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हैं। अपूर्व वीतरागता के होते हुए भी व्यापार संबंधित कुछ प्रवर्तन कर सकते हैं, और अन्य भी खाने-पीने आदि के प्रवर्तन बड़ी कठिनाई से कर पाते हैं। चित्त का भी अधिक संग नहीं है, आत्मा आत्मभाव से रहती है। समय-समय पर अनंतगुणविशिष्ट आत्मभाव वर्धित होता हो ऐसी दशा रहती है, जो प्राय: आभासित होने नहीं दी जाती।' - पत्रांक-313 __ 'हमें जो निर्विकल्प नामक समाधि है, वह तो आत्मा की स्वरूपपरिणति प्रवर्तित होने के कारण है। आत्मा के स्वरूप के संबंध में तो हमें प्राय: निर्विकल्पता ही रहनी संभवित है, क्योंकि अन्यभाव के विषय में प्रधानतया हमारी प्रवृत्ति ही नहीं है। श्री तीर्थंकरदेव का अंतर आशय प्राय: मुख्यतया अभी इस क्षेत्र में किसी में हो तो वे हम होंगे ऐसा हमें दृढ़ रूप से भासित होता है। क्योंकि हमारा जो अनुभवज्ञान है उसका फल वीतरागता है, और वीतराग-कथित जो श्रुतज्ञान है वह भी उसी परिणाम का हेतु दिखाई देता है, इसलिए हम उनके (तीर्थंकर देव के) अनुयायी वास्तव में हैं, सच्चे हैं।' - पत्रांक 322 ___'निर्विकल्प समाधि का ध्यान क्षणभर के लिए भी हटता नहीं है।' - पत्रांक 329
'अनेकानेक ज्ञानीपुरुष हो गए हैं, उनमें हमारे जैसा उपाधि प्रसंग और चित्त स्थिति उदासीन-अतिउदासीन, वैसे प्राय: तुलना में अल्प हुए हैं... हमारा निश्चल अनुभव है कि देह होते हुए भी मनुष्य पूर्ण
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