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मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू ('ठाणंग'सूत्र, ५२९) 'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे' ..
अनुसंधान
प्राकृत भाषा अने जैन साहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
संकलनकार : मुनि शीलचन्द्रविजय
हरिवल्लभ भायाणी
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શ્રી હેમચંદ્રાચાર્ય
कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी
स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि
अहमदाबाद
१९९४ KeeRPANKARKARK
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मोहिरते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंग - सूत्र, ४२९)
'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे'
अनुसंधान प्राकृत भाषा अनं जैन साहित्य विषयक मंपादन, संशोधन. माहिती वगैरेनी पत्रिका
संपादक : मुनि शीलचंद्रविजयजी
हरिवल्लभ भायाणी
.
શ્રી હેમચંદ્રાચાર્ય कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य नवम जन्मशताई स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि
अमदावाद
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अनुसंधान : ३
संपर्क :
हरिवल्लभ भायाणी २४/२, विमानगर सेटेलाईट रोड अमदावाद - ३८० ०१५
प्रकाशक :
कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अमदावाद १९९४
किंमत :
रू. २०.८०
प्राप्तिस्थान :
सरस्वती पुस्तक भंडार ११२, हाथीखाना. रतनपोळ, अनदावाद - ३८. ००१
मुद्रक :
कंचनबेन ह. पटेल तेजस प्रिन्टर्स ९६६, नारणपुरा जूना गाम, अमदावाद - १३ फोन : ४८४३९३
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निवेदन
'अनुसंधान' ए अनियतकालिक-शोध माहिती-पत्रिका छे. सामग्रीनो संचय .थाय तेम आ पत्रिका प्रगट करवानो उपक्रम छे.
संपादन - संशोधन क्षेत्रे रस धरावनारा अभ्यासीओने निवेदन छे के आपना द्वारा प्रवर्तमान संपादन - संशोधनकार्यनी माहिती तेम ज संशोधनात्मक नोंधो, लघुकृतिओनां संपादनो इत्यादि सामग्री ‘अनुसंधान' माटे मोकलो, मोकलतां रहो, जेथी आ पत्रिकाने वधु समृद्ध अने बहुमुखी बनावी शकाय. सामग्री देवनागरी लिपिमां मोकलवानी भलामण छे.
१५-९-९४
संपादको
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१
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अनुक्रमणिका ० त्रण संस्कृत फग्मुकाव्या . पं. शीलचन्द्रविजय गणि
भृगुकच्छ-वास्तव्य गणाश्राविका-गृहीत
द्वादशव्रत वर्णन सं. मुनि विमलकीर्तिविजय ० ढूंकनोंधः
१. त्रण मूल्यवान पद्यो २. स्थुर विशे
शीलचन्द्रविजय ३. अमट्टल. ४.कडितला. ', चक्कांडा. ६. संलि. ७. नंद. ८. युगंधरी. १. घरली. गृहली. १०. तळांविल्लि, ११. प्राकृत ग्प'छोलवू .
हरिवल्लभ भायाणी ० कंटलाक मध्यकालीन शब्दो जयंत कोठारी . जैन तीर्थस्थान तारंगाः एक प्राचीन नगरी
रमणलाल महेता
कनुभाई शेठ. ० ग्रन्थ-माहिती
शीलचन्द्रविजय गणी हरिवल्लभ भायाणी
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त्रण संस्कृत फगुकाव्यो
पं. शीलचन्द्रविजय गणि मध्यकालीन गुजराती काव्यसाहित्यमा अनेक काव्यप्रकारो खेडाया छे; एमां फागु के फग्गु-प्रकारनां काव्योतुं अनोखं स्थान रह्यु छे. “वसंतविलास फाग' जेवी रचनाओ तो विश्वख्यात बनी छे. जैन कविओए पण घणां फागकाव्यो रच्यां छे. फागुकाव्यनो मुख्य विषय होय छे - फागणमासनी होळी अने वसंतऋतु. आ विषयोमां शृंगाररसनुं प्राधान्य अनिवार्य गणाय छे. जैन कविओ, आथी ज, पोतानी फागु-रचनाओमां, मुख्यत्वे, नेम - राजुल अने स्थूलभद्र-कोशा'ना प्रणयरंगी शृंगारठे चित्रण करतां जोवा मळे छे. जो के तेमनुं आ शृंगार - चित्रण छेवटे तो, काव्यनायकोना जीवननी जेम ज, वैराग्य-पर्यवसायी ज होय
छे.
पश्चादवर्ती कविओए काव्यना आ हृदयालादी प्रकारने विषय तथा भाषाना बन्धन थकी मुक्ति अपावी अने भक्तिरसभर्यां संस्कृत फागुकाव्यो पण रच्या. अलबत्त, आवी रचनाओ बहु मोटा प्रमाणमां नहि होय एवं स्वीकारीए तो पण, भंडारो फेंदीए तो गणनापात्र मात्रामां आवी रचनाओ मळी तो अवश्य आवे. ____ अहीं आपेली त्रण रचनाओमां प्रथम "नाभेयस्तवन"ना रचनार, अकबर-प्रतिबोधक अने अमारि प्रवर्तक जगद्गुरु जैनाचार्य श्रीहीरविजयसूरिजी छे, ते वात ते स्तवनना अन्तिमकलशकाव्यथी तथा लेखकनी पुष्पिकाथी स्पष्ट थाय छे. फागुकाव्यो ए रास के गरबानी जेम ज लोकप्रिय अने गेय प्रकारनां काव्यो होवाथी, ते संस्कृत होय तो पण, तेने वधु ने वधु सरल बनाववा माटे भाषा-प्रयोगोने पण कविओ निषिद्ध नहि गणता होय, तेवू आ कृतिनी पढम ढाळ (रासक)मा प्रयोजयेल 'तुं'ना प्रयोगथी कल्पी शकाय. रचना नानी छे, गेय छे, अने वळी प्रासादिक छे, ए परथी रचयितानी काव्यक्षमता तथा विद्वत्तानी प्रतीति थाय छे. आ काव्यस्तवन अद्यावधि अप्रगट छे. श्रीहीरविजयसरि-रचित कतिओ भाग्ये ज मळे छे. कदाच तेमणे झाझी रचनाओ करी पण नथी. आ संयोगोमा प्रस्तुत कृतिनुं आगवू मूल्य छे.
बीजी कृति 'सीमन्धरजिनस्तवन' वाचक सकलचन्द्रगणिकृत सरस रागबद्ध गेय रचना छे. सत्तरभेदी पूजा' द्वारा जैन संघमां सुख्यात आ कवि श्रीहीरविजयसूरिना गुरु श्रीविजयदानसूरिना शिष्य हता, अने तेमनी केटलीक रचनाओ उपलब्ध थाय छे. प्रस्तुत कृतिना अंतभागे “हीरविजयादरं" एवो प्रयोग जोतां आ काव्य हीरविजयसूरिकृत होवानुं मानवा मन प्रेराय, पण २६मी कडीमां "सकलचन्द्रमुनिसुरतरुफलिनं" ए पद स्वयं एवं स्पष्ट छे के पछी कर्ता विशे शंकाने अवकाश रहेतो नथी. आ रचनामां १७मी कडीमा “ईलत" शब्द प्रयोजायो छे. आ शब्द घणा भागे फारसी छे, अने तेनो अर्थ, तेना प्रयोग-सन्दर्भो तपासतां “उपद्रव" एवो थाय छे. श्रीनयविजयकृत एक.गुजराती स्तवनमां “वरसीदान देई तुम जगमें ईलति ईति निवारी" एम प्रयोग छे, त्या ईति ते सात प्रकारनी, 'अतिवृष्टि'
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इत्यादि गणाय छे; अने ‘ईति - उपद्रव " एवो शब्दगुच्छ हमेशां साथै प्रयोजाती होई, अहीं पण 'ईलति' एटले 'उपद्रव' एम स्वीकारवामां आपत्ति नथी.
त्रीजी रचना आम तो एक ज ढाळनी छे, परंतु तेना पर 'गीतगोविन्द' नी स्पष्ट असर जोई शकाय छे. कवि जयदेवे पोताना ए अद्भुत काव्यगीतना प्रथम सर्गनी बीजी ढाळ आ ज रीते उपाडी छे :
"श्रित कमलाकुचमण्डल, धृतकुण्डल ए कलितललितवनमाल जय जय देव हरे ! ||"
प्रस्तुत रचनाने आ गीत साथे सरखावीए तो तेना पर ते गीतनो प्रभाव वरताया विना रहेतो नथी. प्रसिद्ध तार्किक अने दार्शनिक उपाध्याय यशोविजयजी पोताना कर्कश तर्क अने सिद्धान्तग्रंथो माटे जेटला जाणीता छे, तेटला ज पोताना गेय-मधुर भाषाबद्ध भक्तिकाव्यो माटे पण प्रख्यात छे ज. जो के एमनी संस्कृत गेय कृतिओ बहु मळी नथी. "आदिजिनं वन्दे गुणसदनं" थी शरू थती ५-६ कडीनी एक गेय कृति मात्र प्राप्त छे. ए संजोगोमां एमनी आ लघुकृतिनुं पण घणुं महत्त्व गणाय.
आ त्रणे कृतिओनी मात्र एकेक ज झेरोक्स नकल, मारा मित्र विद्वान कवि मुनिवर श्रीधुरन्धरविजयजी द्वारा प्राप्त थई छे. अन्यान्य भंडारोमा तपास करतां आ बधांनी अन्य प्रतिओ मळी आवी शके. मने मळेली प्रति नकलोमा केटलीक अशुद्धिओ छे, जे प्रस्तुत संपादनमां लगभग यथावत् राखी छे, अने प्रश्नचिह्न द्वारा तेनो त्यां- त्यां निर्देश कर्यो छे.
१
जगद्गुरु श्रीहीरविजयसूरिरचित नामेयस्तवन
ॐ नमः सिद्धं ॥ त्रिभुवनप्रभुताभवनक्रमो प्रसभभक्तिवशेन नतस्तव । प्रथमतीर्थपते ! स्तुतिगोचरं सुविनये विनयेन नतामरम् || १ ||
( यमकबन्धः)
अथ छन्द रासकाख्यम् ॥
सकलकलायुतसोमसमानन सुरनरकिन्नरविहितसुमानन । मानवहितकृतदान (दान) तु .. जय जय मानवहितकृतदां (दा) न तु ॥ २ ॥
[6]
(छन्दस्त्रिपदी) ||
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सकलमहाजनमानसमोहन निर्जितमानमनोभवमोहन | मोहमहारिसमूह तु, जय० ॥ ३ ॥
विश्वपितामह निर्गतपातक कांतनमोजनिताऽमृतसातक । जातमहोदय देव तु, जय० ॥ ४ ॥
j ( गुणमणिरोहणरोहणभूधर विनयनतामितमां (मा) नवकन्धर | बन्धुरदर्शन नाथ तु, जय० || ५ ||
काव्यम् ॥
धन्योऽहं जगतीतले जिनपते ! नाभेय ! नेतस्तरां ! प्राप्तोऽहं कृतकृत्यतां च भगवन् ! विश्वत्रयालंकृते ! । संसारार्णवमद्य तीर्णमिव हे ! तन्मन्यमानो मुने ! नाथस्त्वं मयका यतः कलियुगे लब्धो ह्यलब्धः पुरा ||६||
छन्द : रासाडुदुः || आसाउरीरागेण गीयते ॥ विमलीकृतविमलाचलभूतल भूतलसद्गुणराजी रे । लोकालोकविभासनकेवल केवलदर्शन राजी रे वि० ||७|| भविकजनौघभवोद धितारक वारककर्म महारोरे ।
कुरु सुमतिं मम भगवन् ! जिनवर ! जिनवरमुख्य विचारे रे वि० ||८|| रूपविनिर्जितकमलानन्दन ! नन्दन नाभिमहीशो रे ।
भव्यजनावलिनिर्मलमानस - मानसहंस ! महेशो रे वि० ||९||
वृषभ ! वृषभराजाऽङ्कितविग्रह ! विग्रहहच्छिवताते ! रे । देव ! विधेहि निजक्रमसेवां देवाऽञ्चितजिन ! भीते रे वि० ||१०|
अथ काव्यम् ॥
नानावस्तुविसर्जने निपुणताभाजा मया निर्मिता मन्दारप्रमुखास्तथा तदितरे तत्प्रार्थने तत्पराः ।
नैतेष्वस्ति शिवप्रदः परमिति ज्ञात्वा विधिस्त्वै (?) व सत्
तत्सिद्ध्यै विदधे विभो ! भवभृतां नाऽन्यः कथं त्वन्यथा ||११||
अटीयाबन्धः ||
वासववन्दितपादः नाशितसर्वविषादः ।
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कामितकल्पतरो विश्वजनैकगुरो रे
जिन जिन ! विश्वजनैकगुरो ! ।। १२ ।। गत्या हस्तिसमानः सुरनरकृतगुणगानः । अमृतमधुरवाणे ! कजकोमलपाणे रे
___जिन जिन कजकोमलपां(पा)णे ।। १३ ।। विशदचरित्राधारः लब्धभवोदधिपारः । सारशमाम्बुनिधे ! भविजनभद्रविधे रे
जिन जिन भविजनभद्रविधे ।। १४ ।। अव्ययपदकृतवासः वासवकृतनिजदासः । प्रणतिमहं विदधे भाषितधर्मविधे रे
जिन जिन भाषितधर्मविधे ! ।। १५ ।।
. अथ काव्यम् । छन्दः ॥ स्वास्त्विद्वदनाकलंकशशिनं दृष्ट्वैव नित्योदयं चंद्र: किं भ्रमणं करोति गगनेऽनाभाभयव्याकुल: । नैवं चेत् कथमातनोति विपदं देव ! प्रतापस्य ते मित्रोष्णत्विषि बन्धुपद्मविततेर्लब्धावकाशो ध्रुवम् ।।१६।।
अथ फाग, संस्कृतरागः ॥ अमितमहामहिमालय पालय परमगुरो ! । मां भवतो भवभयतो भयतोदारगुरो ।। १७ ।। कुमतमतङ्गजवारण - वारणवैरिनिभ ! । धि(धै)र्यतया जितमन्दर ! सुन्दरकनकनिभ ! ।। १८ ।। देवपतिस्मृतनामा नामानीशपते ! । जय जय दत्तसुदर्शन ! दर्शनतोऽसुमते ।। १९ ।। चरणयुगं शिवशरणं शरणं साधुपते ! । पततां भवनीराकर - याकर ! (?) विमलमते ! ।। २० ।।
अथ काव्यभासाः ॥ नेतस्ते विमलक्रमाम्बुजयुगोपास्तेर्यथोक्तं फलं सम्यग् ये सुधियो विदन्ति विधिना कुर्युश्च भक्तिं तथा ।
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तेषां जन्म फलेग्रहीह कृतिनां गेयं च पुण्यात्मनामन्येषामफलं भदन्त ! समभूत् स्वर्धेनुवद् दुर्लभम् ।।२१।।
अथ त्रिपदी ॥ भावि तव तनुलता यान(?)विश्वजनता रे । सकलकलाकलिता रे किमियमिव नव सुरलता रे ।। २२ ।। रविमित क्ख (?)लु सभागता कांचनमिव कांता रे । जम्भाहितमहिता रे विलयिनक्त ति(?)जनदुरिता रे ।। २३ ।। निधाय समसमता ममला (ता)मिव विहिता रे । नाभिभुवा शमिता रे सततसुरगणपरिवृता रे ।। २४ ।। धनुषां पञ्चशती-मिता नतजगती रे । स्वर्गिजातरती रे भविकजनावलिशिवकृती रे ।। २५ ॥
__ अथ काव्यं चवक्तुं ते विभवो भवन्ति भगवन् ! नो योगिनोऽपि स्फुटं जानन्तो महतो गुणानिह सदाऽनन्तानुदारांस्तराम् । तत् किं स्यादिह मादृशस्य विभुता नूनं ? तथापि प्रभो ! भक्त्या प्रेरितचेतसेति विनुतः किञ्चित् प्रसादेन ते ।।२६।।
अथ कलश कमलापिधानं काव्यम् ॥
___ आर्याश्रीतपगणगगनतलाऽङ्गणतरणि श्रीविजयदानसूरीणाम् । शिष्याणवे विधेया
भवे भवे देव ! निजसेवा ।।२७।। इति श्री श्रीजगद्गुरु श्री दिल्ली - उग्रसेनपुर - लाहोरादिधराधीश- पात्स्याह साह श्री १०८ अकब्बरप्रतिबोधक भ० श्री १०८ श्री हीरविजयसूरीश्वररचितं श्रीनाभेयस्तवनं सम्पूर्णम् ।। पं० श्रीवृद्धिकुशलगणि आत्मपठनार्थं लिखितं च श्रीमहूआनगर वृद्धालय आरां (रा)मे ।। श्री शेāजयगिरिसुप्रसादात् ।। ई(इ)ति श्रेयः ।।
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२
वाचक श्रीसकलचन्द्रगणिरचित श्री सीमन्धरजिनस्तवन ब्रह्माण्डमण्डलविबोधविरोचनाय
