________________ 40 का वध करते हैं, अन्य जीवों को मारने के पाप से बच जाते हैं। टीकाकार के अभिमतानुसार हस्तीतापस बौद्ध भिक्षु थे।' ललितविस्तर में हस्तीव्रत तापसों का उल्लेख है। महावग्ग में भी दुर्भिक्ष के समय हाथी आदि के मांस खाने का उल्लेख मिलता है। 27. उड्ढडंक-दण्ड को ऊपर उठाकर चलनेवाले / आचारांग चूर्णि' में उड्ढडंक, बोड़िय, और सरक्ख आदि साधुओं के साथ उसकी परिगणना की है। ये साधु केवल शरीर मात्र परिग्रही थे। पाणिपुट में ही भोजन किया करते थे। 28. दिसापोक्खी-जल से दिशाओं का सिंचन कर पुष्प-फल आदि बटोरनेवाले / भगवती सूत्र में हस्तिनापुर के शिवराजर्षि का उपाख्यान है। उन्होंने दिशा-प्रोक्षक तपस्वियों के निकट दीक्षा ग्रहण की थी / वाराणसी का सोमिल ब्राह्मण तपस्वी भी चार दिशाओं का अर्चक था। आवश्यकचूर्णि के अनुसार राजा प्रसन्नचन्द्र अपनी महारानी के साथ दिशा-प्रोक्षकों के धर्म में दीक्षित हुआ था। वसुदेवहिंडी और दीघनिकाय में भी दिसापोक्खी तापसों का वर्णन है। 29. वक्खवासी-वल्कल के वस्त्र पहननेवाले / 30. अम्बुवासी-जल में रहनेवाले / 31. बिलवासी-बिलों में रहनेवाले / 32. जलवासी-जल में निमग्न होकर बैठने वाले। 33. बेलवासी-समुद्र के किनारे रहनेवाले / 34. रुक्खमूलिया-वृक्षों के नीचे रहनेवाले / 35. अम्बुभक्खी -जल भक्षण करनेवाले / 36. वाउभक्खी -वायु पीकर रहनेवाले / रामायण में मण्डकरनी नामक तापस का उल्लेख है, जो केवल वायु पर जीवित रहता था। महाभारत में भी वायुभक्षी तापसों के उल्लेख मिलते हैं। 37. सेवालभक्खी -केवल शवाल को खाकर जीवन-यापन करनेवाले / ललितविस्तर में भी __इस सम्बन्ध में वर्णन मिलता है। इनके अतिरिक्त भी अनेक प्रकार के तापस थे, जो मूल, कंद, छाल, पत्र, पुष्प और बीज का सेवन करते थे। और कितने ही सड़े गले हुए मूल, कन्द, छाल, पत्र आदि द्वारा अपना जीवन-यापन करते थे / दीघनिकाय आदि में भी इस प्रकार के वर्णन हैं। इनमें से अनेक तापस पुनः-पुनः स्नान किया करते थे, जिससे इनका शरीर पीला पड़ जाता था। ये गंगा के किनारे रहते थे और वानप्रस्थाश्रम का पालन - 1. सूत्रकृतांग टीका, 206. 2. ललितविस्तर, पृ. 248 3. महावग्ग-६।१०।२२. पृ. 235 4. आचारांग चूर्णि-५, पृ. 169. 5. भगवती सूत्र-११।९. 6. निरयावलिका-३, पृ. 37-40. 7. आवश्यकचूणि, पृ. 457. 8. वसुदेवहिंडी, पृ. 179. दीघनिकाय, सिगालोववादसुत्त. 10. रामायण-३-११/१२. 11. महाभारत, 1/96/42. 12. ललितविस्तर, पृ. 248. 13. दीघनिकाय, 1, अम्बडसुत्त, पृ. 88.