Book Title: Yuktiprakasha Sutram
Author(s): Padmasagar Gani,
Publisher: Mahavir Granthmala
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युक्ति
वालु द्रव्य ग्रहण करते छते ते ग्रहण करी शकायछे अने तेऊना सर्वथा प्रकारे भेदना अभावें करीने एकीहारे ग्रहण करवाथी नीलरूपवालुं द्रव्य ग्रहण करायुं छतुं आंखोना तेजने वधारनारु छे एवीरीते ते सिद्ध ययुं शंकाकरेछेके शब्द जो घडानी पेठे द्रव्य छे, तो तेमां जेमतेम तेनी अंदर केम रूपआदिक गुणो नधी प्राप्तथता? एवी आशंका करीने कहेछेके-वली एटले आकाशगुणने दूरकरवामाटे आ शद नथी उत्पन्नथयेल रूप आदिक गुणो जेमां एवो छे तेनीअंदर जोके रूपआदिक गुणो तो छेज, परंतु प्रगटथया नथी, माटे वायुमा जेम तेम देखाता नधी. शंका करेछे के भला वायुमां न उत्पन्नथयेलो एवोगुण कयो छे ? एम जो ( कहीशतो) सांभल ? रूप आदिकजगुणो (तेमांछे) | ( वली) शंका करछेके वायुमां रूप ज नथी; (तो पछी) तेमां तेनुं अनुभूतपणुं ( वली ) क्याथी (आव्यु?) | एम जो (कहीशतो ते) (युक्त) नथी. (केमके ) स्पर्श करीने वायुन रूप साधी शकायचे. वली तेवो प्रयोग
छे के स्पर्शवालो होवाथी वायु रूपवालोछे. जे तेमछे त एमछे. माटे वायुनीपेठे शब्द पण नही प्रगटएवां रूपवालोछे. एवीरीते काव्यनो अर्थ छे.॥२३॥ | नभःप्रदेशश्रेणिष्वा-दिव्योदयवशादिशां ॥ पूर्वादिको व्यवहारो । व्योम्नो भिन्ना न दिक्ततः ॥२४॥
- मू. भा. - आकाशनाप्रदेशोनी श्रेणिओमा सूर्योदयना वशथी दिशाओनो पूर्वआदिकवालो व्यवहार छे; माटे दिशा आकाशथी भिन्न नथी.॥२४॥

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