राजीवलोचनजगत्त्रयलोचनाय । सीमन्धरस्तुतिकृते मलमोचनाय
वीरार्हते मम नमो गतशोचनाय ।।१।। काव्यम् ।। पुरिसुत्तम जह सयले उत्तममंगंमि उत्तमंगं च । तह तुह नमणं धम्मे उत्तममिह उत्तमंगेणं ।।२।। जह लोअणमुक्किटं उद्दिष्टुं नाह इंदियग्गामे । तह तुह मुद्दालोयण-मुक्किट्ठ दंसणे सव्वे ।।३।।
॥ राग (श्रीराग) गउडी ॥ जय रे भगवति सुधानुकारि सीमन्धरजिनवदनहिमाचलजाते प्रवचनसुरगङ्गे सकलचतुर्दिशिपूर्वप्रसङ्गे वह वह मुनिहृदि कृतिरङ्गे । नेदाम्बुधिकृतबहुभङ्गे ।। ४ जय रे. ।। धारामा भुवि अतिफलिता त्वमेह करुणाभरसारे सीमन्धरजिनगगनप्रसूता शुभधाराधरवरधारे ।। ५ जय रे ।। पञ्चाचारलता अतिपुष्पिता उपशमगजगजरिचता रे (रचिता रे ?) जिनवचनातिथितृषितनराणां श्रुतिशदमृतानुकृतपारे ।। ६ ।। मदगदकामकईमाधौता मिथ्यावागसिशितधारे मथितापापदावानलतापा कृतसुसी (शि) क्षजनानिरि ।। ७ ।।
॥राग हुसेनी वइराडी ॥ सुधि ओ रे सुधीरीयमहोच्च (?) जय जिनगुणकीर्तनकरणं तदिदं बहुभवपातकहरणं उत भवजलनिधितरणम् ।। ८ ।। शै (सै)व वरा सुधियां धीरमला भुविसुनाणगेहं (?) ध्यायति या सीमन्धरदेहं सुरनरहतसंदेहम् ।। ९ ।। गुणरत्नाङ्कितमनोहरदेहं बहुसु(शु)भलक्षणभूषितदेहं भु(भ)विजनमङ्गलरोहं सयोगिमुनिवरधे(ध्ये)यं विधेयं(?) सुरपतिरमणीगेयम् ।। १० ॥
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त्रिभुवनपातकशातककुशलं भुवि जीवितसुविशालं । पदसुरमौलिकुसुमसु (शु)चिमालं अर्द्धचन्द्रसमभालम् || ११ ।।
॥ राग मल्हार ॥ भगवती सीमन्धरवाणी मित्राचारमयूरी रे
संश (स) दी (दि) शंसति शिवपथकुशलं दर्शनमङ्गलपूरी रे ||१२ भगवती० ॥ सीमन्धरमुखमेरुवासिनी गणिमुखगहनि (न) मटन्ती रे
भविभवकर्मभुजङ्गमसङ्गम अमृतमास ( ? ) घुटन्ती रे || १३ भग० ||
त्रिभुवनमोहनकोटकोटिकुलचरणकृते विचरन्ती रे
सुरनरमुनिजनमोदकारिणी कणदरीषु रमन्ती रे || १४ भग. ॥ शिवपथकेकारवं धरन्ती गुणकलापभरपूरी रे सकलसभाजनबोधकारिणी मेघनादे मुखिसूरी ( ? ) रे ।। १५ ।। ॥ राग मालवा गउडी ॥
नवकनकाम्बुजपद सञ्चारं जनहितकृतावतारं त्रिभुवनजनशिवपददातारं रागादिकजेतारम् || भज रे सीमन्धरनेतारम् || १६ || प्रातिहार्यरमणीगलहारं त्रिजगतईलतनिवारं भवपारावारागतपारं भविजनकर्मकुठारम् || इन्द्रसभागुणसुगणविचारं ( ? ) मोहमद नहोतारम् || १७ || दर्शनजिन (निजन ? ) गतदुरितविकारं जन्तूपकारविहारं बिहरमानपुरुषोत्तमसारं अनन्तवरविदगारम् || १८ || जन्मादिषु कृतमरुदधिकारं जनतादली (लि) तभवारं श्रुतमणिकनकरूपप्राकारं पदहरचामरधारं ।। शुभज (य) सो विस्तारम् ॥ १९ ॥
॥ राग घोरणी ॥
चेतनचतुरविचार चेति (त) सि चिन्ति (न्त ) य सार सीमन्धरगुणमणिसागरं रे ॥ २० ॥ समवसरणशृङ्गारमशोकतरूणा (णां) विस्तारमतिशयकुमुद सुधाकरं रे ।। २१ ।।
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सिंहासनपदकारमुत हरिचमेति (?) चामरं रे छत्रत्रयतलतारममरामृतसुखकारजगदाधारमुदारमुपवर (?) चेतन चेतसी रे ।। २२ ।।
॥ राग मल्हार ॥ त्रिलोकपूजितपादनलिनं अनन्ततूं(?) बलिनं (देवदेवं) अर्हतं (न्त) सीमन्धरसुभगं निरीहनिःसङ्गं प्रणमत हृदि रङ्गम् ।। २३ ।। कुङ्कुमवसुतनुमृदुकुन्तलिनं शममरालनलिनं वार्षिकदानावसरे भविनं सुरतरुकरतलिनं भजत मधुर-गलिनम् ।।२४ ।। निर्ज़ितभवकर्मरिपुद लिनं अतिसु(शु)चिसु(शु)भकलिनं प्रादुरजोगङ्गाम्बुतरङ्गमनशुप्रं(?)गुलिनं र(अ?)मलीकृतभलिनम् ।।२५ ।। स्वस्तिकमङ्गलप्रमुखमङ्गलैरङ्कितपदनलिनं सकलचन्द्रमुनिसुरतरुफलिनं विनतमुशलहलिनं जिनवपरमतलिनम् ।।२६।।
॥ कलशः राग धन्यासी(श्री) ॥ धीधना हे जना सहृदया वरदया धरत हृदये च परमात्मरूपम् । दुर्धार (धर)कर्मरिपुसङ्गरे विदी (दि)तजितमेदिनं मोहभूपम् ।।२७ धीधना०।। जयसदोंकारहींकारनामाङ्कितं तिग्मसंसारवररायभारम् (?) बोधितानेकनररामहरिभूधरा देवराजादिचेतावतारम् ।। २८ ।। कम्बुवरकन्धरं नरगन्धसिन्धुरं वदनवासन्तिकागन्धधारम् । हीरविजयादरं सकलसीमन्धरं विहरमानादिमानन्द कारम् ।। २९ ।।
॥ इति श्रीसीमन्धरजिनस्तवनं समाप्तम् ॥
श्रीयशोविजयवाचकविरचित नाभेयजिनस्तवन
श्रीनाभेय(याय) नमः ॥ श्रीविमलाचलमंडण गतदूषण ए त्रिभुवनपावन देव जय जय विश्वपते ! ।। नाभितनय नयसुन्दरू(र) गुणमन्दिर ए सुरनरनिर्मितसेव जय० ।। १ ।।
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आदितीर्थसन्दर्शन शुचिदर्शन ए प्रकटितशिवकैलाश जय० ॥
युगलाधर्मनिवारक भवतारक ए भववारक भवनाश जय० ॥ २ ॥ केवलकमलानायक सुखदायक ए स्मरसायकहररूप जय० ॥ अङ्गलगितसमसाधन गतिबाधन ए स्थगितमहाभवकूप जय० ॥ ३ ॥
क्रोधकंसगरुडासन वृषभासन ए वृषलञ्छन जिनचन्द्र जय० ॥ अविकलकरुणासागर नतनागर ए दुरितविनाशवितन्द्र जय० ॥ ४ ॥
मायापञ्जरभञ्जन जनरञ्जन ए सहजनिरञ्जनमुद्र जय० ॥
कर्मजालशतशातन हतयातन ए
शोभासिन्धु- समुद्र जय० ॥ ५ ॥ इन्द्रैर्युगम हितक्रम बहुविक्रम ए गुणसंक्रम गुणपात्र जय० ॥ मोदितसकलसभाजन गुणभाजन ए सकलतीर्थमयगात्र जय० ॥ ६ ॥ विजितमोहभटसंगर शुचिसंगर ए भङ्गरहित हितशील जय० ॥ सुललितसिद्धिवधूवर वरसंवर ए प्रोल्लसदतिशयलील जय० ॥ ७ ॥ लीलालब्धि (ब्ध ? ) महोदय सुमहोदय ए
मोदय मामपि देव जय० ॥ कुरु वासं विशदे मम धृतसंवर ए
मनसि निरन्तरमेव जय० ॥ ८ ॥
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इत्थं श्री नाभिसूनुर्विमलगिरिशिरःस्फारशृङ्गारमूर्तिप॑तिः (तः ?) पुण्यैकराशिस्त्रिभुवनजनि(न?)तानन्दकन्दायमानः । नूतः पूताशय श्री (यः श्री?) नयविजयगुरुत्तंसशिष्येण दत्ताद् भव्यानां विश्वभर्त्ता स जयनययशः पुण्यकल्याणलीलाम् ।। १ ।।
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भृगुकच्छ - वास्तव्य - राणीश्राविका - गृहीत - द्वादशव्रत
वर्णन
___ सं.मुनि विमलकीर्तिविजय [कति विशे : वि.सं. ११६५ ना कार्तिक शुदि ७ ने मंगलवारे, भृगुकच्छ (भरुच) नगरमां, संविग्न-गीतार्थ आचार्य श्रीधर्मघोषसूरिजी पासे, 'राणी' श्राविकाए श्रावकधर्म एटले के श्रावकजनोचित १२ व्रतो लीधां हतां, तेनी नोंध स्वरूप आ रचना छे. प्राकृतभाषामा ७० पद्योनी बनेली आ रचना, आम तो, प्रचलित भाषामां ज निर्माई छे. तो पण कोई कोई शब्दो अभ्यासनो विषय बनी शके तेम जणाय छे. आ रचना वडोदराना श्रीआत्मारामजी जैन ज्ञानमंदिरनां संग्रहनी ताडपत्रीय प्रति क्र.३५ मांथी लेवामां आवी छे. आवी रचनाओ, जे ते व्रतधारी गृहस्थनी अंगत नोंधपोथी रूपे होय छे, तेथी तेनी बीजी नकल मळवी लगभग अशक्य होय छे, अने तेथी ज, आ ताडपत्र-प्रति (पत्र संख्या ९) सं.११६५मां ज लखाएली छे, एम मानवामां कोई आपत्ति नथी.] संपत्तसंसारसमुद्दतीरं
देवाहिदेवं नमिऊण वीरं । सम्मत्तमूलाई गिहिव्वयाई
गिन्हामि सम्मं जिणदेसियाइं ।। १ ।। गयरागदोसमोहो, मुक्कविरोहो पसन्नमुहसोहो । देवो सुरकयसेवो, गयलेवो मज्झ सव्वन्नू ।। २ ।। उद्धयमहव्वयभरे, सीलंगधरे निरुद्धमयपसरे । जगसिरि मणिणो मुणिणो, गुणिणो गुरुणो पवजामि ।। ३ ।। जीवाइ नवपयत्थे, जिणभणिए सद्दहामि जाजीवं । चियवंदणं तिकालं, संखेवेणावि काहामि ।। ४ ।। धम्मो वि लोयतित्थे, न करिस्सं न्हाणपिंडदाणाई । इय (१/२) सम्मत्तं संकाइ-दोसरहियं मए गहियं ।। ५ ।। एत्तोहं पंचअणुव्वयाइं तिन्नि उ गुणव्वयाइं च । सिक्खावयाइं चउरो, अणुक्कमेणं पवजामि ।। ६ ॥ मंसाइकए जीवं, थूलं संकप्पियं निरवराहं । मण-वाया-काएहिं, न हणिस्सं नो हणाविस्सं ।। ७ ।। दुब्भासं मोत्तूणं, किमिगंडोलाइपाडणं तह य । पाणवहे नियमो मे, जयणं पुण तत्थ काहामि ।। ८ ।।
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जह नरवईण चक्की, गिरीण मेरू सरीण सरिवाहो । देवाण वीतराओ, जह तह धम्माण जीवदया ।। ९ ।। कन्ना - गो - भूमी - लिय, नासवहारं च कूडसखे (क्खे)जं । अलियं पंचपयारं, (२/१)वाय-काएहिं न भणामि ।। १० ।। थूलमदत्तादाणं, सचित्ताचित्तमीसवच्छु(त्थु)म्मि । जं रायनिग्गहकरं, तं वजे निययकाएणं ।। ११ ।। सगिहेसु य मम दत्तं, पत्तं पूर्फ फलं च तिणकटुं । सुंकुंववहारविसुं, मरीयं च मोत्तूण मे नियमो ।। १२ ।। दुविहं तिविहेण दिव्वं, एगविहं तिविहओ य तेरिच्छं । नियभत्तारं मोत्तुं, सेवेमि न निययकाएणं ।। १३ ।। वज्जेज्जा मोहकरं, पुरिसाणं दंसणाय सवियारं । एए खु मयणबाणा, चरित्तपाणे विणासिंति ।। १४ ।। सव्वगुणालंकारो, (२/२) कुगयदुवारंमि अग्गला सीलं । सोयाणपंतिया इव, सीलं सग्गापवग्गाणं ।। १५ ।। सीलं सुगइनिहाणं, नमंति देवा वि सीलवंताणं । दमदंति-सीय-रोहिणि, मणोरमा-सुलसदिटुंतो ।। १६ ।। इच्छापरिमाणवयं, धणम्मि - धन्नम्मि खेत्तवत्थुम्मि । रुप्प सुवन्ने कुविए, दुपए चउप्पएसं (सुं) च ।। १७ ।। तत्थ धणं चउभेयं, गणिमं धरिमं च मेय-परिछेज्जं । गणिमे दम्मसहस्सा, रोक्कडया मोक्कला दोन्नि ॥ १८ ॥ गणिमं धरिमं मेजं(ज), परिच्छेज्जं च चरविहं भंडं । (३/१) पत्तेयं होउ महं, दम्मसहस्साणि दुन्हंपि ।। १९ ।। साली-वीही-कोद्दव-गोहुम-मुग्गाणि सव्वधन्नाणं । माणं मूडगसट्ठी, तेल्ला पुण गेहपाउग्गा ।। २० ।। घय-तेल्लघडगचत्ता, नियमो खेत्तस्स तिन्नि घर-हट्टा । अट्ठ य रुप्पपलाणं, दोन्नि सया तह सुवन्नस्स || २१ ।। कुवियं सहसपमाणं, नियमो दासाण पंच कम्मयरा । वाहणदुग - चउधेणू, छव्वसहा छेलिया दोन्नि ।। २२ ।।
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महिसीणं तुरयाणं, दासेरग - वेसराण य खराणं ।
गय- गड्डर-कुक्कुड-मंकडाई जी (३ / २) वाण नियमो मे ॥ २३ ॥ पय (इ)-पुत्त-भाइयाणं, सकसपरिग्गहस (सवसपरिग्गहस्स) जा चिंता । सा सव्वा मोक्कलया, जा सकनेय (जा संकमेय ? ) परिहरियं || २४ || न करेमि सकाएणं, परिग्गहं भणियमाणाओ अहियं ।
होज्ज व कहचिंतो ता ( ? ), काहं धम्मव्व झत्ति ॥ २५ ॥ जह जह अप्पा ( प्पो ) लोभो, जह जह अप्पा ( प्पो) परिग्गहारंभो । तह तह सुहं पवड्डय (इ), धम्मस्स य जायए सिद्धिं (द्धी) ।। २६ ।। सिरिभरुयच्छपुराउ, चउद्दिसिं जोयणाण सयमेगं । (४/१) दो जोयणाण उहुं, अहमेगं गाउयं दुन्नि || २७ ॥ भोग (गु) वभोगवयंमी, भोयणओ कम्मओ य दुविहंमि । दुविह- तिविण मंसं, मज्जं वजे सकाएणं ॥ २८ ॥ पंचुंबरि महु-मक्खण, अन्नाई फलाई वसं (यं ? ) गणाई च । संसत्तभत्तवज्जं, नायमणंतं च सच्चित्तं ।। २९ ।। दुभिप (?) क्खमोसहं, धरणगं च मोत्तुं निसाए नो भुंजे । खाइममसणं सव्वं, विदलं तह गोरसं मीसं ॥ ३० ॥ चउ विगई दिणभोगे, तीसं दव्वाई पंच सच्चित्ता । चउ कणमाणग चोप्पड ( ४ / २) पलमेगं भोयणं भुंजे ॥ ३१ ॥ पाणं ति करवयतिगं, नीरसरीरकारणं मोत्तुं । उच्छ्रलट्ठिचउक्कं, सचित्तपडिबद्धया चउरो || ३२ ॥ गणिमफलाणं चत्ता, मेअफलाणं च माणयं एक्कं । दुपउलियाण य दुगं परिविहियं अप्पणा न करे || ३३ ॥ खजूरउत्तत्तिय (?), नालिकेरदक्खाई खाइमपमाणं । पत्तेयं अट्ठ पला, दलसट्ठी पूग पुण वीसा ॥ ३४ ॥ जलघडएहिं दोहिं, मासे पहाणाइ तिन्नि भोगत्थं । अंगोहलीउ तीसं, जलवा (५/१)हडिएहिं दोहिं पि ॥ ३५ ॥ दुसया मोल्लेण तहा, परियट्टा पंचदिवसमज्झम्मि । मोत्तूण सीयरक्खण, धोयत्तीं पहाणपोत्तिं च ॥ ३६ ॥ कत्थूरिगा इयाणिं विलेवणं होउ करिसपरिमाणं । पुप्फाणं सह चउरो, दोय पला कुंकुमरस तहा || ३७ ॥
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दुन्नि सुवन्नसयाई, रुप्पपला अट्ठ तह य दिणभोगो । मोत्ताईयं सव्वं, दोन्नि सहस्साण वरभोगे ।। ३८ ।। नियएणं काएणं, इय भोगवयं इमं मए गहियं । कज्जे बहु सावजे, कम्मादाणाइ वित्ति (५/२) कए ।। ३९ ।। इंगालविक्कयं इट्टधाय कुंभारलोहयाराण ।। सुवनार-भाडभुंजाइ-याण वित्तीउ वोसिरिया ।। ४० ।। वणछेयाओ वणविक्कएण तंबोल-पुप्फ-पणिएण । आरामरोयणेण य, जा वित्ती तीय विणिवित्ती ।। ४१ ।। सागडियत्तं न करे, भाडीकम्मं च फोडिकम्मं च । दंताणं लक्खाए, रस-केस-विसाण - वाणिज्जं ।। ४२ ।। जंतपीलण - निलंछणाइ, दवदाणं सरविसोसं च । असईपोसं नियमो, वेसाईपोसणाईयं ।। ४३ ।। मणुयाण विक्कयं नो, (६/१)करेमि दस तिरिय वरिसमझंमि । लाहत्थं लोहतिल्ले, न विक्कणे भाडयं दुसयं ।। ४४ ।। चउ चुल्लीसंधुक्कणं, दिवसंतो वीस जलघडुव्वहणं । खंडण-पीसण-पयणे, पत्तेयं कलसिया पंच ।। ४५ ।। अवज्झाण-पमायायरिय हिंसादाणे य पावउवएसे । चउहा अणत्थदंडोत्ति, तत्थ नियमा कमेण इमो (मे) ।। ४६ ।। खयरनरिंदत्ताई, देसाइवघाय वईरमणाई । अच्चंतमसंबद्धं, पहराउ परं व चिंतेमि (ठवितेमि ?) ।। ४७ ।। मजं विसय - कसाया, निद्दा विगहा य अहव आलस्से । (६/२) इयणेगहा पमाओ, तत्थ पुरा नियमियं मज्जं ।। ४८ ।। वद्धावणाय मोत्तुं, वित्तिपयाणेण गीयनट्टाई । भोगत्थं नियमे तह, अणुबद्धकसायकरणं च ।। ४९ ।। अद्धाण गिलाणत्तं, मोत्तु न सुवामि रयणि पहरद्धं । जिणमंदिरभूमीए, आसायणदसगा परिहारे || ५० ।। तिरियाभेडण सव्व, जूयदोलाजलाई - कीलाओ। इय बहुविहं पमायं, सपच्चवायं चयामि सया ॥ ५१ ।।
