Book Title: Vivek Manjari Part 02
Author(s): Chandranbalashreeji, Pandit Hargovinddas
Publisher: Jain Vividh Sahitya Shastramala
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जं असुइदुसियं पि हु देहं बहु मन्नियं मए एयं । तं पहु अंतिमऊसासेहिं तिकट्टु वोसिरियं ॥९३॥ तह सव्वदव्वजोगो सरीरजोगो य कम्मसंजोगो । सव्व इमे संजोगा जावज्जीवाड़ वोसिरिया ॥ ९४ ॥ पच्चक्खाइ चउव्विहमाहारं जो पुणो निरागारं । अणुमो सुकाई आलोयइ पावकम्माई ॥ ९५ ॥ अंते जो संथारपव्वज्जं वा पवज्जइ धीरो । सो परोए सुहिओ हवइ नरो लहइ पुण बोहिं ॥९६॥
नाणदंसणचारित्तरयणत्तयभूसिओ । असिओ य दोसेहिं जीवो होइ न दुक्खिओ ॥९७॥ चउसरणं पडिवन्नो जीवो संसारकज्जनिव्विन्नो । भावेइ भावणाओ अणिच्चआईओ सव्वाओ ॥९८॥ विवो सज्जणसंगो विसयसुहाई विलासललियाई । नलिनीदलग्गघोलिरजललवपरिचंचलं सव्वं ॥९९॥
तं कत्थ बलं तं कत्थ जुव्वणं अंगचंगिमा कत्थ ? | सव्वमणिच्चं पिच्छह नट्टं दिट्ठे कयंतेण ॥ १००॥ घणकम्मपासबद्धो भवनयरचउप्पहेसु विविहाओ । पावइ विडंबणाओ जीवो को इत्थं सरणं से ? ॥१०१॥
जीवो वाहिविलुतो सफरो इव निज्जले तडप्फड | सो विमणो पिच्छ को सक्को वेयणाविगमे ? ॥ १०२ ॥
मा जासु जीव ! तुमं पुत्तकलताई मज्झ सुहहेऊ । निउणं बंधणमेय संसारे संसरंताणं ॥ १०३ ॥
विसमिव मुहे महुरा परिणामनिकामदारुणा विसया । कालमणतं भुत्ता अज्ज वि मुत्तुं न किं जुत्ता ? ॥१०४॥
विसयरसासवमत्तो जुत्ताजुत्तं न याणई जीवो । झूरइ कलुणं पच्छा पत्तो नरयं महाघोरं ॥ १०५॥
तह लालियं पितह पालियं पि अंते मुहं विकूणेइ । फरिसंतेपि कुटुंबं विडंबणा का न संसारे ? ॥१०६॥
[ विवेकमञ्जरी

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