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________________ त्रण संस्कृत फगुकाव्यो पं. शीलचन्द्रविजय गणि मध्यकालीन गुजराती काव्यसाहित्यमा अनेक काव्यप्रकारो खेडाया छे; एमां फागु के फग्गु-प्रकारनां काव्योतुं अनोखं स्थान रह्यु छे. “वसंतविलास फाग' जेवी रचनाओ तो विश्वख्यात बनी छे. जैन कविओए पण घणां फागकाव्यो रच्यां छे. फागुकाव्यनो मुख्य विषय होय छे - फागणमासनी होळी अने वसंतऋतु. आ विषयोमां शृंगाररसनुं प्राधान्य अनिवार्य गणाय छे. जैन कविओ, आथी ज, पोतानी फागु-रचनाओमां, मुख्यत्वे, नेम - राजुल अने स्थूलभद्र-कोशा'ना प्रणयरंगी शृंगारठे चित्रण करतां जोवा मळे छे. जो के तेमनुं आ शृंगार - चित्रण छेवटे तो, काव्यनायकोना जीवननी जेम ज, वैराग्य-पर्यवसायी ज होय छे. पश्चादवर्ती कविओए काव्यना आ हृदयालादी प्रकारने विषय तथा भाषाना बन्धन थकी मुक्ति अपावी अने भक्तिरसभर्यां संस्कृत फागुकाव्यो पण रच्या. अलबत्त, आवी रचनाओ बहु मोटा प्रमाणमां नहि होय एवं स्वीकारीए तो पण, भंडारो फेंदीए तो गणनापात्र मात्रामां आवी रचनाओ मळी तो अवश्य आवे. ____ अहीं आपेली त्रण रचनाओमां प्रथम "नाभेयस्तवन"ना रचनार, अकबर-प्रतिबोधक अने अमारि प्रवर्तक जगद्गुरु जैनाचार्य श्रीहीरविजयसूरिजी छे, ते वात ते स्तवनना अन्तिमकलशकाव्यथी तथा लेखकनी पुष्पिकाथी स्पष्ट थाय छे. फागुकाव्यो ए रास के गरबानी जेम ज लोकप्रिय अने गेय प्रकारनां काव्यो होवाथी, ते संस्कृत होय तो पण, तेने वधु ने वधु सरल बनाववा माटे भाषा-प्रयोगोने पण कविओ निषिद्ध नहि गणता होय, तेवू आ कृतिनी पढम ढाळ (रासक)मा प्रयोजयेल 'तुं'ना प्रयोगथी कल्पी शकाय. रचना नानी छे, गेय छे, अने वळी प्रासादिक छे, ए परथी रचयितानी काव्यक्षमता तथा विद्वत्तानी प्रतीति थाय छे. आ काव्यस्तवन अद्यावधि अप्रगट छे. श्रीहीरविजयसरि-रचित कतिओ भाग्ये ज मळे छे. कदाच तेमणे झाझी रचनाओ करी पण नथी. आ संयोगोमा प्रस्तुत कृतिनुं आगवू मूल्य छे. बीजी कृति 'सीमन्धरजिनस्तवन' वाचक सकलचन्द्रगणिकृत सरस रागबद्ध गेय रचना छे. सत्तरभेदी पूजा' द्वारा जैन संघमां सुख्यात आ कवि श्रीहीरविजयसूरिना गुरु श्रीविजयदानसूरिना शिष्य हता, अने तेमनी केटलीक रचनाओ उपलब्ध थाय छे. प्रस्तुत कृतिना अंतभागे “हीरविजयादरं" एवो प्रयोग जोतां आ काव्य हीरविजयसूरिकृत होवानुं मानवा मन प्रेराय, पण २६मी कडीमां "सकलचन्द्रमुनिसुरतरुफलिनं" ए पद स्वयं एवं स्पष्ट छे के पछी कर्ता विशे शंकाने अवकाश रहेतो नथी. आ रचनामां १७मी कडीमा “ईलत" शब्द प्रयोजायो छे. आ शब्द घणा भागे फारसी छे, अने तेनो अर्थ, तेना प्रयोग-सन्दर्भो तपासतां “उपद्रव" एवो थाय छे. श्रीनयविजयकृत एक.गुजराती स्तवनमां “वरसीदान देई तुम जगमें ईलति ईति निवारी" एम प्रयोग छे, त्या ईति ते सात प्रकारनी, 'अतिवृष्टि' [5] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520503
Book TitleAnusandhan 1994 00 SrNo 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1994
Total Pages54
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size3 MB
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