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सत्थग्गि-मूसलं-धणु-जन्तगाइ दक्खिन्नअविसए न दए । तह पावुवएस पि हु, करिसण गो(७/१)णाई(इ) - दमणाई ।। ५२ ।। सामाइयं कव व्यं (? च कुव्वं ?), दोवारा अध समासमझंमि । एगदिणे दस जोयण, परओ वच्चामि नो सवसा ।। ५३ ।। अट्ठमि चउद्दसीसुं, पजोसवणाइ - चाउमासंमि । अन्हाण पोसहो एग-भत्त वावारजयणा य ।। ५४ ।। मट्टियखणणं खंडण, पीसणय-चीरधुवण-लिंपणयं । जूयनिहालण तणरुक्ख - छेयणं वज्जइस्सामो ।। ५५ ।। काले गिहागयाणं, दाऊणं सुविहियाण अॅजिस्सं । अस्संपत्तीए पुणो, संभरणं भावणं काहं ।। ५६ ।। धन्ना य पुन्नमंता, तेसिं स(७/२)हलं च जीवियं लोए । सेयंसो इव दाणं. विहीए जे देंति पत्तेस ।। ५७ ।। नियगेहे निवसंती, तिविहं पूर्व जिणिंदचंदाणं । काऊणं धोयत्तिं, सत्थसरीरा करिस्सामि ।। ५८ ।। देवाणग्गिमकूरे, दिन्ने दीणाइयाण दाणंमि । अस्संभरणं मोत्तुं, पइदियहं कप्पए भोत्तुं ।। ५९ ।। सज्झाय सहस्साईत्ति नियमासस्स मज्झयारंमि । कायब्वाई नियमा, सव्वाणे(?) सत्थदेहप्पा ।। ६० ।। मज्झिमखंडा या (बा)हिं, पावट्ठाणाइ अठ्ठदस वजे । तह चउविहमाहा (८/१)रं, तिविहं तिविहेण जाजीवं ।। ६१ ।। संभवउउसवसतणु, आ(अ)सामत्थवित्तिच्छेयाइं । मोत्तमिह सव्वनियमा. जावजीवपि मे हंत ।। ६२ ।। दुचिंतिय दुब्भासिय, दुच्चेट्ठिय कलय-हास-वयणेसु । विहिएसु पमाएणं, मह मिच्छादुक्कडे सुद्धी ।। ६३ ।। मोत्तु (तुं) रायभिओगं, गणाभिओगं बलाभिओगं च । देवाभिओग-गुरुनिग्गहं च तह वित्तिकंतारं ।। ६४ ।। अणण (ण्ण)त्थणाभोगा, सहसागाराउ मयहरागारा । सव्वसमाहीपच्चय आगाराओ इमे नियमा ।। ६५ ।। एएसिं नि(८/२)यमाणं, जइ कहवि पमायओ भवे भंगो । तो सज्झायसहस्सं, अंबिलमेगं च पच्छित्तं ।। ६६ ।।
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एक्कारस सएसुं, पण्णट्ठीसम्म(म)हिएसु भोमंमि । कत्तियसत्तमीए, सुद्धाए तिहीय सुहकारी ।। ६७ ।। संविगुज्जयगीयत्थ-सुगुरु-सिरिधम्मघोस[सू]रीणं । पयपउमसमीवम्मी, गहिओ धम्मो जिणाभिहिओ ।। ६८ ।। (९/१) एसो सावगधम्मो, राणीसड्डीए विणयजुत्ताए । सयलकल्लाणदाई, पडिवन्नो मोक्खसोक्खत्थं ।। ६९ ।। सम्मदसणमूलो, वयखंधो गुणविसालसाहालो । गिहिधम्मकप्परुक्खो, सिवसुहफलओ लहुं होउ ।। ७० ।।
॥ मङ्गलं महाश्रीः ॥
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ट्रॅक नोंध
१. त्रण मूल्यवान पद्यो वाचकमुख्य श्रीउमास्वाति महाराजनी ख्याति पूर्वधर तरीकेनी तथा संग्रहकार तरीकेनी छे. तेमणे रचेलं 'तत्त्वार्थाधिगमसूत्र' जैनोना श्वेताम्बर अने दिगम्बर - दरेक संप्रदायमां समानरूपे मान्यताप्राप्त छे. श्रीहेमचन्द्राचार्ये पोताना व्याकरणमां 'उपोमास्वातिं संग्रहीतारः' (सि. २-२-३९) एम कहीने जैन सैद्धान्तिक विषयोना अनन्य संग्रहकार तरीके तेमनी प्रशस्ति करी छे. आ प्रशस्ति परंपरागत प्रघोष / मान्यता उपर ज मात्र आधारित हशे एम मानवा करतां, श्रीहेमचन्द्राचार्य समक्ष श्रीउमास्वाति - वाचकना, अत्यारे अनुपलब्ध एवा पण कोई ग्रंथो मोजूद हशे, तेम कल्पना करवामां विशेष औचित्य जणाय छे. जो के अत्यारे तो आपणी पासे 'तत्त्वार्थसूत्र' अने तेनी बे सम्बन्धकारिकाओ, ‘प्रशमरति प्रकरण', 'पूजाविधि प्रकरण' (संभवतः), आटली ज कृतिओ उपलब्ध छे. परंतु हमणां ज एक पुराणी - संभवतः १४मा सैकानी त्रुटक हस्तप्रति जोवा मली. आ प्रति कोई स्वाध्यायी मुनिनी टांचणपोथी जेवी जणाय छे. तेमां विविध ग्रंथोना पाठो नोंधेला छे. ते नोंधो जोतां जोतां नीचे जणावेलां बे पद्यो ते उमास्वातिकर्तृक होवाना स्पष्ट उल्लेख साथे जोवा मल्या. जे तेमनी उपलब्ध कृतिओमां क्यांय छे नहि. अने वळी संस्कृतमां छे. तेथी ज 'हेमचन्द्राचार्य समक्ष उमास्वातिना कोई ग्रंथो मोजूद हशे' तेवी कल्पना वजूदवाळी जणाय छे. हस्तप्रतिमाथी जडी आवेलां बे पद्यो आ प्रमाणे छः (१) "उक्तं उमास्वातिना
रूप्यकच्चोलकस्थेन, विधिना मधुसर्पिषा । नेत्रोन्मीलनं(नक) कुर्यात् , सूरिः स्वर्णसि(श)लाकया ।।" "गव्यहव्यदधिदुग्धपूरितैः स्नापयन्ति कलशैरनुत्तमैः । ये जिनोक्तविधिना जिनोत्तमान् , स्वर्विमानविभवो भवन्ति ते ।।
उमास्वातिवाचकस्य ।।''
आ बे पद्योमा पहेलु पद्य अंजनशलाका-प्राणप्रतिष्टानी क्रियाने लगतुं छे, तेथी उमास्वातिवाचके प्रतिष्ठाकल्पनी पण रचना करी हशे - तेवू अनुमान सहेजे करी शकाय छे. बीजु पद्य जिनपूजाने लगतुं छे. आ प्रतिष्ठाप्रसंगादि नैमित्तिक अथवा विशिष्ट जिनभक्तिना वर्णनप्रसंगमां निरूपाये- पद्य होई शके. जो तेम होय तो ते पद्य पण प्रतिष्ठाकल्पमा ज होवू जोइए. अथवा तो जिनपूजाने लगती कोई अन्य कृति पण तेमणे रची होय. तेओश्रीनी कोई कृति मळी आवे तो ज तथ्यातथ्यनो कदाच ख्याल आवे. पण ते अशक्यप्राय छे तेवा संयोगोमां, तेमना आ बे श्लोको मळी आव्या ते पण घणा हर्षनी वात छे.
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(२)
उपरोक्त हस्तप्रतमां आर्य समुद्राचार्यनी एक गाथा छे. ए गाथा पण अंजनशलाकाविधि अंगेज छे, अने ते प्राकृतभाषामा छे :
"आर्यसमुद्राचार्योऽप्याह
सदसेण धवलवत्थेण वेढियं वासधूवपुप्फेहिं ।
अभिमंतियं तिवारा, सूरिणा सूरिमंतेण ||"
आ. श्रीपादलिप्तसूरि (सत्तासमय : संभवतः विक्रमनो प्रथम शतक) ए रचेल प्रतिष्ठाकल्प “निर्वाणकलिका” (प्र.इ. १९२६)मां आ गाथा आ रीते उध्धृत थयेली जोवा मळे छे : " तथा चागमः
सदसनवधवलवत्थेण, छाइउं वास - पुप्फ - धूपेणं । अहिवासिज्ज तिन्नि वाराओ, सूरिणो सूरिमंतेण || "
आ पाठनी तुलनामां हस्तप्रतिमांथी मळतो- उपरवाळो पाठ वधु शुद्ध छे, ते तो स्पष्ट छे. परंतु पादलिप्ताचार्ये पण जो आ गाथाने आगमगत गाथा तरीके वर्णवी होय तो तेमनी समक्ष समुद्राचार्ये रचेली कोइ आगम-कृति हशे अने तेमां प्रतिष्ठाविधिनुं पण निरूपण हो, तेवी अटकल, हस्तप्रतिना उल्लेखना संदर्भमां, करी शकाय. 'नंदीसूत्र' ना आरंभे वर्णवाली पट्टावलीमां आर्यसमुद्राचार्यनुं वर्णन आ रीते मळे छे :
"तिसमुद्दखायकित्तिं दीवसमुद्देसु गहियपेयालं ।
वंदे असमुदं अक्खुभियसमुद्दगंभीरं ||" ('नंदिसुत्त' ६ गा. २७) संभवतः आ. अने उपरोक्त (आगमिक) पद्यवाळा समुद्राचार्य एक ज होय तो ते बनवाजोग छे. समुद्राचार्यनी एक पण कृति आजे आपणी पासे छे नहि, ते स्थितिमां आ गाथानुं मूल्य घणुं बधुं छे.
२. स्थूर विशे
सिद्धहेम- अष्टमाध्यायगत १- २५५मां “ स्थूले लो रः " सूत्रमां स्थूलतादर्शक 'स्थूल' अने 'स्थूर' एम बे शब्दो जोवा मळे छे. प्राकृतमां 'थूल,' 'थुल्ल' अने 'थोर' जेवा शब्दो पा. स.म.मां नोंधाया छे. ते ज रीते 'स्थूल' अने 'स्थूर' एवा शब्दो संस्कृत कोशोमां पण नोंधाया छे. जो के “शब्द रत्नमहोदधि'' मां 'स्थूर' शब्द 'बळद, सांढ, मनुष्य' अर्थवाचक होवानुं जोवा मळे छे.
परन्तु 'स्थूल' अर्थवाला 'स्थूर' शब्दनो साहित्यिक वपराश लगभग नहिवत् छे, अने प्रायः अत्यार सुधी प्रगट थएला साहित्य-ग्रंथोमां तेनो प्रयोग जोवा मळतो जणायो नथी. पण, जैन ग्रन्थोमां एकथी वधु वार 'स्थूर'नो प्रयोग थतो जोवा मळे छे, ते दर्शाववानो आ नोंधनो आशय छे. एवां स्थानो आ प्रमाणे छे :
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१. “बादर :- सूक्ष्मकिट्टीकृतसम्परायापेक्षया स्थूरः सम्परायो यस्य स बादरसम्परायः ।।" (बादर एटले सूक्ष्म - चूर्णीकृत - कषायोनी सरखामणीमां स्थूर - स्थूल छे कषाय जेने ते बादरसम्पराय (कहेवाय).
("द्वितीय कर्मस्तवाख्य कर्मग्रन्थ टीका' (र.सं. १४मो शतक)मां पृ.७२ कर्ताः देवेन्द्रसूरि, सं. मुनि चतुरविजय, प्र. आत्मानन्द सभा. भावनगर, ई. १९३४.)
२. “निष्क्रमणसमये संवत्सरं यावत् स्थूरचामीकरधारासारैः प्रावृषेण्य-धाराधर इव" || (दीक्षा समये (तीर्थंकर) एक वर्ष-पर्यन्त सुवर्णनी स्थूर--जाडी धाराओ (वरसाववा द्वारा) वर्षाकालना मेघ-समा).
(एजन. पृ.९५) ३. “केवलं स्थिर-स्थूर-कालत्रयवर्ति वस्त्वभ्युपगमपरव्यवहारनयमतमाश्रित्याऽऽवलिकादिकाल: प्ररूप्यते ।।" (मात्र स्थिर, स्थूर - जाडा, त्रिकाले वर्तता पदार्थोनो स्वीकार करनारा व्यवहारनयना मतथी आवलिका वगेरे कालभेदोनी प्ररूपणा कराय छे).
('जीवसमास प्रकरण'नी मलधारि हेमचन्द्रसूरिकृत वृत्ति (वि.सं. ११६५)मां; प्र. जैन ग्रन्थ प्रकाशन समिति, खंभात, सं. शीलचन्द्रविजय, ई. १९९४, पृ.८३).
-शीलचन्द्रविजय
३. असड्डल हेमचंद्राचार्य अपभ्रंश व्याकरणमां नोंध्युं छे के अपभ्रंशमां असड्डल शब्द 'असाधारण' एवा अर्थमां वपराय छे (सिहे. ८.४२२.c). उदाहरण लेखे एवा अर्थनो दोहो आप्यो छे के 'क्यां चंद्र अने क्या सागर ? क्या मोर अने क्यां मेघ ? सज्जनो वच्चे, तेओ एकबीजाथी घणा दूर रहेला होय तो पण असाधारण (असट्टलु) स्नेह होय छे.' असडल शब्दनो बीजो कोई प्रयोग कोशोमां नोंधायो नथी.
नवमी शताब्दीमा अपभ्रंश महाकवि स्वयंभूना छंदोग्रंथ 'स्वयंभूछंद'मां अपभ्रंश महाकाव्योना स्वरूपनी वात करतां कर्तुं छे के केटलीक वार संधिना आरंभे छड्डुणिया छंदमां पद्य आवे छे. आ छड्डणिया आंतरसमा चतुष्पदीना प्रकारनी होय छे, जेनुं माप १२+९, १२+९ मात्रानुं छे. तेना उदाहरण तरीके आपेला पद्यनो संपादक ह. दा. वेलणकरे आपेलो पाठ अने संस्कृत छाया नीचे प्रमाणे छ :
लग्ग ह (अ)णेअ असड्डलु, तुह चलणेहिं पणउ । जिम जाणहिं तिम पालहिं, किंकर अप्पणउ ।।
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t
छाया :
लग्नाः अनेके अश्रद्धालव:, तव चरणयोः प्रणताः । यथा जानासि तथा पालय, किंकरम् आत्मनैव ||
मारी दृष्टिए आ उदाहरणपद्यनो पाठ थोडोक भ्रष्ट छे, अने अर्थ पण जुटो छे. शुद्ध पाठ अने अर्थ नीचे प्रमाणे होवानुं जणाय छे.
लग्गअ-ह-उ ह- असड्डलु, तुह चलणेहिं पणउ ।
जिवं जाणहि तिवं पालहि, किंकरु अप्पणउ ॥
'आ तारा किंकरनुं, असाधारण स्नेह (भक्तिभाव) लाग्यो होईने तारा चरणे वंदन करी रह्यो छे तेनुं, तुं जेम जाणे तेम पालन करजे. '
अहीं असल शब्दनो अर्थ हेमचंद्राचार्ये आप्यो छे तेम 'असाधारण' छे, 'अश्रद्धाळु'
नहीं.
असडलनुं आ अर्थने आधारे आपणे अ+सट्ट+ल ए रीते विश्लेषण करी शकीए. आमां अने निषेधवाचक तरीके अने ल ने स्वार्थिक प्रत्यय तरीके लई शकीओ. पण सड्ड के सडल ‘साधारण एवा अर्थमा थयेलो कोई प्रयोग नोंधायो नथी, ए कारणे असडलनी व्युत्पत्ति अस्पष्ट छे..
: वर्धमानसूरिकृत 'धर्मरत्नकरंडक' (ई.स. १११६) मां (पृ. ३६९ उपरना अपभ्रंश पद्य९८ पंक्ति २) असङ्कलनो प्रयोग मळे छे :
धन्न पउ वि न देइ असड्डलु संभवइ ।
‘भाग्यशाळी पुरुष एक पगलुं पण न भरे तोये तेने असाधारण (लाभ) थवानुं बने छे. '
४. कडितल्ला
‘देशीनाममाला’ (२१,१९) मां कडतला शब्द 'एकबाजु धारवाणुं, वांकुं, लोढानुं आयुध' एवा अर्थमां आपेल छे.
हरिषेणकृत संस्कृत 'बृहत्कथाकोश' (इ.स. ९३१-९३२) मां युद्ध माटे कूच करती सेनाना वर्णनमां पहेली टुकडी बाणावळीनी, बीजी टुकडी ढाल अने हाथमां कडिल धारण करनार (कडितल्लकराः) नी, त्रीजी टुकडी कुन्तधारीओनी ए प्रमाणे पायदळनुं वर्णन छे. (५६.२९७-२९९). संपादक आ.ने. उपाध्येए तेनो संबंध सं. कटित्र, प्रा. कडिल साधे होवानुं मानीने तेनो अर्थ 'कमरपट्टा साथ संबंध करावतुं कोई आयुध के कवच' एवो कर्यो छे. देश्य कतला तेमना ध्यानमां नथी आव्यो.
भोजकृत संस्कृत 'शृंगारमंजरीकथा' (इ.स. १०३० लगभग) नी आठमी कथामां रत्नदत्त ऊभो ऊभो चोसट 'पुरुषोनी कडितला जाणे छे एवो निर्देश छे (पुरुषाणां कडितल्लां जानामि, पृ.६३). संपादिका कल्पलता मुनशीए 'ऊभां ऊभां चोसठ पुरुषोनो कडितल्लाथी वध करी
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शकुं हुं' एम अर्थ बेसार्यो छे, अने नोंधमां 'देशीनाममाला' तथा 'बृहत्कथाकोश 'नो हवालो आप्यो छे. (पृ. ९९ ).
