Book Title: Yuktiprakasha Sutram
Author(s): Padmasagar Gani,
Publisher: Mahavir Granthmala
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युक्तिप्रकाशः
|ए अर्थ (थयोके) जे कार्य ते छे, शरीरवालाथी कार्यहोवाथी घडानी पेठे उत्पन्नथायतेवूछे शंका करेछे के जेम घडाआदिक all कार्यनो कर्ता कुंभार मलीआवेछ, तेम पर्वत आदिककार्यानो कयो शरीरवालो का छे? एम जो(कहे) तो सांभली पोतपोतानाको साथेकरेला पृथ्वीकाय आदिक जीयोछते तेना कर्ताओछे, अने तेओसंसान्दिोवाथी शरीरवालाज छे वली शंका करेछे के पृथ्वीमा जीवा छेतेनाटे अहीं शं प्रमाणछे। एम जो (कहींशतो) मानथीज तेनीआस्था तुंकरी संघली पण पृथ्वी वृक्षनीपेठे अनेमनुष्यनाशरीरनीपेठे छेदाती होवाथी जीवता शरीरवालीछे एवीरीते इश्वरतुं जगत्कर्तापणा, खंडनकयु ॥११॥
चेदेक एवास्ति हरस्तदासौ। न जीवभावं भजतेंऽतरिक्षवत् ॥
अथेश्वरश्चेत् खवशः कथं न । करोति लोकं सुखिनं समग्रम् ॥१२॥ मू. भा.-जो एकज इश्वर छे, तो ते आकाशनी पेटे जीवभावने भजे नहीं. वली ईश्वर जो पोताने वश छे |तो समस्त लोकने (ते) केम सुखी करतो नथी? ॥१२॥ | टी.-अथ हर एक एवास्तीति यद्योगा वदति तनिषेधायाह-चेद्यदिहर एक एवास्ति तदासौ शंभुजीवभाव न भजते न प्राप्नोति अंतरिक्षवद् गगनवत् यथा हि गगनं एक त्वाद जीवः तथायमपि, कथमितिचेच्छृणु, एकत्वं सजीवत्वंच तावन्न कचिदृष्टं, एकत्वं चात्र सजातीयाऽभावः, सच गगनादौ विद्यते, तस्माद्यथा जीवत्वे सति एकत्वं गगने विद्यते तथापि, तथाच प्रयोगः-ईश्वरोऽनात्मा एकत्वाद् गगनवत्, अथेश्वरस्य स्ववशत्वं निराकरोति

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