Book Title: shaddarshan Samucchay Satik Sanuwad part 02
Author(s): Sanyamkirtivijay
Publisher: Sanmarg Prakashan

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Page 516
________________ षड्दर्शन समुश्चय, भाग - २, परिशिष्ट - ४, उघृतवाक्यानुक्रमणिका (म] बुद्धस्तु सुगतो धर्मधातुः [अभिधान० [य] |३३२) २।१४६] (४/४५) | य एव श्रेयस्वकरः | रूपादयस्तदर्थाः [ ] (१७-१८-१९/ बुद्धिश्चाचेतनापि [ ](४१/३१८) | [शाबर० भा० १/१/२] (७१/७३०) १५०) पृथिव्यापस्तेजो वायुरिति [](८४/७६१) | यथा तथायथार्थत्वे (प्र. वा० २/५८] (१०/१२२) लिखितं साक्षिणो भुक्तिः (याज्ञव० स्मृ० यथास्तिर्यगूज़ च भागे सिंहो नरो भागे [ ] (५७/६२८) |२१२२) (५५/५३५) [त० भा० १०/७] (५२/४८५) लूतास्य तन्तुगलिते [ ](३३/२५६) यथा सकलशास्त्रार्थः गतिः स्मृतिः संज्ञा [त० सू० ११३] | [प्र० वार्तिकाल० २१२२७] (४५-४६ [व] (५५/५४०) ३८२) वर्तत इदं न वर्तत [ ] (४८-४९/४६२) यथोक्तलक्षणोपपन्नः वर्तना परिणामः क्रिया मणिप्रदीपप्रभयोः (प्र० वा० २ १५७] (१०/१२१) [त० सू० ५।२२] (४८-४९/४४८) [न्याय सू० ११२।२(२९/२०७) यद्यथैवाविसंवादि (सन्मतितर्क मणुनं भोयणं भुचा [ ](४/४४) वरं वृन्दावने वासः [ ](५२/४९१) | टीका, पृ० ५९] (५५/५४७) वस्तु (स्त्व) संकरसिद्धिश्च [गी श्लोक मयाकश्यागाक [ ](७९/७५१) यद्यदेव यतो यावत् अभाव० श्लो० ५] (७६/७४४) मयूराण्डरसे यद्वत् [ ](५७/६२८) | [शास्त्रवा० श्लो० १७४] (१/२०) विविक्ते दृकपरिणणौ [ ] (४१/३१८) गहोक्षं वा गहाजं वा याज्ञ० स्मृ० १९९] यद्वानुवृत्तिव्यावृत्ति [गी० श्लो० अभाव० विरोधादेकमनेकस्वभाव (५८/६७१) श्लो० ३] (७६/७४४) (प्रश० कन्द० पृ० ३०] (५७/६१९) नियन्ते मिष्टतोयेन [ ] (३३/२५६) यदा ज्ञानं प्रमाणं तदा विशेषणविशेष्याभ्याम् मुक्तिस्तु शून्यतादृष्टेः (प्र० वा० १।२५६] [न्यायभा० १।१।३] (१७/१५८) प्र० वा० ४ १९१] (९/९९) (११/१३२) यस्गात्क्षायिकसम्यक्त्व [ ](५२/४८७) वीतरागं स्मरन् योगी [ ](१२/१३५) मुख्यसंव्यवहारेण यः पश्यत्यात्मानम् व्यक्तेरभेदस्तुल्यत्वम् [सन्गतितर्क टीका पृ० ५९] (५५/५४७)| | [प्र० व० १२१९-२२१] (५२/५०२) | (प्रश० किरण० पृ० ३३] (६५/६९९) मूलक्षि (क्ष) तिकरीमाहु [ ](५७/६००) यावदाता | यावदातागुणाः सर्वे व्यवच्छेदफलं वाक्यम् मूलप्रकृतिरविकृतिः [न्याय ग० प्रमे० पृ.० ७] (५२/४९३) |(प्र० वा० ४ १९२] (९/१००) [सांख्यका० ३] (४१/३१२) यावज्जीवेत्सुखं जीवेत् [ ](८१/७५४) श] मृतानामपि जन्तूनाम् [ ](५८/६७२) | युगपदयुगपत्क्षिप्रम् [ ](४८-४९/४६२) शब्दज्ञानादसनिकृष्टे [शाबर भा० ११५] (७४/७३६) मृद्वी शय्या प्रातरुत्थाय पेया [ ] (४/४४)| येन येन हि भावेन [ ](१२/१३५)/ शब्दवन्धसोक्षम्यस्थौल्यमृल्लेपसंगनिर्मोक्षात् [त० सू० ५.२४] (४८-४९/४५०) [त० भा० १० १७] (५२/४८५) रागोऽनासङ्गमतः [ 1(४५-४६/

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