J
वीरकृत अपभ्रंश 'जंबूसामिचरिउ 'मां (इ.स. १०२०) सेनानी कूचना वर्णनमां कह्युं छे के क्यांक पदातिओनी टुकडीओ हाथमां कुंत, असि अने कडिसल्ल धरीने धसमसती खेलती जई रही छे (कुंतासि-कडिसल्ल कर- तक्कडं, धंत-खेल्लंत - पाइक-धड- संकर्ड || १, १५, ५). अहीं पाठांतरो कड़ितल्ल अने थड़ छे ते समुचित होईने पसंद करवाने बदले संपादक विमलप्रकाश जैने कङिसल्ल अने घड ए उतरता पाठ पसंद कर्या छे, अने कडिसल्लनो अर्थ 'कटिशूल’ अटकळथी कर्यो छे.
५. चक्कोडा
देना. ३-२मां चक्कोडा शब्द 'अग्निभेद, अग्निनो एक प्रकार' एवा अर्थ साथे आयो छे. उदाहरणगाथामां विरहचक्कोडा एवो प्रयोग 'विरहाग्नि'ना अर्थमा कर्यो छे. प्राकृत कोशोमां आ शब्दनो साहित्यमांथी बीजो कोई प्रयोग नोंध्यो नथी. भोजकृत 'शृंगारप्रकाश' मां उद्धृत एक अपभ्रंश दृष्टांतमां तेनो प्रयोग मळे छे. भ्रष्ट रूपमां आपेल ते दोहो शुद्ध रूपे नीचे प्रमाणे छे (कुलकर्णीकृत Prakrit Verses in Sanskrit Works on Poetics, ग्रंथ १, परशिष्ट १, पृ. १३, क्रमांक २५).
जं हि वाविहि कूवि सरि, पल्ललि तल्लि तलाइ |
चंदह कय चक्कोडिआ, केण हआसें माइ ||
'हे सखी, क्या दुरात्माए धरामां, वावमां, कूवामां, सरोवरमां, खाबोचियामां, तळावडीमां, तळावमां चंद्ररूपी तापणां सळगाव्यां छे ?'
६. सेल्लि
१. 'उत्तराध्ययन सूत्र' ना २७मा अध्ययनमां अविनीत, कुशिष्यने माटे गळिया के तोफानी बळदनुं उपमान योज्युं छे, अने गळिया बळदना वर्तननो वास्तविक चितार आप्यो छे. सातमा लोकमां कह्युं छे के दुष्ट बळद (एने माटे अहीं छित्राल शब्द वापर्यो छे, जे अन्यथा 'लंपट पुरुष', 'जार'ना अर्थमां वपरायेलो छे) सिल्लिने तोडी नाखे छे, ए दुर्दान्त होईने धूंसरी पण भांगी नाखे छे, अने सीसकारतां गाडुं मूकीने भागी जाय छे. अहीं सिल्लीनो अर्थ टीकाकारे 'रज्जु, दोरडुं' कर्यो छे. एटले के आ संदर्भमा 'जोतरुं'. सिल्लिने बदले सेल्लि एवं पण पाठांतर छे.
२. 'सार्थ गुजराती जोडणीकोश' मां अने 'बृहद् गुजराती कोश मां शेलो, सेलो, शेलायुं (आ बृगुको. मां नथी आप्यो ) ए शब्दो 'दोहती वेळा गायभेंस पाछलो पग न उलाळे ते माटे पाछला पगे ढींचण पासे बंधातुं दोरडुं' एवा अर्थमां नोंध्या छे.
ते उपरांत शेली, सेली ए शब्दो (१) 'कबीरपंथी साधु तथा फकीरो ( जोको.) के
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अलेकिया (गिरनारी) बावा डोकमां पहेरे छे ते काळो दोरो के तेनी आंटी', तथा (२) 'चकमकथी देवता पाडवानी दोरी' एवा अर्थमां आपेला छे.
हिंदी सेलीनो अर्थ पण उपर (१) प्रमाणे छे. कोशमां एवी दोरी गळामां पहेराती के माथा पर लपेटाती होवानुं जणाव्युं छे.
उपर्युक्त गुजराती-हिंदी शब्दोना मूळमां प्राकृत सेल्लि छे. सेल्लिना मूळ तरीके कोई संस्कृत शब्द होय एवं लागतुं नथी. शेलायु नो संबंध पण सेल्लि साथे होवानुं देखीतुं छे, पण तेमां कयो प्रत्यय छे ते अस्पष्ट छे.
७. नंद गुजरातीमां नंद अटले 'वाणियो', नंदकळा एटले ‘वाणियाविद्या'. एनी चर्चा करतां में 'फा.गु.स. त्रैमासिक' मां (जान्यु-मार्च, १९८९, पृ.५४) भीमकृत सदयवत्सवीरप्रबंध' (इ.स. १४०० आसपास)मांथी एक प्रयोग नोंध्यो हतो. नीचे बीजो एक प्रयोग, पंदरमी शताब्दीनो, अने संस्कृत भाषानो, नोधुं छु. लोकभाषाना प्रयोगने आधारे ए थयो होवानो संभव खरो. अमात्य पेथडना चरित्रने लगती रत्नमंडनगणिनी रचना 'सुकृतसागर' मां नीचेनुं पद्य उद्धृत थयुं छे (प्रद्युम्नविजयगणि कृत) गुजराती अनुवाद, १९८०, पृ. १०, मूळ पद्य पृ. २०७ उपर):
देशाधीशो ग्राममेकं ददाति, ग्रामाधीशः क्षेत्रमेकं ददाति ।
क्षेत्राधीशः प्रस्थमेकं प्रदत्ते, नन्दस्तुष्टो हस्त-ताली ददाति ॥ 'देशाधिपति प्रसन्न थाय तो गाम आपे; ग्रामाधिपति प्रसन्न थाय तो एक खेतर आपे; क्षेत्राधिपति प्रसन्न थाय तो पाली अनाज आप; नंद (वाणियो) प्रसन्न थाय तो ताळी आपे'. आ ज पद्य 'प्रबन्धचिन्तामणि'नी एक हस्तप्रतमां मळे छे. तेमां उत्तरार्ध नीचे प्रमाणे छे : क्षेत्राधीशः शिम्बिकाः संप्रदत्ते, सार्वस्तुष्टः संपदं स्वां ददाति ॥
(पृ. ३७, पद्य ५६) __ 'क्षेत्राधिपति प्रसन्न थाय तो शींगो आपे. सर्वज्ञ प्रसन्न थाय तो पोतानी संपत्ति (ओटले के मोक्ष) आपे.' सार्व शब्द तीर्थंकरवाचक शब्द तरीके ‘अभिधानचिन्तामणि' मां आप्यो छ (पद्य २५). अन्यत्र तेनो प्रयोग मारा ध्यानमां नथी आव्यो. ए दृष्टि ए प्रचिं. वाळो पाठ नोंधपात्र छे.
मूळ पद्य रत्नमंडनगणि वाळु के प्रचिं. वाळु तेनो निर्णय कई रीते करवो ? 'सुकृतसागर' वाळु मूळ सामान्य सुभाषित होय अने तीर्थंकरनो महिमा दर्शाववा तेमा परिवर्तन करायु होय एवी संभावना विचारणीय छे. . पूर्वप्रचलित कोईक सुभाषित के पद्य प्रसंग फेरे के संदर्भफेरे थोडोक फेरफार करीने
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कोईक उत्तरकालीन प्रसंग के संदर्भमां वापरवानी परंपरा हती. आनुं बीजं एक उदाहरण अहीं टांकुं छु.
_ 'प्रबंधचिंतामणि'ना भोज-भीम-प्रबंधमां आपेला शीता-पंडिता - प्रबंधमां भोज अने शीताना पद्य पूर्ति के समस्यापूर्तिना विनोद ना जे प्रसंगो आप्या छे, तेमां भोजे जेनो पूर्वार्ध कह्यो अने शीताए चतुराई भर्यो उत्तरार्ध कह्यो ते पद्य नीचे प्रमाणे छ :
सुरताय नमः तस्मै, जगदानंददायिने ।
आनुषंगि फलं यत्र, भोजराज भवादृशाः ॥ (पृ. ४३, पद्य १०८) "प्रबंधकोश'ना वस्तुपाल प्रबंधमां मल्लवादीसूरि अने वस्तुपालनो जे प्रसंग आप्यो छे तेमा सूरिने नीचे आपेला श्लोकनो मात्र पूर्वार्ध बोलता सांभळी, तेमना प्रत्ये वस्तुपालने थयेला विरक्तभावनुं निवारण सूरिए ए पद्यना उत्तरार्धथी कर्यानो वृत्तांत आप्यो छे..
अस्मिन्नसारे संसारे, सारं सारंगलोचना।
यत् कुक्षि-प्रभवा एते वस्तुपाल भवादृशाः । आ श्लोकमां स्पष्टपणे उपर्युक्त भोज - सीतानी उक्ति-प्रयुक्तिनो पडघो छे.
८ युगंधरी प्रतिष्ठानना राजवी सातवाहन-हालनु व्यक्तित्व एटलुं प्रतिभाशाळी अने बहुमुखी हतुं के विक्रमादित्यनी जेम, भारतनी पंदर सो वरसथी पण वधु लांबी परंपरामां ते पुराणकथानुं पात्र बनी गयो. अनेक काव्यो, कथाआ, दंतकथाओ तेने नामे सतत रचाती रही छे. जैनोना प्रबंधसाहित्यमां पण विविधरूपे सातवाहन - प्रबंध मळे छे. राजशेखरसूरिना 'प्रबंधकोश'ना (ई.स. १३४९) 'सातवाहनप्रबंध'मां अनेक रसिक दंतकथाओ आपी छे. तेमां एक कथा आ प्रमाणे छे : वाणियाने लाकडानो भारो हमेशां वेची जतो कठियारो एक दिवस न देखातां वाणियाए तेनी बहेनने ते न आव्याचं कारण पूछ्युं. बहेने का, 'मारो भाई तो अत्यारे देवोनी संगतमां छे.' वाणियाए पूछ्यु, ‘एटले ?' बहेने का, 'कांडे मीढळ बंधाय ते पछीना विवाहना चार दिवस वरने पोते देव जेवो वैभव माणतो होय एवू लागे छे, केम के अनेक उत्सवोमां ते महालतो होय छे.' आवू सांभळीने राजाने थयुं, 'मारे आवो देवोनो वैभव शं काम न भोगववो ? हुं चार चार दिवसे विवाहोत्सव करीश'. ते तो प्रजाजनोमा जे जे रूपाळी तरुण कन्याने जोतो के तेना विशे सांभळतो तेने तेने परणीने उत्सवो माणवा लाग्यो. आवं केटलोक समय चाल्युं, एटले लोकोने थयुं, 'आपणो वंश केम रहेशे ? बधी कन्याओने राजा परणी जाय छे'. ए प्रमाणे लोको दुःखी थई रह्या हता, त्यारे विवाहवाटिका नामना गाममां रहेता एक ब्राह्मणे पीठजादेवीनी आराधना करीने विनंती करी, 'हे भगवती, अमारा पुत्रोनो विवाह कई रीते करवो ?' देवीए का, 'हे ब्राह्मण, हूं कन्यारूपे तारा घरे अवतरीश. राजा ज्यारे मारी मागणी करे त्यारे भने तेने देवी. बाकीनुं हुं संभाळी लईश.' ए प्रमाणे थतां,
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राजाए ज्यारे जाण्युं के ए ब्राह्मणने त्यां रूपाळी कन्या छे, त्यारे तेणे तेनी मागणी करी. ब्राह्मणे कह्युं, 'महाराज, आपनुं मागुं हुं स्वीकारुं हुं. पण आपे जाते मारे त्यां पधारीने मारी पुत्रीनुं पाणिग्रहण करवुं'. राजाए मान्युं. ज्योतिषीए आपेला मुहूर्तने दिवसे विवाह माटे ते रवाना थयो, ने ए गाने ससराना घरे पहोंच्यो. कुळाचार प्रमाणे वरकन्यानी बच्चे अंतरपट देवायो. बनेनो खोबो 'युगंधरीलाजा' थी भर्यो. लग्ननुं मुहूर्त थतां ज्यारे अंतरपट खसेडाथो अने हस्तमेळा थाय ते पहेलां, जेवां वरकन्या एकबीजाने माथे लाजाना दाणा नाखवा लाग्यां, त्यां तो राजाए कन्याने रौद्र राक्षसीना रूपमा भाळी ! अने पेला लाजा कठोर कांकरा जेवा बनी राजाने माथे पटोपट टकरावा लाग्या कांईक भारे विकृति खडी थयानुं मानी भयभीत बनेलो राजा भाग्यो. पेली पथरानो वरसाद वरसावती पाछळ पडी. राजा नासतो नासतो पोतानी जन्मभूमि नागहूद पहोंच्यो, अने त्यां ज मृत्यु पाम्यो. अत्यारे पण एस्थाने गामना दरवाजानी बहार पीठजादेवीनुं देवळ छे.
आमां लग्नविधिना भाग तरीके वरकन्यानो खोबो 'युगंधरीलाजा' थी भरवानो अने अंतरपट खसेड्या पछी परस्परना मस्तक पर लाजा नाखवानो निर्देश छे. आवो विधि गुजरातमा कोई ज्ञातिना विवाहविधिमा हाल प्रचलित छे के केम तेनी मने जाण नथी. हा, 'लाजाहोम' करवामां आवे छे खरो. 'लाजा' एटले तो शेकेला जव वगेरे धान्यना दाणा. 'युगंधरीलाज' उपरनी नोंधमा (सांडेसरा अने ठाकरना प्रबंधगत विशिष्ट शब्दोना कोशमां, पृ. ८६) युगंधरी कयुं अनाज ए स्पष्ट न होवानुं जणावी हिंदी जोन्हरी शब्द सरखामणी माटे आपेल छे. हिन्दीनी बोलीओमां जुंधरी, जुआरि, ज्वार एवां रूप पण मळे छे. आ धान्य ते आपणी जाणीती जुवार (के सौराष्ट्रनी वगेरे बोली ओमां जार जेम के जारबाजरी) ज छे. हेमचंद्राचार्ये 'देशीनाममाला' मां (३,५०) जोण्णलिया अने जोवारि आपेला ज छे. पासम. वगेरे कोशीए पण तेने आधारे ए शब्दो नोंध्या छे. युगंधरी ए हिंदी जुंधरी उपरथी घडी काढेलो संस्कृत शब्द छे. जैन लेखकोए आ रीते सेंकडो प्रादेशिक के प्राकृत शब्दोनुं मानमान्युं संस्कृत रूप घड़ी काढेल छे (लापशी - लपनश्री, पडसूंदी - पदशुद्धि:, डोकरो - डोलत्करः, दोहरो ( दोहडो) - दुग्धघटक वगेरे). प्राकृत जोन्नलिया उपरथी जोंधलिया अने पछी जुंधरी ए प्रमाणे विकास थयो छे.
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हेमचंद्राचार्ये 'अभिधातचिन्तामणि' कोशमां जुवारना अर्थमां यवनाल, योनल, जोन्नाला, जूर्णा, देवधान्य अने बीजपुष्पिका एवा छ संस्कृत शब्द आप्या छे. मोनिअर-विलिअम्झना संस्कृत कोशमां पण संस्कृत कोशोने आधारे ते आपेल छे. त्यां यवनाल सुश्रुतमां मळतो होवानुं नोंध्युं छे. यवनाल उपरथी योनल, जोन्नला, जूर्णा वगेरे बन्या जणाय छे.
९. घडली, गूहली
जैन परंपरामां पूजा, मुनिमहाराजनो स्वागतसत्कार वगेरे धार्मिक उत्सवना प्रसंगे,
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प्रतिमानी आगळना भागमां के अन्यत्र योग्य स्थाने, बाजोठ उपर घउं के साथे बीजा अनाजना दाणा वडे, स्वस्तिक वगेरेनी आकृति करवामां आवे छे अने उपर पुष्पो मूकवामां आवे छे. विधिना एक भागरूपे आ होय छे. आ प्रकारनी आकृति बनाववाने 'घउंली पूरवी' कहे छे, अने ते प्रसंगे घउलीनां गीत पण गवाय छे. वीरविजयनी रचेली घणी 'घउंलीओ' (एटले के घउंलीनां गीतो) नोंधाई छ, अने घउंलीसंग्रह पण प्रकाशित थयेल छे. 'पुरातनप्रबंधसंग्रह'मां (चौद मी शताब्दी आसपास) गृहलीनो प्रयोग थयो छ :
'यत्र च गृहली पुष्प-प्रकरश्चोपरि त्वया तत्र खनितव्यम्' (पृ. ९८).
'जे स्थळे घउंली अने तेना पर पुष्पनो ढग होय त्यां तारे खोदवू'. 'प्रबंधकोश'मां (ई.स. १३४९) पण ते वपरायो छ :
'गूहली कृष्णा न मंगलाय.' (पृ. १२४). 'काळी घउंली मंगळकारक नथी होती.'
भोगीलाल सांडेसरा अने ठाकरे जैन प्रबंधोमांथी तारवेला महत्त्वना शब्दप्रयोगोनी 'लेक्सिकोग्रेफिकल स्टडिझ इन जैन संस्कृत' एवे नामे जे सविवरण शब्दसूचि प्रकाशित करी छे (१९६२) तेमां उपर्युक्त बंने संदर्भो आप्या छे, सामान्य रीते देरासरमा मुखमंडपमां भोय पर राता के पीळा पत्थरथी कराती, घउंली ने अनुरूप स्वस्तिकनी भातने बदले काळा पत्थरथी कराती भात अमंगळकारक मनाती होवानो प्रभाशंकर सोमपुरानो खुलासो टांक्यो छे अने चालू प्रथानो पण निर्देश कर्यो छे (पृ. ५८-५९, १२९). ___आम्रदेवसूरिकृत ‘आख्यानक-मणि-कोश-वृत्ति'मां (इ.स. ११३३)मां गोहली एबुं रूप मळे छ :
'पभाय-समयम्मि गोहली-पुव्वं, कुसुमेहि सीह-वारं पइदियहं पूयए सो उ.', (पृ. ११६, गा. ६९)
'ते दररोज सवारने समये (राजप्रासादना) सिंहद्वारने त्यां आगळ घउंली रचीने पुष्पो सहित पूजवा लाग्यो'.
___ अंते आपेली देश्य शब्दोनी सूचिमां गोहलीनो अर्थ गोधूमाली ए प्रमाणे आप्यो छे. सं.गोधूम, प्रा.गोहूम, ते उपरथी गोहूं, घोउं, घउं ए प्रमाणे विकास थयेल छे. उत्तरांशने आली साथे कदाच सांकळी शकाय, पण तो आ ह्स्व बन्यो छे, तेनो खुलासो आपवानो रहे.
गुज. घउंलो 'घउंना रंगनो वाछडो', घडेली 'तेवी वाछडी', घउंलो 'घउंनो खीचडो' वगेरे पण घउं परथी साधित थयेला छे..
