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________________ अपरिग्रह hello there!!! eno there || मुच्छा परिठगहो वुत्तो ।। किसी भी वस्तु के प्रति मूर्छा का भाव ही परिग्रह है। मूर्छा परिग्रह है। परिग्रह का अर्थ है संग्रह और अपरिग्रह का अर्थ है त्याग। किसी वस्तु का अनावश्यक संग्रह न करके उसका जन-कल्याण हेतु वितरण कर देना। परिग्रह मनुष्य को अहंकार एवं मोहरूपी अँधेरे के अथाह भंवर में डुबो देने वाला होता है। धन की परिग्रहवृत्ति काम, क्रोध, मान और लोभ की उद्भाविका है। धर्मरूपी कल्पवृक्ष को जला देने वाली है। न्याय, क्षमा, सन्तोष, नम्रता आदि सद्गुणों को खा जाने वाला कीड़ा है। परिग्रह बोधिबीज (सम्यक्त्व) का विनाशक है और संयम, संवर और ब्रह्मचर्य का घातक है। चिन्ता और शोक को बढ़ाने वाला, तृष्णा रूपी विषबेल को सींचने वाला, कूड-कपट का भण्डार और कलह का आगार है। अतः अपरिग्रह एक महान व्रत है। जिसका आज के युग में जनकल्याण की दृष्टि से और भी अधिक महत्त्व है। क्योंकि वर्तमान युग में परिग्रह लालसा बहुत बढ़ रही है। भगवान महावीर ने अपरिग्रह के बारे में एक बहत बड़ी बात कही है कि अपरिग्रह किसी वस्तु के त्याग का नाम नहीं, अपितु वस्तु में निहित ममत्व-मूर्छा के त्याग को अपरिग्रह कहा है। जड़-चेतन, दृष्ट-अदृष्ट वस्तु के प्रति लालसा, तृष्णा, ममता, कामना बनी रहती है तब तक बाह्य त्याग वस्तुतः त्याग नहीं कहा जा सकता। क्योंकि परिस्थितिवश विवश होकर भी किसी वस्तु का त्याग किया जा सकता है। किन्तु उसके प्रति रहे हुए ममत्व का त्याग नहीं हो पाता, यही ममत्व संत्रास का कारण है। यदि वस्तु के अनावश्यक संग्रह को रोकना है, उसका उन्मूलन करना है तो वस्तु के त्याग से पूर्व वस्तु में निहित ममत्व के त्याग को अपनाना होगा और ऐसा किये बिना अपरिग्रह का पालन नहीं हो पायेगा। इसी कारण भगवान महावीर ने संयमी साधकों के लिये परिग्रह का सर्वथा त्याग एवं गृहस्थ साधकों (श्रावकों) के लिये परिग्रह परिमाण व्रत बताया है जिससे विश्व के बहुसंख्यक अभावग्रस्त प्राणी त्राण पा सकते हैं। || परिग्रहो ग्रहः कोऽयं विऽम्बितजगत्त्रयः || Jain Education Internation For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003223
Book TitleEnjoy Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanbodhisuri
PublisherK P Sanghvi Group
Publication Year2011
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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