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माया त्यागी
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मान रखने के लिये मनुष्य माया का सहारा लेता है। माया सकल दुर्गुणों की जननी है। माया सब गुणों को निगल जाने वाली राक्षसी है। माया अध्यात्म मार्ग पर आगे बढ़ते हुए को रोकने वाली खाई है। माया-दंभकपट पूर्वक किये हुए दान-शील-तप-प्रभु-भक्ति आदि निष्फल होते हैं। मायावी मनुष्यों का कोई विश्वास नहीं करता। माया को अपने भाई झूठ का सहारा लेना पड़ता है। मायावी के चित्त में तनिक भी शान्ति नहीं होती। माया अर्थात् मन में कुछ और हो और बोले-चाले कुछ और। माया अर्थात् हृदय के भाव को छिपा कर बोलना-चालना। माया रूपी राक्षसी को सरलता रूपी बी से भेद डालो। जैसा मन में हो वैसा बोलना और वैसा ही व्यवहार करना।
सरलता के बिना साधना की
बाते बेकार है अतः किसी के साथ कपट मत करो। किसी को ठगना, झूठी सलाह देना, जानते हुए भी सत्य छिपाना
आदि बातों को छोड़ो। सियार और कौए के भव में बहुत माया की अब इस उत्तम मानव भव में माया मत करो।
|| मायं चऽज्जवभावेण ||
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