___ आम घउंली पूरवानी प्रथा बारमी शताब्दी जेटली तो जूनी छे ज.जैन परंपरा सिवाय अन्य परंपरामां ए प्रथा छे के केम ते तपासवू रहे छे.गुजराती कोशोमां आ अर्थमां शब्द नोंधायो नथी.
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१०. तल्लोविल्लि इ.स. ११८५मां सोमप्रभाचार्ये रचेला 'कुमारपालप्रतिबोध'मां नीचेनो दोहो आवे छे (पृ. ८६):
पिय हउँ थक्किय सयलु दिणु, तुह विरहग्गि-किलंत ।
थोडइ जलि जिम मच्छलिय, तल्लोविल्लि करंत ।। 'हे प्रिय, तारा विरहाग्निथी श्रान्त-भग्न बनेली हुं स्वल्प जळमां माछलीनी जेम आखो दिवस तरफडती रहुं छु.'
तल्लोविल्लि करंत एटले तरफडाट करती'. आ साथे गुजराती शब्द तालावेली तरत ज याद आवशे. आल्स्डोर्फे करेला 'कुमारपालप्रतिबोध'ना अपभ्रंश भाषाना खंडो के छूटक पद्योना संपादनमां आनी नोंध लीधी छे. पण अर्थ थोडोक बदलायो छे. तालावेली एटले 'तीव्र अधीराई, मानसिक चटपटी'. शब्द कोशमां धालावेली एq रूप पण नोंधायुं छे.
तल्लोविल्लिनो पासम.मां बीजो कोई प्रयोग नथी नोंधायो. 'देशी शब्दकोश'मां तल्लवेल्ल, तल्लुब्बेल, तल्लूविल्लि, तलोविल्लि अने तल्लोवेल्लि एवां शब्द रूपो 'तरफडाट, व्याकुळताथी वारंवार आमतेम पडखां बदलवां' एवा अर्थमा आप्यां छे. पण संदर्भो टांक्या नथी. इ.स. १०२०मां रचायेल वीरकविना अपभ्रंश काव्य 'जंबूसामिचरिउ'मा वर्षावर्णनमा तल्लूवेलि वपरायो छे.
'गिरिकुहरेसु थक्कु वणयर-गणु, तल्लूवेल्लि करइ पीडिय-तणु' 'पहाडनी कंदराओ - गुफाओमां शरीरे पीडा पामेला जंगली पशुओ तरफडे छे.'
इ.स. १०५२मां रचायेला जिनेश्वरसूरिना प्राकृत 'कथाकोषप्रकरण'नी एक कथामा नायक सागरदत्त सुभद्राने जोईने तेना विरहमां
'पुलिण-पडिओ इव मच्छओ तिल्लोवेल्लिं कुणंतो'
एटले के ‘कांठे फेंकाई पडेला माछलानी जेम तरफडतो' वर्णवायो छे. (पृ. ९५, पंक्ति ३०). अहीं तल्लविलियं एवू पाठांतर छे. आम्रदे वसूरिकृत 'आख्यानक-मणि-कोश - वृत्ति' (इ.स. ११३३)मां पण आ शब्दप्रयोग मळे छ : 'सुत्तो तत्थ निरिक्खइ सेट्ठी अंतेउरीणमेगयरि, उटुंतिं निसियंतिं तल्लुबेल्लिं करेमाणिं (पृ. १९०) 'सूतेला शेठे त्यां एक राणीने घडी घडी ऊठती, बेठी थती ने एम अधीराईथी चटपटती दीठी.'
तल्लवेल्लि क्रियावाचक स्त्रीलिंग नाम छे..
तल्लुब्बेल्ल मूळ धातु होय तो उव्वेल्ल एटले 'ऊछळवु' एटलो अंश जुदो पाडतां बाकी रहेता तल्लनो अर्थ आ संदर्भमा स्पष्ट नथी. तल एटले ‘शय्या', 'नानुं तळाव' (हिंदी ताल) अहीं बंध बेसे के केम ते कही शकातुं नथी..
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११. प्राकृत रंप 'छोलवू' हालकविनी 'गाथासप्तशती'नी ११९मी गाथानो एवो अर्थ छे के आजे केटलाय दिवसथी, रूपयौवनथी छकेली शिकारीनी वह, धनुष्यना छोल शेरीओमां वीखेरीने पोताना सौभाग्यनी प्रसिद्धि करी रही छे. तात्पर्य एवं छे के ए रूपाळी साथेना भोग-विलासथी निर्बळ बनेलो तेनो पति हवे भारे धनुष्य वापरी शकतो न होवाथी ते तेनी काठी छोलीने हलकी कर्या करे छे.
एवा ज भावार्थवाळी १२०मी गाथामां का छे के 'जुओ तो, आ शिकारीना वह घरना आंगणामां वंटोळियाने जोरे धनुष्यनो छोल वरसावी रही छे - जाणे के पोताना सौभाग्यनो ध्वज फरफरावती न होय ?'
आ बंने गाथाओ 'वज्जालग्ग' मां संगृहीत करेली छे (व्याध-व्रज्या, २.४, क्रमांक २०६२०७). वेबरना संपादनमां आ गाथाओमां 'छोल' वाचक शब्दनो रुंप एवो पाठ स्वीकार्यो
'वजालग्ग'मा एक स्थाने धणुरूप अने बीजे स्थाने धणुरओरंप एवो पाठ छे. धणुरओरुपनो टीकाकार रत्नदेवे धनुरजस्त्वक् एवो अर्थ कर्यो छे. एने स्थाने 'गाथाशप्तशती' मां धणुहरोरंप एबुं पाठांतर मळे छे.
_ 'पाइअलच्छीनाममाला' मां ओरंपिअ 'छोलेलु' एवा अर्थमां आपेलो छे. उपरांत ओरत्त 'फाडेलु एवा अर्थमां, तथा 'देशीनाममाला' मां ओपिअ अने ओरंपिअ (१, १७१) 'आक्रान्त, नष्ट' एवा अर्थमां अने ओरत्तअ 'विदारित' एवा अर्थमा आप्यो छे.
आ सामग्री परथी आ प्रकारे निष्कषो काढी शकाय छ :
साचो पाठ रुंप नहीं, पण रंप छे. उद्रपित परथी उदंपिअ अने संस्कृत उद् के अपमांथी निष्पन्न ओ साथे रंप जोडाईने ओरंपिअ निष्पन्न थया छे.
ओरत्तअ ए अवरप्त उपरथी सधायुं छे. आ बंने शब्दोनी व्युत्पत्ति में १९६१ मां एक निबंधमां दर्शावी हती. पछीथी ए Studies in Desya Prakrit (१९८८)मां संगृहीत. पृ.९९-१०० धणुअरोरंपिअने बदले धणुहरोरंपिअ पाठ साचो छ, केम के अपभ्रंशमां धणुहर शब्द 'धनुष्य'ना अर्थमां वारंवार वपरायेलो छे.
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रंप के ओरंप नो मूळ अर्थ 'छोलवु' छे. आक्रान्त, विदारित, नष्ट ए, संदर्भने आधारे अटकळेला अर्थो जणाय छे. अर्थ तरीके आपेल नट्ट ए(=नष्ट)ने बदले साचो पाठ तह (=तष्ट) होय. गुजराती रांपवू, रांपी शब्दो रंप एवा पाठनुं समर्थन करे छे. मूळ तरीकेनो रुप होत तो संपवू वगेरे थात. टर्नर अन्य भारतीय-आर्य भाषाओमांथी पण जे शब्दो टांक्या छे, ते रंप के रंफ धातुनी पूर्वधारणा मागी ले छे. (टर्नरनो कोश, क्रमांक १०६२९, १०६३०).
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केटलाक मध्यकालीन शब्दो
जयंत कोठारी अधिवासियां तरुणप्रभसूरिकृत 'षडावश्यक बालावबोध' (संपा. प्रबोध पंडित)मां अधिवासियां शब्द वपरायो छे ने संपादके एनुं मूळ सं. अधिवासित दर्शावी 'worshipped by means of perfumes' (धूप आपी पूज्या) एवो आप्यो छे. संस्कृत अधिवासितनो 'धूप आपी सुवासित करेलु एवो एक अर्थ छे ज, परंतु षडावश्यक बालावबोध'मां आ शब्द जे संदर्भमां वपरायो छे त्यां ते अर्थ बंधबेसतो नथी. आ कृतिमां राजा अपुत्र मरण पामतां राज्यना प्रधान पुरुषे राजानी शोध माटे पांच दिव्य अधिवासियां" एम कहेवामां आव्युं छे. दिव्य एटले परीक्षा अर्थेना चमत्कारो. राजा तरीके जेनी पछी वरणी थाय छे ते विद्यापति पासे आवतां घोडो हेषारव करे छे वगेरे घटनाओ आ पछी निरूपाई छे. देखीती रीते ज अहीं अधिवासियांना 'सुगंधित कर्या' एवा अर्थने अवकाश नथी. प्राकत कोश अहिवासिअ (अधिवासित) शब्द 'सज्ज करेलु, तैयार करेलु' एवो आपे छे ते ज अहीं अभिप्रेत जणाय छे : पांच दिव्य तैयार कीं, नक्की का.
अनिवड ___ आरामशोभा रासमाळा' (संपा. जयंत कोठारी)मां अनिवड शब्द आ प्रमाणे वपरायेलो मळे छ :
मत द्यउ कोइ पासि अनिवड आइवा रे संपादके सं. अनिवर्तमांथी व्युत्पत्ति सूचवी अनिवडनो अर्थ 'साव ? एकदम ?' एम नोंध्यो छे. देखीती रीते ज, संदर्भमां कंईक बेसी शके तेवा अर्थनो तर्क करवामां आव्यो छे. मूळ तरीके दर्शावेल सं. अनिवर्त आवो अर्थ भाग्ये ज आपी शके.
___ 'जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि' (संपा. अगरचंद नाहटा)मां अनिवड शब्द अनेक वार वपरायो मळे छे. जेमके,
(१) अनिवड थातां वार न लागइ जे सगा. (२) न कहइ फेरि वचन जउ किसा, तई अनिवड जाणी तो दिसा
दीसउ वड वयरागि जिसा, ए वइराग कहउ किण मिसा. (३) पलकमांहि अनिवड हुअउ रे, तिण तुझनइ साबासि रे. (४) सीख करै वाटै मिल्या रे, वीछडवानी वार, ते तो अह्म सुं सीख न का करी रे, अनवड जेम विचार.
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संपादके अनिवड शब्द शब्दकोशमां नोंध्यो छे, पण एनो अर्थ आप्यो नथी.
'जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि'मां निवड शब्द पण वपरायो छ : (१) वात कहइ जे पापनी, तिण साथइ हो करुं निवड सनेह (२) बगसि गुनह ए बापजी, हिव मो सुं हो धरि निवड सनेह. (३) जेह सुं निवड सनेह ते तउ वीसार्या नवि वीसरइ.
एम लागे छे के निवडना प्रयोगो ज चावीरूप बने तेवा छे. बधे निवड ‘स्नेह' विशेषण छे. त्रीजुं द्दष्टांत गाढ, ऊंडो' एवो अर्थ स्पष्ट रीते आपे छे, “जेना प्रत्ये गाढ/ऊंडो स्नेह होय ते विसार्या वीसरता नथी." पहेला बे दृष्टांतोमां पण ए अर्थ निर्विघ्ने लई शकाय छे. ए बन्ने पंक्तिओ प्रभुप्रार्थनाना पदमांथी छे. पहेली पंक्तिमा पोते पाप साथे ऊंडो स्नेह को हतो तेनो उल्लेख छे, बीजी पंक्तिमां तीर्थंकरदेवनो ऊंडो स्नेह प्राो छे.
निवड शब्द निकटमाथी आव्यो होवानो तर्क थई शके. प्राकृत कोश णिअड (निकट) शब्द पासे, पासेनुं' एवा अर्थमां नोंधे छे. जो आ बराबर होय तो निवड एटले 'निकटनो, आत्मीय, गाढ' एवो अर्थ लेवा खोटुं न कहेवाय. अने अनिवडनो 'दूर-, अनात्मीय' एवो अर्थ थाय.
ए नोंधपात्र छ के निवडनी पेठे अनिवड स्नेहना विशेषण तरीके क्यांय वपरायेलो नथी. ए एकलो ज वपरायो छे. एथी एमां 'अनात्मीय' उपरांत 'पराया' 'निःस्नेही एवा अर्थने पण अवकाश जणाय छे. जेमके,
(१) जे सगा छे तेमने अनात्मीय/पराया थतां वार लागती नथी.
(३) पलकमां अनात्मीय/परायो/निःस्नेही थई गयो छे ते माटे तने शाबाशी घटे छे. .(माता दीक्षा लेवा तैयार थयेल पुत्र प्रत्येनुं आ व्यंगवचन छे.)
(४) जुदा थवाने प्रसंगे रस्ते मळी गयेला लोको पण विदाय मागे छे/रजा मागे छे तो अमारी केम विदाय/रजा न मागी अने आम पराया/निःस्नेहीनी जेम विचार कर्यो ?
बीजा उदाहरणनां अन्वयो बराबर स्पष्ट थता नथी, पण एमां अनिवडनो आवो ज अर्थ लेवानो रहे.
अनुभाव 'गुर्जररासावली' (संपा. ब. क. ठाकोर वगेरे)मां अनुभाव शब्द आ प्रमाणे वपरायो छ :
वाजइ तूर अनाहत, नाह तणइ अनुभावि,
आणइ एक अनेकप, एक पलाणइं वाहु. संपादकोए अनुभाविनो 'by the dignity, by the authority' (गौरवथी, अधिकारथी/
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सत्ताथी) एवो अर्थ आप्यो छे. प्रसंग नेमिनाथना वरघोडानो छे. एमां ‘अधिकार के सत्ता'नो अर्थ प्रस्तुत जणातो नथी, केमके नेमिनाथ राजवी नथी, राजकुमार छे. एना करतां 'गौरव, महिमा' एवो अर्थ वधु प्रस्तुत बने तेवो छे. त्यां पण 'गौरवथी' नहीं पण ‘गौरव अर्थे' एम अन्वय वधु उचित लागे छ : 'नाथना गौरव के महिमाने अर्थे शरणाई वागे छे' वगेरे..
ज्ञानविमलसूरिकृत 'आनंदघन बावीसी पर बालावबोध' (संपा. कुमारपाल देसाई)मां पण अनुभाव शब्द मळे छ :
भवोभवथी अभिनव ए द्रव्यथी अनुभावथी ते कहीइ छई. संपादके अनुभावनो 'कर्मनो विपाक' एवो अर्थ आप्यो छे, पण अहीं पाठनुं वाचन ज दोषयुक्त होय एवं लागे छे. स्तवननी जे पंक्तिनी समजूती तरीके आ वाक्य आवे छे ते पंक्ति आ प्रमाणे छ :
__ भविभवि रे द्रव्य भावथी भाखीइ रे.
जोई शकाय छे के मूळमां अनुभाव नथी, द्रव्य अने भाव छे, एटले विवरणना अनुभाव शब्दने अनु भाव तरीके वांचवो जोईए. अनु एटले 'अने' अनु आ अर्थमां मध्यकालीन साहित्यमां वारंवार वपरायो छे. जेमके, ‘गुर्जररासावली'मां –
(१) पणमीउ सामीउ नेमिनाहु अनु अंबिकि माडी (२) सवे सलक्खण रूयवंत अनु कंचणवन्नि (३) सीसि चमर बंबाल अनु कठि कुसुमह माल.
अप्रमाण गुर्जररासावली'मां आ शब्द आ रीते वपरायेलो मळे छ :
तिणि खिण मेल्हिउं वणचरि बाणुं, ऊडिउं गयणि हूउं अप्रमाणु. ___ संपादकोए अप्रमाणनो अर्थ 'unknovable, invisible' (अज्ञेय, अदृश्य) एवो आप्यो छे. बाण आकाशमां गयुं तेथी अदृश्य थई गयु एम तेमणे घटाव्यु लागे छे. पण अप्रमाणनो आवो अर्थ लेवा माटे कोई आधार जणातो नथी. अप्रमाण एटले 'असिद्ध', अहीं 'निष्फळ, नकामुं': 'ते क्षणे वनचरे बाण छोड्यु. ते आकाशमां गयुं ने तेथी निष्फळ नीवड्यु.'
'आरामशोभा रासमाळा'मां पण आ शब्द वपरायेलो मळे छ : वहिली नावि तु तुं जाणि, मइ तुझ दीठउ अप्रमाण.
संपादके अप्रमाणनो ‘असिद्ध' एवो अर्थ आप्यो छे. अहीं ‘असिद्ध' एटले 'अशक्य, असंभवित' : 'वहेली न आवे तो तने हुं जोई शकुं ते तुं अशक्य/असंभवित जाणजे (एटले के हुं - तुं मळी शकीशुं नहीं).'
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अबाह
'गुर्जररासावली' मां अबाह शब्द आ प्रमाणे वपरायेलो छे :
तापिइं पीडिउ विलवइ अबाह.
संपादकोए अबाहना मूळमां बाहु शब्द मानी एनो अर्थ 'without hands' (हाथ विना) एवो आप्यो छे. आ अर्थ अहीं असंगत छे ते सहेलाईथी समजाय एवं छे. रडवानुं वळी बाहु विनानुं के ? ए स्पष्ट छे के अबाध परथी अबाह आवेलो छे ने एनो अर्थ थाय 'अंतराय विना, अत्यंत, खूब' : 'तापथी पीडवामां आवेलो ते खूब विलपे छे. '
एनवाईनी बात छे के अन्यत्र अबाहु शब्द वपरायेलो छे त्यां संपादकोए एने अबाधमांथी व्युत्पन्न करी एनो 'without obstacle, freely' (अन्तराय विना, विघ्न विना मुक्तपणे) एवो आप्यो छे. निर्दिष्ट प्रयोगो आ प्रमाणे छे :
(१) पांचि पंचाले लिउ सनाहु, आविउ घडूउ कूंयरु अबाहु (२) धाई धसई ते ऊधसई, विलसई हसई अबाहु
बीजा उदाहरणमां 'मुक्तपणे' अर्थ चाली शके तेम छे पण 'अन्तराय विना' एटले 'खूब' ए अर्थ पण करी शकाय ः 'मुक्तपणे खूब हसे छे.' पण पहेला उदाहरणमां ए अर्थ योग्य रीते बंध बेसशे नहीं. त्यां अबाहु कुंवर घटोत्कचनुं विशेषण छे. एटले 'जेने कशी अंतराय नडतो नथी एवो वीरपुरुष, अप्रतिरोध्य' एवो कईक अर्थ लेवो जोईए एम लागे छे : ' अप्रतिरोध्य घटोत्कच कुंवर आव्यो.'
