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मुहैया करा देता है। मंदिर में जिधर भी नजर डालें, उधर खम्भे-ही-खम्भे दिखाई देते हैं। आदमी भौंचक्का रह जाता है एक साथ इतने खम्भों को देख, किन्तु उसकी यह विस्मय विमुग्धता उसे अहोभाव से सरोबार कर देती है।
यहां इतने स्तंभ हैं कि किसी सम्राट के राजमहल में उतने माटी के दीये भी नहीं जलते रहे होंगे। शिल्प की उम्दा ऋचाओं को प्रकट करते यहां १४४४ स्तंभ हैं ।हर स्तंभ कला का जीता जागता नमूना है, विशेषता यह है कि हर स्तंभ पर कला का नया रूप है, हर स्तंभ अपने आपमें शिल्प का स्वतंत्र आयाम है । संसार में अन्य ऐसी कोई भी इमारत नहीं है, जिसमें इतने संगमरमर के अमल-धवल उत्तुंग स्तंभ हों।
जब हम प्रांगण में खड़े-खड़े अपनी दृष्टि को छत की ओर ले जाते हैं तो ऊपर शिल्प का वह समृद्ध और जीवंत रूप दिखाई देता है, जिसकी तुलना में अन्य उदाहरण ढूंढ़ पाना बहुत मुश्किल है। इस छत पर बनी हुई है एक कल्पवल्ली-कल्पतरु की एक लता। यह मंदिर की कला का एक खूबसूरत नजारा है । स्थापत्य-कला के इतिहास में इसे महत्त्वपूर्ण स्थान जाता है । इस स्थान को मेघनाद मंडप कहा जाता
मंदिर का आंतरिक दृश्य : कला का उत्तुंग वैभव
चार कदम आगे बढ़ते ही दर्शक स्वयं को छज्जेनुमा गुम्बज के नीचे पाता है। गुम्बजों में लटकते झूमर ऐसे लगते हैं मानो कानों में रल जड़े कुंडल लटकते हों। यहीं दोनों ओर दो ऐसे स्तम्भ हैं, जिनमें मन्दिर निर्मापक एवं शिल्पकार की छोटी मूर्तियां हैं । बायें स्तंभ में मंत्री धरणाशाह की प्रतिकृति है एवं दाहिनी ओर शिल्पी देपा की प्रतिकृति है।
यहां गर्भ-गृह के बाहर निर्मित तोरण, शिल्प का उत्कृष्ट उदाहरण कहा जा सकता है। मंदिर के प्रांगण में खड़ा व्यक्ति स्वयं को शिल्प समृद्ध भक्ति में उस समय तद्प कर लेता है जब उसकी आंखें मूल गर्भ-गृह में विराजित भगवान आदिनाथ की भव्य प्रतिमा का दर्शन करती है। यह प्रतिमा ६२ इंच की है एवं ऐसी कुल चार मुर्तियां चार दिशाओं में स्थापित हैं। संभवतः इसी कारण इस मंदिर का उपनाम चतुर्मुख जिनप्रासाद भी प्रसिद्ध हुआ है। गर्भगृह की आंतरिक संरचना स्वस्तिकाकार कक्ष के रूप में की गई है। मूल मंदिर के बाहर तीर्थ-रक्षक अधिष्ठायक देव की एक मूर्ति है, जो चमत्कारिक मानी जाती है। गर्भ-गृह के बाहर दो विशाल घंटे हैं, जिनमें नर और मादा का भेद है । घटनाद से यह भेद ज्ञात होता है । घंटे से ऐसी आवाज आती है मानो ओम् की ध्वनि अनुगंजित हो रही हो।
मूल मन्दिर की बाँयी ओर एक विशाल वृक्ष है जिसे रायण वृक्ष कहा जाता है । वृक्ष के नीचे तीर्थंकर आदिनाथ के चरण भी हैं। वास्तव में यह दृश्य जैनों के प्रसिद्ध तीर्थ शत्रंजय की स्मृति दिलाता है । वृक्ष के पास ही सहस्रकूट नामक स्तम्भ है, जो अपूर्ण है। कहा जाता है इसकी पूर्णता के लिए अनेकशः प्रयास किये गये, पर पूर्ण न हो पाया। यह विशाल पट्ट/स्तम्भ जैसे ही एक निश्चित स्थान के ऊपर की ओर बढ़ता था, तत्काल टूट जाता था । सहस्रकूट के सम्मुख
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राणकपुर के स्तंभों में से कुछ