________________ 28 समय-समय पर इसी नगरी के अवलोकनार्थ आये / चीनी यात्री फाहियान ने चम्पा का वर्णन करते हुए लिखा है, चम्पा नगर पाटलीपुत्र से अठारह योजन की दूरी पर स्थित था / उसके अनुसार चम्पा गंगा नदी के दक्षिण तट पर बसा हुआ था। चीनी यात्रियों के समय चम्पा नगरी का ह्रास प्रारम्भ हो गया था। उसने वहाँ पर स्थित विहारों का उल्लेख किया है। ट्वान्च्वांग भारतीय सांस्कृतिक केन्द्रों का निरीक्षण करता हुआ चम्पा पहुँचा था / वह इरण. पर्वत से तीन सौ ली [पचास मील] की दूरी समाप्त कर चम्पा पहुँचा था। उसके अभिमतानुसार चम्पा देश की परिधि चार सौ "ली" [सत्तर मील] थी और नगर की परिधि चालीस सी [सात मील] वह भी चम्पा को गंगा के दक्षिण तट पर अवस्थित मानता है। इसके आगमन के समय यह नगरी बहत कुछ विनष्ट हो चकी थी। स्थानांग में जिन दश महानगरियों का उल्लेख है, उनमें चम्पा भी एक है। यह राजधानी थी। बारहवें तीर्थंकर वासुपूज्य की यह जन्मभूमि थी / आचार्य शय्यंभव ने दशवैकालिक सूत्र की रचना इस नगरी में की थी। 'विविध तीर्थ कल्प' के अनुसार सम्राट् श्रेणिक के निधन के पश्चात् सम्राट् कूणिक को राजगृह में रहना अच्छा न लगा / एक स्थान पर चम्पा के सुन्दर उद्यान को देखकर चम्पानगर बासया।' ____ श्रीकल्याणविजय गणि के अभिमतानुसार चम्पा पटना से पूर्व [कुछ दक्षिण में] लगभग सौ कोश पर थी, जिसे आज चम्पकमाला कहते हैं / यह स्थान भागलपुर से तीन मील दूर पश्चिम में है। ___ चम्पा उस युग में व्यापार का प्रमुख केन्द्र था, जहाँ पर माल लेने के लिए दूर-दूर से व्यापारी आते थे। चम्पा के व्यापारी भी माल लेकर के मिथिला, अहिच्छत्रा और पिहुण्ड चिकाकोट और कलिंगपट्टम का एक प्रदेश आदि में व्यापारार्थ जाते थे। चम्पा और मिथिला में साठ योजन का अन्तर था। ___मज्झिमनिकाय के अनुसार पूर्ण कस्सप, मक्खलिगोसाल, अजितकेसकम्बलिन, पकुधकच्चायन, सञ्जय बेलट्ठिपुत्त तथा निग्गन्थनाथपुत्त का वहाँ पर विचरण होता था। जैन इतिहास के अनुसार भगवान् महावीर अनेक बार चम्पा नगरीमें पधारे थे और उन्होंने 567 ई. पूर्व में तीसरा, 558 ई. पूर्व में बाहरवा और सन् ई. पूर्व 544 में छब्बीसवाँ वर्षावास चम्पानगरी में किया था। भगवान् महावीर चम्पा के उत्तरपूर्व में स्थित पूर्णभद्र नामक चैत्य में विराजते थे। प्रस्तुत आगम में चम्पा का विस्तृत वर्णन है / वह वर्णन परवर्ती साहित्यकारों के लिए मूल आधार रहा है। प्राचीन वस्तुकला की दृष्टि से इस वर्णन का अनूठा महत्त्व है। प्राचीन युग में नगरों का निर्माण किस प्रकार होता था, यह इस वर्णन से स्पष्ट है। नगर की शोभा केवल गगनचुम्बी प्रासादों से ही नहीं होती, किन्तु सघन वृक्षों से होती है और वे वृक्ष लहलहाते हैं पानी की सरसब्जता से / इसलिए नगर के साथ ही पूर्णचन्द्र चैत्य का उल्लेख हुआ है / वनखण्ड में विविध प्रकार के वृक्ष थे, लताएं थी और नाना प्रकार के पक्षियों का मधुर कलरव था। 1. लेग्गे, फाहियान-१००. 2. विविध तीर्थ कल्प,-पृ. 65. 3. श्रमण भगवान् महावीर, पृ. 369. 4. (क) ज्ञातृधर्मकथा, 8, पृ. 97, 9, पृ. 121-15, पृ. 159 (ख) उत्तराध्ययन-२१।२. 5. मज्झिमनिकाय, 2 / 2. 6. भगवान् महावीर एक अनुशीलन-परिशिष्ट-१-२ देवेन्द्रमुनि