अभोखउ आभोखउ, अभोखण
राजशीलकृत ‘विक्रमखापराचरित्र' (संपा. कनुभाई शेठ, धनवंत शाह ) मां अभोखु शब्द आम वपरायेलो छे :
खापरउ जाम पहुतु बारि, दीयउ अभोखु पाणीधारि.
संपादके अभोखुनो 'अपोषण' अर्थ आप्यो छे. 'अपोषण' (सं. आपोशान) एटले जमती वखते, आरंभे के अंते आचमन लेवुं ते. अहीं ए अर्थ केवी रीते संगत बने ? भोजनप्रसंग तो अहीं छे ज नहीं. खापरी बारणे आवे छे त्यारे तेना करवामां आवता सत्कारनं अहीं वर्णन छे, जेमां पाणीनी धाराथी अभोखु आपवामां आव्युं एम कहेवामां आव्युं छे. ए वर्णन आचमन साथे बंध बेसे नहीं.
एनोंधपात्र छे के साधुसुन्दरगणिकृत 'उक्तिरत्नाकर' अभोखउ ( तेमज अभोखणु) शब्दनो अर्थ 'अभ्युक्षणम्' आपे छे, जेनो अर्थ थाय छे 'सिंचन, छंटकाव'. वणी अन्य कृतिओमा अभोखण शब्द वपरायेलो मळे छे त्यां बधे सत्कारनो प्रसंगसंदर्भ छे. सत्कारमा
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पाणीथी पण धोवानी प्रणालिका जूना समयमा हती. तेथी अहीं अभोखु एटले ‘सत्कार रूपे पाणी सिंचन' एवो अर्थ ज लेवो जोईए.
अन्य प्रयोगो आ प्रमाणे छ : लावण्यसमयकृत 'विमलप्रबंध' (संपा. धीरजलाल ध. शाह) -
सोवन करवी दीइ अभोखण, साजण हरखि भरिया. संपाद के 'आवकार' अर्थ आप्यो छे, पण 'सुवर्णनी झारीथी पाणी सींचे छे' एवो अर्थ स्पष्ट छे.
'लावण्यसमयनी लघु काव्यकृतिओ' (संपा. शिवलाल जेसलपुरा) - ____ मनि विण अभोखण दि घणां, वीरमती मेल्हइ बेसणां.
संपादके अभोखणर्नु मूळ सं. अम्भोष्ण मानी 'गरम पाणी' एवो अर्थ कर्यो छे. पण सत्कार रूपे सींचवामां आवता पाणीनो अर्थ स्पष्ट छे. बेसणां आपवानुं पछी आवे छे ते पण सूचक छे.
'आरामशोभा रासमाळा' मां -
संपुटि मिल्या बारि ए, आभोखइ आपउ वारि ए लग्न वेळाए वरने पोंखवामां आवे छे ते प्रसंगनो अहीं संदर्भ छे एटले संपादके अभोखइनो लीधेलो ‘सत्कार रूपे पाणी- सिंचन करवामां' ए अर्थ यथायोग्य छे. देहलकृत ‘अभिवनऊझणु' (संपा. शिवलाल जेसलपुरा)मां अंबोषण शब्द मळे छ :
राणी सुदर्शना दीधलां शृंगार रे, अंबोषण सहूनि मानिं हवा. संपादके अंबोषणनो 'कोगळा' अर्थ आप्यो छे, जे भाग्ये ज प्रस्तुत गणाय. प्रसंग महेमानोना स्वागतनो छे एटले अंबोषण ते अभोखणने स्थाने आवेलो होय एम लागे छे. 'बधांने मान रूपे पाणी- सिंचन करवामां आव्यु' एवो अर्थ लई शकाय छे.
अवोखण, अलबत्त, शामळकृत 'सिंहासनबत्रीशी' (संपा. हरिवल्लभ भायाणी)मां ‘अपोशण' एटले 'भोजन वेळाना आचमन'ना अर्थमां वपरायेलो मळे छे :
' अबोट अबोखण अति घणां, को भिक्षावश थाय.
ब्राह्मणना व्यवहारोना वर्णनमां आ आवे छे तेथी अबोट करवा, आचमन लेवू, भिक्षा मागवी वगेरेने ब्राह्मणना व्यवहारो तरीके समजी शकाय छे. आथी संपादके आपेलो 'अपोशण' अर्थ योग्य छे. पण 'अभिवन-ऊझj'मां अंबोषण ए अभोखणनो भ्रष्ट पाठ होवानी शक्यता ज बळवान छे.
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अमलीमाण 'ऐतिहासिक जैन काव्यसंग्रह' (संपा. अगरचंद नाहटा)मां अमलीमान शब्द आ प्रमाणे वपरायेलो मळे छे :
जग माहे अमलीमान सूरि ज तेज समान संपादके 'निर्मल मानवाला' एवो अर्थ आप्यो छे ते भूलभरेलो छे. अमली ए शब्द सं. अमर्दित परथी आवेलो छे. अमलीमान एटले जेनुं मान अमर्दित, अखंडित रडुं छे एवो. 'जिनराज-कृति-कुसुमांजलि'मां पंक्ति छ :
बंधव अमलीमाण. अमलीमाणनो अर्थ 'अगंजित' (अपराजित) आप्यो छे ते चाली शके. मान मर्दित न थq एटले अपराजित रहे.
अमाइ, अमामो, अमापुं, अमान 'तेरमा-चौदमा शतकनां त्रण प्राचीन गुजराती काव्यो' (संपा. हरिवल्लभ भायाणी)मां अमाइ शब्द आ प्रमाणे वपरायेलो मळे छ :
लहिय छिद्यं सवि दुख अमाइ. संपाद के शब्दकोशमां अमा- सामे प्रश्नार्थ मूक्यो छे, परंतु एमणे आ पंक्तिनो अनुवाद 'लाग मळतां सौ दुःख आवी पडे छे' एवो आप्यो छे. अमाइनो 'आवी पडे छ', एवो अर्थ संदर्भथी बेसाडेलो छे ए स्पष्ट छे.
माइ एटले 'माय, समाय'. अमाइ एनो विरोधी शब्द होवानुं समजाय छे. अमाइ एटले 'न माय' एटलेके 'ऊभराय'. 'छिद्र/लाग मळतां सौ दुःख ऊभराय छे' एम ए अर्थ बराबर बंध बेसी जाय छे. ए नोंध, जोईए के राजस्थानी कोश अमाइ शब्दनो 'अप्रमाण, बहुत, अधिक' एवो अर्थ आपे छे, त्यां अमाइ क्रियापद नहीं पण विशेषण छे.
अमा- परथी बनेलो बीजो एक विशेषणशब्द छे अमामो. 'जिनराज-कृति-कुसुमांजलि'मां ए वपरायेलो छ :
(१) एकण दूध अमामो दीयो, घृतनो बीडो बीजी लीयो. (२) चरणकरण धन माल, अमामो लूटिसी.
पहेली पंक्तिने संदर्भे संपादके 'अमूल्य' अर्थ आप्यो छे तेमां कंईक भ्रान्ति थयेली जणाय छे. अमामो शब्दना मूळमां अमा- होवानुं स्पष्ट छे, आथी एनो अर्थ 'न माय तेटलुं,
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अमाप, पुष्कळ' एम ज लेवो जोईए. दूधने अमूल्य कहेवामां कई स्वारस्य नथी, घणुं दूध आप्युं एम ज अभिप्रेत होई शके. बीजी पंक्तिमा पण 'पुष्कळ' नो अर्थ बराबर बेसी जाय छे. राजस्थानी कोश अमाव शब्द 'खूब, बेहद 'ना अर्थमां नोंधे छे ते अमाप साथे तेम अमामो साथै संबद्ध गणाय.
भगवद् गोमंडल तथा बृहद् गुजराती शब्दकोश अमामो शब्दनो 'अमूल्य' अर्थ आपे छे ते पण भ्रान्त गण जोईए. भगवद् गोमंडले 'आनंदकाव्यमहोदधि 'मांथी 'पण साटुं बाझे नहीं, कहे अमामो माल' त उदाहरण आप्युं छे तेमां पहेली दृष्टिए 'अमूल्य' अर्थ बेसी जाय, पण समग्र प्रयोग परंपरा जोतां 'अमाप, पुष्कळ' ए अर्थ ज लेवो जोईए. प्रसंगसंदर्भ मळे तो आ वात वधारे सारी रीते स्थापित करी शकाय.
'अखानी काव्यकृतिओ' (संपा. शिवलाल जेसलपुरा ) मां अमाणुं, अमान, अमानी मळे छे ते पण अमा- साथै संकळायेला ज मानवा जोईए :
भाईओ ! भव संताप, भात देखीने भूलवु, अक्षर अमाणुं आप, आठे पहोर अखो कहे.
संपादके अमाणुंना मूळमां अरबी अमान शब्द मानी 'रक्षण' एवो अर्थ आप्यो छे तेने संदर्भमा केवी रीते बेसाडवो ते कोयडो ज छे. अमाणुं एटले 'मान माप वगरनुं, अनंत' एवो अर्थ लेतां वाक्यार्थ बराबर बेसी जाय छे : 'आत्मतत्त्व अक्षर अने अनंत छे.'
ए अनुभव अद्भुत अमान.
संपाद के अमान शब्दना बे अर्थ आप्या छे. सं. अ-मान एटले 'अहंभाव विनानो' अने अरबी अमान एटले 'निर्भयतानो, अमरत्वनो'. मान शब्द संस्कृतमां 'माप'ना अर्थमा पण छे ए संपादकने स्मरणमां आव्युं नथी तेथी ज आवा अर्थोमां खेंचाई जवानुं बन्युं छे. अहीं पण पंक्तिनो अर्थ स्पष्ट छे : ‘ए अनुभव अद्भुत अने अमाप, अनंत छे.'
पिंड-ब्रह्मांड ते काच ज स्थानी, तेहेनुं पोषण वस्तु सदा अमानी.
संपादके अमानीनो 'मानी शकाय नहीं तेवो' एवो अर्थ आप्यो छे त्यां वळी, एमां मान शब्द रहेलो होवानुं वीसराई जवाथी त्रीजा ज भळता अर्थ तरफ खेंचाई जवानुं बन्युं छे. अहीं 'वस्तु' शब्द स्त्रीलिंगनो होवाथी अमाननुं अमानी थयुं छे. 'आप' अमान, पण 'वस्तु' अमानी. अर्थ तो एक ज छे. वस्तु एटले ब्रह्मने 'अमाप, अनंत' कहेवामां आवेल छे.
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जैन तीर्थस्थान तारंगा : एक प्राचीन नगरी
रमणलाल महेता
कनुभाई शेठ तारंगा (उ.अ. २३-५९, पू.रे. ७२-४९) गुजरातना महेसाणा जिल्लाना खेराळ तालुकामां आवेलं छे. तारंगा (देरासर) गुजरातना विविध स्थळो साथे आजे स्टेट ट्रान्सपोर्ट सर्विसना बसरूटथी संकळायेल छे. तथा महेसाणा - तारंगा रेल्वेथी भारतना अन्य भागो साथे संकळायेल छे. तारंगानी उत्तरे भेमपुरा, टींबा, ईशानमा खोडामली, पूर्वमा आशरे पांच छ किलोमीटर पर साबरमती नदी, अग्निखूणे हाडोल, दक्षिणे कनोरिया, कुंडा, राजपर तथा पश्चिमे कारडी अने तारंगा स्टेशन छे. तारंगा पर्वत समुद्रनी सपाटीथी आशरे ३६४मीटर उंचो छे. अने आजु बाजुना प्रदेशथी ते आशरे १५० थी २०० मीटर उंचो छे. सामान्यता गुजरातना सपाट प्रदेशथी पूर्व तरफना पहाडी प्रदेशनी विवधतामां तारंगा अरवल्ली गिरिमाळाना ग्रेनाईट पडोदयो धराचे छे. तेवी आ हारमाळामां गोळाकार धरावतां, पवन अने धोवाणनी प्रक्रियाथी गुफावाळा स्थानो घणां छे. तेनी साथे आ विस्तारमा पवनथी ऊडेली रेतना टींबा तथा धारो पण छे. आम बे भूस्तरो धरावता आ विस्तारनी परिस्थिति जोतां पर्वतनो पश्चिम तरफनो भाग वधु ढाळवाळो तथा वसवाट माटे ओछो अनुकुळ छे. तेथी अहींना नदीना वांधानी नजीक केटलांक वसतीनां स्थानो छे. ते वाघानी पासे भेखडपर तथा त्यांना खडकोनी गुफामां देखाय छे. आजे तारा के धारण मातानुं नानुं सामरणयुक्त मंदिर, तेनी पासेनी जोगीडानी गुफा थोडांघणां जाणीतां छे. अहीं ईटोनो उपयोग करीने केटलंक बाधकाम थयुं छे.
आ स्थळनी पूर्वमा पर्वतना उपरना भागमा भौगोलिक परिस्थिति बदलाय छे. अहीं पर्वतनी बे धार वच्चे, पवनथी उडेली रेत पथरायेली कंईक त्रिकोणाकार खीण छे. आ खीणना नीचाणवाळा भागो प्रमाणमा ओछा ढाळवाळा छे. अहीं उत्तर अने दक्षिणनी धारो परथी चोमासामा वहेता नाळाथी बनेली खीण आशरे २०० मीटर पहोळी छे. तेनी बन्ने बाजीना खडकोनी तळेटीना ढाळ पण सरळताथी समतल बनावाय एवा छे. आम तारंगानी आ खीण मानव वसवाटने माटे कंईक अनुकुळ परिस्थिति दर्शावे छे.
आ स्थळनी उपर्युक्त परिस्थितिनो लाभ लईने अहीं मानव वसवाट थयो होय अम अनुमान थई शके छे अने अहींथी प्राप्त पुरावयवो आ अनुमानने पृष्ट करे छे.
साबरमती पासेनो आ प्रदेश तारंगानु अजितनाथनुं देरासर सोलंकीवंशना केन्द्रस्थ सारस्वत मंडळनो भाग होय एम उपलब्ध प्रमाणो दर्शावता नथी. पण ते पूर्व सीमा पर हतो परंतु ते आबुना परमारो अने त्यार बाद चौहाणोनो प्रदेश होवानुं लागे छे. आ बे राज्योना सीमाडा पर तारंगा पर्वतर्नु स्थळ होवाथी तेनुं लश्करी द्रष्टिए महत्त्व स्पष्ट छे.
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लश्करी द्रष्टिए महत्त्वना तारंगानुं नाम पण भाषाकीय नजरे केटलुक सूचवे छे. तारंगाना देहेरासरमां प्राप्त लेखमां 'तारंगक' नामनो उल्लेख छे. आमां तारण के बचावसूचक धातु वपरायेलो जणाय छे. तेने पाणिनीय धातुपाठनो 'ऋक' धातु पुष्ट करे छे. आ धातु रक्षण -- तारणना अर्थमां वपरातो होय, तेनी परथी 'तारंगक' जेवो शब्द साधित थाय अने 'तारंगक,ना अत्यं 'क'नो लोप थता 'तारंगा' स्वरूप थाय.
___ आ उपर्युक्त परिस्थितिनुं स्थानिक पुरावस्तुओ समर्थन करे छे. मानव वसवाट माटे जरूरी एवा रहेवाना मकानो, मार्गो, मूर्तिओ, माटीकामना अवशेषो वगेरे अत्रे वीखरायेलां पडेला छे. आ अवशेषोनी चारेबाजु दुर्गनी रचना छे. तेनां दरवाजा आदिमां जीर्णोद्धारो थया
मकान अने वासणो
अजितनाथनी खीणनां विशिष्ट लक्षणोमां पर्वतनी तळेटीना धीमा ढोळावो छे. आ ढोळावोने समतल करीने मकानोनी रचना थई छे. तेथी ते मकानोनुं बांधकाम करवा माटे नाना टेकरानी आजुबाजु पथ्थरोनी भीत बनावीने जमीन समतल करवामां आवी छे. आवी समतल जमीनना तथा भीतोना अवशेषो अजितनाथना देरासरनी बन्ने बाजुए तथा पश्चिममां घणी जग्याए देखाय छे. आ अवशेषोमां स्थानिक ग्रेनाईटना पथ्थरो तोडीने ते गोठवीने बनावेली भीतो एकबीजाने काटखूणे मळती देखाय छे. तेमां केटलीकवार नीचे मोटी भीतथी जमीन समतल करीने तेनी उपर प्रमाणमां नानी भीतो बांधेली छे. आ भीतो पथ्थर अने ईटोनी बनावेली छे.
अहींनी ईटोनी भीतो माटे छीन्नभिन्न थयेली छे. पण केटलीक जग्याए व्यवस्थित सचवायेली जोवा मळे छे. अहीं वपरायेली इंटो 45x30x7से.मी. ना कदनी छे. तेथी तेनी सरखामणी देवनी मोरी ना स्तुप तथा तेनां समकालीन बांधकाममां वपरायेली आ कदनी इंटो साथे थई शके. तेना अनुकालीन युगनी इंटो 37.5x30x7नी छे. सुलतान युगमां 30x22.5x7नी इंटो वपरायेली छे ते बाबत लक्षमा लेता आ अवशेषो दोढहजार वर्ष करता जूनी परंपरा दर्शावे छे.
__ आ अवशेषोमां माटीना नळियां तथा वासणो वगेरे घरवखरी मळी आवी छे. नळियां आजना मेंग्लोरी टाईल्स साथे समानता धरावता बन्ने बाजुए उभी धारवाळा छे आने 'थापलां' कहे छे. जे देवनी मारी तथा तेना समकालीन स्तरोमां प्राप्त 'थापला' करता उंची धारवाळा छे. एनी शैली परथी देवनी मोरीना अनुकालीन लागे छे. ए परथी अहीना मकानोनो काळनिर्णय करता ते हजार वर्ष करता वधु प्राचीन होवानुं सूचवे छे. माटीना कोडिया वाडका, कथरोट, हांडी जेवां वासणोनां ठीकरां पण अत्रेथी मळे छे. ते थापलाना समयना लागे छे आ परिस्थितिमां आ वसवाट आशरे हजार - बारसो वर्ष जूनो गणवामां
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कोई बाधक प्रमाण नथी. आ वसवाट एक नाना गाम के नगरनी रचना छे. कालक्रमनी नजरे आ अवशेषो पैकी केटलाक इ.स. दसमी/अगियारमी सदी पहेलाना छे. तेथी तारंगा पर वसवाटनी प्रक्रिया अजितनाथ देरासर करता केटली सदीओ पहेलानी छे. मार्गो
अहीं पूर्व-पश्चिमना मुख्य मार्गने तळेटीनां बंधायेलां मकानो, तळाव पर आववाना रस्ता आदि साथे सांकळी लेवामां आव्यो हतो, तेथी साथे दुर्गुनी अंदर फरवाना मार्गो पण होवानां प्रमाणो छे. ते पैकी केटलाक स्थळे चढवा उतरवा माटे व्यवस्थित पगथिया बांधवामां आव्या होय एम लागे छे.
