Book Title: Yuktiprakasha Sutram
Author(s): Padmasagar Gani,
Publisher: Mahavir Granthmala
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मूक्तिप्रकाश
व्यापकमेव ब्रूमः, अस्मत्सिद्धांतं वयमेव विद्रो न भवंत इति चेत्तहि ईश्वरज्ञान मज्ञानमेव स्यात् । तथा च प्रयोगः-ईश्वरज्ञान मज्ञानं व्यापकत्वात्, यदेवं तदेवं यथा गगनमितीवरस्य सर्वगत्वनिरास इति वृत्तार्थः ॥१२॥ | टी. भा.-हवे ईश्वरना सर्वव्यापकपणानुं खंडन करेछे. हरतुं (एटले) ईश्वरनुं जो तुं सर्वपणुं (एटले) सर्वव्यापकपणुं मानेछे, तो तेनो आत्मा (एटले) ईश्वरनो आत्मा अज्ञान अने ज्ञानथी विभक्त थयेलो मानवो पडशे. (तेनो) भावार्थ तो आप्रमाणेछे. ज्यारे ईश्वर व्यापक छे, त्यारे तेमां रहेलं ज्ञान व्यापकछे! के अव्यापकछे! जो व्यापकछे तो सिद्धांतने बाध आवेळे; जो अव्यापक, तो एकएवा ईश्वरना आत्माना देशमा ज्ञान छे, (अने) वीजा आत्मप्रदेशमा अज्ञान छे अने एवीरीते तो अज्ञान अने ज्ञानेकरीने वेंचायेलो एवो तेनो आत्मा ठरेछे. हवे ईश्वरना व्यापकपणाथी तेमा रहेलं ज्ञान पण व्यापकज (अमो) कहीयेलीये. अमारो सिद्धांत अमोज जाणीए, तमो न (जाणो) एम जो (कहीश) तो ईश्वरतुं ज्ञान अज्ञानज थाय; वली तेवो प्रयोग पण छे| ईश्वरनु ज्ञान व्यापक होवाथी अज्ञानरूपछे जे एम छे ते तेम छे.जेम आकाश; एवीरीते ईश्वरना अर्विव्यापकपणानुं | खंडन कर्यु. एवीरीते काव्यनो अर्थ छे. ॥१॥
चिच्छक्तिसंक्रान्तिवशेन बुद्धि-र्जडापि सांख्यस्य तवाऽज.
आभासते यन्न च युक्तमेतत् । चिच्छक्ति राप्नोति न संक्रमं यतः मू. भा. हे सांख्य तने जड एवी पण बुद्धि चेतनशक्तिनासंक्रमणना वशथी जे अजडज भासेछे ते युक्त नधी. कैमके चित्शक्ति संक्रमणने प्राप्तथती नथी. ॥१४॥

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