Book Title: Uvavai Suttam
Author(s): Munichandrasuri
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay
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________________ 212 श्री औपपातिकसूत्रम् सर्वदा सकलौत्सुक्यनिवृत्तेः, यतश्चैवमतः 'शाश्वतं' 'सर्वकालभावि 'अव्याबाधं' व्याबाधावजितं सुखं प्राप्ताः सुखिनस्तिष्ठन्तीति योगः, सुखं प्राप्ता इत्युक्ते सुखिन इत्यनर्थकमिति चेत्, नैवं दुःखाभावमात्रमुक्तिसुखनिरासेन वास्तव्यसुख-प्रतिपादनार्थत्वादस्य, तथाहि-अशेषदोषक्षयतः शाश्वतमव्याबाधसुखं प्राप्ताः सुखिनः सन्तः तिष्ठन्ति, न तु दु:खाभावमात्रान्विता एवेति // 19 // साम्प्रतं वस्तुतः सिद्धपर्यायशब्दान् प्रतिपादयन्नाह-'सिद्धत्ति य' गाहा, सिद्धा इति च तेषां नाम कृतकृत्यत्वाद्, एवं बुद्धा इति च केवलज्ञानेन विश्वावबोधात् पारगता इति च भवार्णवपारगमनात्, परंपरगयत्ति-पुण्यबीजसम्यक्त्वज्ञानचरणक्रमप्राप्त्युपाययुक्तत्वात् परम्परया गता परम्परगता उच्यन्ते, उन्मुक्तकर्मकवचाः सकलकर्मवियुक्तत्वात्, तथा अजरा वयसोऽभावाद् अमरा आयुषोऽभावात् असङ्गाश्च सकलक्लेशाभावादिति // 20 // निच्छिन्न गाहा ‘अतुल'गाहा व्यक्तार्थे एवेति / / 21 // 22 // 195 // इति श्रीऔपपातिकवृत्तिः समाप्तेति // .. चन्द्रकुलविपुलभूतलयुगप्रवरवर्धमानकल्पतरोः / कुसुमोपमस्य सूरेः गुणसौरभभरित भवनस्य // 1 // निस्सम्बन्धविहारस्य सर्वदा श्रीजिनेश्वराह्वस्य / . शिष्येणाभयदेवाख्यसूरिणेयं कृता वृत्तिः // 2 // A अणहिलपाटकनगरे श्रीमद्रोणाख्यसूरिमुख्येन / पण्डितगुणेन गुणवत्प्रियेण संशोधिता चेयम् // 3 // ग्रन्थाग्रम् // 3125 // इति श्रीमदभयदेवसूरिसूत्रितश्रीमद्रोणाचार्यशोधितवृत्तियुतमौपपातिकमाद्यमुपाङ्गं समाप्तम् // 1. ०वृत्ता : -JB || 2. सुखाभावामात्र० J // 3. ०मप्रतिपत्त्यु० खं. बाबु संस्करणे च / / 4. ०तलमुनिपुंगववर्ध० खं. // 5. ०भुवन० खं. // 6. AAचिह्नद्वयमध्यवर्तिपाठः खं. नास्ति //

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