आ पगथीयानी तैयार थयेली सोपानपंक्तिओ मकान तरफ जती होवानो प्रमाण छे. आम आ मार्गो, मकानोनी घरवखरी आदि तारंगा पर आशरे हजार वर्ष करता पूर्व मानव वसवाट होवानुं सूचन करे छे. शिल्पो
अत्रे दुर्ग अने नगरना अवशेषोमा केटलांक शिल्पो महत्वनां छे. ते पैकी अजितनाथना दहेरासरना हाल वपराता दरवाजानी अंदरना 'गणेश' अने 'विष्णु'ना पारेवाना पथ्थरना शिल्पो शैली द्रष्टिए नवमी-दशमी सदीनां छे. तेवी रीते अजितनाथना देहेरासरना मुख्य प्रवेशमंडपनी जमणाहाथनी देवकुलिकानी अंदर स्थापन करेली 'पद्मावतीदेवी'नी लगभग
आ समयनी अत्यंत मनोहर प्रतिमा छे. तेनी साथे दहेरासरनी कोटनी उत्तरनी भीतना गोखमा रहेली 'गोमुख यक्ष'नी आरसनी प्रतिमा पण बारमी सदीना पूर्वाधनी शैलीने अनुसरे छे. तदुपरांत सोमनाथना महादेवना मंदिरना प्रवेशद्वारनी बन्ने बाजुए खारा पथ्थरनी 'ईशान' अने 'वायु' दिग्पालनी प्रतिमाओ पण बारमी सदीथी प्राचीन छे.
आ उपरांत दुर्गनी भीतोमा जडायेलां शिल्पो, पूर्वना दरवाजा पासेनी चौहाणोनी कुलदेवी ‘आशापुरी'नी महिषमर्दिनीनी प्रतिमा अने तेमांथी थोडे दूर घसायेली, उभेली प्रतिमा आदि अहीनां प्राचीन देवस्थानोना अजितनाथ दहेरासर पूर्वना काळना अवशेषो होवानुं सूचवे छे.
__ आम अहींथी प्राप्त थता मकानना अवशेषो, मार्गना अवशेषो, नळिया अने वासणोघरवखरीना अवशेषो, शिल्पोना अवशेषो वगेरे परथी तारंगाना स्थाने हजार - बारसो वर्ष पूर्वे कोई नानु गाम के नगरी होवानुं सूचन करे छे. आ समग्र परिस्थितिनुं अवलोकन करता हालनां अजितनाथनां दहेरासरनुं स्थान तारंगानी प्राचीननगरीना केन्द्र स्थाने मुख्य मार्गनी दक्षिणे होवानु स्पष्ट थाय छे. तेथी ए दहेरासर ते तारंगानी प्राचीननगरीनुं महत्त्व- देवस्थान के चैत्य होवु जोइए. आ दर्शावे छे ते प्राचीनगरीमां जैनोनी अने तेमनी प्रवृत्ति सविशेष प्रमाणमां होवी जोईए. आ दहेरासर मात्र पर्वतस्थित तीर्थस्थान ज नहीं पण प्राचीन तारंगानगरीनें एक महत्त्वनुं देवस्थान हतुं. जे अंगे हजी पण अन्वपणने अवकाश छे.
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सिद्धसेन दिवाकरना चरितमां मळतुं एक अपभ्रंश पय सिद्धसेन दिवाकरना प्रबंधगत चरितमां एक एवो प्रसंग छे के सिद्धसेनसूरि राजमान्य बन्या तेथी साधु-आचारनी विरुद्ध राजसत्कार भोगवता थया अने गच्छमां आचारनी शिथिलता प्रवर्ती. सिद्धसेनसूरिने जाग्रत करवा वृद्धवादी गुप्तवेशे तेनी पासे आव्या अने एक पद्यनो अर्थ पोताने समजातो नथी तो करी बताववा कह्यु. पद्य 'प्राकृत' भाषामां हतुं. सिद्धसेनसूरिनी समजमा कशुन आव्यु. आगंतुके ते पद्यनो मर्म बताव्यो. तात्पर्य एq हतु के तुं यमनियम अने व्रतोनो अतिचार न कर, साधुव्रतनुं दृढताथी पालन कर. सिद्धसेनसूरि कळी गया के आगंतुक बीजा कोई नहीं, गुरु वृद्धवादी ज छे. ('प्रभावकचरित', पृ. ५७-५८; 'प्रबंधकोश', पृ. १७-१८).
ए बंने स्थाने जे पद्य आपेलुं छे, ते अपभ्रंश भाषानुं पद्य छे, अने जे रूपे पाठ मळे छे तेमां भाषा तेम ज छंदनी दृष्टिए केटलीक अशुद्धि छे. छंद आंतरसमा चतुष्पदी छे. एकी चरणोमां १४ मात्रा अने बेकी चरणोमां १२ मात्रा. पद्यनो शुद्ध पाठ नीचे प्रमाणे होवानो संभव छ :
अणफुल्लिय फुल्ल म तोडहि, मण आरामा मोडहि ।
मण-कुसुमेहिं अच्चि निरंजणु, हिंडहि कांइ वणेण वणु । 'अणविकस्या पुष्पवाळी (लता)ना पुष्प न चूंट; पुष्पवाटिकाओ उजाड नहीं; मानसिक पुष्पथी निरंजननी पूजा कर; एक वनमाथी बीजा वनमां कां तुं भटकी रह्यो छे ?' अहीं बीजा चरणमा आवतो मण निषेधार्थ मा नी साथे भारवाचक ण जोडाईने बन्यो छे. हिंदीमां कहो न । करो न जेवा प्रयोगोमां जे म छे ते : गुजरातीमां ते ने रूपे छे : 'करोने', 'बोलोने'.
जो आ अर्थने मुख्य गणीए तो तात्पर्य एवं समजाय के पुष्पादिथी थती बाह्य पूजा करतां मानसिक पूजा ए ज साची पूजा छे. परंतु राजशेखरसूरिना वृत्तांतमां संदर्भ अनुसार उपर सूचित करेल व्यंग्यार्थ आप्यो छे, ज्यारे प्रभाचंद्रसूरिए तो विदग्धताथी त्रण अर्थ करी बताव्या छे, अने कह्यु छे के आ प्रमाणे वृद्धवादीए पद्यना अनेक अर्थ करी बताव्या.
आ कारणे, अन्य संदर्भमां प्राप्त पद्यने प्रस्तुत संदर्भमां योज्यु होवानी आपणने शंका जाय छे. चरितने बहेलाववा प्रचलित सुभाषितो वगेरेने जोडी देवानी प्रणाली चरितकारोमां सामान्य हती.
धर्ममहिमानुं एक सुभाषित सिद्धसेनसूरिना चरित्रनी जे उत्तरकालीन प्रबंधसाहित्य सुधीनी परंपरा मळे छे, तेमां आम्रदेवसूरिकृत 'आख्यानक-मणि-कोश-वृत्ति' मां (ई.स. ११३३) आपेल 'सिद्धसेनाख्यानक'मां, सिद्धसेन अने वृद्धवादी वच्चे गोवाळोनी समक्ष थयेला वादमां वृद्धवादी पोतानुं वक्तव्य छंमा
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नीचेना अपभ्रंशभाषाना पद्य वडे रजू करे छे (ए पद्य सात चरणना, द्विभंगी प्रकारना रड्डा छंदमां होवानो ख्याल न आवतां, तेमां चरणो खूटता होय तेम मानी पाठ अपायो छे, पण भूल छे. पाठ शुद्ध ज छे, अने ते नीचे प्रमाणे छे) :
ते
धम्मु सामिउ सयल - सत्ताहं,
विणु धम्मिं नाहि धर, धन्नु धणु धम्मह पसाएण । धम्मक्खर बाहिरिण, धिसि धिरत्थु तेण जाएगा || धरणिहि भारु करतेण, पय- पूरण- पुरिसेण ।
किउ संसारि भमंतेण, धम्मु सुमित्तु न जेण ।। (पृ. १७१, गा. २०-२१नी वच्चे) 'धर्म सर्व प्राणीओनो स्वामी छे; धर्म विना धरानुं अस्तित्व नथी; धर्मनी कृपाथी ज धनधान्य प्राप्त थाय छे; जेणे संसारमा भ्रमण करतां, धर्मने सन्मित्र नथी बनाव्यो तेवा, धर्माक्षरनी बहार रहेला, मात्र पादपूरक समाए पुरुषना जन्मने धिक्कार छे, धिक्कार छे.' आ साथै स्वयंभूकृत 'स्वयंभूछंद' मां ( ईसवी नवमी शताब्दीनो अंतभाग) आपेल रड्डा छंदनुं उदाहरण सरखावो :
. जेण जाएण रिउ ण कंपंति,
सुणा - विदति णवि, दुखणा-वि ण मुअंति चिंतए ।
. तें जाएं कमणु गुणु, वर- कुमारी - कण्णहलु वंचिउ || किं तणएण तेण जाएण, पअ - पूरण- पुरिसेण । जासु ण कंदरि दरि विवरु, भरि उव्वरिउ जसेण ||
'जेना जन्मवाथी शत्रुओ कांपता नथी, सज्जनो आनंद पामता नथी, दुर्जनो चिंताथी मरणतोल थता नथी, एवा मात्र पादपूरक पुरुष जेवा, कोई सुंदर कुमारीना कन्याभावना निष्फळ लोपक बननारा, जेनो यश कंदरा, गुफा अने बखोलने भरी दईने पण हजी शेष बचतो न होय, एवा पुत्रना जन्मवाथी शो लाभ |
आमां 'धिरत्थु तेण जाएण' ('किं तेण जाएण' ) अने 'पअ - पूरण- पुरिसेण' ए शब्दो समान छे. स्पष्टपणे पुत्रविषयक स्वयंभूना सुभाषित उपरथी आम्रदेवसूरिनुं धर्मविषयक सुभाषित घडायुं छे.
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ह. भायाणी
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ग्रन्थ - माहिती १. अर्स्ट बेन्डर संपादित ग्रन्थरत्न 'ओन धि शालिभद्र • धना - चरित' (जूनी गुजराती रासकृति; कर्ता : श्रीजिनसिंहसूरि - शिष्य श्रीमतिसार; र.सं. १६७८; प्रकाशक : अमेरिकन ओरिएन्टल सोसायटी, न्यू हेवन, कनेक्टीकट, ई. १९९२, अमेरिकन ओरिएन्टल सीरीझ वॉ. ७३)
युनिवर्सिटी ऑव पेन्सिल्वेनियाना साउथ एशिया स्टडीझ डिपार्टमेन्ट अने ओरिएन्टल स्टडीझ डिपार्टमेन्टना प्रोफेसर डॉ. अर्स्ट बेन्डर (ERNST BENDER) नामना भारतीय विद्याना ऊंडा अध्येता विद्वाने घणां वर्षोनी खंतीली अने निष्ठायुक्त जहमतपूर्वक प्रस्तुत संपादन तैयार कर्यु छे. आ ग्रंथर्नु अछडतुं विवरण आ प्रमाणे छे : प्रकरण १. शालिभद्र-धन्ना- संक्षिप्त चरित्र, अंग्रेजीमां. पृ १ थी ७..
२. 'रास'नं बंधारण : रासगत छंदो वगेरे विशे विस्तृत पृथक्करण, पृ. ८ थी १८. ३. हस्तप्रतो अने पुष्पिकाओ : पृ. १९ थी ३०. ४. व्याकरण : रासना तमाम विशिष्ट शब्दो तथा प्रयोगोनुं व्याकरणनी तथा
भाषाशास्त्रनी दृष्टिए विश्लेषण - मूल्यांकन - साधन. पृ. ३१ थी ९२. ५. रोमन लिपिमां संपूर्ण रास-पाठ, पृ. ९३ थी १४१. ६. आ संपादनमा प्रयोजेली कुल २८ हस्तप्रतिओमां प्राप्त थता असंख्य पाठान्तरो/
पाठभेदोन, रासनी कडीवार संकलन, प्र. १४२ थी ३०२. ७. रास-आधारित शालिभद्र-धन्नानी कथानो अनुवाद. पृ. ३०३ थी ३४८. आ
पछी बे पृष्ठमां संकेत-सूचि. ८. रासगत शब्दो (रोमन लिपिमा) तथा तेना अर्थो अने ते माटेना संदर्भ - संकेतो
अकारादिक्रमे, पृ. ३५१ थी ५३१. ९. रासनी कडीओनी आद्य पंक्तिओनी अकारादिक्रमे सूचि (रोमनमा), पृ. ५३२
थी ५५१. १०. रासनी ढालोमा प्रयोजायेली देशीओनी सूचिनां २ पृष्ठ. . ११. आ संपादन माटे उपयोगमा लीधेला संदर्भग्रंथोनी सूचि, ६ पानांमा. १२. छेल्ले जनरल इन्डेक्स, पृ. ५६१ थी ५७२.
कुल पोणा छसो पानांमां पथराएलु आ काम, मुद्रणनी दृष्टिए तो अतिउत्कृष्ट छ ज, परंतु संपादन, संशोधन अने अध्ययन करवाने उत्सुक अध्येताओ माटे संपादनकलानो एक आदर्श/उत्कृष्ट नमूनो पण छे. एक पण अक्षर के वाक्य निराधार न होवू जोईए, अने जे प्रयोग हस्तप्रतमां होय तेनुं समग्रपणे पृथक्करण करीने ज तेनी योग्यायोग्यता के शुद्धाशुद्धता विशे निश्चय करवो घटे - एवो संदेश आ ग्रंथ आपी जाय छे. एक पाश्चात्य माणस, संस्कृत
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के प्राकृत नहि, पण गुजराती, ते पण मध्यकालीन गुजराती कृति ऊपर काम करे त्यारे तेणे ते माटे केटकेटलुं शीखवुं समजवुं पड्युं हशे अने अथाक परिश्रम वडे तेणे ते कठिन जणातुं कार्य केवी रीते साध्यं हशे ए प्रश्न विचारशील व्यक्तिने जरूर जागे, अने तेनो नक्कर, अहोभावजनक अने विस्मयपूर्ण जवाब आ दळदार ग्रंथ.
आ ग्रंथने तैयार करवामां मि. बेन्डरे भावनगरना शेठ डोसाभाई अभेचंद पेढी (संघ) ना ज्ञान भंडारथी लईने रोयल एशियाटिक सोसायटी वगेरे अनेक ग्रंथभंडारोनो तथा व्यक्तिगत संग्रहोनो पण लाभ लीधानो निर्देश कर्यो छे. इतिहासतत्त्वमहोदधि आ. श्रीविजयेन्द्रसूरिजीना संग्रहनी पोथीमांथी बे चित्रो पण आमां छाप्यां छे. सौथी वधु आनन्दनी बीना तो ए छे के आ ग्रंथ, मि. बेन्डरे आगम प्रभाकर मुनिराज श्रीपुण्यविजयजीनी स्मृतिने समर्पित कर्यो छे, अने ते रीते गुरुऋण अदा कर्तुं छे.
२. वस्तुपाळ - तेजपाळ राससंग्रह. संपादन संकलन - मुनि महाबोधि विजय. विक्रमना तेरमा शतकमां थयेला गुजरातना महामंत्री वस्तुपाळ तेजपाळे पोताना जीवनकाळ दरमियान शासनप्रभावनाना अनेकानेक सुंदर कार्यो कयाँ. जिनशासनना अनेक आचार्य भगवंतोए आ बांधवबेलडीना सुकृतोनी अनुमोदना करता संस्कृत तथा गुर्जरगिरामां अनेक प्रबंधो अने रासाओनी रचना करी छे.
वर्षो पूर्वे सिंधीजैनग्रंथमाला तरफथी 'वस्तुपालप्रशस्तिसंग्रह' नामनुं एक पुस्तक बहार पडेल. जेमा मुख्यतया वस्तुपाळने लगतां काव्यो, प्रशस्तिओ, शिलालेखो आदिनो समावेश थयेलो छे.
शीलचन्द्रविजयगणि
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गुर्जर गिरामां वस्तुपाळ - तेजपाळने लगता रचायेला राससाहित्यमांथी लगभग पांचेक रासक स्थळेथी प्रगट थया छे, जेना कर्ता १. विजयसेनसूरि, २. पाल्हणपुत्र, ३. लक्ष्मीसागरसूरि, ४. पासचंद्रसूरि, तथा ५ पं. श्री मेरुविजयजी छे. आ पांचेय रासो प्रस्तुत संपादनमां एक साथ संग्रहीत कराया छे.
आ सिवाय १. श्री हीरानंद सूरि, २. श्री समयसुंदर गणी, ३. श्री प्रेमविजयजी, ४. श्री अभयसोममुनि, ५. श्री रंगसमुद्रमुनि आदिए पण वस्तुपाळ तेजपाळरास अने चोपाई ओनी रचना करी छे. जे तमाम प्रायः अप्रगट ऐ. आमांथी जेटला प्राप्य थशे तेने पण आ संपादनमां समावी लेवाशे.
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3. Maerials for an edition and study of the Pinda and Ohanijjuttis. Willem B. Bollee. 1991.
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A. Metteए १९७४मां ‘ओहनिति', 'पिंडेसणा' प्रकरण जर्मन अनुवाद अने टिप्पण साथे प्रकाशित कर्यु हतुं. प्रस्तुत पुस्तकमां बोलेए ‘पिंड-निचुत्ति' अने ‘ओह-निनुत्तिनी पाद-सूचि अने 'ऊलट-पाद-सूचि' (पादना अंत्य वर्णोना, जमणेथी डाबे, एम ऊलटा क्रम उपर आधारित पाद-सूचि) आपी छे. एनो हेतु ए नित्तिओनी परस्पर तुलना करवानो, तथा 'आवस्सय', 'आयारंग' अने 'दसवेयालिय' जेवानी साथे तुलना करवानो अने उद्धारणोने
ओळखवानो छे. आनुं नलिनी बलबीरे Bulletin d'Etudes Indiennees (ग्रंथ९, १९९१)मा अवलोकन कर्यु छ (पृ. २८३-२८४). आनो बीजो भाग आ मासमां प्रकाशित थयो छे, एम बोलेए तेमना पत्रमा माहिती आपी छे. बोलेए १९७७मां ‘सूयगड'ना केटलाक अंशोनो जर्मन अनुवाद प्रकाशित कर्यो हतो (Studien zu Suyagada). Herman Ticken तरफथी १९८६मां प्रकाशित एक लेखमां बोलेना अनुवादनी समीक्षा करवामां आवी छे. (Textual Problems in an early canonical Jaina text, WZKS, ३०, १९८६, पृ. ५-२५). टीकननुं हालनी 'सत्तसई'नी १थी५० गाथाओनो समीक्षात्मक पाठ, अंग्रेजी अनुवाद अने टिप्पण साथे १९८३मां लायुडन (होलेन्ड)नी विख्यात प्राच्यविद्या संस्था Kern Institute तरफथी प्रकाशित थयेल छे.
