा के साथ दूध-पानी की तरह एकाकार सम्बन्ध होना बंध कहा जाता है | आत्मा का कर्मों से सर्वथा छूट जाना मोक्ष कहा जाता है ।
|| तत्त्वार्थश्रध्दानं सम्यग्दर्शनम् || O
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