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गर्भगह में अधिष्ठित आदिनाथ की पावन प्रतिमा
चलाया है कि वे संगमरमर में भी वह कारीगरी दिखा गये हैं कि कोई हाथी-दांत में क्या दिखा पाये ! मंदिर की प्राय: सभी मूर्तियाँ कठोर संगमरमर में उत्कीर्ण की गई हैं, जिससे स्वत: आभास हो जाता है कि इन मूर्तियों के निर्माण में मूर्तिकारों को कितना श्रम करना पड़ा होगा।
मंदिर के उत्कीर्णन को गहराई से देखने पर आभास होता है कि उस काल के मूर्तिकारों की मुख्य अभिरुचि आलंकारिक अभिकल्पनाओं के उत्कीर्णन में ही रही, मानव आकृति के अंकन की अपेक्षा मूर्तिकारों ने देव प्रतिमाओं के अंकन में विशेष सिद्ध-हस्तता प्राप्त कर ली थी। इन देव प्रतिमाओं, जिनमें नायकों, विद्याधरों, अप्सराओं, विद्यादेवियों तथा जैन-धर्म के अन्य देवी-देवताओं का अंकन सम्मिलित है, का निर्माण मंदिर के गुम्बजों, स्तम्भों, तोरणों में हुआ है।
जैन-मंदिर में जैन-संस्कृति का दर्शन होना तो स्वाभाविक है, किन्तु मंदिर के निर्माताओं, सूत्रधारों और शिल्पियों ने सम्पूर्ण हिन्दू संस्कृति तथा भारतीय संस्कृति को भी यहां शिल्पांकित किया है। अपने प्रेमी की बाट जोहती विरहणी के दृश्य तक को भी यहां स्थान दिया गया है। यहाँ कुल छह मंदिर हैं, जिनमें पांच श्वेताम्बर एवं एक दिगम्बर आम्नाय का है।
महावीर स्वामी का मंदिर- जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थकर भगवान महावीर सहित नौ जिन बिम्ब यहां प्रतिष्ठित हैं। यहां निर्मित मंदिरों में यह सबसे छोटा और बहुत ही सादा मंदिर है । इसका निर्माण १५८२ सन् में हुआ। मंदिर के बाह्य भाग की छतों पर आयरिश की चित्रकारी क्षतिग्रस्त-सी हो गयी है।
विमलवसही मंदिर-देलवाड़ा परिसर का यह भव्यतम मंदिर है। इसका निर्माण महामंत्री विमल शाह ने करवाया था। विमलशाह गुजरात के चाणक्य महाराज भीमदेव के मंत्री एवं सेनापति थे। बड़नगर (गुजरात) के महान् शिल्पकार कीर्तिधर के निर्देशन में यह भव्यतम मंदिर निर्मित हुआ। करीब १५०० शिल्पी तथा १२०० श्रमिकों ने मिलकर १४ वर्षों में इस मंदिर को मूर्तरूप दिया। मंदिर-निर्माण में उस समय १८.५३ करोड़ स्वर्ण मुद्राओं की लागत आयी । सन् १०३१ में आचार्य श्रीवर्धमानसरि की सन्निधि में मंदिर का प्रतिष्ठा-महोत्सव सम्पन्न हुआ। विमलशाह के वंशज पृथ्वीपाल ने सं.१२०४ से १२०६ तक इस मंदिर की कई देवरियों का जीर्णोद्धार करवाया तथा अपने पूर्वजों की कीर्ति को चिरस्थायी रखने के लिए इस मंदिर के सामने ही हस्तिशाला बनवायी, जिसके द्वार के मुख्य भाग में अश्वारूढ़ विमलशाह की मूर्ति है।
सन् १३११ में अलाऊद्दीन खिलजी ने इस मंदिर को क्षतिग्रस्त कर दिया, जिसका जीर्णोद्धार मंडोर (जोधपुर) के बीजड़ और लालक भाइयों ने करवाया। मंदिर के मुख्य द्वार में प्रवेश करते ही मंदिर की संगमरमरी भव्य कलात्मक छतों, गुम्बजों, तोरण-द्वारों को देखते ही मन प्रफुल्लित हो जाता है । अलंकृत नक्काशी, शिल्पकला की भव्यता
और सुकोमलता की झलक यहां हर ओर दिखायी देती है। इस मंदिर में कुल ५७ देवरियां हैं, जिनमें विभिन्न तीर्थंकरों की प्रतिमाएं परिकरों
मंदिर का मनोरम दृश्य
देवी के प्रणामभक्तिमय अहोनृत्य : मोहकमुद्रा--