४. Isibhasiyaim : Pada Index and Reverse Pada Index. M. Yamazaki and Yumi Ousaka. १९९४.
उपरनी पद्धतिए तोक्यो (जापान)नी Chuo Academic Research Institute तरफथी यामाझाकी अने औसाकाए 'ईसिभासियाइं'नी पाद-सूचि अने ऊलट-पाद
सूचि प्रकाशित करी छे.
4. Dasaveyaliya : Pada Index and Reverse Pada Index. (१९९४) ए ज पद्धतिए उपर्युक्त संस्था तरफथी उपर्युक्त विद्वानोए 'दसवेयालिय'नी पादसूचि अने ऊलट-पाद-सूचि प्रकाशित करी छे.
६. Mahanisiha : Studies and Edition in Germany. Chandrabhal Tripathi. १९९३.
त्रिपाठीए ‘महानिसीह'ना विषयमां तेनी हस्तप्रतो, पाठसंपादन, विषयवस्तु, भाषा, छंदो, अन्यत्र प्राप्त समान अंशो, समयनिर्णय, कर्तृत्व वगेरे विशे जर्मन विद्वानोए अद्यावधि करेला कार्य- सर्वेक्षण अने सारांश प्रस्तुत कर्यां छे.
७. A Study of the Bhagavatisutra. Suzuko Ohira. १९९४.
ओहिराए चार प्रकरणमां (१) जैन आगमग्रंथोर्नु उत्तरोत्तर पांच तबक्कामां कालानुक्रमिक विभाजन, (२) - (३) 'भगवती-सूत्र'ना वीश अध्ययनोनुं विषयवार सविस्तर विश्लेषण अने उपर्युक्त योजना अनुसार विविध अंशोनो तुलनात्मक कालनिर्णय अने (४) निष्कर्षो रजू
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कर्या छे.
८. Avasyaka Studies. Introduction Generale et Traductions. Nalini Balbir. १९९३.
१८९७मां Ernst Leumann द्वारा Avasyaka Erzahlungen प्रकाशित थयुं. तेमां प्रथम वार 'आवश्यक सूत्र', नियुक्ति, चूर्णि, वृत्ति वगेरेमांथी केटलीक कथाओ जू करवामां आवी हती. नलिनी बलबीरे ए कथाओनो रोमनलिपिमां पाठ, फ्रेन्च अनुवाद, पाठांतरी, सविस्तर टिप्पणो, ए कथाना जैन परंपरामां मळतां उत्तरकालीन रूपांतरो, वगेरेने लगती नोंधो, तिलकाचार्यनी लघृवृत्तिमांथी उपर्युक्त कथाओनो पाठ, सविस्तर भूमिका (मोटा कदनां बसो उपरांत पृष्ठ ) अने अंग्रेजीमा संक्षिप ग्रंथसार आप्यां छे. बलबीरे १९८४मां आवश्यक साहित्यनुं ऊंडुं अध्ययन तेमना हजी पुस्तकरूपे अप्रकाशित डी. लिट. उपाधि माटेना शोधप्रबंधां रजू कर्तुं छे (Etudes d'exegese Jaina Les Avasyaka). उपरांत जैन प्राकृत साहित्यने लगता विविध शोधनिबंध प्रकाशित कर्या छे.
९. Avasyaka Studien : Glossar ausgewahlter Worter. E. Leumanns Die Avasyaka Erzahlungen, Thomas Oberlies. १९९३. लोय्माने तेमना उपर्युक्त पुस्तकमा आपेल पसंद करेल शब्दोना कोशनुं, ते ते शब्द विषयक मळता अद्यावधि विवरण, अने जर्मन, फ्रेंच, अंग्रेजीमां शब्दार्थ साथै संपादन.
"
१०. धर्मरत्नकरण्डक : वर्धमानसूरिकृत. संपादकः मुनिचंद्रविजयगणि. १९९४.
जैन धर्म अने आचारने लगता अनेक विषयोनुं २० अधिकारोमां विविध दृष्टांतकथाओ साथै निरूपण करता, ई.स. १११६मां रचायेला वर्धमानसूरिना संस्कृत ग्रंथनुं कर्तानी वृत्ति सहित छ हस्तप्रतोने आधारे संपादन.
११. धर्मबिन्दुप्रकरण : हरिभद्रसूरिकृत, मुनिचंद्रसूरिकृत वृत्ति सहित. संपादकः मुनि जंबूविजयजी. १९९४.
हरिभद्रसूरिना एक महत्त्वना प्रकरणग्रंथनुं अने तेना परनी वृत्तिनुं छ हस्तप्रतोने आधारे पाठसंपादन, गुजराती अने संस्कृतमां सविस्तर प्रस्तावना अने अनेक संस्कृतप्राकृत ग्रंथोमाथी घणा अंशोनां मूळ के समान संदर्भोनो निर्देश.
१२. रिट्ठणेमिचरिय (हरिवंसपुराण): स्वयंभूदेवकृत. भाग १ : जायव-कंड, भाग २ ( १ ) : कुरु-कंड. संपादक : रामसिंह तोमर. १९९३.
नवमी शताब्दीना उत्तरार्धमा थयेला अपभ्रंश महाकवि स्वयंभूदेवना अरिष्टनेमिचरितने लगता ११२ संधि (१८००० ग्रंथाग्र) नुं प्रमाण धरावता महाकाव्यना पहेला बे कांड (कुल ३२ संधि)नो मूळ पाठ.
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93. A Treasury of Jain Tales. Edited by V.M. Kulkarni. 9888.
जैन आगमग्रंथो अने तेना उपरना टीकासाहित्यमांथी पसंद करेल, विविध प्रकारनी १२४ दृष्टांतकथाओनो अंग्रेजी अनुवाद : जैन कथासाहित्य विषयक विस्तृत प्रस्तावना तथा टिप्पण साथे.
98. The Harivijaya of Sarvasena. V.M. Kulkarni. 9889.
ईसवी चोथी शताब्दीना पूर्वार्धमां थई गयेला वाकाटक राजवी सर्वसेने महाराष्ट्री प्राकृतमां रचेला, पण लुप्त थई गयेला, कृष्णना पारिजातहरण विषयक महाकाव्यना, भोजकृत 'सरस्वतीकंठाभरण', 'शृंगारप्रकाश' वगेरे अलंकारग्रंथोमां जे ९५ जेटलां उध्धहरणो भ्रष्ट स्वरूपमा मळे छे, तेमनुं पाठशुद्धि साथे संपादन : अंग्रेजी अनुवाद, टिप्पण अने प्रस्तावना सहित.
१५. फिलिस ग्रेनोफ संपादित The Clever Adulteress : A Treasury of Jain Literature (१९९०)मां,
(१) 'नायाधम्मकहाओ' माथी ‘मयूरी-अंड’नी कथा (विलेम बोले), (२) 'आवश्यकवृत्ति' माथी ५१ कथाओ (नलिनी बलबीर), (३) 'आख्यानकमणिकोश'मांथी 'रोहिणीआख्यानक' (प्रेमसुमन जैन), (४) 'मूलशुद्धिप्रकरण'माथी देवधर, देवदिन्न अने अभिनवश्रेष्ठीनी कथाओ (फिलिस
ग्रेनोफ), (५) 'बृहत्कथाकोश'माथी यशोधरनी कथा (फ्रिडहेम हार्डी), 'प्रबंधकोश'मांथी आर्यनंदिल, जीवदेव, आर्यखपटाचार्य, हर्षकवि, मदनकीर्ति, मल्लवादीना प्रबंध (फिलिस ग्रेनोफ), 'आख्यानकमणिकोश' मांथी मल्लवादी-आख्यानक (फिलिस ग्रेनोफ), 'वृद्धाचार्यप्रबंधावलि' माथी जिनेश्वरसूरिप्रबंध (फिलिस ग्रेनोफ)
(६) 'विविधतीर्थकल्प'माथी अंबिका अने कपर्दीयक्षनी कथा (फिलिस ग्रेनोफ) (७) 'परिशिष्टपर्व'मांथी चाणक्यकथा (रोझेलिन्ड लफेबर), (८) 'आदिपुराण'मांथी भरत अने बाहुबलिनी कथा (राल्फ स्ट्रोल), (९) 'विविधतीर्थकल्प'माथी १२ तीर्थोना वृत्तांत (जोन कोट) एटली कथाओ आपी छे, परिचय अने टिप्पणो साथे.
१६. Monks and Magicians : Religious Biographies in Aasia. संपादको : फिलिस ग्रेनोफ, कोईचि शिनोहारा (१९८८). आमां अन्य परंपराओमां मळता धर्माचार्योना जीवनचरित्रोनी चर्चा उपरांत जैन प्रबंधोमां मळता नागार्जुन-प्रबंध अने
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आर्यखपटाचार्यप्रबंधनी विचारणा ग्रेनोफे करी छे.
१७. Jainism and Prakrit in Ancient and Medieval India : Essay for Prot. Jagdish Chandra Jain. संपादक : एन. एन. भट्टाचार्य. १९९४.
प्राध्यापक जगदीशचंद्र जैनना आ अभिनंदनग्रंथमां प्राकृत अने जैन साहित्य विषयक ४६ संशोधनलेखोनो समावेश थयो छे.
१८. The Absent Traveller : Prakrit Love Poetry from the Gathasaptashati of Satavahana Hala. Selected and Translated by A.R. Mehrotra. 1991
हालनी 'सत्तसई' (के 'गाथासप्तशती')माथी पसंद करेल अनुरागविषयक २०७ गाथाओनो मूळ प्राकृत पाठ साथे अंग्रेजी काव्यानुवाद, मर्था एनसेल्बीना परिचयात्मक अनुवचन अने टिप्पण साथे.
सामयिकोमा प्रकाशित लेख वगेरे. (१) ओस्ट्रियानी विएना युनिवर्सिटीना भारतीय विद्याने लगता संस्थाननी निश्रामां संस्कृत अध्ययनोना आंतरराष्ट्रीय मंडळ द्वारा आयोजित सातमी संस्कृत विश्वपरिषद (ओगस्ट २७ - सप्टेम्बर २, १९९०)मां प्रस्तुत थयेला निबंधोनो जे सार प्रकाशित थयो छे तेमां थोडाक जैन तथा प्राकृत साहित्यने लगता निबंधो पण छे : Riddles in Jaina Literature (जैन साहित्यमा समस्या-प्रहेलिका) (N. Balbir); नयवाद (P. Balserawiz); Morphogical and Syntactic Change in Late Middle Indo-Aryan (अपभ्रंशमां थयेल रूपतत्त्व अने वाक्यतत्त्वने लगतुं परिवर्तन) (V.Bubenik); Dravya, Guna and Paryaya in Jaina Thought (जैन दर्शनमां द्रव्य, गुण, पर्याय)
(२) फ्रांसना संस्कृत अध्ययनोने लगता मंडळ तरफथी प्रकाशित संशोधन सामयिक Bulletin d"Etudes Indiennesना नवमा ग्रंथमा (१९९१) 'विविधतीर्थकल्प' गत जैन आचार्योनां चरित्रो विशे Christine Chojnackiनो लेख (फ्रेन्च भाषामां), Stanley Inslerनो लेख Prakrit Studies-1 (अंग्रेजीमा), Thomas Oberliesनो प्राकृत यणवट्टने लगतो लेख (जर्मनमा), प्रकाशित थयेल छे. ए अंकमां प्रकाशित पुस्तकावलोकनोमां (१) L.S. Schwarzschildना भारतीय - आर्यने लगता १९५३थी १९७९मा प्रकाशित संशोधनलेखोना संग्रह(१९९१)कोलेत कय्यानु, (२) ह. भायाणीना Studies in Desya Prakrit (१९८८)नुं नलिनी बलबीरनु, (३) सातमी संस्कृत विश्वपरिषद मां प्रस्तुत मध्यम भारतीय-आर्य अने जैन अध्ययनोने लगता निबंधोना कोलेत कैय्यासंपादित संग्रह (१९९०)
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नुं एडिथ नोलटे करेलु अवलोकन. ए निबंधोमां व. Sakamoto Grotoए त्व, प्प, संबं. भू.क त्वा अने त्वान(म्)नो मध्यम भारतीय-आर्यमां विकास, L.A. van Dalen um 'गउडवहो' वगेरेमांनो अह (सं. अथ) शब्द नो प्रयोग, K. Bruhn एणे जैन साहित्यना अध्ययनोना तर्कसंगत वर्गीकरणनी पद्धति, पद्मनाभ जैनीए श्रीभूषणकृत ‘पांडवपुराण'ना मूळस्रोत, वगेरे विषयोनी चर्चा करी छे. (४) बोलेनी 'पिंडनियुक्ति' अने 'ओघनिर्यक्ति'नी पाद-सूचिओनुं नलिनी बलबीरे करेलु, A Metteना जैन साहित्य संदोह (संस्कृत अने प्राकृत कृतिओमांथी पसंद करेल खंडोनो जर्मन अनुवाद - शीर्षक : Durch Entsagung zum Heil - १९९१)नुं कोलेत कैय्याए करेलु. (५) जयंक कोठारी संपादित-संवर्धित 'जैन गुर्जर कविओ' (मो.द.देसाई) (१९८६-१९९१)नुं नलिनी बलबीरे करेलुं - ए अवलोकना आपवामां आव्यां छे.
(३) ए ज सामयिकना दशमा ग्रंथमां (१९९२) कोलेट कैय्याए पालिमा हन् धातना चार जुदांजुदां अंगो सकर्मक वर्तमानमां वपरायां छे तेनी, तथा ‘महानिसीह' मां मळता विध्यर्थरूपा लब्भे, जनेनी चर्चा करी छ. फिलिस ग्रेनोफे मरणोत्तर पवित्र पुरुषो अने पूर्वजोनी स्मृतिमां देवालय, तीर्थ, दान वगेरेनी जैन परंपराना साहित्य अने उत्कीर्ण लेखोने आधारे विचारणा करी छे. हर्मान टीकने हालकृत ‘सत्तसई मां प्रयुक्त एवा सोळ शब्दोनी चर्चा कग रे. जेने परंपगमां देश्य गण्या छे, पण जे संस्कृत मूळना होवानुं जणाय छे. ए ग्रंथमां (5) Indological Studies (ह. भायाणी, १९९३), नलिनी बलबीरे करेलुं. (२) Paul Dundasना The Jainy कोलेत कैय्याए करेलु, (३) Jain Studies in Honour of Jozef Deleuनी (१९९३)नु कोलेत कय्याए करेलु, (४) Ernest Bender संपादित 'शालिभद्र-धन्न-चरित' (१९९२)नु नलिनी बलबीरे करेलु -- ए अवलोकनो प्रकाशित थयां र..
(४) वोशिंग्टन युनिवर्सिटी (सिएटल)मां जुलाई ७थी ९ (१९९४) ए दिवसामां नव्य भारतीय - आर्य भाषामां रचायेला पूर्वकालीन साहित्य विशे छठ्ठी आंतरराष्ट्रीय परिपट मळी गई. तेमा प्रस्तुत थयेला निबंधोनो ते वेळा जे संक्षिप्त सार प्रकाशित थयो छे तेमां Richard Cohenना निबंधमां श्रीधरकृत ‘पासणाहचरिउ' (इ.स. ११३३मां रचित बार संधिअपभ्रंश चरितकाव्य)मां प्रयुक्त रूपक, श्लेष अने अनुप्रास अलंकारोनी चर्चा करवामां आवा डे. ह. भायाणीए मुनिविनयचंद्रकृत 'चूनडिया' काव्य (लगभग १३मी शताल'. भार उत्तरकालीन अपभ्रंश)ने आधारे चूंद डीविषयक मध्यकालीन संतसाहित्यमां अनं -"कसाहित्यम मळती रचनाओ विशे चर्चा करी छे.
.भा.
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________________ कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति ___ शिक्षण-संस्कार निधिनां प्रकाशनो त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरितमहाकाव्य-ग्रंथ 1 संपा. मुनि चरण विजयजी 1987 (पुनर्मुद्रण) ___ ग्रंथ 2 संपा. मुनि पुण्यविजयजी Studies in Desya Prakrit H. C. Bhayani 1988 हेमसमीक्षा (पुनर्मुद्रण) मधुसूदन मोदी 1989 हेम स्वाध्यायपोथी (डायरी) सं. मुनि शीलचन्द्रविजय 1989 हेमचन्द्राचार्यकृत अपभ्रंश व्याकरण (सिद्ध हेमगत) (द्वितीय संस्करण) संपा. हरिवल्लभ भायाणी 1993 विजयपालकृत द्रौपदीस्वयंवर आद्य संपा. जिनविजयजी मुनि 1993 (पुनर्मुद्रण) संपा. शान्तिप्रसाद पंडया कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य स्मरणिका 1993 अनुसंधान-१ (अनियतकालिक) 1993 " 2-3 1994 अपभ्रंश व्याकरण (हिन्दी अनुवाद) प्रा. बिन्दु भट्ट 1994 आवश्यक-चूर्णि संपा. मुनि पुण्यविजयजी मुद्रणाधीन सहायक रूपेन्द्रकुमार पगारिया प्रबंधचतुष्टय संपा, रमणीक शाह 1994 नेमिनंदन ग्रंथमालानां हमगांनां प्रकाशन अलंकारनेमि मुनि शीलचन्द्रविजय 1989 हेमचन्द्राचार्यकृत महादेवबत्रीशी--स्तोत्र संपा. मुनि शीलचन्द्रविजय 1989 श्रीजीवसमास-प्रकरण टीकाकार मलधारी हेमचन्द्रसूरि संपा. मुनि शीलचन्द्रविजय 1994 " (गुजराती अनुवाद) चं. ना. शिनोरवाला 1994 प्राप्तिस्थान : सरस्वती पुस्तक भंडार, हाथीखाना, रतनपोल, अहमदाबाद-३८० 0 0 1