Book Title: Uvavai Suttam
Author(s): Munichandrasuri
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay
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________________ 205 सूत्र -194-195 ] सिद्धशिलावर्णनम् 195 - इसीपब्भाराते णं पुढवीते सिताए जोयणम्मि लोगंतो। तस्स जोयणस्स जे से उवरिल्ले गाउए तस्स णं गाउतस्स जे से उवरिल्ले छब्भाए तत्थ णं सिद्धा भगवंतो सादीया अपज्जवसिया अणेगजाति-जरा-मरण-जोणि-वेदणं संसारकलंकलीभाव-पुणब्भव-गब्भवास-वसहीपवंचमतिक्ता सासयमणागतद्धं चिट्ठति। कहिं पडिहता सिद्धा ? कहिं सिद्धा पतिट्टिता ? / कहिं बोंदि चइत्ता णं, कत्थ गंतूण सिज्झइ ? // 1 // अलोगे पडिहता सिद्धा, लोयग्गे य पतिट्ठिता / इहं बोंदि चइत्ता णं, तत्थ गंतूण सिज्झति // 2 // जं संठाणं तु इहं, भवं चयंतस्स चरिमसमयम्मि / / आसी य पएसघणं, तं संठाण तहिं तस्स // 3 // [195] 'जोयणंमि लोगंतो'त्ति इह योजनमुत्सेधाङ्गुलयोजनमवसेयं, तदीयस्यैव हि क्रोशषड्भागस्य सत्रिभागत्रयस्त्रिंशदधिकधनुःशतत्रयीप्रमाणत्वादिति, 'अणेगजाइजरामरणजोणिवेयणं' अनेकजातिजरामरणप्रधानयोनिषु वेदना यत्र स तथा तं 'संसारकलंकलीभावपुणब्भव-गब्भवासवसहीपवंचमइक्कंता' संसारे कलङ्क (ग्रन्था० 3000) लीभावेनअसमञ्जसत्वेन ये पुनर्भवाः-पौन:पुन्येनोत्पादा गर्भवासवसतयश्च-गर्भाश्रयनिवासास्तासां यः प्रपञ्चो-विस्तरः स तथा अतः तमतिक्रान्ता-निस्तीर्णाः, पाठान्तरमिदम् 'अणेगजाइजरामरणजोणि-संसारकलंकलीभाव-पुणब्भव-गब्भवासवसहिपवंचसमइक्त 'त्ति अनेका जातिजरामरणप्रधाना योनयो यत्र स तथा स चासौ संसारश्चेति समासः, तत्र कलङ्कलीभावेन यः पुनर्भवेन -पुन:पुनरुत्पत्त्या गर्भवासवसतीनां प्रपञ्चस्तं समतिक्रान्ता ये ते तथा / 'अथ प्रश्नोत्तरद्वारेण सिद्धानामेव वक्तव्यतामाह-'कहिं' इत्यादिश्लोकद्वयं, क्व प्रतिहता:क्व प्रस्खलिताः सिद्धा:-मुक्ताः?, तथाः क्व सिद्धाः प्रतिष्ठिता-व्यवस्थिता इत्यर्थः?, तथा क्व बोन्दि शरीरं त्यक्त्वा ? तथा व गत्वा सिज्झइत्ति-प्राकृतत्वात् “से हु चाइत्ति वुच्चई" 1. गाथा.२-७, आवश्यकनि. मध्ये गा. 959,970-3, मध्ये दृश्यन्ते / तुला-प्रवचनसारोद्धारे द्वार 54 तः // 2. द्रष्टव्यं- पन्नवणा सू. 267 / / 3. खं. / लोगंते - मु. // 4. ०न पुनरु 0 J //

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