________________ करते थे / ये तपस्वीगण एकाकी न रहकर समूह के साथ रहते थे / कोडिन्नदिन और सेवालि नाम के कितने ही तापस तो पाँचसौ-पाँचसौ तापसों के साथे रहते थे। ये गले सड़े हुए कन्द-मूल, पत्र और शेवाल का भक्षण करते थे / उत्तराध्ययन टीका में वर्णन है कि ये तापसगण अष्टापद की यात्रा करने जाते थे। वन-वासी साधु तापस कहलाते थे। ये जंगलों में आश्रम बनाकर रहते थे / यज्ञ-याग करते, पंचाग्नि द्वारा अपने शरीर को कष्ट देते थे / इनका बहुत सारा समय कन्द-मूल और वन के फलों को एकत्रित करने में व्यतीत होता था / व्यवहारभाष्य में यह भी वर्णन है कि ये तापस-गण ओखली और खलिहान के सन्निकट पड़े हुए धानों को बीनते और उन्हें स्वयं पकाकर खाते / कितनी बार एक चम्मच में आये, उतना ही आहार करते या धान्य-राशि पर वे वस्त्र फेंकते और जो अन्न कण उस वस्त्र पर लग जाते, उन्हीं से वे अपने उदर का पोषण करते थे। प्रव्रजित श्रमण . परिव्राजक श्रमण ब्राह्मण-धर्म के लब्धप्रतिष्ठित पण्डित थे / वशिष्ठ धर्म-सूत्र के अनुसार वे सिर मुण्डन कराते थे। एक वस्त्र या चर्मखण्ड धारण करते थे / गायों द्वारों उखाड़ी हुई घास से अपने शरीर को ढंकते थे और जमीन पर सोते थे। ये आचार-शास्त्र और दर्शन-शास्त्र पर विचार, चर्चा करने के लिए भारत के विविध अंचलों में परिभ्रमण करते थे। वे षडंगों के ज्ञाता होते थे / उन परिव्राजको में कितने ही परिव्राजकों का परिचय इस प्रकार है 38. संखा-सांख्य मत के अनुयायी / 39. जोई-योगी, जो अनुष्ठान पर बल देते थे। 40. कपिल-निरीश्वरवादी सांख्य, जो ईश्वर को सृष्टिकर्ता नहीं मानते थे / 41. भिउच्च-भृगु ऋषि के अनुयायी। 42. हंस-जो पर्वत की गुफाओं में, रास्तों में, आश्रमों में, देवकुलों और आरामों में रह कर केवल भिक्षा के लिए गाँव में प्रवेश करते थे / षड्दर्शनसमुच्चय और रिलीजन्स ऑव दी हिन्दूज में भी इनका उल्लेख आया है। 43. परमहंस-जो सरिता के तट पर या सरिता के संगम-प्रदेशों में रहते और जीवन की सांध्य वेला में चीर, कोपीन, कुश आदि का परित्याग कर प्राणों का विसर्जन करते थे / 44. बहुउदय-जो गाँव में एक रात्रि और नगर मे पाँच रात रहते हों। 1. उत्तराध्ययन टीका, 10. पृ. 154. अ. 2. निशीथचूर्णि-१३/४४०२ की चूणि 3. (क) व्यवहारभाष्य-१०/२३-२५ (ख) मूलाचार-५-५४. 4. (क) वशिष्ठ धर्मसूत्र-१०-६।११. (ख) डिक्सनरी ओव पाली प्रौपर नेम्स, जिल्द 2, पृ. 159. मलालसेकर (ग) महाभारत-१२।१९०।३. 5. षड्दर्शनसमुच्चय पृ. 86. रिलीजन्स व दी हिन्दूज, जिल्द-१, पृ. 231. -लेखक एच. एच. विल्सन