Book Title: Yogshastra Author(s): Dharnendrasagar Publisher: Buddhisagarsuri Jain Gyanmandir View full book textPage 8
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विद्वानों में यह मान्यता भी है कि कपिल के सांख्यशास्त्र से ही योगशास्त्र की उत्पत्ति हुई है। इस दृष्टि से योगदर्शन को, सांख्यदर्शन की क्रियात्मक अभिव्यक्ति माना जा सकता है । सांख्य वैचारिक अथबा ज्ञानात्मक भूमि पर अवस्थित है जबकि योग का प्रासाद क्रियात्मक भूमि पर खड़ा है । अपने-अपने क्षेत्र में ये दोनों ही ग्रन्थ अनुपमेय हैं । श्रीमद् भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने इन दोनों ग्रन्थों की महत्ता इन शब्दों में प्रतिपादित की है: लोकेऽस्मिन्विविद्या निष्ठा, पुरा प्रोक्ता मयाभव । ज्ञानयोगेन सांख्यानां, कर्मयोगेन योगिनाम् ।। पन्यास श्री धरणेन्द्रसागर के इस लोकोपयोगी ग्रन्थ में योगदर्शन के अद्यावधि निर्मित ग्रन्थों तथा योग के सम्बन्ध में स्वयं के अनुभूत ज्ञान का निचोड़ दिखाई देता है। योग और योगी की विशेषताओं के निरूपण के पश्चात् विद्वान्-लेखक ने नमस्कार-योग, रागादि, महत्, मनयोग, वचनयोग काययोग, दर्शनयोग, ज्ञानयोग एवम् चारित्रयोग की अत्यन्त सूक्ष्म-सटीक व्याख्या प्रस्तुत की है। वेदान्तियों ने योग के तीन अन्तविभाग किए हैं----उपासना-योग, कर्मयोग और ज्ञानयोग । चित्त का एक लक्ष्य-विशेष पर स्थिर होना उपासना या भक्तियोग कहलाता है। सकाम कर्म, चित्त को विषय वासनाओं की ओर प्रवृत्त करते हैं । अत: वैराग्य -प्राप्ति के लिए निष्काम कर्म की अपेक्षा वांछनीय है। कर्मो के फलों से निष्कामता-प्राप्ति को, कर्मयोग कहते हैं। वैसे तो इन तीनों प्रकार के योगों का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है, परन्तु साधनावस्था में योग की तीनों प्रक्रियाएं साधक की रुचि अथवा सामर्थ्य के अनुसार प्रधान या गौण हो जाती है। योगश्चित्तवृत्ति निरोधाः उक्ति द्वारा कामनाओं की प्रतिपल तरंगित होती रहने वाली लहरों पर नियंत्रण का परामर्श दिया गया है । इसके लिए अभ्यास की अपेक्षा होती है । अभ्यास के द्वारा कठिन से कठिन कार्य को भी सहज-सम्भाव्य बनाया जा सकता है ---- अभ्यासेन स्थिरं चित्तमभ्यासेनानिलच्युतिः । अभ्यासेन परानन्दोह्यभ्यासेनात्मदर्शनम् ।। (3) श्रीमद्भगवद्गीता-3, 3. For Private And Personal Use OnlyPage Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 ... 157