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भगवान ऋषभदेव वर्तमान काल चक्र के तीसरे समय-कल्प में हुए किन्तु इस पालीताना / शत्रुंजय तीर्थ का अस्तित्व उनसे पहले भी माना जाता रहा है। स्वयं भगवान ऋषभदेव के पुत्र चक्रवर्ती भरत द्वारा इस महातीर्थ के जीर्णोद्धार का उल्लेख शास्त्रों में प्राप्त होता है। समय- समय पर और भी कई दफा उस तीर्थ पर नव निर्माण और जीर्णोद्धार का कार्य हुआ, जिनमें महाराजा सगर, भगवान श्री राम तथा पांडवों द्वारा करवाया गया जीर्णोद्धार विशेष उल्लेखनीय है। तीर्थ के बारे में सोलह उद्धार प्रसिद्ध है। तीर्थ पर आज जो मंदिर उपस्थित हैं, उनका निर्माण समय-समय पर अनेक श्रेष्ठि सामन्तों ने करवाया। पालीताना तीर्थ पर साल में चार बार विशेष मेले भी आयोजित होते हैं। कार्तिक पूर्णिमा, फाल्गुन शुक्ल त्रयोदशी, चैत्री पूर्णिमा और वैशाख शुक्ल तृतीया के दिन आयोजित होने वाले इन मेलों के अतिरिक्त वैशाख कृष्णा ६ के दिन भी मेला आयोजित होता है। वस्तुतः इस दिन मंत्री कर्माशाह द्वारा मुख्य ट्रंक में प्रतिष्ठित करवाये गये भगवान आदिनाथ की प्रतिष्ठा का दिवस है। फाल्गुन शुक्ला त्रयोदशी को तीर्थ की छ: कोस की प्रदक्षिणा लगाई जाती है, जिसमें एक लाख से भी अधिक लोग शामिल होते हैं।
शत्रुंजय तीर्थ की जितनी महिमा है ऐसी ही शत्रुंजय नदी की भी महिमा बखानी जाती है। शत्रुंजय तीर्थ की पर्वतमालाओं के एक ओर प्रवाहमान यह नदी उतनी ही पावन मानी जाती है, जितनी वैदिक-धर्म में माँ भगीरथी गंगा। शत्रुंजय नदी में स्नान करके तीर्थ की यात्रा करना विशेष फलदायी माना जाता है।
शत्रुजय पहाड़ी पर स्थित यह मंदिरों का नगर पालीताना शहर के दक्षिण में है । यहां के मंदिर पर्वत की दो जुड़वा चोटियों पर निर्मित हैं, जो समुद्र की सतह से ६०० मीटर ऊँची है। ३२० मीटर लंबी इस प्रत्येक चोटी पर ये मंदिर पंक्तिबद्ध रूप से निर्मित हैं। यह पंक्ति दूर से दिखने में अंग्रेजी के 'एस' अक्षर के आकार की दिखाई देती
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है विभिन्न आकार-प्रकार के इन बहुसंख्यक मंदिरों में विराजमान जिन प्रतिमाएं वीतराग-संदेश को प्रसारित कर रही हैं। शत्रुंजय पहाड़ी के ये मंदिर कला की दृष्टि से भले ही देलवाड़ा या राणकपुर के समकक्ष न जा सकें, पर यहां के असंख्य मंदिरों का समग्र प्रभाव, वातावरण में व्याप्त नीरवता कुछ ऐसी विशेषताएं हैं जो दर्शकों के लिए आकर्षक बन जाती हैं।
पालीताना तीर्थ पर्वतमालाओं के बीच सुशोभित है। इस तीर्थ की यात्रा के लिए हमें करीब बत्तीस सौ सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं। रास्ता अत्यन्त साफ-सुथरा है। प्रकृति की सुषमा देखते ही बनती है। तलहटी पर ही एक भव्य मंदिर निर्मित है, जिसका निर्माण सं. १९५० में श्रेष्ठि धनपतसिंह लक्ष्मीपतसिंह द्वारा करवाया गया। इस मंदिर में बावन देवरियां होने के कारण इसे बावन जिनालय भी कहा जाता है।
मार्ग में छोटी-मोटी अन्य भी कई देवरियां आती हैं, जिनमें चक्रवर्ती भरत, भगवान नेमिनाथ के गणधर वरदत्त, भगवान आदिनाथ, पार्श्वनाथ की चरण पादुकाएं एवं वारिखिल्ल, नारद, राम, भरत, शुक परिव्राजक थावच्चा पुत्र, सेलकसूरि जालि, मयालि तथा अन्य
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